फेसबुक लाइव में किसान / गीता पंडित
" नमस्ते आप सभी को।
क्या मेरी आवाज़ आ रही है?
अच्छा। आ रही है।
मैं ठीक दिख रहा हूँ।
जी.
तो शुरू करता हूँ।
हमारे आसपास हर पल मित्रों, कुछ अजीब-सा घटता जा रहा है। बहुत तेज़ी से बदलाव हो रहा है। मैं बेचैनी महसूस कर रहा हूँ अपने भीतर। यह बात नहीं कि मैं बदलाव से घबरा रहा हूँ।
बदलाव तो प्रकृति का नियम है। ऋतुएँ आती हैं, जाती हैं। मौसम आते हैं, जाते हैं और जीवन की नीरसता में जाने कितने रसों का संचार कर जाते हैं मगर हर बदलाव पर स्वीकृति की मुहर लगे यह ज़रूरी नहीं। बदलाव की भी तो क़िस्में होती हैं और ये क़िस्में ही तय करती हैं उनकी प्रकृति।
अपनी जीवन शैली बदलते-बदलते हम यहाँ तक बदल गये कि अपने आसपास या स्वयं से बाहर क्या घटित हो रहा है, पता ही नहीं करते, इम्यून हो गये हैं जी पूरी तरह अपनों से, रिश्तों से, पड़ोस से, समाज से यहाँ तक कि राष्ट्र से और उस प्रकृति से भी जो हमारी देह की जन्मदाता है।
"पृथ्वी, जल, पावक, गगन, समीरा" इन पॉच तत्वों से बनी यह देह हर पल इन्हीं के संसर्ग को तलाशती रहती है। तडपड़ाती है। घुटती श्वास लिये बिलखती है। कुसमुसाती है मगर हमें क्या जी
हम तो आधुनिक हो गये हैं भई. जल आरो का पीते हैं या बंद बोतलों का। नदियों के विषय में सोचने की हमें ज़रूरत ही क्या है इसलिये नदियों के जल को हमने दूषित कर दिया। उनमें नालों को जोड़ दिया। फ़ैक्ट्रियों और सीवेज लाइन्स को उन्हीं में जगह दे दी। कोई अशुद्ध जल पिये तो पिये हमारी बला से। हमारे पास है ना डबल फ़िल्टर्ड वाटर।
हमें ऐशो आराम चाहिये। एक ही घर में कई गाड़ियाँ-हर व्यक्ति की अलग-स्टेट्स सिम्बल है जी। ज़रूरतें इतनी बढ़ा ली हैं कि एक रूट पर एक साथ जाने में अपनी हेटी समझते हैं। हमें अपनी पोज़ीशन और मान-सम्मान का ध्यान रखना है। ओज़ोन लेयर में अगर छेद हो भी गये तो हमारा क्या जाता है। हमारे पास ए.सी. हैं। प्योरीफायर है ना साफ़ शुद्ध हवा में श्वास लेने के लिये। तो पॉल्यूशन बढ़े तो बढ़े, हमें क्या।
वृक्ष कट जाएँ। जंगल ज़मीन न रहें तो क्या। रहने के लिये बड़ी जगह चाहिये। फ़र्नीचर चाहिए. अन्न, ऑक्सीजन। पक्षी दर-बदर होकर मर जाएँ। बारिश कम हो तो भी क्या अंतर पड़ेगा। टेक्नीक है ना हर ऐशो आराम के लिये... करेंगे हम मनमानी। कौन है रोकने वाला।
बस, यहीं पर हम मात खा गए. 'मैं' और 'मैं' की भाषा का जाप करने वाले हमें कितनी ही बार मूकी खानी पड़ी मगर हमारे पास भूलने का बेजोड़ नुस्ख़ा है और तो और प्लेग फैली तो भी हम नहीं चेते। निरंतर वही करते रहे जो करते आ रहे थे बल्कि उससे भी कहीं अधिक बढ़ चढ़कर।
अब कोरोना ने पूरे विश्व को स्तब्ध कर दिया। लॉक डाउन में घर में बंद होकर रहना पड़ा। बाहर निकलने तक को तरस गये। क्या अब भी चेतेंगे, समझेंगे और वह करेंगे जो ज़रूरी है।
मास्क लगाने की हम ज़रूरत नहीं समझते। सोशल डिस्टेंसिंग को धता बताकर ख़ूब घूमते फिरते और पार्टी करते हैं। सरकार ने शादी ब्याह की गेदरिंगस पर पाबंदी लगाते हुए संख्या तय कर दी मगर हम कहाँ मानने वाले हैं। पचास के सौ और सौ के दो सौ जब तक नहीं बुलाएँ हमारा मन नहीं मानता। कोरोना फैले तो फैले हमें क्या। लोग मरें तो मरें।
फिर शिकायत कि सरकार कुछ नहीं कर रही। कोरोना कितना फैल गया।सरकार को करना चाहिये। यह ज़रूरी है और उसका नैतिक कर्तव्य भी है
मगर हम भी कुछ करेंगे कि नहीं। क्या हमारी ज़िम्मेदारी कुछ नहीं है। है कि नहीं। आप ही बताओ. कमेंट्स में लिख देना। मैं बाद में पढ़कर उत्तर देने का प्रयास भी करूँगा।
सच तो यह है कि हम अपने अधिकारों की बात बहुत अच्छी तरह जानते हैं। अब आप स्वयं ही देख लें। हमारे किसान भाई क्या कर रहे हैं।
दिल्ली में आने-जाने के सारे रास्ते रोक दिये। जाम लगाकर बैठे हैं। क्या चक्का जाम लगाने से समस्या सुलझेगी। लोगों को कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वे अपने अधिकारों की बात तो कर रहे हैं मगर कर्तव्य भी तो जानें।
दिल्ली देश की राजधानी है भैया। अब छोटी-छोटी बातों पर सारा काम काज तो नहीं रोका जा सकता ना।"
"अरे भई श्रीमती जी, आज सुबह-सुबह क्या सुनने बैठ गयीं। क्या आज उपवास है या भूख हड़ताल। पेट में चूहे कूद रहे हैं। आज बेटा बाहर है तो क्या नाश्ता भी नहीं बनेगा लिपि।"
ओह, मैं फेसबुक पर कल के लाइव कार्यक्रम को देखने में इतना खो गयी कि समय का पता ही नहीं चला। मैंने दीवार घड़ी की तरह नज़रें उठायीं तो सकपका गयी। आठ बजने वाले थे।
"वैभव, आज हेल्पर अभी तक नहीं आई. उसी की राह देख रही थी। मैं बना देती हूँ। थोड़ा-सा इंतज़ार और बस।"
"क्या? वह तो सात बजे तक आ जाती थी"
"पता नहीं क्या हो गया उसे आज? बिना कहे छुट्टी कभी नहीं करती फिर?"
"ऐसा करता हूँ मैं दोनों के लिये ब्रेड बटर और एक-एक ग्लास मिल्क साथ में हल्दीराम की भुजिया ले आता हूँ। आज सुबह-सुबह ज़ोर से भूख लग रही है। एप्पल तुम काट देना नाश्ता बनने में तो समय लगेगा। वैसे नाश्ता करने बाहर भी चल सकते थे 'हीरा' के यहाँ हेबिटेट सेंटर मॉल के पास लेकिन भूख ज़ोरों की लगी है। इतने तुम हेल्पर को फोन करके मालूम कर लो कि वह क्यों नहीं आई. आयेगी भी या नहीं। इसके बाद हम एक साथ नाश्ता करेंगे।"
"ठीक है।"
"हेलो मीना, कहाँ हो भई? कितनी देर हो गयी। ।"
"नमस्ते दीदी। मैं आ रही थी टेम से लेकिन जाम लगा है। ऑटो नहीं मिला तो लौट आई."
"" मतलब आ नहीं रही। जाम कैसा? "
"वो किसानों ने घेर लई सबरी सड़क। निकलने ना दे रए नासपीटे।"
मैं तो भूल ही गयी थी कि किसानों ने दिल्ली जाने के सारे रास्ते बंद कर रखे हैं। लाइव जो सुन रही थी उसमें भी तो किसानों के जाम पर कुछ अड़गम-सड़गम बोल रहे थे। मैं पूरा सुन नहीं पाई.
"मगर तुम तो खोड़ा से आती हो। क्या वहाँ भी जाम लगा है?"
"दीदी, ऑटो वाले को निकलने नई दे रए। अब बताओ कैसे आती?"
"शुरू शुरू में जब ऑटो नहीं चले थे लॉक डाउन में तब भी तो पैदल आती जाती थी कि नहीं।"
वह कुछ नहीं बोली।
"क्या फोन भी नहीं कर सकती थी?"
"फोन में पैसे ख़त्म हो गये तो कर नहीं पाए."
"ठीक है। आज तो जैसे-तैसे काम चला लेंगे मगर कल ज़रूर आ जाना। इस जाम का कोई ठौर ठिकाना नहीं है।"
"जी.। दीदी कल पैदल आ जाऊँगी। रखती हूँ।"
वैभव ने पूछा
"क्यों नहीं आई? क्या बताया?"
"अरे यार, रोज़ का पंगा है। कभी कुछ कभी कुछ..."
"फिर भी?"
"कह रही थी किसानों ने सड़क बंद कर रखी है। जाम है दूर तक तो लौट गयी। यह देश तो धरने और हड़तालों की जगह बन गया है। अब इन किसानों का तो कुछ नहीं बिगड़ रहा। जाम लगाकर बैठ गये। परेशानी तो हमें ही हो रही है।"
मैं थोड़ा दुखी और क्रोधित होकर बोली। वैभव ने क्षणभर मेरी आँखों में आँखें डालकर देखा और बोला-
" क्या सचमुच तुम ऐसा सोचती हो कि किसानों का कुछ नहीं बिगड़ रहा?
मैं बोल पाती उससे पहले ही वह स्वयं कहने लगे।
"वे किसान अपनी खेती बाड़ी, ढोर डंगर, घर बार, गाँव परिवार को छोड़कर सड़कों पर पड़े हैं वह भी दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी और कोरोना जैसे भयंकर समय में। क्या उन्हें ऐसा करना अच्छा लग रहा है? क्या बार-बार ऐसा करने की उन्हें आदत हो गयी है?"
"नहीं... मैंने ऐसा कब कहा?"
"फिर क्या कहा लिपि जी, ज़रा मैं भी तो सुनूँ?"
"मेरा कहने का यह अर्थ नहीं है जो तुम निकाल रहे हो और एक बात तो सही है कि कामकाज ठप्प हो जाते हैं इस तरह के चक्का जाम से।"
"तो तुम्हारा मतलब है कि कामकाज चलते रहें। किसी को कोई परेशानी न हो चाहे वे भूखों मरें। आत्महत्या करें। उनकी ज़िंदगी ठप्प पड़ जाए लेकिन वे अपने अधिकारों की बात न करें क्योंकि इससे तुम जैसे लोगों को परेशानी होती है। वे तो मज़े कर रहे हैं ना।"
"नहीं... मैंने ऐसा कभी नहीं कहा और न ही ऐसा सोचा।"
"तो क्या सोचा? क्या यह देश उनका नहीं? क्या वे इस देश के नागरिक नहीं जो उन्हें अपनी बात सुनाने के लिए इस तरह सड़कों पर उतरना पड़ता है।"
"क्यों नहीं? बल्कि उनका ज़्यादा है। उनके उगाए अन्न से हमारी भूख शांत होती है। उन्हें उनका हक़ मिलना चाहिये।"
"कैसे मिलेगा? जहाँ से मिलना है वहाँ तो चुप्पी है। कान बहरे हैं। उनके पास जब कोई भी उपाय नहीं बचता तो उन्हें दिल्ली को अपनी बात सुनाने के लिये बार-बार आना पड़ता है। फिर भी उनकी समस्याओं का निबटारा नहीं किया जाता। क्या तुम उनकी समस्याओं को जानती हो?"
"हाँ, इतना ही जितना पढ़ा और सुना है। मैं शहर में पली बढ़ी हूँ इसलिये गाँव कभी देखे नहीं। बस कल्पना ही कर सकती हूँ।"
"लिपि मैं गाँव में पैदा हुआ हूँ एक किसान परिवार में। ज़मीन के नाम पर एक छोटा-सा टुकड़ा था जिसमें घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था। उस पर मुझे पढ़ाने की लालसा मेरे माँ बाबू जी से गाँव के ज़मींदार के खेतों में हाड़ तोड़कर काम करवाती थी। वे आधे पेट खाना खाकर दिन रात बस इसी जुगत में रहते कि मैं किसी तरह अफ़सर बन जाऊँ मगर देखो तो आज जब मैं मल्टी नेशनल कंपनी के एक सम्मानित पद पर कार्यरत हूँ तो वे दोनों मेरे साथ नहीं हैं।"
"फिर तो तुम किसानों के विषय में ख़ूब जानते होगे।"
"हाँ दसवीं क्लास तक मैं वहीं पढ़ा। मुझे अच्छी तरह याद है। मेरे एक दोस्त के परिवार में तीन लोग थे माँ बाप और वह। एक दिन सुबह को तीनों मृत पाये गये। उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। वे बहुत गरीब थे। अपने इकलौते बेटे को पढ़ाना चाहते थे मगर रोटी तक के लाले पड़े हुए थे। उसके पिता बीमार भी बहुत रहते थे तो बहुत काम नहीं कर पाते थे। दवा दारू कहाँ से आती क़र्ज़ बहुत चढ़ गया था। उनके पास भी छोटा-सा टुकड़ा ज़मीन का था। फसल मारी गयी थी। घर भी गिरवीं रखा हुआ था तो अपने जीवन का ही निबटारा कर दिया।"
वैभव ने धीरे से अपनी आँखें पोंछीं और चुप हो गया। उसकी आवाज़ में भी कंपन आ गया था लेकिन वह रुका नहीं। उसने फिर कहना शुरू किया।
"यह केवल एक घटना है। न जाने ऐसी ही त्रासदीपूर्ण कितनी और घटनाएँ घटी हैं और घटती जा रही हैं जिन पर मीडिया भी चुप्पी लगाकर बैठ जाता है। एक बात बताओ लिपि।"
"पूछो।"
"यह देश किसानों का है तुम मानती हो ना?"
"क्यों नहीं। भारत तो कृषि प्रधान देश है। सब जानते हैं।"
"कृषि कौन करता है?"
"किसान"
"फिर उसकी परेशानी, दुख दर्द क्यों नहीं सुने जाते। हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। है ना?"
"हाँ"
"तो लोकतंत्र की परिभाषा भी जानती होगी।"
"क्यों नहीं? ' जनता का जनता के द्वारा जनता के लिये ठीक बोली।"
"बिल्कुल ठीक। जब जनता का राज जनता के लिये है तो जनता की ही बात क्यों नहीं सुनी जाती। हमारी आधी से ज़्यादा आबादी गाँवों में बसती है। वहीं से अनाज, दाल सब्ज़ी आती है।"
"हाँ इसलिए ही तो हमारे किसान अन्नदाता कहलाते हैं।"
"कहलाने और मानने में बहुत अंतर होता है श्रीमती जी. अगर बापू के कथनी और करनी की समानता को समझा जाता तो सचमुच में ये अन्नदाता ही समझे जाते। मगर दुर्भाग्य ये किसान अन्नदाता हमारी ज़ुबान तक सीमित हो कर रह गए. इनकी परेशानियों को या इनके जीवन को ज़मीनी तौर से जानने और परखने वाला कोई नहीं मिला। काश कोई मसीहा पैदा हो जो इनकी आँख के आँसू पोछे।"
मेरा मन भी पसीज गया था और आँख में भी नमी-सी गहरा गयी थी। इसलिए मैंने मुस्कराते हुए कहा
"अच्छा, चलो, अब तो नाश्ता कर लें भई. बड़ी ज़ोरों की भूख लगी है।"
"चलो लेकिन याद रखना नाश्ते की यह ब्रेड भी किसानों के पसीने का परिणाम है।"