फैजाबाद जेल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
अस्तु, हमें एक दिन सुबह तड़के तैयार होने को कहा गया। हमने सोचा बनारस कैंट स्टेशन पर गाड़ी में चढ़ना होगा। मगर प्रदर्शन से बचने केख्यालसे सरकार ने एक स्पेशल ट्रेन शिवपुर स्टेशन पर तैयार रखी थी। हम लारियों में भर-भर के वहीं पहुँचाए गए। गाजीपुर से आने के समय इस समय भी रेलगाड़ी की खिड़कियों पर जाली लगा दी गई थी! शायद हमारे भाग जाने का डर था! विदेशी सरकार की अक्ल पर हमें तरस आई। हम तो खुशी-खुशी जेल आए थे। जरा-सी जबान हिलाने से बाहर जा सकते थे। फिर भागते क्यों? मगर कायदे की पाबंदी तो होनी ही चाहिए और वे कायदे उस जमाने में बने थे जब राजबंदी नामधारी कोई चीज थी नहीं। तभी से बदले ही न गए। किसे गर्ज थी कि बदले? राजबंदी लोग कुछ अपमान समझेंगे तो सरकार के लिए उस समय यही क्या कम था? मगर बावजूद इस जाली के साथ चलनेवाली पुलिस को जो परेशानी रास्ते में हुई उसने इसे बेकार साबित कर दिया।
गाड़ी चली जा रही थी। जहाँ तक याद है, जब शाहगंज स्टेशन आया तो हमारे साथी, सभी बंदियों ने खाना माँगा। साथ के सार्जेंट और दूसरे पुलिसवालों ने कहा कि चना खा सकते हैं। लोगों ने इन्कार किया और पूड़ी चाही। पुलिसवालों ने पूड़ी देने से साफ नहीं की। इसी में बढ़ते-बढ़ते बात बढ़ गई। मैंने बीच में पड़ के किसी प्रकार उसे खत्म किया। याद नहीं, आखिर में पूड़ी ही खाने को मिली या क्या? लेकिन साथियों ने धमकाया कि अच्छा हम देखेंगे। इसके बाद मैं सो गया। मुझे तो खाना वाना कुछ था नहीं।
एकाएक रास्ते में स्टेशन आने के पहले ही शोरगुल मचा और मैं जगाया गया। बात यह थी कि एक ने गाड़ी रोकने की साँकल खींच दी और गाड़ी खड़ी हो गई क्रोध से लाल सार्जेंट और पुलिसवाले दौड़ कर वहाँ पहुँचे और पूछा किसने खींची? खींचनेवाले ने खम ठोंक कर कहा, हमने। सार्जेंट साहब आपे से बाहर हो कर बोले, “ले चलो इन्हें अपने डब्बे में। इन पर रिपोर्ट होगी।” इस पर औरों ने कहा, “किसे-किसे कहाँ ले चलोगे? हम तो 105 हैं सभी एकेबाद दीगरे खींचेगे और ट्रेन चलने ही न देंगे। फिर हमें ले जाओगे कहाँ?” अब तो बेचारा सा र्जेंट और उसके साथी बुरी तरह घबराए। आखिर मैं जगा तो समझा-बुझा कर शांत किया। फिर गाड़ी बढ़ी। मगर पुलिसवाले भी भीतर-ही-भीतर जलते और इस अपमान का बदला लेने की बात सोचते रहे। चाहे जो हो मगर साथियों ने तो पूड़ीवाले झगड़े का बदला भरपूर ही चुकाया।
जब गाड़ी फैजाबाद छावनी स्टेशन पर रुकी तो हमें उतरने का हुक्म हुआ। सभी उतर पड़े। सामान भी अपना-अपना साथ ही था। वह भी उतरा। अब पुलिस ने गाड़ी रोकने का बदला चुकाने के लिए कहा कि बिना दो-दो को एक साथ हथकड़ी लगाए चलने न देंगे। खूबी यह कि जेल ले चलने के लिए सवारी का प्रबंध भी न था। हम लोगों ने कहा, अच्छा हथकड़ी लगने लगी। शायद सबों को लग भी गई। लेकिन चलने के समय हमने सामान ले चलने से इन्कार कर दिया यह कह के हमारे एक-एक हाथ बँधे जो हैं। फिर तो पुलिसवाले पुनरपि बुरी तरह झिंपे और आखिर हथकड़ी खोलनी पड़ी। इस प्रकार हम लोग फैजाबाद जेल में, जो स्टेशन के पास ही है, दाखिल हो गए। रास्ते में गाना और नारे तो चलते ही थे। शहर के लोग भी देखने आ गए थे। हम लोग बैरकों में गए और डेरे डाले। मैंने सेल या तनहाईवाली बैरक पसंद की। हम 40-50 साथी, जो ज्यादा शांतिप्रिय थे, वहीं बराबर रहे। पीछे तो चारों ओर से दूसरे दर्जे के राजबंदी वहाँ ज्यादा आ गए थे। जेल खूब आबाद थी। गाजीपुर के कुछ हमारे साथी थे। वही मेरा खाना अलग पकाते थे। इसकी इजाजत मिली थी।
हम जो अलग तनहाई में रहते थे उसका खास कारण था। शोरगुल, झगड़े वगैरह बहुत होते थे। इस तरह लोग सारा समय, जो बड़ा कीमती था; यों ही बिताते थे। जेलवालों से भी बराबर झगड़े करते रहते थे। यह बातें मुझे असह्य थीं। इसलिए अलग रहना पसंद किया। जेल का सुपरिंटेंडंट दक्षिण भारत का रहनेवाला बड़ा ही भला आदमी था। मगर उसके भी नाकों दम थी।
एक बार ऐसा हुआ कि होली आ गई। हमारे दोस्तों ने कहा कि हम तो होली जलाएँगे। आखिर जेलवालों से झमेले खडे करने के बहाने तो चाहिए ही। बेचारा सुपरिन्टेंडेण्ट समझा कर थक गया। मगर माने कौन? धर्म के नाम पर दावा ठोंका गया कि हिंदुओं का त्योहार है! न जाने इनमें कितने लोग बाहर इस धर्म का पालन करते थे! उसने गाँधी जी की दुहाई दी। मगर कोई सुने भी तो। आखिर उसने हार कर लकड़ी मँगा दी और कहा कि सेण्टर में कहीं जला कर धर्म पूरा कीजिए। दोस्तों ने यहाँ तक किया कि उन लड़कियों की तो होली जलाई ही। इन्हीं के साथ पानी खींचने के लिए कुओं पर जो तख्ते वगैरह लगे थे उन्हें भी तोड़ताड़ कर जला दिया। लाख मना करने पर भी न माना। हमने तो अपने बैरक का दरवाजा बलात बंद कर उसे बचा लिया। मगर बाकी कुओं की लकड़ियाँ साफ हो गईं। यह तो निरा पागलपन था। भला पानी कैसे भरा जाएगा, यह भी सोचना था। दोस्त लोग इतने पागल थे कि सुनते न थे। फलत: 'अलार्म' कर के बाहर से हथियारबंद पुलिस बुलानी पड़ी। फिर तो होश फाख्ता! सभी मिट्टी के शेर बैरकों में जा घुसे। पूछने पर किसी का पता भी न लगा। कोई भी स्वीकार करने को तैयार न हुआ कि हमने कूएँ के तख्ते जलाए। यदि बाहर से पुलिस न आती तो जो पाते वही जलाने पर तुल गए थे। यह थी हमारी उस समय की भलमनसी। खैर, जैसे तैसे मामला ठंडा हुआ।
मुश्किल से हमारा एक मास गाजीपुर और बनारस मिला कर गुजरा होगा और शायद ही दो या तीन महीने हम फैजाबाद रह पाए। फिर तो हम भी लखनऊ भेज दिए गए। फैजाबाद जेल में हमारा एक दल था। वह नियमों की पूरी पाबंदी करता था। उससे जेलवाले कभी कोई शिकायत नहीं रखते थे ─ बराबर खुश रहते थे। हम सभी एक ही जगह रहते थे। मैं उन लोगों को गीता पढ़ाया करता था। दूसरी-दूसरी बातों पर भी प्राय: शाम को मैं उपदेश दिया करता था। दार्शनिक और हिंसा-अहिंसा की भी विवेचना हुआ करती थी। इस प्रकार हमारे दिन शांति से गुजरते थे।
उसी जेल में, जब एक दिन फैजाबाद के मारवाड़ी सज्जन लोगों से मिलने आए और हमसे भी मिले, तो हमने उनसे एक नन्हीं सी गीता भेज देने को कहा। उन्होंने फौरन खरीद कर भेज दिया। सचमुच वह नन्हीं सी है। उससे नन्हीं गीता मैंने नहीं देखी है। वही मेरे साथ तब से बराबर रही है। खास कर जेलों में तो जरूर रहती आई है। इस बार भी बगल में मौजूद है। यह पहली बार मिली ता. 26-3-22 को। इस पर जेल की तारीखें लिखी हैं। यह मेरी सबसे प्यारी चीज है। इसके पीछे इतिहास है।