फैसला / मैत्रेयी पुष्पा
आदरणीय मास्साब,
सादर प्रणाम !
शायद आपने सुन लिया हो। न सुना होगा तो सुन लेंगे। मेरा पत्र तो आज से तीन दिन बाद मिल पाएगा आपको।
चुनाव परिणाम घोषित हो गया।
न जाने कैसे घटित हो गया ऐसा ?
आज भी ठीक उस दिन की तरह चकित रह गई मैं, जैसे जब रह गई थी-अपनी जीत के दिन। कभी सोचा न था कि मैं प्रधान-पद के लिए चुनी जा सकती हूँ।
कैसे मिल गए इतने वोट ?
गाँव में पार्टीबंदी थी। विरोध था। फिर....?
बाद में कारण समझ में आ गया था, जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा। उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर झलक रहा था।
ब्लॉक प्रमुख की पत्नी होने के नाते घर-घर जाकर अपनी बहनों का धन्यवाद करना जब संभव नहीं हो सका तो मैं ‘पथनवारे’ में जा पहुँची।
आप जानते तो हैं कि हर गाँव में पथनवारा एक तरह से महिला बैठकी का सुरक्षित स्थान होता है। गोबर-मिट्टी से सने हाथों, कंड़ा थापते समय, औरतें अकसर आप बीती भी एक-दूसरे को सुना लेती हैं।
हमारे सुख-दुःखों की सर्वसाक्षी है यह जगह।
वैसे मेरा पथनवारे में जाना अब शोभनीय नहीं माना जाता।
रनवीर ने पहले ही कह दिया था कि गाँव की अन्य औरतों की तरह अब तुम सिर पर डलिया-तसला धरे नहीं सोहतीं। आखिर प्रधान की पत्नी हो।
वे प्रमुख बने तो बंदिशों में कुछ और कसावट आ गई। और जब मैं स्वयं प्रधान बन गई तो उनकी प्रतिष्ठा कई-कई गुना ऊँचे चढ़ गई।
वे उदार और आधुनिक व्यक्तित्व के स्वामी माने जाने लगे। अन्य गाँवों की निगाहों में हमारा गाँव अधिक ऊँचा हो गया। और मैं गाँव की औरतों से दूरी बनाए रखने की हिदायत तले दबने लगी।
पर मेरा मन नहीं मानता था, किसी न किसी बहाने पहुँच ही जाती उन लोगों के बीच।
रनवीर कहते थे, अभी तुम्हारी राजनीतिक उम्र कम है, वसुमती ! परिपक्वता आएगी तो स्वयं चल निकलोगी मान-सम्मान बचाकर।
ईसुरिया बकरियों का रेवड़ हाँकती हुई उधर से आ निकली थी। आप जानते होगे, मैंने जिक्र तो किया था उसका कि वह कितनी निश्चल, कितनी मुखर है। यह भी बताया था कि मैं और वह इस गाँव में एक दिन ही ब्याहकर आए थे।
आप हँस पड़े थे मास्साब, यह कहते हुए कि नेह भी लगाया तो गड़रिया की बहू से ! वाह बसुमती !
बड़ी चौचीती नजर है उसकी। जब तक मैंने घूँघट उलटकर गाँव के रूख-पेड़ो, घर-मकानों, गली-मोहल्लों को निहारा ही था, तब तक उसने हर द्वार-देहरी की पहचान कर ली। हर आदमी को नाप-जोख लिया। शरमाना-सकुचाना नहीं है न उसके स्वभाव में।
गाँव के ब़ड़े-बुजुर्गों के नाम इस तरह लेती है, जैसे वह उनकी पुरखिन हो। ऊँच-नीच, नाते-रिश्ते, जात-कुजात, के आडंबरो से एकदम मुक्त है।
वह खड़ी-खड़ी आवाज मारने लगी, ‘‘ओ बसुमतिया...! रन्ना की ! रनवीर की दुल्हन ! ओ पिरमुखनी !’’
सब हँस पड़ीं।
बोलीं, ‘‘वसुमती, लो आ गई सबकी अम्मा दादी! टेर रही है तुम्हें। हुंकारा दो प्रधान जी !’’
वह हाथ में पकड़ी पतली संटी फटकारती, बकरियों को पिछियाती हुई हमारे पास ही आ गई।
झमककर बोली, ‘‘पिरधान हो गई अब तौ! चलो, सुख हो गया।’’
किसी ने खास ध्यान नहीं दिया।
संटी उठाकर जोर से बोलने लगी, ‘‘ए, सब जनी सुनो, सुन लो कान खोलके ! बरोबरी का जमाना आ गया। अब ठठरी बँधे मरद माराकूटी करें, गारी- गरौज दें, मायके न भेजें, तो बैन सूधी चली जाना बसुमती के ढिंग।
‘‘लिखवा देना कागद।
‘‘करवा देना नठुओं के जेहल।
‘‘ओ बसुमतिया! तू रनवीरा की तरह अन्याय तो नहीं करेगी? कागद दाब तो नहीं लेगी?
‘‘सलिगा ने हमारे हाथ-पाँव तोरे, तो हमने लीलो के लड़का से तुरंत कागद लिखवाया था कि सिरकार दरबार हमारी गुहार सुनें।
‘‘रनवीर को हमने खुद पकड़ाया था जाकर।
‘‘उन दिनों सालिग हल-हल काँपने लगा था। हाथ तो क्या, उल्टी-सूधी जुबान तक नहीं बोल पाया कई दिनों तक। हमारे जानें रन्ना ने कागद दबा लिया, सालिग सेर बनकें चढ़ा आया छाती पर।
‘‘बोला, ‘जेहल करा रही थी हमारी ? हत्यारी, हमने भी सोच लई कि चाहे दो बकरियाँ बेचनी पड़ें, पर तेरे कागद की ऐसी-तैसी...’ ’’
संटी फेंककर ईसुरिया ने अपनी बाँहें फैला दीं। सलूका उघाड़ दिया, गहरी खरोचों और घावों को देखकर सखियों के होठ उदास हो गए। खिलते चेहरों पर पाला पड़ गया, मास्साब ! हँसी-दिल्लगी ठिठुरकर ठूँठ हो गई।
गोपी ने हँसने का उपक्रम किया।
मुसकराने का अभिनय करती हुई बोली, ‘‘क्या बक रही है तू ? कोई सुन लेगा तो कह न देगा पिरमुख जी से ?’’
वह तुरंत दयनीता से उभर आई।
‘‘सुन ले ! सुनने के लिए ही कह रहे हैं हम। रनवीर एक दिन चाखी पीसेगा, रोटी थोपेगा। और हमारी बसुमती, कागद लिखेगी, हुकुम चलाएगी, राज करेगी।
‘‘है न बसुमती ?
‘‘साँची कहना, तू ग्यारह किलास पढ़ी है न ? और रनवीर नौ फेल ? बताओ कौन होसियार हुआ ?
‘‘अब दिन गए कि जनी गूँगी-बहरी छिरिया-बकरिया की नाई हँकती रहे। बरोबरी का जमाना ठहरा। पिरधान बन गई न बसुमती ? इन्द्रा गाँधी का राज है।
बोलो इन्द्रा गाँधी की जै।’’
गोपी डपटने लगी, ‘‘सिर्रिन, इन्द्रा गाँधी तो कब की मर चुकीं। राजीव गाँधी का राज है। ’’
‘‘मर गईं ?
‘‘चलो, तो भी क्या हुआ ? मतारी-बेटा में कोई भेद होता है सो ? एक ही बात ठहरी।
‘‘क्यों जी, झल्लूस कब निकलेगा ?’’ उसे सहसा याद हो पड़ा।
‘‘रन्ना पिरधान बना था तब कैसी रौनक लगी थी। माला पहराई थीं। झंड़ा लेकर चले थे लोग। रन्ना ने तो कंधा-कंधा चढ़के परिकम्मा की थी गाँव की।’’ सरूपि ने उसे फिर समझाया, ‘‘ओ बौड़म, रन्ना-रन्ना करे जा रही है ? पिरमुख जी सबसे पहले तेरी जेहल कराएँगे।’’
उसने लापरवाही से सिर झटका, ‘‘लो, सुन लो सरूपिया का बातें! रन्ना क्या, तेरा ससुर गजराज भी नहीं कर सकता हमारी जेहल। तेरा जेठ पन्ना भी नहीं कर सकता। है न बसुमती।