फैसलों का दंगल : संसद बनाम सड़क / जयप्रकाश चौकसे

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फैसलों का दंगल : संसद बनाम सड़क
प्रकाशन तिथि :11 जनवरी 2018


आजकल संसद से अधिक फैसले सड़कों पर होने लगे हैं। सेन्सर द्वारा पारित फिल्म भी कुछ क्षेत्रों में प्रदर्शित नहीं की जा सकती। हर गांव, गली, मोहल्ले के दादा की बात ही मानी जाती है। डॉ. आम्बेडकर ने यह चिंता जाहिर की थी कि सड़क पर फैसले अंततोगत्वा अराजकता लाएंगे और 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' के जंगल कानून की वापसी होगी। इस महत्वपूर्ण मुद्‌दे का संबंध फिल्मों से जुड़ा है। आक्रोश की छवि वाले नायक अराजकता के ही हामी हैं। एक फूहड़ फिल्म में नायक कहता है कि जिस जगह वह खड़ा होता है वही जगह अदालत है और उसके द्वारा बोले गए शब्द ही कानून हैं। इसी नायक ने एक अन्य फिल्म में संवाद अदा किया कि जहां वह खड़ा होता है वहीं से कतार प्रारंभ होती है। गौरतलब है कि जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कुछ समय पश्चात ही फिल्मों में आक्रोश की छवि वाले नायक का उदय हुआ। यह एक राजनीतिक एवं सामाजिक आंदोलन के बाय-प्रोडक्ट की तरह सामने आया। इसी आंदोलन की कोख से जन्मे नेता भ्रष्टाचार के आरोप में सजा काट रहे हैं। यह छद्‌म आक्रोश की छवि साबित हुई। आक्रोश की छवि वाले नायक की सच्ची फिल्म तो गोविंद निहलानी की ओम पुरी अभिनीत 'अर्ध-सत्य' थी। इसी तरह अण्णा हजारे के आंदोलन से उपजे हुए नेता भी भ्रष्टाचार के दोषी पाए गए। अण्णा आंदोलन नई दिल्ली के रामलीला मैदान पर प्रायोजित नौटंकी की तरह प्रस्तुत हुआ। आज तक ज्ञात नहीं हो पाया है कि रामलीला मैदान पर आए हजारों तमाशबीन लोगों को भोजन कौन मुहैया करा रहा था। हमारे देश में आंदोलनों में पूंजी निवेश कौन करता है? यह संभव है कि बड़े औद्योगिक घराने ही यह कर रहे हों। इनका योजनाबद्ध ढंग से घटित होना भी एक और प्रमाण है कि यह पूंजीवाद द्वारा प्रस्तुत प्रहसन था। इस तरह के आंदोलन की धुंध यथास्थिति बनाए रखती है, जो औद्योगिक घरानों क लाभ देती है। चार नायलोन के रेशों के साथ एक सूती रेशा लगाने से बनी चदरिया न कबीर की है और न ही गांधी की है। यह उसी तरह है जैसे जिसे गांधी टोपी कहा गया वह गांधी ने कभी धारण ही नहीं की, वह तो जवाहरलाल नेहरू ही पहनते थे। इसी तरह छप्पन इंच की छाती पर भी नेहरू जैकेट ही धारण किया जाता है। नेहरू ग्रंथि से किस कदर ग्रसित है नेतृत्व। उन जैसी विचार शैली कभी न पा सकने की विफलता को ही उनकी तरह के कपड़े पहनकर छिपाया जा रहा है। आजकल छुपते-छुपते ही बयां होते हैं मेहरबां। व्यक्ति पूजा अवतार अवधारणा का ही हिस्सा है। हम आलसी अवाम की सैदव प्रार्थना यही रहती है कि कोई वीर व्यक्ति हमारे अधिकारों के लिए लड़े और लड़ता हुआ वह हमारे बदले मर जाए तो हम उस शहीद का जन्मदिन हर वर्ष मनाएंगे और उसकी शहादत के पवित्र दिन हाथ में मोमबत्ती लिए इंडिया गेट अवश्य जाएंगे। जैसे ही हम अपने बदले अपने नायक की मृत्यु की कामना करते हैं वैसी ही आप जीवन जीते भी नहीं। आपको प्रॉक्सी चाहिए, आप सरोगेट संतान ही चाहते हैं, क्योंकि गर्भ की पीड़ा आपकी पत्नी नहीं सह सकती, वह केवल मातृत्व की गरिमा चाहती है।

छद्‌म आक्रोश की फिल्में अनाम तानाशाह को भेजे गए आमंत्रण की तरह होती हैं। कानून व्यवस्था का सम्मान नहीं किया जाता। हालात इतने बुरे हैं कि कोई तानाशाह सफेद घोड़े पर सवार होकर आए और हमें मारपीट कर कतार में खड़ा होना सिखाए, कतार का सम्मान करना सिखाए। यह भी गौरतलब है कि इस तरह के आकल्पन में घोड़े का रंग हमेशा सफेद ही क्यों होता है। क्या काला या भूरा होने से वह घोड़ा नहीं रहता वरन गधा माना जाता है। गौर वर्ण के प्रति हमारा मोह हमारे अंतस में पैठी गुलामी का प्रतीक हो सकता है।

हम अराजकता को आमंत्रित करने का जो ठीकरा औद्योगिक घरानों के सिर फोड़ना चाहते हैं, वह दरअसल इकोनॉमिक हिटमैन का काम हो सकता है। अमेरिका में एक प्रशिक्षण केंद्र है, जिसमें शिक्षा को अपनी इच्छा से त्याग देने वाले लोग या ड्रापआउट करने वाले लोगों को चुना जाता है। उन्हें प्रशिक्षण के समय खूब धन मिलता है। उन्हें सिखाया जाता है कि प्रगति कर रहे देशों में जाएं। मंत्री व अफसर से मित्रता गांठें और उनके माध्यम से आर्थिक अराजकता रचें। यह भीतरघात का एक रूप है। इस बुनावट में घेरे भीतर घेरा है, हर गांठ एक रुकावट है, एक रहस्य है, एक पहरेदार है। सारे प्रयास स्वतंत्र विचारशैली को ठप करने के हैं। हम व्यक्ति नहीं, केवल भीड़ बनाने के कार्य में लगे हैं। यानी भीड़ संसद के बदले सड़क पर फैसले करना चाहती है। डॉ. आम्बेडकर की चिंताएं अकारण नहीं थीं।