फौजियों के जीवन से प्रेरित फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
फौजियों के जीवन से प्रेरित फिल्में
प्रकाशन तिथि : 20 जनवरी 2020


कुछ वर्ष पूर्व राहुल बोस अभिनीत फिल्म 'शौर्या' का प्रदर्शन हुआ था। विगत सप्ताह 'कोर्टमार्शल' नामक नाटक का फिल्म संस्करण टेलीविजन पर दिखाया गया। दोनों रचनाओं में कुछ समानता है। जात-पात ने हमें बांट दिया है और यह सदियों से चला आ रहा है। हमें राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई, परंतु आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में वह अपना अर्थ खो देती है। निदा फ़ाज़ली ने लिखा है...'जंजीरों की लंबाई तक है तेरा सारा सैर सपाटा' कुछ लोगों को दो फीट की जंजीर से बंधा है, कुछ की जंजीरे जरा लंबी कर दी गई है।

'शौर्या' में घटनाक्रम ऐसा है कि स्कूल जाते हुए कुछ छात्रों के बस्ते की तलाशी ली जाती है, लेकिन किताब-कॉपियों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। एक सीनियर अफसर अपने जूनियर से कहता है कि छात्रों को गोली मार दो और इनके बस्ते में कुछ हथियार रख दो। सिपाही निर्मम अफसर को गोली मार देता है। फिल्म का अधिकांश भाग 'कोर्टमार्शल' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। टेलीविजन पर प्रस्तुत 'कोर्टमार्शल' का केंद्रीय पात्र फौज में सवार है। उसकी जाति और मां-बाप को लेकर दो तथाकथित ऊंची जातियों से आए अफसर प्राय: उसका माखौल उड़ाते हैं। पांच हजार मीटर की दौड़ में भी दोनों अफसर सवार से पराजित हो चुके हैं। एक दिन सवार से कहा जाता है कि उसकी मां का बलात्कार हुआ था और उसका जन्म हुआ था। यह झूठ उसे शूल की तरह लगता है। वह दोनों अफसरों पर गोली चला देता है। एक मर जाता है, दूसरा गंभीर रूप से घायल होता है।

'कोर्टमार्शल' में सवार का बचाव करने वाला वकील सप्रमाण यह सिद्ध करता है कि उस सवार ने कोई अपराध नहीं किया। फौज के कैंपस में प्रवेश करने वाले से उस दिन का कोड पूछा जाता है और गलत बताने या बताने से इनकार करने पर उन पर गोली चलाई जा सकती है। ज्ञातव्य है कि प्रतिदिन कोड वर्ड बदला जाता है। यह व्यवस्था कैंपस में घुसपैठियों को रोकने के लिए की जाती है।

जात-पात के भेदभाव का फौज में प्रवेश करना पूरे राष्ट्र के लिए चिंता की बात है। फौज में पदोन्नति योग्यता, अनुशासन और ट्रैक रिकॉर्ड देखकर दी जाती है। वर्तमान में अफसर राजनीतिक झुकाव को निर्णायक बना दिया गया है। संस्थाओं और आदर्शों का तोड़ा जाना दुखद है, परंतु फौज नामक संस्था का धर्मनिरपेक्ष बने रहना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञातव्य है कि गुलामी के दौर में आला अफसर के हुक्म देने पर पुलिस वाले स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों पर लाठियां चलाते थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद कुछ लाठियां खाने वाले मंत्री बन गए और लाठी मारने वालों को अब उन्हें सलाम करना पड़ता है। 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय'। हमें कबीर वाणी की आवश्यकता प्रतिदिन होती है। मणिरत्नम की शाहरुख खान और मनीषा कोइराला अभिनीत फिल्म 'दिल से' मैं प्रस्तुत किया गया है। उत्तर-पूर्व प्रांतों में तैनात कुछ फौजियों ने बलात्कार किए हैं। लूट-खसोट आदतन की जाती है। इस फिल्म में ए.आर.रहमान ने मधुर गीत रचे थे। फौज की विचार प्रक्रिया में विजेता और पराजित की मनोवृत्तियां सदियों से ठूंसी हुई हैं, जबकि युद्ध के होम में दोनों के हाथ झुलस जाते हैं। फौज के अपने सर्व सुविधा संपन्न अस्पताल हैं। डॉक्टर की सिफारिश पर फौजी की खुराक बढ़ाई जाती है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' में इस बात को लेकर मनोरंजक दृश्य रचे गए हैं। अधिकांश फौजी कैंप में सिनेमाघर भी होता है, जिसमें प्रति सप्ताह एक फिल्म दिखाई जाती है। चिंता का विषय यह है कि जब जात-पात के भेद की लहरें पूरे मानव संसार में चल रही हों तब फौज को ऐसे द्वीप के रूप में कैसे देखा जा सकता है कि द्वीप उन लहरों से बचा रहेगा? आज भी आए दिन ऑनर किलिंग की घटनाएं हो रही हैं।

अमेरिकन फिल्म 'एन ऑफिसर एंड ए जेंटलमैन' का चरबा टीनू आनंद ने अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म 'मेजर साहब' में प्रस्तुत किया था। मूल फिल्म में सीनियर अफसर गोरा है और जूनियर अश्वेत अमेरिकन है। अब्राहम लिंकन की आत्मा पर प्रहार करते हुए गोरा अफसर, अश्वेत अफसर पर जुल्म ढाता है। जुल्म की अग्नि में जूनियर का चरित्र और अधिक बेहतर होता जाता है। टीनू आनंद ने 'मेजर साहब' के क्लाइमेक्स को नौटंकी में बदल दिया था। बहरहाल, फौज की पृष्ठभूमि पर कम फिल्में बनी हैं। अवाम ही पुरातन अफीम चखते हुए आदर्श से विमुख हो गया है। तब हम कैसे आशा करें कि फौज इस संकीर्णता से बची रहेगी।