फ्रेडरिक पिन्काट / रामचन्द्र शुक्ल

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आज तक कई यूरोपियन विद्वानों का ध्या न हिन्दी की ओर रहा। पर यदि हमसे कोई पूछे कि इनमें से किस महानुभाव ने उसके हित के लिए सबसे अधिक व्यग्रता दिखाई, किसने उसके भंडार में अपने हाथों से कुछ रखने का कष्ट उठाया, कौन उसकी बढ़ती देखकर सबसे प्रफुल्लित हुआ, और कौन उसके बोलने वालों की ओर सबसे अधिक आकर्षित हुआ तो हमको फ्रेडरिक पिन्काट ही का नाम लेना पड़ेगा। भारतवर्ष की कई भाषाएँ मानकर भी इनका हिन्दी की ओर झुकना और उसको हिन्दुस्तान की सर्व प्रधान भाषा मानना निस्संदेह प्रशंसनीय था।

फ्रेडरिक पिन्काट का जन्म 1836 ई. में इंगलैंड देश में हुआ। इनके पिता की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। इस कारण इनकी शिक्षा का प्रबन्ध जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हुआ। कुछ काल तक ये 'क्वीन एलिजेबेथ चार्टर्ड स्कूल' में पढ़ते रहे। पर थोडे ही दिनों में इन्हें उसे छोड़ना पड़ा। जीवन स्थिति की चिन्ता ने इन्हें व्यग्र किया। पहले ये एक छापेखाने में कम्पोज़ीटर हुए और फिर रीडर (प्रूफ पढ़ने वाले) हुए। इससे यह न समझिए कि इनकी शिक्षा का सिलसिला टूट गया, नहीं, वह बराबर जारी रहा। आरम्भ ही से पूर्वी साहित्य की ओर इनकी रुचि थी। वह रुचि ऐसी दृढ़ और पक्की थी कि प्रेस के कमरों में भी वह उसी प्रकार प्रवर्ध्दित होती गई जिस प्रकार आक्सफर्ड और कैम्ब्रिज के भव्य विद्या भवनों में होती। संस्कृत की चर्चा ये बहुत दिनों से सुनते आते थे। ये सुनते थे कि शब्दशास्त्र और मानव जाति के इतिहास के सम्बन्ध में कोई बात निश्चित रूप से स्थिर करने के लिए संस्कृत का जानना बहुत ही आवश्यक है। इससे इन्हें संस्कृत सीखने की प्रबल इच्छा हुई। उन दिनों जो संस्कृत पुस्तकें यूरोप में छपती थीं वे बहुत महँगी पड़ती थीं। अतएव पुस्तकों को मोल लेने में इन्हें भारी कठिनता पड़ी। किन्तु इनकी इच्छा ऐसी नहीं थी कि किसी ऐसी वैसी कठिनता के कारण वह दब जाय। संयोगवश एक मित्र की कृपा से इन्हें पुस्तकें भी मिलने लगीं। फिर क्या था? परिश्रमपूर्वक इन्होंने उन पुस्तकों का अध्येयन आरम्भ किया। थोड़े दिन में इन्हें संस्कृत में गति हो गई और इनके दिन और रात उसी के ग्रन्थ देखने में बीतने लगे। क्रमश: लोगों को इनकी योग्यता का परिचय मिलने लगा और ये उस समय के अच्छे संस्कृत जानने वाले लोगों में गिने जाने लगे। ये रायल एशियाटिक सोसाइटी के मेम्बर हुए। इनका सारा जीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किस प्रकार एक दृढ़ प्रतिज्ञ पुरुष समाज की निम्न श्रेणी में रहकर भी अपनी ऊँची से ऊँची अभिलाषाओं को पूरा करता हुआ संसार में सुखी और यशस्वी हो सकता है।

विद्या संचय के साथ ही साथ प्रेस के कामों में भी अधिक कुशल होते गए। अन्त में डब्ल्यू. एच. एलेन एंड कम्पनी (W. H. Allen & Co., 13, Waterloo Place, Pall Mall, S.W.) के विशाल छापेखाने के ये मैनेजर हुए। तब से बराबर उसी पद पर अपने जीवन के अन्तिम दिनों के कुछ समय पहिले तक शान्तिपूर्वक रह कर भारतीय साहित्य और भारतीय प्रजा के लिए परिश्रम करते रहे। ये शान्तिप्रिय और गंभीर स्वभाव के थे। अवस्थाओं के परिवर्तन की लालसा ने इन्हें विचलित नहीं किया। अत: इनका जीवन घटनापूर्ण नहीं है। इससे चाहे हमारा मनोरंजन न हो, पर इनके लिए यह सौभाग्य की बात थी। क्योंकि किसी दार्शनिक ने कहा है“Happy the people whose annals are vacant.” अर्थात् “वे लोग सुखी हैं जिनका इतिहास बड़ी बड़ी घटनाओं से खाली है।” यह एक व्यक्ति के विषय में भी उतनी ही ठीक है जितनी एक जाति के विषय में।

तेईस वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना विवाह किया।

यह एक स्वाभाविक नियम है कि पुस्तकें पढ़ते पढ़ते उनके कत्तर्ओं और तदगत पात्रों से पढ़नेवाले का एक प्रकार का काल्पनिक साहचर्य स्थापित हो जाता है। कल्पना द्वारा हम उनके समागम से तृप्त होना चाहते हैं; उनके वेश विन्यास, रूप रंग तथा रहन सहन आदि का अवलोकन न सही तो उनका परिचय ही प्राप्त करना चाहते हैं। इनके अभाव में हम उनकी सन्तति, उनके इष्ट मित्र, उनके व्यवहार की वस्तुओं ही से प्रेम सम्बन्ध जोड़कर उनके प्रति उपकार करने के लिए आकुल होते हैं। मनुष्य की यही प्रवृत्ति उसको ख्रडहरों में दौड़ाती है और बरसों जमीन खोदने को विवश करती है। इसी के झोंक में लोग शेक्सपियर की कुर्सी और हुमायूँ की क़ब्र देखने जाते हैं। वह सहानुभूति, जो इस काल्पनिक साहचर्य से उत्पन्न होती है, अत्यन्त निर्मल और नि:स्वार्थ होती है, इसी के बल से इंगलैंड में बैठे बैठे पिन्काट साहब ने भारतवर्ष में कई प्रेमी मित्र ढूँढ लिए और भारतवासियों के हित साधन में यावज्ज़ीवन लगे रहे। वाग्मी बर्क (Burke) के वारन हेस्टिंग्ज़ पर अकारण टूट पड़ने का कारण भी यही सहानुभूति कही जाती है। इसी से स्वदेश भक्ति और स्वजाति प्रेम के लिए अपने देश के इतिहास और साहित्य का पढ़ना परम आवश्यक है।

संस्कृत में यथेष्ट गति हो जाने पर इन्हें मालूम हुआ कि दुष्यन्त और कालिदास की सन्तति से परिचित होने और उनके साथ भलाई करने के लिए देशी भाषाओं का जानना बहुत जरूरी है। इससे ये तुरन्त श्रमपूर्वक हिन्दुस्तान की भाषाओं को सीखने लगे। जान पड़ता है कि पहिले पहल इन्होंने उर्दू ही में योग्यता प्राप्त की। तदनन्तर इन्होंने गुजराती और बंगला सीखीं। इसके पीछे तामिली, तैलंगी, मलयालम और कनारी आदि दक्षिणी भाषाओं की ओर झुके। हिन्दी की ओर इनका ध्यायन सबसे पीछे गया। पर यहाँ पर इनकी अभिलाषा पूर्ण हो गई। संस्कृत और प्राकृत की प्रधान उत्ताराधिकारिणी इन्हें हिन्दी ही प्रतीत हुई, इससे आप तन, मन, धन से उसकी सेवा में तत्पर हो गए। हिन्दी के मुख्य मुख्य हितैषियों से पत्र-व्यवहार होने लगा। जिस प्रेम बेलि को सूर और तुलसी ने आरोपित किया था उसकी सुगन्ध रह रहकर समुद्रों को लाँघती हुई सहृदयों को मुग्धा करने लगी। इनके प्रत्येक पत्र में उस सच्चे प्रेम का आभास पाया जाता है जिसे भारतीय साहित्य ने इनके हृदय में स्थापित कर दिया था। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से ये बड़ा स्नेह रखते थे और प्राय: उनके पास प्रेम पीयूष सिंचित पत्र भेजा करते थे। देखिए इस ऍंगरेजी पत्र में हिन्दी भाषा और हिन्दू जाति के विषय में आप क्या लिखते हैं

Frederic Pincott sends his greeting and good wishes.

To,

Babu Harish Chandra ji.

Dear Sir,

Although I have never lived in India, For a long time past the study of the languages of that country has remained to me a very fascinating pursuit; because, in my opinion, it is a meritorious act for everyone, to the utmost of his power, to cause the English and Hindi people to live harmoniously together. it is impossible for any one to respect another so long as both are unable to comprehend each other’s Knowledge and intellectual power. Hence, before the harmonious living together of the two races, it is essential that their languages should be acquired and their books explained. With this object in view I have learnt four Indian languages namely Sanskrit, Hindi, Persian and Urdu, and have read many books in those languages and disseminated their contents in England. Further more, I have produced some books for teaching the Hindi languages, among them one is “THE SHAKUNTALA” in Hindi and another ‘The Hindi Manual.’ Both these books have been commended by the civil service commissioners, who have ordered that all those studdying Hindi in England should read these two books. Quite recently they have ordered that every Englishman who wishes to enter the civil service of India must learn the Hindi language.

After reading the above written intelligence you will easily understand how much pleasure I felt when I received, through the post, by your favour, a great parcel of Hindi Books. Among these books there are several of your poems, which I shall read with delight and there are also several dramas which will be very useful for teaching the Hindi language.

In the opinion of English scholars it is to be regretted that Hindi authors, in writing their books, do not employ common Hindi expression, such as they are constantly using in their own homes. Instead of that, many authors mix so much Sanskrit with their Hindi that Hindi becomes almost pure Sanskrit. I am exceedingly pleased to perceive that it is impossible to ascribe such a fault to your works.

The receipts of these books has caused me the greatest pleasure, and there are two reasons for this pleasure, one is, that by reading these books my knowledge of Hindi will be increased, and the other is, that the receipt of these books made it clearly apparent that there are some patriots in India.

I am sending you by the post a copy of ‘Hindi Manual’ which I respectfully ask you to be good enough to accept. Should you detect any errors in the book, and will point them out to me, I shall be still obliged to you.

I most earnestly hope that God will long preserve your useful life.*

your sincerely

Frederic Pincott

अनुवाद

श्रीमान् बाबू हरिश्चन्द्र को फ्रेडरिक पिन्काट का अभिवादन और आशीर्वचन।

प्रिय महाशय!

यद्यपि मैं हिन्दुस्तान में कभी नही रहा तथापि बहुत काल से उस देश की भाषाओं का अध्यदयन मेरे लिए एक बहुत ही मनोरंजक कार्य रहा है। मेरी सम्मति में, हर एक के लिए अपने भरसक अंगरेज और हिन्दू लोगों के बीच एका स्थापित करना एक बहुत ही प्रशंसनीय काम है। परस्पर एक दूसरे की प्रतिष्ठा करना तब तक असम्भव है जब तक दोनों एक दूसरे के ज्ञान और बुध्दि बल की इयत्ता न समझ लें। अतएव, दोनों जातियों को मिलजुलकर साथ साथ रहने के लिए, उनकी भाषाएँ सीखना और उनकी पुस्तकें पढ़ना बहुत ज़रूरी है। इसी से मैंने भारत की चार भाषाएँ सीखी हैं संस्कृत, हिन्दी, फारसी और उर्दू। इन भाषाओं की बहुत सी पुस्तकें भी मैंने पढ़ी हैं। और उनमें लिखी हुई बातों का इंगलिस्तान में प्रचार भी किया है। इसके सिवा मैंने कुछ पुस्तकें हिन्दी भाषा सिखलाने के लिए बनाई हैं। उनमें से एक 'हिन्दी शकुन्तला' और दूसरी 'हिन्दी मेनुअल' है। इन दोनों पुस्तकों को सिविल सर्विस परीक्षा के कमिश्नरों ने पसन्द किया है और राजाज्ञा दी है कि जो लोग इंगलिस्तान में हिन्दी पढ़ते हैं वे इनको पढ़ें। अभी हाल में उन्होंने आज्ञा दी है कि प्रत्येक ऍंगरेज को, जो भारतीय सिविल सर्विस में प्रवेश करना चाहता है, हिन्दी भाषा सीखनी होगी।

इन बातों को पढ़कर आप अच्छी तरह समझ सकते हैं कि आपकी कृपा से, डाक द्वारा, हिन्दी पुस्तकों का एक बड़ा सा पारसल पाने पर, मुझे कितना आनन्द हुआ होगा। इन पुस्तकों में कुछ तो आपके काव्य हैं जिनको मैं प्रसन्नतापूर्वक पढूँगा, और कुछ नाटक है जो हिन्दी भाषा सिखाने में बड़े काम आवेंगे।

(ऍंगरेज विद्वान् की राय में यह खेद की बात है कि हिन्दू ग्रन्थकार, अपनी पुस्तकें लिखने में, ऐसे साधारण हिन्दी वाक्य नहीं व्यवहृत करते जैसे वे अपने घरों में बराबर बोलते हैं। उनके स्थान पर बहुत से ग्रन्थकार अपनी हिंन्दी के साथ इतनी संस्कृत मिला देते हैं कि हिन्दी प्राय: शुध्द संस्कृत हो जाती है।) मैं यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ कि यह दोष आपकी रचना में नहीं है।

इन पुस्तकों को पाकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ है। इसके दो कारण हैंएक तो यह कि इन पुस्तकों को पढ़ने से मेरा हिन्दी का ज्ञान बढ़ेगा और दूसरा यह कि इनकी प्राप्ति ने स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि भारत में कुछ देशभक्त भी हैं।

मैं डाक द्वारा अपने 'हिन्दी मेनुअल' की एक प्रति भेजता हूँ। विनीत भाव से प्रार्थना है कि आप उसे ग्रहण करें। यदि उस पुस्तक में आप कोई भूल पावें और मुझे सूचित करें तो मैं आपका कृतज्ञ हूँगा।

आशा करता हूँ कि परमेश्वर आपके उपकारी जीवन को बहुत दिनों तक बनाए रक्खेगा।

भवदीय

फ्रेडरिक पिन्काट

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एक चिट्ठी इन्होंने भारतेन्दुजी को हिन्दी पद्य में लिखी थी जिससे इनकी हिन्दी की योग्यता और सरल स्नेह रंजित हृदय का परिचय भलीभाँति मिलता है। वह चिट्ठी यह है

“बैस बंस अवतंस, श्री बाबू हरिचन्द जू।
छीर नीर कलहंस, टुक उत्तर लिखि देव मोहिं॥”
पर उपकार में उदार अवनी में एक
भाषत अनेक यह राजा हरिश्चन्द है।
विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि
कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचन्द है।
चन्द जैसो अमिय अनन्द कर आरत को
कहत कविन्द यह भारत को चन्द है।
कैसे अब देखैं को बतावै कहाँ पावैं, हाय,
कैसे वहाँ आवैं हम कोई मतिमन्द हैं॥
“श्रीयुत सकल कविन्द कुल-नुत बाबू हरिचन्द।
भारत-हृदय-सतार-नभ, उदय रहो जनु चन्द॥”

इसी तरह से अन्य हिन्दी सेवियों के पास भी इंगलैंड से पत्र भेजते थे। हिन्दी के सम्बन्ध में जहाँ कोई बात छेड़ी जाती थी, आप तुरन्त उस पर अपनी राय देते थे। जिन दिनों खड़ी बोली की कविता के विषय में विवाद चल रहा था इन्होंने इसका पक्ष लिया था। 'खड़ी बोली का पद्य' नाम की बाबू अयोध्यातप्रसाद की पुस्तक का सुन्दर संस्करण, अपनी अंगरेजी भूमिका सहित, इन्होंने इंगलैंड में छपवाया था। उसमें आपने अंगरेजी में जो कुछ लिखा है उसका भावार्थ यह है'यह देखकर सन्तोष होता है कि खड़ी बोली के प्रस्ताव का आदर किया गया। यद्यपि पुराने ढर्रे के साहित्य सेवियों और संशोधकों के बीच बहुत विवाद हुआ, और अब भी हो रहा है; पर गद्य का एक भाषा में लिखा जाना और पद्य का दूसरी में कैसी बेढंगी बात है, यह धीरे धीरे लोगों को मालूम हो रहा है।”

उर्दू के विषय में आप लिखते हैं” फ़ारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू या हिन्दुस्तानी) के अदालती भाषा बन जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई ही भाषा उत्पन्न हो गई। पश्चिमोत्तार प्रदेश के निवासी, जिनकी कि यह भाषा मानी जाती है, उसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।” जो लोग यह कहते हैं कि उच्च हिन्दी एक बनावटी भाषा है और सर्वसाधारण के व्यवहार में नहीं आती, उन्हें पिन्काट साहब के इस कथन पर विचार करना चाहिए। थोड़ा सोचने से उन्हें यह स्पष्ट मालूम हो जायगा कि यदि आरम्भ ही से उन्हें करीमा न रटाया गया होता तो उर्दू उनके श्रीमुख से कदापि न सुन पड़ती। जनाब, यह उर्दू आप अपनी माँ की गोद से लेकर नहीं उतरते हैं। किन्तु मौलवी साहब के मकतब में आपने उसे सीखा है। यदि आज से लड़के मदरसों में हिन्दी की उपयुक्त शिक्षा पाने लगे और अंगरेजी के साथ अपनी दूसरी भाषा संस्कृत लेने लगें तो थोड़े ही दिनों में वह उर्दू, जिसको आप आमफ़हम कहते हैं, हवा हो जाय और उसके स्थान पर गली गली वही शुध्द परिष्कृत हिन्दी, जिसको सुनकर आप इतना चौंकते हैं, सुनाई देने लगे। दूर की बात जाने दीजिए बंगदेश को देखिए, जहाँ के छोटे छोटे बच्चे तक उन संस्कृत शब्दों को कैसी मधुरता से उच्चारण करते हैं जो आपके कानों को कंकड़ के समान लगते हैं।

पिन्काट साहब बड़े ही हिन्दी हितैषी थे। आपका काशी के बाबू कार्तिकप्रसाद से पत्र व्यवहार था। एक पत्र में आप उन्हें लिखते हैं

“आपका सुखद पत्र मुझे मिला है और उससे मुझको परम आनन्द हुआ।

“आपकी समझ में हिन्दी भाषा का प्रचलित होना उत्तर पश्चिम वासियों के लिए सबसे भारी बात है। मैं भी सम्पूर्ण रूप से जानता हूँ कि जब तक किसी देश में निज भाषा और अक्षर सरकारी और व्यवहार सम्बन्धी कामों में नहीं प्रवृत्त होते हैं तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिए मैंने बार बार हिन्दी भाषा के प्रचलित करने का उद्योग किया है। आप अपने पत्र में यह सवाल पूछते हैं कि क्या उस बात के निबाहने का कुछ उपाय हो सके कि नहीं। उस सवाल का यह उत्तर है कि हाँ एक ही उपाय है अर्थात् जो कोई किसी समय हिन्दी भाषा लिखे तो उसको चाहिए कि आसान सरल हिन्दी लिखे। जब पंडितजन हिन्दी भाषा लिखते हैं तब उसमें बहुत कुछ संस्कृत मिला देते हैं। यह भारी भूल है क्योंकि अज्ञानी लोग संस्कृत मिश्रित भाषा समझ नहीं सकते हैं। इसी कारण वे बड़ा शोर मचा के पुकारते हैं कि हाय, हाय हिन्दी भाषा का प्रचलित होना अफसोस की बात है।”

“देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहिले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परन्तु अब क्रम करके सँवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिन्दी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें। इस पर भी स्मरण कीजिए कि उत्तर पश्चिम में हज़ार बरस तक फ़ारसी बोलने वाले लोग राज करते थे। इसी कारण उस देश में सब लोग बहुत फ़ारसी बातों को जानते हैं। उन फारसी बातों को भाषा से निकाल देना असम्भव है। इसलिए उनके निकाल देने का उद्योग मूर्खता का काम है। मेरी समझ में भाषा और अक्षरों के प्रचलित करने का यह उपाय है कि पहिले सब लिखने वाले जन सीधी सरल फ़ारसी मिश्रित भाषा लिखें। केवल या तो देवनागरी अक्षर प्रचलित हों तब हिन्दी भाषा क्रम करके बंगाली के सदृश निपट अच्छी और सँवारी हुई भाषा हो जावेगी। बाकी फिर”।क्व

आगे चलकर एक पत्र में फिर, भारतवर्ष के प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हुए, इस विषय में आप लिखते हैं

“आपका 24 जुलाई, 1887 ई का पत्र मुझे मिला है और उससे अत्यन्त आनन्द मेरे हृदय में उपज आया है। सच तो यह है कि यद्यपि मैं हिन्दुस्तान में कभी नहीं आया तो भी उस देश पर मेरा दिल लगता है। परमेश्वर करे कि मर जाने के आगे मैं हिन्दुस्तान के लिए कोई फलदायक काम करूँ।”

“हिन्दी भाषा के बारे में जो कुछ आपने लिखा है सो बिलकुल सच है।

क्व ये हिन्दी पत्र और फोटो मुझे स्वर्गीय बाबू कार्तिकप्रसादजी के सुयोग्य पुत्र बाबू मनोहरदासजी की कृपा से मिले हैं। इसके लिए उन्हें अनेक धान्यवादलेखक।

सच है कि भाषा के शब्दों की अपेक्षा देवनागरी के अक्षर दफ्तरों में बर्ते जाने बड़ी भारी बात है।...”

इसी प्रकार जब तक ये जीते रहे हिन्दी का उपकार सोचते और करते रहे। जहाँ कोई हिन्दी की उत्तम पुस्तक छपी, आप लन्दन के पत्रों में उसकी प्रशंसा की धूम मचा देते थे। पं. श्रीधर पाठक के 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' की आपने विलायती पत्रों में बड़ी प्रशंसा की थी। हिन्दी के प्राय: सब लेखकों से आपका पत्र व्यवहार रहता था। इनके समय के प्रत्येक हिन्दी लेखक के घर में इनके दो एक पत्र पड़े होंगे। इनका जैसा प्रेम हिन्दी साहित्य पर था, यहाँ की प्रजा पर भी वैसा ही था। ये निरन्तर उसके दु:खों को दूर करने की चेष्टा में रहते थे, हमको बिना देखे ही ये हमारे साथ ऐसा 'नेह का नाता' निबाहते रहे जो इस संसार में दुर्लभ है। जब भारतीय पुलिस के अत्याचारों की कथा इनके कानों तक पहुँची, ये एकदम अधीर हो उठे। उस समय आपने बाबू कार्तिकप्रसाद को लिखा

“कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिन्दुस्तानी दोस्त ने हिन्दुस्तान के पुलिस के जुल्म की ऐसी तस्वीर खैंची कि मैं हैरान हो गया। मैंने यह जानने के लिए कि मेरा दोस्त कहाँ तक सच कहता है, एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रिब्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है कि जितना मैंने सुना था। अब मैंने यह पक्का इरादा कर लिया है जब तक हिन्दुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इंगलिस्तान की है, मैं इस बात का पीछा न छोड़ूँगा।”

बनारस में एक 'बनारस एसोसिएशन' का नाम की सभा थी जो पुलिस के अत्याचारों को दूर करने का यत्न किया करती थी। पिन्काट साहब उसके अध्य क्ष बनाए गए थे।

1888 ई. में आप पर एक बड़ा भारी दु:ख पड़ा। आपकी स्नेहमयी भार्या का नवम्बर महीने में परलोकवास हो गया। उस समय आपके चित्त की जो दशा हुई आप जी खोलकर अपने भारतीय मित्र से कहते हैं

“विगत महीनों में मुझ पर इस दुनिया का सबसे भारी दु:ख गिर पड़ा है। मेरी प्यारी स्त्रीी मर गई और मैं शोक के द्वारा अचेत होकर उदासी के पेंदे में लुढ़क रहा हूँ। देखो मित्र, उन्तीवस बरस तक वह मेरी प्यारी साथिन थी। अब मालूम हुआ कि सारा जगत् असार हो गया है। परमेश्वर की कृपा से कुछ काल बीतने पर मैं फिर से शान्त हो जाऊँगा।”

पाठक! इस लिखावट से इनकी सरलता का अन्दाज कीजिए। यह भी विचारिए कि ये शब्द ऐसे व्यक्ति को लिखे गए हैं जिससे इनका कभी प्रत्यक्ष परिचय भी न था। एक और चिट्ठी में दीन भारतवासियों के साथ उपकार करने की चिन्ता में आप अपने दु:ख को भूल जाते हैं और लिखते हैं

“इस समाचार के मिलने से आपको परमानन्द होगा कि इंडियन गवर्नमेंट थोड़े काल में पुलिस डिपार्टमेंट को सरासर बदल देगी। सच मानिए, यह ठीक ठीक समाचार है। दो बरस तक मैं अपनी चिट्ठी, लेखा, मजमून इत्यादि चारों ओर भेजा भिजवा करता रहा हूँ। अब मेरे इस परिश्रम का कुछ फल होगा। सावधान

रखिए कि आप किसी से न कहैं कि मैंने यह समाचार पिन्काट साहब से पाया है “।

भारतवर्ष की उन्नति में सहायता पहुँचाने वाली जितनी बातें थीं पिन्काट साहब का प्राय: उन सबसे सम्बन्ध रहता था। इनके राजनीति, व्यापार तथा साहित्य संबंधी लेख बराबर इंगलैंड और भारतवर्ष के संवादपत्रों में निकला करते थे। यद्यपि ये विलायत में रहते थे पर देशी भाषाओं के अध्यंयन द्वारा ये भारतवर्ष की बहुत सी भीतरी बातों से जानकार थे। इस पर भी यहाँ की वास्तविक दशा जानते रहने के लिए आप यहाँ के समाचारपत्रों को पढ़ा करते थे। राजनीतिक विचार आपके उदार थे। आप हिन्दी अखबार बड़े प्रेम से पढ़ते थे। और नेशनल काँग्रेस को आप अच्छा समझते थे। इन बातों का पता आपके इस पत्र से लग सकता है। यह भी बाबू कार्तिकप्रसाद ही को उन्होंने लिखा था

“इस समय तक जितने समाचारपत्र मेरे पास आते हैं उनके नाम नीचे लिखे हुए फिहरिस्त में हैं, अर्थात्

1. भारतमित्र (हिन्दी) साप्ताहिक

2. भारतवर्ष (हिन्दी) मासिक

3. भारतदुर्दशा प्रवर्तक (हिन्दी) मासिक

4. दिनकर प्रकाश (हिन्दी) मासिक

5. भारर्तवत्ता (मराठी) साप्ताहिक

6. ट्रैब्यून (अंगरेजी) दो बार प्रत्येक सप्ताह

7. एडवोकेट (अंगरेजी) साप्ताहिक

“मैंने यह सुना है कि 'अमृत बाजार पत्रिका' नामक समाचारपत्र एक बहुत अच्छा अखबार है। परन्तु मैंने उसको कभी नहीं देखा है।

“ऊपर लिखे हुए समाचारपत्रों को मैंने कई एक मजमून लिखे भेजे हैं और भेजूँगा।

“मेरी राय में नेशनल काँग्रेस बहुत अच्छी बात है। उसके बारे में मैं बहुत कुछ लिखूँगा।”

जब कभी किसी हिन्दी पत्र संपादक पर कोई आपत्ति आती थी तब आप तुरन्त उसके पक्ष में खड़े हो जाते थे। एक बार एक प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र के सम्पादक को निज प्रकाशित किसी राजनीतिक लेख के विषय में आशंका हुई। उन्होंने पिन्काट साहब के पास उस लेख को भेजकर अपने चित्त का हाल लिख भेजा। पिन्काट साहब ने तुरन्त उस लेख का ऍंगरेजी अनुवाद करके और उस पर अपनी सम्मति लिखकर उनके पास भेज दिया, और लिखा कि यदि आप पर कोई आपत्ति आवे तो आप मेरी उस राय को पेश कर दीजिएगा। इसी तरह हमारे मिरज़ापुर से निकलेवाले 'खिचड़ी समाचार' के सम्पादक बाबू माधावप्रसाद खत्री पर जिस समय मानहानि का अभियोग चल रहा था, आपने उनके पक्ष में अपनी साक्षी इंगलैंड से लिखकर भेजी थी। हिन्दी के विषय में इनकी सम्मति सदा माननीय समझी जाती थी।

डब्ल्यू. एच. एलेन. ऐंड कं. से आपने 1890 में सम्बन्ध छोड़ा और मेसर्स गिलबर्ट ऐंड रिविंगटनक्व (Messers Gilbert and Revington. St. John’s House Clerken Well London) के प्रसिध्द कार्यालय 'पूर्वीय मन्त्री और कार्यकत्तर्' (Oriental adviser and expert) नियुक्त हुए। अन्त तक आप वहीं रहे। इस कम्पनी की तरफ से 'आईन: सौदागरी' (Mirror of the British Merchandise) नामक व्यापार सम्बन्धी एक मासिक पत्र उर्दू भाषा में निकलता था जिसके एडिटर पिन्काट साहब थे। उसमें इंगलिस्तान की बनी हुई वस्तुओंक़लों और औजारों आदिक़ा हाल रहता था, और उनकी उपयोगिता दिखलाई जाती थी। भारतवर्ष में उत्पन्न होनेवाले पदार्थों का भी वर्णन रहता था। इसके सिवा वाणिज्य व्यवसाय की और भी कितनी ही बातें रहती थीं।

पिन्काट साहब के संपादकत्वकाल में, इस पत्र में इन सब बातों के सिवा भारत के राजा महाराजाओं और विख्यात पुरुषों के सचित्रा चरित भी निकलते थे, यहाँ के प्रधान प्रधान नगरों और राजधानियों का वर्णन रहता था, यहाँ के हिन्दी संवादपत्रों के लेख उध्दृत होते थे। यह पत्र उर्दू का था पर अन्त के दो चार पृष्ठों में हिन्दी भी रहती थी। उर्दू लेखों के दो चार नाम नमूने के तौर पर सुनिए'ग़ेहूँ का साफ़ करना'। 'रौग़नदार बीजों से तेल निकालने के लिए एक उम्द: कोल्हू', 'इंगलिस्तान की ख़ौराक'। रुई की तिजारत'। 'कटहल'। 'शाहेजादगान हिन्दुस्तान'। 'प्रतापचन्द्र राय साहब बहादुर. सी आई. ई.'। शहर 'बंबई'। 'जैपुर'।

हिन्दी लेखों के नमूने'भयमुक्त दीपक' (Safety lamps) 'जलोत्ताोलन यन्त्रा, भूमि के सींचने के लिए' (Pumps for irrigation) 'पवनचक्कियों के बारे में' (Machines driven by wind) 'केले के पेड़ों का उपराजना'।

ये लेख हिन्दी पत्रों से उध्दृत किए गए थे'हिन्दुस्तान का व्यापार ”अर्य दर्पण' से। 'भारतवासियों को विलायत जाने की आवश्यकता ”हिन्दुस्तान' से। 'भारतवर्ष को किस बात की आवश्यकता है ”भारतमित्र' से।

कभी कभी दो एक मज़ेदार नोट भी हिन्दी में निकल जाते थे, जैसे”आस्ट्रेेलिया में एक युवती ने फाँसी देनेवाले के पद को प्राप्त करने के लिए अर्ज़ी दी है।

क्व इस लेख के लिखने में मुझे इस कम्पनी के मैनेजर से भी सहायता मिली है।लेखक

उसने अपनी अर्ज़ी में यह भी लिखा है कि चूँकि पुरुषगण स्त्रीa जाति के ऊपर जीवन न्योछावर करनेवाले होते हैं और मैं भी स्त्री हूँ, अत: पुरुषों को फाँसी देकर परलोक पयान कराने का काम मुझको मिलना चाहिए।”

1895 ई. में 'रीआ घास' (Rhea fibre) की खेती कराने के विचार से पिन्काट साहब ने हिन्दुस्तान को प्रस्थान किया। नवम्बर में ये कलकत्ताु उतरे। सुनते हैं कि वहाँ इनका एक व्याख्यान हुआ था। पर किस विषय पर और किस भाषा में, नहीं कह सकते। 'लन्दन रीआ फाइबर ट्रीटमेंट कम्पनी' के साथ इन्होंने हिन्दुस्तान से 15000 टन रीआ की छाल सात पाउंड (105 रु.) फी टन के हिसाब से भेजने की ठीका लिया था। कलकत्ताा से ये काशी जानेवाले थे, पर नहीं गए। नागरी प्रचारिणी सभा के ये आनरेरी सभासद थे। अवधा प्रान्त को इन्होंने रीआक्व की खेती के लिए उपयुक्त समझा था। इसी उद्योग के लिए ये लखनऊ गए। वहीं 7 फरवरी 1896 को उन्हीं अभागे भारतवासियों के बीच, जिनके उपकार में ये जीवन भर लगे रहे, इनके शान्त और परोपकारी जीवन का शेष हो गया। इनका शरीर भारतवर्ष की पुनीत मिट्टी में मिल गया। हा! ये कुछ दिन भी हमारे बीच न रहने पाए, इसका हम भारतवासियों कोविशेषकर हिन्दी भाषाभाषियों को सब दिन सोच रहेगा।

पिन्काट साहब एक कन्या के सिवा कोई संतति छोड़ कर नहीं मरे। इनके भाई थोड़े दिन हुए लन्दन में 'पंच ऑफिस' में रीडर थे। पर अब नहीं मालूम कहाँहैं।

इनकी बनाई और सम्पादित की हुई पुस्तकों ने नाम ये हैं

1. हिन्दी शकुन्तला (राजा लक्ष्मणसिंह का किया हुआ अनुवाद, उस पर पिन्काट साहब की व्याख्या) यह संस्करण सिविल सर्विस की परीक्षा में जानेवाले अंगरेजों के लिए प्रकाशित हुआ था।

2. Hindi Manual (हिन्दी व्याकरण) यह भी सिविल सर्विस परीक्षा में नियतथा।

3. अलफ लैला (बजश्बान उर्दू) (रोमन अक्षरों में)

4. हितोपदेश (अंगरेजी अनुवाद)

5. खड़ी बोली का पद्य (बाबू अयोध्या्प्रसाद का)

ये सब पुस्तकें इन्होंने डब्ल्यू. एच. एलेन ऐंड को., के छापेखाने ही में छपाई थीं जिसके आप मैनेजर थे।

6. बालदीपक (हिन्दी) चार भाग, कैथी और नागरी अक्षरों में।

7. विक्टोरिया चरित्र (हिन्दी)

क्व इस घास को आसाम में 'रीआ' और बंगाल में 'कनखुरा' कहते हैं। यह छह से आठ फीट तक ऊँची होती है। इसकी गाँठों से नुकीली पत्तियाँ निकलती हैं। यह घास सुंदरवन (बंगाल) और आसाम में आपसे आप उगती है। इसकी छाल के रेशों से सुन्दर कपड़े बनते हैं। इसकी खेती से भारतवासियों का लाभ हो सकता है।लेखक

ये दोनों पुस्तकें 'खक्ष्विलास प्रेस' बाँकीपुर की छपी हैं और विशेष ध्याखन देने योग्य हैं क्योंकि उनसे पिन्काट साहब की हिन्दी गद्य रचना का परिचय मिलताहै।

'बालदीपक' बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। इसमें अच्छे अच्छे बालकोपयोगी पाठ, सरल हिन्दी भाषा में, थे। एक नमूना लीजिए12वाँ पाठ। चौकसाई करने के बयान में।

“हे लड़को, तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत सँभाल कर रक्खो। मैला होने न पावे बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना ऍंगुली के तले दब कर फट न जावे।”

'विक्टोरिया चरित्र'। यह 136 पृष्ठ की पुस्तक है। इसमें महारानी विक्टोरिया का जीवन वृत्तान्त विस्तार के साथ शुध्द हिन्दी भाषा में पिन्काट साहब ने लिखा है। उस पुस्तक की भाषा के विषय में मुझे केवल यही कहना है कि वह इनके पत्रों की अपेक्षा अधिक शुध्द और मुहाविरेदार है इसमें सन्देह होता है कि कदाचित् इसका संशोधन यहाँ हुआ हो।

ये रायल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में पुरातत्व सम्बन्धी लेख अकसर लिखा करते थे। 'त्रिरल' नाम एक लेख में इन्होंने बौध्दों के चिह्न चक्र, त्रिशूल और स्वास्तिक का मर्म बड़ी ही योग्यता से समझाया है। यह लेख सोसायटी के जर्नल की उन्नीसवीं जिल्द के दूसरे भाग में छपा है।

योरपियन लोगों में हिन्दी लिखने की योग्यता पहिले पहिल इन्होंने प्राप्त की। इनकी भाषा की त्रुटियों पर ध्या न देने के पहिले इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि ये विदेशी थे और हिन्दी भाषा उस समय क्या, अब तक इस योग्य नहीं बन सकी है, कि कोई विदेशी उसे पूर्ण रूप से सीख सके। न तो उसके व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का निश्चय हुआ जिससे वह स्थिर होती और न उसके शब्द विस्तार ही की कोई सीमा निर्धारित हुई। कोई विदेशी किस तरह जान सकता है कि 'हो' और 'होने' (इसी प्रकार 'होइए' और 'हूजिए', जायँ, जाएँ और जावें) एक ही है। हिन्दी के कवियों ने जो निरंकुशता दिखलाई है उसका तो कहना ही क्या है। 'कियो', 'कीन्ह्यो', 'कीन्हो', 'कीन्ह', 'करयो' के बीच में पड़कर एक बार पाणिनि की बुध्दि भी चक्कर खाने लगेगी। यहां तक कि लिपि-सम्बन्धी भी कोई सर्वमान्य रीति नहीं है। यदि विश्वास न हो तो 'दैनिक हिन्दोस्थान' सामने रख लीजिए, फिर बहार देखिए।

पिन्काट साहब की देवनागरी लिपि बहुत अच्छी और स्पष्ट होती थी। उसका नमूना हम उनके एक पत्र से देते हैं। यह पत्र उन्होंने बाबू कार्तिकप्रसाद को लिखाथा।

हिन्दुस्तान का हित साधन करने में इनकी लेखनी कभी नहीं रुकी; इनके लेख निरन्तर इंगलिस्तान और हिन्दुस्तान के पत्रों में निकलते रहे। हिन्दी के प्रचार के लिए अंगरेजी पत्रों में आप हमेशा ही लिखा करते थे। 19.8.1887 के 'ओवरलैंड (Overland Mail) मेल' में आपने जो लेख लिखा था उसके कुछ अंश का अनुवाद सुनिए

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“हिन्दी भाषा उत्तरी हिन्दुस्तान में सबसे अधिक ओजस्विनी भाषा है और अपनी सफ़ाई और लचक के कारण वैज्ञानिक विचारों को व्यक्त करने के लिए भली भाँति उपयुक्त है। ऍंगरेजों ने फ़ारसी अक्षरों में लिखी जानेवाली उर्दू को भ्रमवश उत्तरी हिन्दुस्तान में बलात् जारी किया है; हिन्दुस्तान के लोगों ने सरकार तक इस अन्याय की कथा कई दफे पहुँचाई है; पर अमले और हाक़िम परिवर्तन नापसन्द करते हैं। क्योंकि परिवर्तन से उन्हें एक देशी भाषा सीखने का कष्ट उठाना पड़ेगा पर आशा है कि किसी न किसी दिन, शीघ्र ही, कोई न्याय का प्रेमी उठ खड़ा होगा जो इस बात को समझेगा कि पोलैंडवासियों के बीच रूसी भाषा को बलात् फैलाने के लिए ज़ार को धिक्कारना कहाँ तक न्याय है जबकि स्वयं कैसरहिन्द दस करोड़ हिन्दी बोलनेवाले भारतवासियों के गले में बलात् फ़ारसी ठूँसते हैं।

मेरी राय में नेशनल कांग्रेस बहुत अच्छी बात है। उसके बारे में मैं बहुत कुछ लिखूँगा।

आशा है कि आप भले चंगे हैं और परमेश्वर करे कि हिन्दुस्तान के सब हितैषी सानन्दपूर्वक चिरायु रहें।

आपका परममित्र

फ्रेडरिक पिन्काट

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दिसम्बर 1887 के 'इंडियन मैगजीन' में प्रकाशित इनके एक और लेख का भी थोड़ा सा भावार्थ सुनिए

“हिन्दी के अन्तर्गत कितनी ही बोलियाँ हैं। पर इन बोलियों का समग्र समुदाय एक ही भाषा है। यही भाषा है जिसमें फ़ारसी विजेताओं ने बहुत से फ़ारसी शब्द मिलाकर एक दोगली भाषा उत्पन्न कर दी, जो उर्दू या हिन्दुस्तानी कहलाती है। सरकारी दफ्तरों और कचहरियों को छोड़कर इस भाषा का अन्यत्र कहीं अस्तित्व नहीं है। उत्तरी भारत की भाषा हिन्दी है। वही वहाँ की 'लिंगुआ फ्रांका' है। हिन्दुस्तान में यह विलक्षण दृश्य देखने में आता है कि राजा और प्रजा राजकीय कार्य को एक ऐसी भाषा में सम्पादन करते हैं जो दोनों के लिए विदेशी है। यथार्थ भाषा सम्बन्धी प्रश्न जो आज तीन वर्ष से उत्तरी भारत में उठ रहा है, लिपि विषयक है। जब तक फारसी अक्षरों का एकाधिपत्य रहेगा और सब लोग अपनी देशी नागरी को सरकारी कागश्जश् पत्रों में व्यवहार करने से रोके जाएँगे तब तक उत्तरी भारत की भाषा पर बुरा प्रभाव पड़ता जायगा।”

चार्ल्स ब्राडला साहब जिस समय भारत में आए थे, पंडित प्रतापनारायण मिश्र ने 'ब्राडला स्वागत' नाम की एक कविता लिखी थी। उसका अंगरेजी अनुवाद करके पिन्काट साहब ने इंगलैंड में प्रसिध्द किया था। कहते हैं कि उस कविता की वहाँ बड़ी प्रशंसा हुई थी। ‘The Brothers England and India’ (बन्धु इंगलैंड और भारत) नाम की अत्यन्त हृदयग्राहिणी कविता भी इन्होंने ऍंगरेजी में लिखी थी। उससे स्पष्ट मालूम होता है कि हिन्दुन्तान पर इनका कितना प्रेम था। इस कविता की रचना कुछ विलक्षण हुई है। भारतवासियों को रुचिकर बनाने के लिए इसमें अन्त्यानुप्रास की ओर विशेष ध्याहन रक्खा गया है। प्रत्येक पद्य (Stanza) में नौ नौ चरण हैं जिनके अन्तिम अक्षरों की तुक बराबर मिलती गई है। कविता निस्सन्देह बहुत ही ओजस्विनी हुई है। खेद है उग्र राजनीतिक भावों से भरी होने के कारण हम उसे इस पत्रिका में नहीं प्रकाशित कर सकते।

(सरस्वती, जनवरी, 1908 ई )

[चिन्तामणि, भाग-3]