फ्लाईट आठ सौ दस / कमल

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पश्चिमी सिंहभूम के मुख्यालय चाईबासा में अपनी कम्पनी का काम पूरा कर अभिनव समय से ही निकला था। हालाँकि वह चाईबासा से भी सीधा राँची जा सकता था लेकिन उसने जमशेदपुर हो कर ही राँची के लिए निकलना तय किया। बड़ा नाम सुना है उस शहर का, समय कम होने के कारण वहां घूमा-फिरा तो नहीं जा सकता। लेकिन शहर से गुजरते हुए उसकी एक झलक तो ली ही जा सकती है। इसलिए उसने जमशेदपुर की बस ली थी। राँची के बिरसा मुंडा हवाई अड्डे से शाम को तीन-पच्चीस पर एयर इंडिया की उड़ान संख्या ए.आई. 810 से दिल्ली वापसी का उसका पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम बना हुआ था। वहां नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी एयरपोर्ट पर साढ़े पाँच बजे उसे लेने मीता आने वाली थी।

जब तक अभिनव जमशेदपुर पहुँचा, सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। लेकिन जिस बस से वह आ रहा था, टाटानगर स्टेशन के पास पहुँचने पर उस बस को अपने सामने लगे लम्बे जाम का सामना करना पड़ा।

“बस स्टैन्ड कब तक आयेगा?” पूछने पर उसे पता चला कि अभी वहाँ से आगे बिष्टुपुर और साक्ची हो कर बस को मानगो बस स्टैन्ड पहुँचने में पन्द्रह-बीस मिनट और लगने वाले थे। लेकिन वह तो जाम हटने के बाद की बात थी। पहले जाम तो हट जाए।

उसने बेचैन हो कर खिड़की से सर बाहर निकाल कर वहाँ खड़े खलासी से पूछा, “ये जाम कब तक हटेगा ?”

“कुछ कह नहीं सकते सर, आगे ट्रेन-अंडर ब्रिज के नीचे आॅटो और कार वाले के बीच कुछ लफड़ा हुआ है। सारे आॅटो वालों ने सड़क जाम कर रखी है।”

“मगर मुझे तो राँँची समय से ही पहुँँचना होगा। देर हुई तो प्लेन मिस हो जाएगा।” वह घबराया। शहर से गुजरते हुए देखने का उसका सारा उत्साह छूमंतर हो चुका था।

“तब तो एक ही रास्ता है, आप कैसे भी मानगो बस स्टैन्ड को निकल लो। इस जाम का कोई भरोसा नहीं। जाम टूट भी गया तो अब इस बस को स्टैन्ड पहुँचने में एक घंटे से कम नहीं लगेगा।” खलासी ने निर्लिप्त भाव से कहा।

पास में बैठा एक यात्री बड़बड़ाते हुए अपना सामान समेटने लगा, “इस शहर में इतना कुछ बन गया, लेकिन यह संकरा अंडर ब्रिज कभी नहीं सुधरा। आज तो लफड़ा हुआ है। लेकिन बरसात के मौसम में और भी बुरा हाल हो जाता है। जरा सी बारिश हो जाए तो यहाँँ घंटों जाम लग जाता है।”

“भाई साहब क्या आप बस स्टैन्ड जा रहे हैं?” अभिनव ने शीघ्रता से पूछा।

“नहीं ...नहीं मेरा घर तो यहीं सामने जुगसलाई में है। रिक्शा नहीं मिला तो वहां तक पैदल ही निकल जाउंगा।” उसने कहा और अपने सामान के साथ बस से उतर गया।

अभिनव खलासी से बोला, “अब मैं क्या करुँँ, मुझे तो यहाँँ के रास्तों का भी पता नहीं। प्लीज आप ही कुछ उपाय कर दें।”

“अच्छा देखता हूँँ।” कह कर खलासी एक तरफ को चल दिया।

थोड़ी देर बाद वह लौटा तो उसके साथ एक औसत कद-काठी और सांवले रंग मगर मजबूत शरीर वाला व्यक्ति था। पाँँव में हवाई चप्पल, भूरी पतलून और मटमैले से रंग की कमीज पहने उस व्यक्ति ने सर पर एक गमछा लपेट रखा था।

“सर आप इसके रिक्शा से चले जाएं।” खलासी ने आभिनव से कहा।

“रिक्शा से वहाँँ पहुँँच तो जाउँँगा न !” अभिनव को संदेह हुआ।

“फिकर मत कीजिए बाबू साहेब, मेरा रिक्शा एकदम चकाचक है। आपको तुुरंत पहुंँँचा दूँँगा। “

“दूसरा कोई उपाय भी नहीं है सर।” खलासी ने बताया।

“अच्छा चलो।”कह कर उसने लैप-टाॅप वाला बैग कंधे पर टिकाया और स्काई बैग उठा कर बस से नीचे उतर आया, “तुम्हारा रिक्शा कहाँँ है?”

रिक्शे वाले ने उसका स्काई-बैग पकड़ लिया, “स्टेशन के सामने से थोड़ा आगे जा कर ओवर ब्रिज के पास लगाया है। इधर से तो जा नहीं सकते। बर्मा-माइंस हो कर ही मानगो बस स्टैन्ड जाना होगा। बाबू साहेब मानगो बस स्टैन्ड के पचास रुपये होंगे।”

“ठीक है भाई पचास ही ले लेना, मगर मुझे जल्दी पहुँँचाओ। अगर समय से बस ना मिली तो मैं आज की रात राँँची में ही अटक जाउंगा। हवाई टिकट का नुकसान होगा सो अलग।” अभिनव हड़बड़ा रहा था।

“बस के लिए तो आप बिल्कुल मत घबराइए। मैं आपको समय से स्टैन्ड पहुँँचा दंूगा।” कह कर उसने अपने सर पर लपेटे गमछे से रिक्शा की सीट झाड़ कर उसे बैठने का इशारा किया।

ओवर ब्रिज के पास उसने जिस रिक्शा पर अभिनव को बैठाया, वह वाकई साफ-सुथरा और नया-सा लग रहा था।

अभिनव के बैठते ही उसने रिक्शे को धकेल कर गतिशील किया और बांया पैर पैडल पर रख, उचक कर हवा में लहराते हुए, अपनी सीट पर जा बैठा।

“मेरा नाम मगन भगत है।” रिक्शे के गति पकड़ते ही उसने बोलना शुरु कर दिया, “लगता है आप इधर पहली बार आये हैं ?”

“हाँ, पहली बार आया हूँ और आते ही इस शहर के जाम ने मुसीबत खड़ी कर दी।” अभिनव ने उसकी बात को बेध्यानी से सुनते हुए कहा। उसका ध्यान पूरी तरह कहीं और अटका हुआ था। इस बात का अंदाजा शायद रिक्शेवाले मदन भगत को भी हुआ।

उसने एक बार पीछे मुड़ कर देखा और बोला, “आपको समय पर पहुँचने की ही फिकर है न बाबू साहेब ! मगर आप फिकर मत कीजिए। मैं आपको पहुँचा दूँगा। आप स्टैन्ड भी समय पर पहुँच जाएंगे और राँची वाली बस भी पकड़वा दूँगा।”

“अगर मुझे पहुँचने में देर हो गई तो मेरा सारा काम गड़बड़ हो जाएगा।” अभिनव ने कहा। वह अभी भी चिन्तित ही था।

लेकिन उसकी चिन्ता से बेखबर मगन भगत ने बोलना जारी रखा, “बाबू, मेरा बुढ़ा जो था न वो बड़ा अच्छा था... भोत समझदार। न....न पढ़ा-लिखा वाला समझदार नहीं! वो तो निरा अनपढ़ था। जो उसे थोड़ा-बहुत लिखना पढ़ना आता था, वो सब उसने अपने से सीखा था।”

अभिनव ने अनमने से ही हुँकारा भरा, “हूँ !” तभी उसका मोबाइल बज उठा। उसने मोबाइल निकाल कर कान से लगा लिया, “हलो !”

“.....” उधर की आवाज मदन भगत को सुनाई नहीं देनी थी, सो वह चुप हो गया।

“हाँ...हाँ मीता मैं चाईबासा से निकल चुका हूँ। इनफैक्ट अभी जमशेदपुर में हूँ।”

“.......”

“हाँ यहाँ से राँची पहुँचने में यही कोई तीन-साढ़े तीन घंटे लगेंगे।”

“.......”

“नहीं यार डिस्टेन्स तो सौ-सवा सौ किलोमीटर होगी, लेकिन इधर की सड़कें ठीक नहीं हैं।” उसकी आवाज में विवशता झलकी।

“.......”

“डोन्ट वरी साढ़े पाँच बजे तक मैं दिल्ली में रहूँगा। ओ.के. बाई!”

“.......”

अभिनव के फोन रखने तक वे बर्मा-माइन्स बाज़ार के पास वाले मैदान तक पहुँच चुके थे।

मगन फिर चालू हो गया, “सर, आप सितंबर में आये हैं, अगर अक्तूबर में दुर्गा पूजा के समय आते तो इस मैदान की रौनक देखते। यहाँ भोत बड़ा मेला लगता है।” फिर कुछ रुक कर उसने पूछा, आपके उधर भी होती होगी न! सुना है वहाँ भोत बड़ा रामलीला मैदान है।”

“हाँ, रामलीला मैदान हैं। लेकिन उधर दशहरा मनाया जाता है, वैसी दुर्गा पूजा नहीं होती, जैसी बंगाल में होती है।” अभिनव ने जवाब दिया।

“हमारे जमशेदपुर में तो बंगाल जैसी ही होती है। दस दिनों तक पूरा शहर पूजा की खुशियां मनाता है।”

बर्मा माइन्स बाजार के चैराहे से उन्हें बांये साक्ची की ओर मुड़ना था। वहाँ पर कंपनी के अंदर-बाहर जाने वाले ट्रकों के कारण भीड़ थी, वह रिक्शे से उतर कर अपनी रिक्शा पोंछने लगा। अभिनव को लगा वह समय बर्बाद कर रहा है।

“यार तुम रिक्शे की बहुत ज्यादा सफाई करते हो।” उसने अधीरता से कहा।

“अब क्या बताउं बाबू साहेब, मेरे बुढ़े ने भोत मेहनत की कि मैं पढ़-लिख कर कुछ बन जाउं। मगर मेरा मन तो लगता ही नहीं था। इस बात को मेरे बापू ने भी जान लिया था। तभी तो मैं कहता हूँ कि मेरा बाप भोत समझदार था। मरने से पहले वो मुझे ये रिक्शा खरीद कर दे गया। उसने कहा था रिक्शे से रोजी है इसलिए इसको खुद से भी ज्यादा प्यार करना, उसकी वही बात माना करता हूँ। बस दिल कहता है कि ये सदा ही साफ-सुथरा और चमचम करता रहे।” रिक्शावाला लगातार बोले जा रहा था।

“आप कहाँ के रहने वाले हो, दिल्ली के ?” दसने पूछा।

अभिनव ने अपनी अधीरता पर नियंत्रण करते हुए उत्तर दिया, “हाँ...दिल्ली से सटा ही फरीदाबाद है, वहीं रहता हूँ। लेकिन हमारा आॅफिस दिल्ली में है।”

“दिल्ली तो भोत बड़ा शहर होगा!” मगन ने जिज्ञासा प्रकट की।

“हाँ... हमारे देश की राजधानी है।” अब अभिनव को भी उसकी बातों में रस आने लगा था।

“जइसे हमारी राजधानी राँची है।” मगन ने समझने के अंदाज में कहा।

“हाँ.. हाँ वैसे ही।” फिर अभिनव ने पूछा, “बस स्टैन्ड पहुँचने में अभी और कितनी देर लगेगी ?”

“बस बाबू जी, वो सामने मोड़ के बाद ईस्ट-प्लान्ट बस्ती है। उसके बाद साक्ची और वहाँ से दस मिनट में मानगो बस स्टैन्ड ....।”

मगन ने वह सब कुछ ऐसे अंदाज से बताया था कि अभिनव को अपना बचपन याद आ गया। जब कभी अपने पिता जी के साथ वह पैदल चलते-चलते थक जाता था तो पिताजी कहा करते, ‘बस अगले ही मोड़ के बाद हम पहुँच जाएंगे।’ और इस तरह एक के बाद एक कई अगले मोड़ आ आ कर गुजर जाते.....। थकान दूर करने का वह अच्छा उपाय होता। यहाँ मगन भगत उसकी बेचैनी कम कर रहा था।

“अच्छा बाबू आप तो दिल्ली के हो, बताओ तो अपने अन्ना का कुछ बनेगा कि नहीं ?” मगन ने अचानक ही पूछ लिया।

बिना प्रसंग के बात सुन कर अभिनव अचकचाया, “अन्ना का कुछ बनेगा मतलब !”

“अरे वो ही, जोे दिल्ली में नेताओं की काली कमाई का बात बोले थे। ....और क्या तो पाल.... हां, लोकपाल का बात बोले थे। आप उनको नहीं जानते ?”

अभिनव ने उसकी बात का प्रसंग जान लिया था, “...ओ वो, अब समझा!”

मगन भगत फिर बोला, “मेरा मतलब है कि उसकी बात चलेगी कि नहीं!”

अभिनव ने कहा, “अब मैं क्या बताउं क्या बनेगा? कुछ तो पाॅजिटिव होना ही चाहिए।”

“क्या टिव ? क्या कहा आपने?” मगन भगत की समझ में नहीं आया था।

“पाॅजिटिव माने अच्छा।” अभिनव ने समझाया।

“जब वो अन्ना वाला चक्कर हुआ था, तब क्या आप दिल्ली में ही थे ?” उसने उत्साहित होते हुए पूछा।

“हाँ, मैं वहीं था और अपने मित्रों के साथ उनकी सभा में भी गया था।” अभिनव ने खुशी होते हुए बताया।

“आपने वहाँ जा कर क्या किया था ?”उसका उत्तर सुन कर न जाने क्यों मगन की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

“हम लोगों ने वहाँ जा अन्ना की प्रार्थना-सभा में भाग लिया था... और आन्दोलन चलाने के लिए सभी मित्रों ने अपने एक दिन का वेतन चन्दे में दिया था।

“आप लोगों ने ये तो बड़ा अच्छा किया।” मगन ने खुश होते हुए कहा।

फिर कुछ सोचते हुए बोला, “अच्छा बाबू, आपको क्या लगता है, क्या होगा, क्या अपने अन्ना की वो बात आज वाले नेता मानेंगे ?”

“मानेंगे क्यों नहीं ? ... जरुर मानेंगे! उन्हें मानना ही पड़ेगा!” अभिनव ने ज़ोर दे कर कहा।

कुछ पलों को मगन चुप रहने के बाद बोला, “बाबू आपकी बात पर भरोसा करने को मन करता है। लेकिन क्या करुँ, ये जो आज वाले नेता लोग हैं न ये पहले के नेताओं जैसे नहीं हैं ! ये तो साहूकारों को भी मात देने वाले हैं।”

“साहूकारों को मात देने वाले मतलब ?” इस बार समझने में अभिनव को कठिनाई हुई।

डसे समझाते हुए मगन बोला, “मतलब कि साहूकार हमेशा कहा करते हैं, चमड़ी जाए तो जाए दमड़ी न जाए ....। आज कल के नेताओं की सारी राजनीति तो बस पैसा कमाने को होती रहती है। उनको कमाने से कोई रोक भी नहीं सकता।”

“तुम्हारी बात सही है लेकिन आज भी सारे के सारे नेता वैसे नहीं होते।”

“हाँ आप ठीक कहते हैं, लेकिन वैसे दो-चार ठीक नेता भला ढेर सारे साहूकार नेताओं का क्या कर लेंगे ? कहते हैं न, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता बाबू साहेब।”

“बात तो तुम्हारी ठीक ही है ! लेकिन शायद चने और आदमी में यही फर्क होता है! अकेला आदमी ठान ले तो बहुत कुछ कर सकता है।” अभिनव ने उसकी बात काटते हुए कहा।

उसकी वह बात सुन कर अब तक लगातार बोलता रहने वाला मगन भगत अचानक ही चुप हो गया था।

शुरु-शुरु में उसकी बातों से बोर हो जाने वाले अभिनव को अब उसकी चुप खल रही थी। इस बार अभिनव ने उसे टोका, “क्या हुआ, कहाँ खो गये ?”

“कुछ नहीं बाबू जी, आपकी बात से मुझे अपना बुढ़ा याद आ गया। वह कहता था, आदमी में और बाकी जीवों में सबसे बड़ा फर्क होता है कि कितनी भी कठिनाई आ जाए, आदमी निराश नहीं होता। अगर आदमी निराश हो जाए तो फिर वो आदमी कैसा! आदमी को कभी निराश नहीं होना चाहिए।” कहते-कहते वह पूरे उत्साह से रिक्शा चलाने लगा।

वे साक्ची पहुँच गये थे। वहाँ सड़क भी काफी चैड़ी थी और ट्रैफिक भी कम लग रहा था। देखते ही देखते मगन की रिक्शा हवा से बातें करने लगी। अभिनव को लगा मानों उसमें अचानक ही कोई मोटर लग गयी हो। मगन पूरे उत्साह से पैडल मार रहा था। थोड़ी ही देर में वे मानगो बस स्टैन्ड जा पहुँचे।

अभिनव ने देखा, एक बस वहाँ से निकल रही थी। मगन ने जा कर रिक्शा उसके ठीक बगल में लगा दिया और जोर से बोला, “कन्डक्टर साहब, एक सीट राँची !”

उसकी तेज आवाज पर चलती बस रुक गई।

अभिनव रिक्शा से उतर कर उसे भाड़ा देने के लिए अपना पर्स निकाल रहा था, जब मगन भगत उससे बोला, “बाबू आप दिल्ली में मेरा एक काम कर दोगे ?”

अभिनव ने कुछ उलझन से पूछा, “तुम्हारा काम ? तुम्हारा दिल्ली में क्या काम है ? तुम्हारा काम मैं कैसे कर सकूँगा?”

“मेरा दिल्ली वाला काम आप ही कर सकते हैं।” मगन भगत ने अपने पूरे विश्वास से कहा, “वो ऐसा है कि मैं तो कभी दिल्ली जा नहीं सकता, आप मेरे इस भाड़े की कमाई के ये पैसे अन्ना को दे देना ? हमारे अन्ना को जीतना ही होगा !”