बंगाली सिनेमा अब साहसी हो गया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 दिसम्बर 2015
कोलकाता की पत्रकार डोला मित्रा की रपट से ज्ञात हुआ कि कुछ समय से कोलकाता में फिल्मकारों ने प्रेम दृश्यों में शारीरिकता एवं मांसलता का प्रदर्शन प्रारंभ किया है। संभवत: वहां अभी 'संस्कारवान' पहलाज निहलानी का साया तक नहीं पहुंचा है। इसी रपट के अनुसार बंगाली फिल्म 'भीतू' का दिल्ली में प्रदर्शन किसी संगठन सरगना ने प्रोजेक्शन रूम में जाकर रोक दिया। उनके अनुसार सेक्स दृश्य 'भालो बंगला संस्कृति' के खिलाफ है। बंगाल में हमेशा धनाढ्य व शिक्षित वर्ग का भद्रलोक रहा है, जहां किसी किस्म की अभद्रता सहन नहीं की जाती। यह भद्रलोक आम गरीब बंगाली से अलग सोच रखता है। वह अपनी 'अंग्रेजी टोपी' के नीचे छिपे अपनी परिभाषा से चलने वाले दिमाग से काम लेता है और उसका खयाल है कि आम आदमी के विचार उसके भूखे पेट से जन्म लेते हैं। बहरहाल, इस महान भद्रलोक की छद्म संस्कृति की सहनशीलता कम है और इसके मानदंड के कारण गरीब की बहुत पिटाई हुई है। यह फिल्म पूरे बंगाल में सफलता के साथ पहले ही दिखाई जा चुकी है। दिल्ली में बसे बंगाल और कोलकाता में बसे बंगाल के बीच बहुत फासला है। दरअसल, हर वह व्यक्ति जो अपने जन्म स्थान से दूर है, उसे अपनी संस्कृति की कथित परवाह अधिक होती है। अमेरिका में बसे भारतीय बहुत से ढकोसले भारतीयता के नाम पर करते हैं।
बहरहाल, यह कहा जाता है कि रवींद्रनाथ टैगोर की कथा 'चारुलता' पर सत्यजीत राय ने 1964 में फिल्म बनाई थी। उसमें अकेलेपन और व्यस्त पति द्वारा अनदेखी किए जाने वाली चारुलता का प्रेम पति के छोटे भाई से हो जाता है। यह स्त्री के सूनेपन के साथ उसकी स्वाभाविक इच्छाओं के अनजाने किए दमन की कथा है। सत्यजीत राय ने फिल्म चारुलता के हृदय में शूट किए जाने के कारण संवेदनशीलता से गढ़ी थी और यह उनकी श्रेष्ठ कृति मानी जाती है। यह अत्यंत दुरुह अवचेतन के गहन अध्ययन जैसी रही है। 'चारुलता 2011' नया संस्करण था और उसमें रिश्तों की शारीरिकता का खुला प्रदर्शन था। फिल्मकार अग्निदेव चटर्जी का कहना है कि उन्होंने चारुलता के एकाकीपन और दमित इच्छाओं को प्रस्तुत किया है। इसी तर्ज पर बंगाल में अनेक फिल्में बनी हैं। मयंक भौमिक की 'टेक वन' अौर 'नॉट ए डर्टी फिल्म,' 'डाउन एंड डर्टी', टॉप अप, 'सॉफ्ट फोकस' और 'फोन इन' जैसी फिल्में सफलता से प्रदर्शित हुई हैं। इस फिल्म में काम करने वाली महिलाअों का कहना है कि वे दिमागी तौर पर बहुत ही शांति से ये दृश्य करती हैं।
बंगाल में अनेक फिल्म समालोचक इस खुलेपन की लहर की आलोचना करते हैं। दरअसल, भारतीय समाज में बहुत परिवर्तन हुआ है और जीवन के ताने-बाने में ही मांसलता भर गई है। दरअसल, महिला की स्वाभाविक इच्छाओं पर सदियों से संस्कार का घूंघट रहा है और वह अब इस मूड में है कि 'घूंघट के पट खोल तोहे पीव मिलेंगे।' यह धरती में सदियों से सुसुुप्त ज्वालामुुखी के आज प्रकट होने की तरह है, जो केवल विनाश नहीं करता, सृजन भी करता है। उसके लावे से धरती और अधिक उर्वर हो जाती है। यह संभव है कि संस्कार क्षेत्र की सारी धुंध आत्मा की अपरिभाषित अवधारणा के कारण हुई हो, क्योंकि सर्वमान्य है कि आत्मा शरीर में रहती है और उसके घर, शरीर को अपवित्र कैसे माना जा सकता है। श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में आत्मा को 'देही' के नाम से भी संबोधित किया अर्थात मानव देह के भीतर 'देही' का निवास है, जो मनुष्य का अवचेतन है। आत्मा या देही मनुष्य के अवचेतन में क्षण-क्षण बनते-बिगड़ते संसार का ही नाम है और यह मनुष्य के विचार और कार्य का निरीक्षण करती है तथा उसे सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करती है गोयाकि आत्मा मनुष्य के शरीर में निवास करने वाला सेंसर है परंतु कुछ संकुचित लोग आत्मा को हंटर की तरह इस्तेमाल करते हैं, कुछ कवच की तरह और कुछ चतुर लोगों ने आत्मा के नाम पर अंधविश्वास और कुरीतियों का व्यवसाय भी चला रखा है। दरअसल, हमारी उदात्त संस्कृति की सही समझ उन्हें नहीं हैं, जो हमारे हुक्मरान हैं। मनुष्य अवचेतन का रहस्य और तिलिस्म गूढ़ है। शरीर प्रदर्शित करने वाली मनोरंजन जगत की कन्याओं ने देह में बसी देही को अक्षुण्ण रखा है।