बंगाल में उर्दू / रामचन्द्र शुक्ल
बंगाल के कुछ थोड़े से मुसलमान लोग स्वजातीय लोगों को बंगला छोड़कर उर्दू लिखने और बोलने की सलाह दे रहे हैं। इसका वहाँ के 'मुसलमान' नामक पत्र ने एक बड़ा लेख लिखकर कड़ा विरोध किया है। वह लिखता है “उर्दू हमारी मातृभाषा का स्थान नहीं पा सकती। हम लोग बंगाली मुसलमान हैं अत: हमें यह कहने में कुछ भी लज्जा नहीं कि हमारी मातृभाषा बंगला है जो कि अब इतनी समृध्द और चित्तकर्षक हो गई है। यद्यपि कुछ ऐसे मुसलमान हैं जो अपनी मातृभाषा का मूल्य नहीं समझते हैं पर बहुत से ऐसे भी हैं जो उससे पूरा प्रेम करते हैं। बंगाली मुसलमान भीतर बाहर सर्वत्र बंगला ही बोलते हैं। यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि उर्दू हमारी मातृभाषा बन सकती है तो भी बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ दिखाई देती हैं। हिन्दू लोग तो बराबर अपनी मातृभाषा बंगला ही बोलते जाएँगे अत: मुसलमान लोग अपनी भाषा को भिन्न करके कै घड़ी काम चला सकते हैं। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की बोली न समझ सकें यह कितनी बड़ी आफत है। अदालत और जमींदारी आदि के कारबार सब बंगला में होते हैं। बंगला का साहित्य उर्दू से कहीं अधिक उन्नत है और उसमें मुसलमानी धर्म की पुस्तकें भी बन गई हैं। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए मुसलमान लेखकों ने भी बंगला की पुस्तकें लिखीहैं जिनमें से कुछ टेक्स्ट बुक कमेटी द्वारा स्वीकृत हुई हैं। अत: मुसलमान बालकों को अब आरम्भ में केवल राम, श्याम, काली के ही नाम नहीं वरन् मुहम्मद, अली, हसन, हुसैन के नाम भी पढ़ने पड़ेंगे।” पूर्वीय बंगाल की मोहमडन एजुकेशन कान्फ्रेंस के विगत अधिवेशन के सभापति मौलवी तसलीमुद्दीन अहमद बी. एल. ने भी अपनी मातृभाषा बंगला पर बड़ी उत्तोजनापूर्ण भाषा में महत्तव प्रकट किया था।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका-अप्रैल मई, 1910 ई.)
[ चिन्तामणि: भाग- 4]