बंजारा मन और बंदिशें / मधु कांकरिया
10 .4 .2007
मन जो इन दिनों फालतू बिल्ली बन गया है, बहलाऊँ बहल जाता है, भगाऊँ भाग जाता है। कल शाम एकाएक लोडशेडिंग हो गई थी। गर्म, सूनी और अँधेरी शाम में मोमबत्ती की रोशनी में रहना बहुत डिप्रेसिंग लग रहा था। यूँ भी इन दिनों पीछे की तरफ का हमारा घर भुतहा घर बन गया है। मकान से अधिकांश किरायेदार जा चुके हैं, इस कारण हर जगह घुप्प अँधेरा और साँय साँय करता सन्नाटा। न इनसान न इनसानी आवाज। खाली कमरों में प्रेतात्मा की तरह डोलती मेरी काया और धक् धक् करता मन जो एकाएक फिर मेरी गिरफ्त से बाहर जा चुका था। उत्पाती मन को ठिकाने लगाने के लिए बाहर निकलना जरूरी हो गया था। बाहर निकलने के लिए नीचे उतरने लगी कि तभी सुनी घुटी घुटी सी दबी दबी सी आवाज जैसे कोई मुँह बंद कर रो रहा हो। शायद मुझे भ्रम हुआ होगा। मैंने दो कदम आगे बढ़ाया पर नहीं फिर वैसी ही आवाज बल्कि इस बार कुछ और साफ। पूरी चेतना से सुनने लगी। आवाज ग्राउंड फ्लोर के घर से आ रही थी। ताज्जुब घर के बाहर ताला जड़ा हुआ था। टॉर्च की रौशनी में बाहर की तरफ खुली हुई इकलौती खिड़की से अंदर झाँका तो कलेजा धक् से रह गया। भीतर पड़ोसिन की चार वर्षीय लड़की खिली अँधेरे में दीवार से चिपकी डरी सहमी सुबक रही थी। चेहरा आँसुओं से तरबतर। क्या हुआ? सुबकते हुए बोली वह कि पापा अभी तक नहीं आए। खिली की कामकाजी माँ रात नौ बजे घर लौटती है। दोपहर दो बजे उसकी आया उसे स्कूल से लाकर, खाना खिलाकर घर को बाहर से ताला लगाकर चल देती है। शाम साढ़े छह बजे के लगभग उसके पापा ऑफिस से आकर उसे बंद घर से आजाद करते हैं। यह हर दिन की कहानी पर आज लोडशेडिंग ने बात बिगाड़ दी, घुप्प अँधेरे ने डरा दिया उसे।
खिली का आँसुओं से तरबतर चेहरा मुझे सभ्यता और संवेदना की आदिम गुफा में धकेल गया। विकास की इस यात्रा में क्या हम सचमुच आगे बढ़े हैं? क्या हम सचमुच सभ्य हुए हैं? खरगोश सी नाजुक बच्ची और फटे अखबार की तरह पड़ा बच्चा जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं। दुनिया में इससे ज्यादा कारुणिक दृश्य और क्या हो सकता है। मन करता है कि बात करूँ खिली की माँ से, कहूँ उससे कि जब घर में वैसा कोई आर्थिक अभाव नहीं तो फिर किस प्राप्ति की खोज में तुम इस नन्हीं कोंपल के बचपन को झुलसा रही हो? क्यों इनकी अंतहीन कल्पना की उड़ान पर बंदिश ठोक रही हो? क्या ऐसे ही बच्चे बड़े होकर चिड़चिड़े, अंतर्मुखी, बदमिजाजी, हीन भावना से ग्रस्त और अपराधी नहीं होंगे? क्या आधुनिकता और मुक्ति का मतलब मातृत्व का गला घोंटना है? और जो शैशव इतना असहाय, सहमा, खामोश और खौफ खाया होगा उसका यौवन कैसा होगा? याद आता है कि जब राजा स्कूल से आता था तो उसका पेट फूला रहता था बातों से। हर घटना, हर लम्हे को बताने को उतावला रहता था वह। एकबार मैं आते ही फोन से चिपक गई तो देखा वह काम करने वाली बाई को ही पढ़कर सुनाने लगा वह रिमार्क जो उसकी मैडम ने उसकी डायरी में लिखा था। किसको सुनाती होगी खिली अपनी दुनिया की अंतहीन बातें?
ऐसे बच्चे अलग ढंग से ही विद्रोह करते हैं। एक बार चेन्नई में मैं एक दस वर्षीय लड़के को हिंदी सिखा रही थी। उसकी कहानी भी लगभग खिली जैसी ही थी। मैंने एक दिन उससे कहा कि वह 'मरने' के ऊपर कोई वाक्य बनाए। बच्चे ने वाक्य बनाया -मेरी माँ मर गई है। मैंने लड़के को कहा कि उसकी माँ इतनी स्वस्थ और छोटी उम्र की है फिर क्यों उसने ऐसा वाक्य बनाया? बच्चे ने जबाब नहीं दिया, बस मुँह बनाता रहा, पर उसकी माँ ने कहा, मेरे बेटे की यही छिपी हुई इच्छा है। मुझे पता है उसे मेरा बाहर निकलना पसंद नहीं है। लेकिन ये लोग यह नहीं जानते कि मैं इतना मर खप इन्हीं के लिए तो रही हूँ, इनके उज्जवल भविष्य के लिए। मैंने कहा भी कि वर्तमान को झुलसा कर आप कैसा भविष्य इन्हें देंगी। लेकिन उनका रिसीवर मेरे कहने के मर्म को ठीक ठीक पकड़ नहीं सका।
5 .12 .07
गर्म गर्म हवा सी जिंदगी और बेरंग मौसम घर का। अपने अपने तहखानों में कैद सब, शायद भिड़ंत के डर से कोई बाहर नहीं निकलता। निकलता भी है तो बच बच कर। कई बार लगता है जैसे यहाँ लोग नहीं कुछ चुप्पियाँ रहती है जो प्रेतात्माओं कि तरह विचरण करती रहती है, कभी इधर कभी उधर। दोनों तहखानों के बीच कमजोर पुल की तरह है माँ जो चाहती है कि वातावरण थोडा हल्का हो। घर घर सा महके। इसलिए सभी चुप्पियों के बीच सायास कभी हलकी हँसी तो हलके संवाद के जीवंत चिह्न भी दिख जाते हैं। पर माँ भी क्या करे, खुद वह एक चलता फिरता अजायबघर है और जब तब अधूरी कामनाओं के टूटे पंख, अधबने स्वप्नों की किरचें, अनभोगे सुखों के सूखे पत्ते और अधूरे जीवन से उपजी कुंठाओं के चमदागड़ चीखने लगते है और बूँद बूँद जमा संतुलन गड़बड़ा जाता है।
यह लगभग हर दिन की कहानी। पर इसी कहानी में आज आया एक नया ट्विस्ट।
बाथरूम से नहाकर निकले छोटे भाई ने एकाएक देखा संगमरमरी हॉल में जगह जगह केसरया पदचिह्न। कैसे बने ये पदचिह्न? हम सोचने लगे कि तभी मंदिर से लौटी अम्मा ने जैसे ही यह सब देखा परम प्रमुदित हो दोनों हाथों को आसमान की ओर लहरा कर, आसमान की ओर ताकते हुए गदगद कंठों से घोषणा की कि ये केसरिया पगलिया ईश्वरीय चमत्कार है। जो उनके निरंतर धर्म में लगे होने के फलस्वरूप प्रकट हुए हैं। कुछ दिनों पूर्व ऐसे ही मंदिर में जमीन से केसर निकलने का चमत्कार भी माँ के ही मुँह से सुना था मैंने। मुझे डर लगा कि कहीं मीडिया को खबर लग गई तो वे न आ धमकें। आस्था अनास्था के बीच डोलते घर के दूसरे सदस्य भी भौंचक थे। सब कुछ एकाएक रहस्मय और अलौकिक हो गया था। पूरा घर बहुत दिनों बाद धर्म रूपी वृक्ष से एक डोर में बँधा इस चमत्कार से अभिभूत था। बदसूरती से घिरे फ्लैट में एकाएक रौनक आ गई। कोई इसे पूर्वजों का पुण्य बता रहा था तो कोई इसे साक्षात उनकी उपस्थिति के रूप में देख रहा था। तभी सब गुड़ गोबर हो गया। धर्म की धाक का हुक्का एकाएक धप से बुझ गया। काम करने वाली बाई ने झाड़ू लगाते वक्त कुछ फूटे हुए पुराने कैप्सूल लाकर दिए, किसी का पैर इन्ही कैप्सूलों पर पड़ गया था। केसरिया पदचिह्न उसी कैप्सूल से निकला द्रव्य था।
सोचती हूँ कि यदि वे कैप्सूल किसी कारण कामवाली बाई के हाथ नहीं लगे होते तो?
शायद अंधी आस्था ऐसे ही जन्म लेती है।
16 .3 .08
आज भारतीय भाषा परिषद में संगोष्ठी के बाद जलपान के बीच माटी के सिकोरे को लेकर दिलचस्प बातें सुनी। किसी महिला ने बताया कि मिट्टी के सिकोरे के बारे में नंद दुलारे बाजपेयी ने कहा कि यह सिकोरा भारतीय स्त्री के चरित्र की तरह है जो जिंदगी में एक ही पुरुष के होठों से लगता है और फिर टूट जाता है। दूसरा पुरुष उसे छू भी नहीं पाता है। इस पर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि यह सिकोरा भारतीय स्त्री नहीं वरन अमेरिकी पति पत्नी का रिश्ता है जो एक बार टूट जाता है तो फिर कभी नहीं जुड़ता है। हमारे रिश्ते तो पीतल के बर्तन कि तरह होते हैं जो टकराते हैं, खड़खड़ाते हैं लेकिन इकट्ठे रहते हैं और कभी नहीं टूटते हैं।
लेकिन आज परिदृश्य से दोनों ही गायब हैं। न सिकोरे हैं और न ही पीतल के बर्तन।
1 .8 .09
'जैसी जरूरत वैसा खुद को दिखाओ' अपने समय की सामूहिक चेतना से प्रभावित बेटे ने भी समय रहते कामयाबी का गुर सीख लिया है। कल यूँ ही उसके बायोडेटा पर नजर पड़ गई थी। मैंने देखा उसने अपनी एक महत्वपूर्ण डिग्री 'इंटरनेशनल सी ऍफ ए' का जिक्र नहीं किया था। मैंने सोचा ऐसी गलती वह कैसे कर सकता है? इतनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर अर्जित की गई डिग्री! कोई कैसे अपने बायोडेटा में उसका जिक्र करना भूल सकता है? बहरहाल जैसे ही वह घुसा घर में, मैंने प्रश्नों कि बौछार लगा दी। वह हँसता रहा। बाद में उसने बताया कि अम्मा जिस कंपनी के लिए मैंने इंटरव्यू दिया है वह मार्केटिंग कंपनी है। और मेरी डिग्री फाइनेंस की है। मैं बीच में ही फिर कूद पड़ी, 'तो क्या हुआ, इससे तो यही साबित होता है कि तुम दोनों ही जगह के लिए फिट हो।'
'नहीं अम्मा' इससे यह साबित होता है कि मैं एक कन्फ्यूज्ड बंदा हूँ। मैं मार्केटिंग कंपनी के लिए पूरी तरह समर्पित होकर काम नहीं कर पाउँगा। और मौका मिला तो फाइनेंस की कंपनी में भाग जाऊँगा... इसलिए मैंने हर जगह यह दिखाया है कि मुझे सिर्फ और सिर्फ मार्केटिंग में ही दिलचस्पी है कि मैं मार्केटिंग के लिए ही बना हूँ। अम्मा हमें वह नहीं दिखाना है जो हम हैं वरन हमें वह दिखाना है जो बिक सकता है। यानि अपनी मेहनत और प्रतिभा से भी उतना ही लेना जितना बिक सके बाजार में! इसीलिए मैंने अपनी CFA की डिग्री का जिक्र नहीं किया। कामयाब बेटा अपने प्रवाह में बहता जा रहा था, मैं देख रही थी उसके रूपांतरण को? बिजनस स्कूल ज्वाइन करने के पूर्व कितना तेजस्वी था वह! कितनी पवित्र आत्मा! किसने बना दिया उसे ऐसा? क्यों बन गया वह आज की बिकाऊ और कमाऊ संस्कृति की पैदावार? क्यों बेटे को इसमें कुछ भी अपमानजनक, धन और संसाधन का दुरुपयोग या असंतोषजनक नहीं लग रहा?, जीवन स्वप्न, लक्ष्य और काम से मिलनेवाला संतोष तो दूर की बात। शायद उसे इसका भी मलाल नहीं कि उसके चलते किसी एक को इस डिग्री से वंचित रह जाना पड़ा।
सोच रही हूँ और साथ ही झाँक रही है विगत स्मृतियों के टीले से जलते सच की ऐसी ही एक और बदरंग तस्वीर। बात उन खुशनुमा दिनों की जब मुझे ताजा ताजा एम.ए. की डिग्री क्या मिली मेरी कल्पनाओं में जैसे पंख लग गए थे। परिवार की तीन पीढ़ियों की मैं इकलौती एम.ए. मैं सिर्फ एम.ए. ही नहीं लिखती थी। मैं एम.ए. (इकोनोमिक्स) लिखती थी। खुशनुमा स्वप्नों से भरे उन्ही दिनों एक बायोडेटा मैं बना रही थी, बैंक की नौकरी के लिए। पिता को दिखाने के लिए ड्राइंग रूम में घुस रही थी कि तभी देखा तनाव और परेशानी से भरा पिता का चेहरा। उनके भी हाथों में मेरा बायो डेटा था। बाहर से आए कोई शुभचिंतक और रिश्तेदार पिता को सलाह दे रहे थे 'परिवार अच्छा है, खानदानी भी है, बस दिक्कत है इनकी ऊँची डिग्री। क्यों न इनके बायोडेटा से एम.ए. की डिग्री निकाल दें तो बात बन जाएगी क्योंकि उच्च पढ़ी लिखी लड़की चाहे कितनी भी विनम्र क्यों न हो, लोग डरते है कि उन्हें परिवार के अनुरूप वे ढाल पाएँगे या नहीं।' बात बनी या नहीं, मुझे नहीं पता, यह भी नहीं जानती कि पिता ने उनकी सलाह मानी या नहीं। बस इतना भर ध्यान है कि उस एक पल में जाने कितनी कीलें कलेजे में धँस गई थीं। कायदे से जिंदगी की शुरुआत भी नहीं हुई थी और पंख कतरने की सलाहें आने लगीं। उस एक वाक्य ने ही जैसे मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा मुझे पराजित कर लगभग मार ही डाला था।
सोचती हूँ कि क्या समय सचमुच बदला है। पुत्र को CFA की डिग्री छिपानी पड़ी और माँ को भी M.A. की डिग्री छिपाने की हिदायत मिली। पुत्र को कंपनी का आदर्श मैनेजर बनने के लिए तो माँ को घर की आदर्श बहू (या प्रबंधिका) बनने के लिए।
11 .09 .09
अपने क्षितिजों को विस्तार देने के लिए इन दिनों कुछ क्लासिक फिल्में देख रही हूँ, कल देखी 'The Bucket List'। फिल्म क्या उच्च अनुभूतियों का आस्वादन थी। फिल्म में जिंदगी की संध्या में मौत के करीब आए दो व्यक्ति अपनी अधबनी लालसाओं की एक लिस्ट बनाते हैं और मरने के पूर्व अपने बचे खुचे मनोबल के दम पर इस लिस्ट को पूरी करने के लिए निकल पड़ते हैं। एक शाम प्रकृति का अद्वितीय सौंदर्य उनकी मन आत्मा को उजास से भर देता है। हवा की पवित्रता में दोनों घुल घुल जाते हैं। उन्हीं सात्विक लम्हों में, डूबते सूरज की डबडबाती आँखों की ओर देखते देखते एक दोस्त दूसरे से पूछता है 'क्या तुम्हारे जीवन में आनंद है? पहला दोस्त कुछ सोचकर बोलता है - हाँ है। वह फिर पूछता है - क्या तुम्हारे कारण किसी और की जिंदगी में आनंद है? वह दोस्त चुप हो जाता है।
ये दोनों सवाल मुझे भी मेरी आत्मा के रूबरू खड़ा कर देते हैं। क्या मेरे कारण दुनिया थोड़ी और सुंदर हुई है? यदि नहीं तो इसके लिए मैं क्या कर रहीं हूँ? क्या कर सकती हूँ? बहरहाल जब जब अपने समय के अँधेरे में मन डूबने लगता है, क्षुद्रताओं से मन घिरने लगता है, मेरा आसमान बदरंग होने लगता है। ये दो सवाल रोशनी के ढेर की तरह उछल कर मेरे सामने आ खड़े होते हैं और मैं फिर सत्य, सौंदर्य और प्रेम के स्वप्न देखने लगती हूँ।
इन दिनों अपनी बीती जिंदगी पर पुनर्विचार चल रहा है। जाने कितने पारिवारिक और सामाजिक दबाबों के तहत हम जीते जाते हैं, एक वह जिंदगी जो हमारे 'स्व' के भाव के विरुद्ध चलती जाती है। एक ऐसी ओढ़ी हुई जिंदगी जो चादर कि तरह हमसे लिपटी हमें अपनी मूल सत्ता से दूर धकेलती हमारे भीतर की दुनिया को बदरंग करती जाती है। और जब तक हमें इस बात का एहसास होता है जिंदगी हमारे हाथों से निकल चुकी होती है। कल पढ़ रही थी एक सर्वे जिसमे एक संस्था ने उन लोगों का साक्षात्कार लिया जो मृत्यु पथ के राही थे। कुछ कैंसर पीड़ित थे तो कुछ को डॉक्टरों ने जबाब दे दिया था। उनसे पूछा गया कि जीवन के इस मुकाम पर क्या उन्हें किसी बात का अफसोस है? अधिकांश ने कहा कि हाँ उन्हें इस बात का सबसे ज्यादा अफसोस है कि उन्होंने स्वभाविक जिंदगी नहीं जीयी। अधिकांश ने कहा 'I didn't live true to myself' चलाचली की बेला में मुझे ऐसा कोई अफसोस न हो इसके लिए अभी से ही तैयारी शुरू कर दी है। आने वाली मेरी जिंदगी में जिंदगी ज्यादा रहेगी सजावट कम। धूप और हवा ज्यादा रहेंगे, पर्दे कम। जिंदगी में सार्थकता ज्यादा रहेगी, फर्नीचर कम। अब शुरू होगा 'स्वयं को स्वयं से रचने का' सफर।
21 .09 .09
कहावत सुनी थी कि अंधे को क्या चाहिए? दो आँखें। पर लंदन निवासी सीडनी ब्राडफोर्ड को आँखे क्या मिली जिंदगी कि धुरी ही गड़बड़ा गई। दस वर्ष की उम्र में ही उनकी आँखें चली गई थीं। 52 वर्ष की उम्र में वैज्ञानिक तकनीक से कोर्निआ ट्रांसप्लांट करके उन्हें आँखें वापस मिली। लेकिन आँखें उनके लिए आफत साबित हुईं। बंद आँखों के स्पर्श से जिस दुनिया के वे आदी थे उसे खुली आँखों से वे समझ ही नहीं पाए। ताल मेल इतना गड़बड़ाया कि उन्हें डिप्रेशन हो गया। और आँख मिलने के महज दो साल बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। रंगों और गति की दुनिया से वे सर्वथा अपरिचित थे वे। लोगों को पहचानने में उन्हें दिक्कत होने लगी। खुली आँख और बंद आँखों के अब तक के अर्जित अनुभवों में ताल मेल बिठाना मुश्किल हो गया। आँख मिलने पर जब पहली बार सर्जन ने उससे कहा 'क्या आप मेरा चेहरा देख सकते हैं 'तो उसने जाना कि चेहरा ऐसा होता है। उसे सब कुछ अब नए तरीके से सीखना पड़ रहा था। पहली बार चाँद को देखकर भी वह परेशान हो गया, उसने सोचा था कि चाँद केक जैसा दिखता होगा। दर्पण वह नहीं जानता था दर्पण को देख वह मंत्र मुग्ध हो गया था। उसे इनसानों से ज्यादा कबूतरों और चिड़ियों में मजा आता था। चीजों का हिलना वह नहीं जानता था। ट्रैफिक उसके लिए जानलेवा साबित हुई। ट्रैफिक देख वह बहुत डर गया था। खुली आँखों वह क्रॉस नहीं कर पाता था जबकि बंद आँखों वह आराम से रास्ता पार कर लेता था। वह आवाजों की दुनिया में रहता था इस कारण उसे गहराई का अंदाज नहीं था। खिड़की से नीचे झाँकता तो उसकी इच्छा होती कूद जाने की। चिड़ियाघर ले जाने के पहले उससे कहा गया कि बताओ हाथी कैसा होता है? उसने आँख बंद कर जो चित्र खींचा वह वास्तविकता से कोसों दूर था। उसने टाइगर को देखा तो हक्का बक्का रह गया। वह नहीं जानता था कि उसके बदन पर भूरी धाराएँ भी होती हैं। हर जगह वह अज्ञानी और बौना साबित हो रहा था। इकलौती बार वह हँसा जब उसने जिराफ देखा।
वह मशीन चालक था लेकिन आँख आ जाने पर भी वह आँख मूँद कर ही काम करना पसंद करता था। उसे सारे चेहरे एक जैसे लगते थे। महीनों लगे उसे अपने दोस्तों को पहचानने में। वह लोगों के मनोभावों तक को नहीं पहचान पाता था कि वे गुस्से में हैं या खुश हैं। बड़बड़ा रहे हैं या शांत हैं। हर जगह वह नाकामयाब हो रहा था। उसकी नॉर्मल जिंदगी एकदम बिखर गई थी। अंधा था तो उसका आत्मविश्वास, उसका स्वाभिमान सब उच्च स्तर पर था कि अंधे होने के बावजूद वह कामयाब था, अपने पैरों पर खड़ा था। अब उसे कदम कदम पर न सिर्फ लोगों कि जरूरत पड़ती, न सिर्फ वह आम आदमी हो गया वरन उसकी उपलब्धियाँ भी सामान्य हो गईं, लोगों से मिलने वाला प्रेम सहयोग भी अब वैसा नहीं रहा। आँख मिलने के बाद वह भयंकर रूप से बीमार पड़ा और दो साल बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।
जिंदगी के सच कितने उलझे हुए होते हैं। सिडनी ब्राडफोर्ड को आँख नहीं दर्द के मोती मिले। उन्हें पढ़ते पढ़ते जाने क्यों मुझे आदिवासी पंचम मुंडा की याद आने लगी। उसने भी एक दिन बहुत घबड़ाहट के साथ कहा था 'हम जंगल संस्कृति के लोग हैं, हमें नदी सभ्यता में रहना नहीं आता है। हमें अपने जल, जंगल, जमीन, जानवरों, अपने लोक विश्वासों, अपने गीतों, नदियों, रीति रिवाजों और पहाड़ों के साथ रहने दीजिए।' उनके लिए भी आज का विकास विकास नहीं दर्द है। मनुष्य विरोधी यह विकास सिर्फ मुट्ठी भर लोगों को ही सुकून दे रहा है। विकास का पैटर्न क्या ऐसा नहीं होना चाहिए जिसमें सब समाँ जाएँ, जो अस्तित्व और अस्मिता दोनों को साथ साथ निभाए?
10 .10 .09
कामयाब बेटे ने कामयाबी का नया गुर सिखाया - 'ममा थोड़ा देश विदेश घूमो तो तुम्हारा लेखन भी चमके, नए जमाने की नई सोच लिखे। विदेशी भूमि से भारत को देखोगी तो तुम्हारे लेखन को भी नया डाईमेंशन मिलेगा।'
कई बार लगता है जैसे हम माँ-बेटे माँ बेटे कम दो पतंगबाज ज्यादा हैं, मौका मिलते ही पेंच लड़ाना, एक दूसरे की पतंग काटना शुरू हो जाता है। मैंने भी अपनी पतंग उड़ाई कि बड़ा लेखन बड़ी यातना और गहरी संवेदना से उपजता है। अपनी धरती और माटी से ही फूटता है। लेखक मनुष्य के भीतर से दुनिया को देखता है इसमें विदेश भ्रमण कैसे सहायक हो सकता है?' पर बेटे के चेहरे पर पुते असमंजस के भावों को देख समझ गई कि इतनी भारी भरकम बातें इस युवा पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ेंगी। इसलिए उसके सामने इतिहास का एक पन्ना खोलते हुए कहा उससे 'जानते हो बेटा, एक युवा लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंग्वे के पास गया। उसने हैमिंग्वे से कहा 'मैं लेखक बनना चाहता हूँ, बताइए मुझे क्या करना चाहिए।' हेमिंग्वे ने कहा 'तुम पहले मुझे अपने घाव दिखाओ' युवा ने कहा - मेरी जिंदगी में कोई घाव नहीं है। हेमिंग्वे ने कहा -तब तुम लेखक नहीं बन सकते। तो बड़ा लेखन तब होता है जब लेखक अपने निजी दुख सुख के साथ जन जन के दुख सुख को आत्मसात कर अपने भीतरी आवाँ में उसे पकाकर शब्दों में ढालता है। सच्चा लेखन यातना की आवाज बनता है, जानकारियों का पुलिंदा नहीं। विदेश भ्रमण मेरी जानकारी और कुछ अनुभवों का दायरा चाहे बढ़ा दे पर असली लेखन तो संवेदना की गहराई, जीवन दृष्टि, सामाजिक विसंगतियों से उपजे असंतोष और भीतरी दबावों से ही उपजता है।
अपनी बात की पुष्टि के लिए मैंने सूर, तुलसी, कबीर के साथ साथ ही प्रेमचंद, एस.के. पोटेकाट, प्रसाद, निराला, जैनेंद्र, यशपाल, गोर्की, टॉलस्टॉय आदि अनेक साहित्यकारों के नाम गिनाए जिन्होंने बिना विदेशी भूमि पर विचरण किए इतना कालजयी साहित्य दिया।
बेटा जिंदगी के उस दौर से गुजर रहा है जब जिंदगी चाँदनी बनकर उस पर बरस रही है और खुद वह प्रेम की लहरों पर सवार है,ऐसे आलम में मेरे कहे के मर्म को वह क्या तो समझता और क्या मैं उसे समझा पाती। इसलिए कुशल मैनेजर की तरह बहस को बिना आगे बढ़ाए उसने हथियार डाल दिए। कुछ कुछ इस अंदाज में कि तुम जैसे सिरफिरों से माथा लगाना बेकार है।