बंदरिया का अहंकार / संतोष भाऊवाला
एक बंदरिया और मदारी दोनों करतब दिखा कर पेट पालते थे और एक दूजे का सहारा बने हुए थे। हर दिन भोर होते ही निकल पड़ते सड़को पर, मदारी डुगडुगी बजाता और बंदरिया उछल उछल कर तमाशे दिखाती। दोनों एक दुसरे के पूरक। लोग रूक रूक कर उन्हें देखते और खुश हो होकर अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पैसे दे देते। बड़े आराम से चल रही थी जिंदगी। तभी... अहंकार जाग उठा, बंदरिया के दिल में। लगा उसे कि वही सारे करतब दिखाती है। उसी के कारण हो रही है गुजर बसर उनकी। फिर क्या था, बस मन में ठान ली कि अब मदारी के साथ न जाकर अकेले ही जायेगी। मदारी को न देगी हिस्सा, चल पड़ी सड़क की ओर, बिना मदारी को कुछ भी बताये, लगी करतब दिखाने, बिना डुगडुगी के, थोड़ी देर उछल-कूद करती रही, पर न ही कोई रूका और न ही किसी ने पैसे दिए उसे। समझ में न आया कि ऐसा क्यों हुआ?
पुरे दिन में एक पैसा भी, न तो कमा ही पायी और न ही कुछ खा पायी। भूखी प्यासी घर को लौट के आई।
सोचती रही कि" जब मै मदारी के साथ तमाशा दिखाती हूँ तब इतने सारे लोग वहां रूकते है, करतब देखते है और पैसे भी देते है। लेकिन आज जब मै अकेले ही गयी तो किसी ने भी न तो देखा मेरी ओर, न ही पैसे दिए" मन को ऐसा आघात लगा कि सारा अहंकार उड़न छू हो गया।
सुबह उसने मदारी से अपने दिल की बात कह कर माफ़ी मांगी और साथ ही पूछा कि क्या कारण है? तब मदारी ने उसे समझाया कि एक और एक मिल कर ग्यारह होते है। एक अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता। दो का संजोग इतना अनमोल है कि एक दूजे बिना उनकी कोई भी पहचान नहीं। जैसे बिना नगीने के अंगूठी का क्या मोल और बिना अंगूठी नगीना मात्र पत्थर का टुकड़ा कहलाता है।