बंदर का तमाशा / सुधा भार्गव
सड़क पर एक औरत बंदर का तमाशा दिखा रही थी। हाँ। वह मैले कुचैले,फटे-पुराने कपड़ों से किसी तरह तन को ढके हुए थी। बंदर की कमर में रस्सी बंधी थी जिसका एक छोर उस औरत ने पकड़ रखा था। झटके दे–देकर कह रही थी– कुकड़े, माई–बाप और अपने भाई–बहनों को सलाम कर। मेरे प्यारे कुकड़े तमाशा दिखा तभी तो तेरा और मेरा पेट भरेगा। बंदर भी औरत के कहे अनुसार मूक अभिनय कर पूरी तरह झुककर सलाम ठोकने की कोशिश कर रहा था।
-अच्छा, अब ठुमक–ठुमक कर नाच दिखा…।
औरत ने गाना शुरू किया–
अरे छोड़-छाड़ के अपने
सलीम की गली --
अनारकली डिस्को चली।
बंदर ने बेतहाशा हाथ पैर फेंकने कमर–कूल्हे मटकाने शुरू किए, उसे डिस्को जो करना था। जब थक कर जमीन पर बैठ गया तो तालियों ने उसका स्वागत किया।
तमाशा देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। लोग हँस-हँस कर कह रहे थे–पैसा फेंको, तमाशा देखो।
और वहाँ बंदर, बंदर नहीं था बल्कि बंदर का तमाशा दिखाने वाली उस गरीब औरत का दो वर्षीय नंग–धड़ंग बेटा था।