बंदूक का ट्रिगर कहां है? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 अक्टूबर 2018
सलमान खान अपनी बहन अर्पिता के पति आयुष व नई तारिका को लेकर बनाई फिल्म 'लवयात्री' 5 अक्टूबर को प्रदर्शित करने जा रहे हैं। पहले फिल्म का नाम 'लवरात्रि' था, जिस पर सेन्सर ने आपत्ति उठाई तो नाम बदलकर 'लवयात्री' रख दिया गया है। बिहार में फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज की गई है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सेन्सर द्वारा पारित फिल्म के प्रदर्शन में कोई बाधा नहीं पहुंचाई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि देश के किसी भी भाग में प्रदर्शन के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जाए। यह कितना अजीब है कि इस तरह के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना पड़ता है। स्पष्ट है कि हर क्षेत्र में प्रशासन ठप पड़ा है और न्याय केवल सुप्रीम कोर्ट से ही मिल सकता है। इतना ही नहीं सुशासन का दायित्व भी अदालत ही निभा रही है। इसी माह में अनेक महत्वपूर्ण फैसले आए हैं।
फिल्म 'जॉली एलएलबी भाग दो' में आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं कि देश में जजों की संख्या कितनी कम है और पेंडिंग केस अनगिनत हैं। इस तरह के हालात में सेन्सर पारित एक फिल्म के प्रदर्शन के लिए निर्माता को उच्चतम न्यायालय की शरण में जाना होता है। अदालत का कितना समय इस तरह नष्ट किया जाता है। इसी फिल्म में जज महोदय अपनी मेज पर रखे एक बर्तन में पनपते पौधे को पानी देते हैं। समानता और न्याय के लिए की जा रही प्रार्थना की तरह है यह काम। सुर्खियों में है कि एक आम आदमी का पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया। व्यवस्था का पूरी तरह ठप हो जाना तरह-तरह से उजागर हो रहा है।
गोरखपुर के हाकिम के राज में चहुंओर गोरखधंधा ही चल रहा है। काबिलियत का मानदंड पोशाक हो तो यह सब होना ही था। पगड़ी या दाढ़ी के आधार पर मनुष्य की पहचान की जा रही है। उत्तर प्रदेश में पुलिस वाले ने नागरिक को गोली मार दी, सत्ता दल का प्रवक्ता यह सफाई दे रहा है कि उस पुलिस वाले का चयन और नियुक्ति मुलायम सिंह के राज में हुई थी, इसलिए यह उनका उत्तरदायित्व है। चलो यह क्या कम है कि उसके जन्म के समय कौन मुख्यमंत्री था यह नहीं पूछा जा रहा है।
अगर फिल्म 'लव यात्री' के निर्माता सलमान खान नहीं होते तो यह फिल्म बिना किसी विवाद के प्रदर्शित कर दी जाती। सेन्सर का यह कहना है कि 'लवरात्रि' नाम होने पर धार्मिक भावना को ठेस लगती है। अत: नाम 'लवयात्री' कर दिया गया है। इस तरह के कार्य नफरत और बंटवारे की भावना को बल दे रहे हैं। धर्म इतना कमजोर नहीं है कि मात्र एक फिल्म के टायटल से आहत हो। आज धर्म का ठेका जिन स्वयंभू राजाओं ने ले रखा है उन्हें ही धर्म के उदात्त स्वरूप की कोई जानकारी नहीं है। हेमचंद्र पहारे को आशंका है कि इस तरह की विचार प्रणाली तो किसी दिन धर्म को पहली फेक न्यूज़ बना देगी। कुछ वर्ष पूर्व नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म 'अब तक छप्पन' बनाई गई थी। संगठित अपराध जगत के दायरे और हिंसा दिनोदिन बढ़ रही थी। उस समय पुलिस एनकाउंटर का प्रारंभ हुआ। कुछ लोगों ने एनकाउंटर के नाम पर अपने व्यक्तिगत बदले लेने शुरू कर दिए। आप कोई भी कानून बनाएं, हमारे यहां उसे तोड़ने वाले विशेषज्ञों की कमी नहीं है। कुछ लोग ट्रिगर हैप्पी होते हैं। उन्हें वजह जानना आवश्यक नहीं लगता। ट्रिगर को दबाने की खुजली होने लगती है।
दरअसल 'ट्रिगर' मनुष्य के मस्तिष्क में होता है। पहले वह दबाने के लिए मचलने लगता है, फिर गोली दागी जाती है। पुलिस चयन में शारीरिक तंदुरुस्ती देखी जाती है परंतु मानसिक विकास देखने का कोई मानदंड नहीं है। देश में बमुश्किल चार हजार मनोविशेषज्ञ हैं, जबकि आवश्यकता कहीं अधिक की है। यह धारणा प्रचलित है कि जो व्यक्ति मनोचिकित्सक की सहायता लेना चाहता है उसके दिमाग में कोई 'केमिकल लोचा' है। अधिकांश लोगों को मनोवैज्ञानिक परामर्श की आवश्यकता है। झूठी लोक-लाज के भय से मनोविकार का इलाज ही नहीं हो पाता। घुटन और कुंठाएं मनुष्य पर हावी होती रहती हैं। भोगवाद कहर ढा रहा है। सच्चाई तो यह है कि सत्ता में बैठे लोगों को भी मनोचिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए। सत्ता का अहंकार भयावह है। उनके अपने भय और भूत-प्रेत हैं, जिन्हें वे जितना दबाने का प्रयास करते हैं, वे उतने ही विकराल हो जाते हैं।
पुलिस विभाग की अपनी शिकायतें हैं। उनके वेतन कम हैं, उन्हें छुटिट्यां भी कम उपलब्ध हैं। तीज-त्योहार पर भी उन्हें काम पर जाना पड़ता है। हर प्रांत में पुलिस प्रबंधन के सामने दुविधाएं हैं। उनका अधिक समय तो मंत्री की सुरक्षा में व्यय होता है। उनको दी गई बंदूकें बाबा आदम के जमाने की हैं। भारी-भरकम जूते उन्हें दौड़ने में कष्ट देते हैं। उनके मन में यह घुटन भी रहती है कि जिस मंत्री की रक्षा का भार उन्हें दिया या है, वह स्वयं कितना बड़ा अपराधी और रिश्वतखोर है। उसे पग-पग पर सीनियर व नेता को सलाम करना होता है। टीवी सीरियल 'भाभाजी घर पर है' का हवलदार बड़े अफसर का फोन उठाते हुए भी सेल्यूट की मुद्रा में आ जाता है। हप्पू सिंह नामक यह पात्र लारेल हार्डी की टक्कर का पात्र है। आनंद किसी भी ठिए या जरिये से मिले, उसे ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि निर्मम व्यवस्था ने अवाम को अनगिनत दर्द दिए हैं।