बंद करो बकवास / जीतेन्द्र वर्मा

Gadya Kosh से
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आज बैंकों के निजीकरण के खिलाफ बैंकों में एक दिन की सांकेतिक हड़ताल है।

गाँधी मैदान में बैंककर्मियों की एक सभा होने वाली है। इसे कवर करने के लिए अखबार से किशोर को भेजा गया है। उसके गाँधी मैदान पहुँचने के पहले ही सड़क जाम हो गई। टेम्पूवाले ने आगे जाने में असमर्थता जताई। एक पैसेन्जर एक रुपया कम दे रहा था। उसका कहना था कि गाँधी मैदान अभी दूर है जबकि टेम्पूवाला पूरा भाड़ा माँग रहा था। उसका कहना था कि जाम नहीं रहता तो मैं गाँधी मैदान पहुँचाता ही। तू तू मैं मैं होने लगा। और कोई दिन रहता तो किशोर भी एक रुपया कम देने का प्रयास करता। पर आज वह उत्साहित भी था और जल्दी में भी। वह जल्दी से पूरा भाड़ा देकर गाँधी मैदान की तरफ लपका। वहाँ पहुँचा तो यह देखकर उसके मन का एक कोना खुश हुआ कि बैंककर्मी अच्छी संख्या में जुटे हैं। सभा स्थल के पास मारूति, बेलोरो, सूमो और इसी तरह की गाड़ियों की कतार खड़ी थी। सड़क इन्हीं गाड़ियों की वजह से जाम थी। किशोर तेजी से स्टेज के पास पहुँचा। वहाँ खूबसूरत पंडाल लगा था। अंदर पंखे चल रहे थे।

“आप शायद फलाने अखबार से हैं?”

“हाँ”

“अरे! तो भीतर आइए ना।”

“हाँ, हाँ, आइए।”

कई आवाजे आई। किशोर को पत्रकार होने पर गर्व हुआ। कितने सम्मान के साथ बुला रहें हैं! उसने उत्साहित होकर कदम बढ़ाया पर अपने धूल भरे पैर और अंदर बिछे अमल - धवल चादर देखकर संकोच में पड़ गया। वह रुक गया। तभी भीतर से आवाज आई-

“कोई बात नहीं। आइये ना।”

वह भीतर घूसा तो उसे एहसास हुआ कि चादर की नीचे कई तह गद्दे बिछे हैं। वह अपना नोट बुक खोलकर बैठ गया। बैंकों के निजीकरण के खिलाफ गर्मागर्म भाषण चल रहा था। पीछे बैंककर्मी आपस में बात कर रहे थे।

“अरे बाप रे बाप! कितनी गर्मी है! कम से कम दो चार कूलर ही लगवा लिया होता।”

“मुझे तो हरदम ए.सी. में रहने की आदत है। अगर मैं जानता कि यहाँ ए.सी. नहीं है तो मैं आता ही नहीं।”

“ठीक ही कह रहें हैं। ऐसी व्यवस्था रही तो कोई आने से रहा।”

“भला ऐसे कहीं लोगों को बुलाया जाता है।”

“मैं तो ए.सी. के लिए कह ही रहा था पर सिक्रेट्री मेरी बात सुने तब न!”

सिक्रेट्री का चुनाव हारे शर्मा जी ने गर्म लोहे पर वार किया।

“आखिर ए.सी. लगवाने में दिक्कत क्या था। पैसे की कमी तो है नहीं।”

अरे सिक्रेट्री मनमानी करता है।”

“मैं तो इस गर्मी में उबल जाउँगा। दिन भर बैठ गया तो तीन दिन बेड पकड़ना तय है।”

इतने में माइक पर घोषणा हुई कि अब दिल्ली से आए यूनियन के नेता के.डी. सिंह का भाषण होगा। पीछे खुसूर-फूसूर कम हुई। के.डी. सिंह माइक पर दहाड़ने लगे -

“यह सरकार विदेशी इशारे पर चल रही है। देश का बजट विश्व बैंक से बन कर आता है। बैंकों का निजीकरण होने से देश को अपूर्णीय क्षति होगी... महँगाई बेतहाशा बढ़ रही है पर सरकार उस अनुपात में हमारा वेतन नहीं बढ़ा रही है............ अब हम और अन्याय नहीं सह सकते। साथियों! हमें अपनी एकजुटता बनाए रखनी है। हम अपनी चट्टानी एकता से सरकार को भुफका देगे।”

अभी भाषण चल ही रहा था कि एक नौजवान पदाध्किारी पत्राकारों के पास आया और फूसफुसाते हुए बोला - “आप लोग जाइएगा मत। यहाँ के बाद हॉल में प्रेस कांफ्रेस होगा।” प्रेस कांफ्रेस की बात सुनकर पत्रकारों का चेहरा चमकने लगा। सभी मन-ही-मन खाने-पीने और गिफ्रट आइटम का अनुमान करने लगे। कुछ पत्रकार जल्दी-जल्दी लिखने लगे तो कुछ कैमरा लेकर पिफर घूमने लगे। पत्रकार और पत्रकार कम कैमरामैन मिला कर पन्द्रह-बीस थे। सबको एक छोटे से हॉल में बैठाया गया। हॉल ए.सी. था। सबके सामने एक फाइल रखी हुई थी। फाइल में लेटर पैड और पेन था। अधिकांश पत्रकार फाइल और पेन का उलट-पलट कर उसके मूल्य का अनुमान लगाने लगे। थोड़ी ही देर मे के. डी. सिंह आए। ओठ पर हल्की मुस्कुराहट थी। आते ही उन्होंने पत्रकारों की स्थिति का जायजा लिया और प्रेमपूर्वक सचिव को डाँटा -

“अरे इसी तरह बैठाया है। कुछ..........।”

यूनियन के सचिव ने अपनी सफाई दी -

“हाँ, हाँ वह तो तैयार है। मैं सोच रहा था कि पहले आप लोगों की बातचीत हो जाए।”

“अरे दोनों साथ-साथ हो जाएगा। दोनों में तो कोई विरोध् नहीं है।”

इतना कह कर के.डी. सिंह पत्रकारों की तरफ देखकर बोले -

“क्यों जी मैंने ठीक कहा न!”

किसी ने कहा एकदम ठीक, किसी ने सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दी, तो किसी ने हँस कर। अधिकांश पत्रकारों की जीभ चटपटाने लगी। किशोर की समझ में कुछ नहीं आया। तभी नाश्ता का पैकेट सबके सामने रखा जाने लगा। नाश्ता राजधानी के एक मँहगे होटल से आया था। कुछ पत्रकार शुरू तय नहीं कर पा रहे थे कि पहले क्या खाए। पर जल्दी ही उन्हें इसका समाधान मिल गया। उन्होंने पहले थोड़ा-थोड़ा सब में से खाया। सबका स्वाद मालूम हो जाने पर अपनी मनपसंद चीज पहले खानी शुरू की। जल्दी ही पत्रकारों का मुँह भर गया। के.डी. सिंह को जैसे इसी स्थिति का इंतजार था। वे बोलने लगे-

“सरकार हमारी तुलना प्रायवेट बैंकों से करती है, कहती है कि सरकारी बैंकों में घाटा लग रहा है।..... आप यहाँ एक बात जरूर लिखिए कि सरकारी बैंक जनहित के काम मुफ्रत में करते हैं। सूदूर गाँवों में हमारी शाखाएँ है। इन्हें कम बचत वालों का भी काम करना पड़ता है। समय-समय पर सरकारी हस्तक्षेप के वजह से भी सरकारी बैंकों को घाटा लगता है। .........कोई सरकार जनहित के काम प्रायवेट बैंकों से करवाके देखे तो...।” कुछ पत्रकार जल्दी-जल्दी मुँह चला रहे थे और सिर ऐसे हिला रहे थे कि के.डी. सिंह की बात सबसे अध्कि उन्हें ही समझ में आ रही है। कुछ ऐसा हाव-भाव बना रहे थे मानो उन्हें वैसे ही ज्ञान मिल रहा है जैसे कभी गौतम बुद्ध को बोधगया में मिला था। जैसे पत्रकारों का मुँह चलना बंद हुआ वैसे ही के.डी. सिंह की बात भी खत्म हो गई। सभी उठने की तैयारी में ही थे किशोर ने टोका- “क्या आप निजीकरण के खिलाफ अन्य यूनियनों के साथ तालमेल कर के कोई योजना बना रहे हैं?”

वे थोड़ी देर कुछ याद करने की मुद्रा में रुके और फिर बोले -

“नहीं! नहीं!! हमारी ऐसी कोई योजना नहीं है। भला इसका क्या तुक है!”

“क्यों? और यूनियने भी तो निजीकरण के खिलाफ लड़ रहीं है। सभी मिल कर लड़ेंगे तो एक मजबूत आंदोलन खड़ा होगा। संभव है तब सरकार झुक जाए।”

वहाँ उपस्थित अधिकांश लोगों के चेहरे पर नाराजगी के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। उन्हें लग रहा था कि दाल भात में यह मूसलचंद कहाँ से आ गया। पर किशोर इस स्थिति से विचलित नहीं हुआ। के.डी. सिंह मँजे हुए खिलाड़ी थे। उन्होंने पूरी विनम्रता से अपनी स्थिति स्पष्ट की -

“देखिये, हम और क्षेत्रों के निजीकरण के खिलाफ नहीं हैं। बिजली, पानी, स्कूल, कॉलेज, इन्डस्ट्री के कर्मचारी कुछ करते नहीं हैं। सिर्फ हड़ताल कर के महीना बढ़वाने के चक्कर में रहते हैं। अब आप ही देखिये ना प्रायवेट स्कूलों के टीचरों को सरकारी स्कूल के टीचरों से कम वेतन मिलता है पर पढ़ाई प्रायवेट स्कूलों में ही बढ़िया होती है। प्रायवेट इन्डस्ट्री में खूब मुनाफा होता है। सरकारी इन्डस्ट्री हरदम घाटे में ही रहता है। ...इनके निजीकरण में क्या बुराई है बल्कि अच्छा है, राष्ट्रहित में जरूरी है...।”

“पर निजीकरण एक ही आर्थिक नीति की देन है। ऐसा कैसे संभव है कि और क्षेत्रों का निजीकरण हो और बैंक या किसी एक क्षेत्र का नहीं हो। आप बैंकों के घाटे के जो वजह गिना रहें हैं उसी तरह का वजह और क्षेत्रों में भी हो सकते हैं।” अब के.डी. सिंह का धैर्य चुक गया। उनके चेहरे पर तनाव के भाव आ गए। वे अपनी कलाई घड़ी देखते हुए उठ पाए और बोले -

“मेरे फ्रलाइट का समय हो गया है। फिर मिलेंगे।”

लौटते समय किशोर पैदल ही ऑफिस की ओर चला। उसके मन में कोई उत्साह नहीं था। वह समझ नहीं पर रहा था कि आखिर एक ही आर्थिक नीति का दुष्प्रभाव कोई सिर्फ अपने पर पड़ने से कैसे रोक सकता है? नयी आर्थिक नीति का लक्ष्य निजीकरण करना ही है। सबसे पहले किसानों को मिलने वाले खाद पर से सबसीडी हटाई गई। विरोध् के स्वर उठे थे पर देश बुद्धिजीवियों ने तर्क दिया कि किसानों को आखिर खाद-बीज मुफ्रत क्यों मिले, क्या वे अनाज मुफ्रत में देते हैं! नौकरी करने वालों को किसानों को खाद-बीज पर सबसीडी मिलने से कोई घाटा नहीं था पर वे सरकारी नीति का बढ़-चढ़ कर समर्थन कर रहे थे। आज सरकारी कर्मचारी छटनी का विरोध् कर रहें हैं पर वोट उस पार्टी को देते हैं जो निजीकरण का खुल्लेआम समर्थन करती है। आखिर वे किसे ठग रहें हैं अपने को या लोगों को? कांग्रेस, समाजवादी, भाजपा। फिर कांग्रेस सबकी सरकार बारी-बारी से आई पर निजीकरण नहीं रुका बारी-बारी से सबका निजीकरण हो रहा है। जिसका निजीकरण देर से करना है उसके बारे में सरकार कहती है कि सरकार के पास उसके निजीकरण की कोई योजना नहीं है। पर दो-चार के बाद उसका भी निजीकरण होने लगता है। सरकार जनकल्याणकारी कामों से अपना हाथ खीच रही है। लोगों का क्रोध् शांत करने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान दे रही है।

...............सब मिलकर क्या लड़ेंगे! पिछले वर्ष शिक्षकों की हड़ताल हुई। सरकार ने दो श्रेणी के शिक्षकों का वेतन बढ़ा दिया। वे शिक्षक काम पर लौट आए। शिक्षकों में फूट पड़ गई। हड़ताल टांय-टांय पिफस हो गई। अब तो स्थिति यह है कि हड़ताल के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता है। ...........सरकार अधिकांश विभागों में बहाली नहीं कर रही है। सेना, पुलिस, क्लर्क जैसी नियुक्तियाँ ही नियमित हो रहीं हैं। आखिर इन्ही के बल पर तो सरकार चलानी है।

प्रेस में घूसते ही उसे राहत का एहसास हुआ। उसके सोच का क्रम टूट गया। ए.सी. की बात ही निराली है। प्रेस आकर वह घर-परिवार सबकी समस्या भूलता तो नहीं है पर उसकी तीव्रता जरूर कम हो जाती है। एक तो ए.सी., दूसरे भव्य डेकोरेट किया हुआ। रात दिन का पता ही नहीं चलता। मायालोक की तरह लगता है ऑफिस। कभी ऊब नहीं होती है।

वह जाकर अपनी सीट पर बैठा। घूमने वाला चेयर मिला था उसे। कभी ऐसी कुर्सी रूआब वाले पद की निशानी हुआ करती थी। बचपन में पिता जी बताते थे कि आज वे फलाने अफसर से मिलने गए थे। बहुत बड़ा अफसर है समझे! घूमने वाली कुर्सी पर बैठता है। बिना गर्दन घूमाए चारों तरफ देख सकता है। ............. पर आज उसके जैसे टेम्परोरी स्टाफ के पास भी यह कुर्सी है। इस पर बैठकर काम करने से जल्दी थकान महसूस नहीं होती। एक फीकी मुस्कान उसके ओठों पर आ गई। उसने अभी अपना कंप्युटर खोला ही था कि राजीव उसके कान के फूसफुसाया -

“सर तुम्हें खोज रहे थे।” सर यानी ब्यूरों चीपफ! वह डर गया। किस लिए बुला रहें हैं। ऐसे जाने पर तो देखते भी नहीं है। कंप्युटर पर काम करते हुए टरका देते हैं। आज बुला रहें हैं। क्या बात है? ..........कहीं कोई गलती तो नहीं हुई है। कि डाँटने के लिए बुला रहें हैं। खैर अभी सोचने का समय नहीं है। वह ब्यूरो चीपफ के चैम्बर में गया। उसे देखते ही ब्यूरो चीफ प्रसन्न भाव से बोले -

“आओ! आओ!! आज तो फ्रंट पर छप रहे हो।”

राजीव सोचने लगा। मैंने तो कोई मैटर दिया नहीं था। फिर क्या छप रहा है। वह भी फ्रंट पर.........तभी ब्यूरो चीफ ने कंप्युटर के स्क्रीन की तरफ इशारा किया -

“देखो मोटे फोन्ट में तुम्हारा नाम जा रहा है। ठीक है न, कि थोड़ा और बड़ा कर दूँ?”

बैंक वाला न्यूज था। ‘निजीकरण के खिलापफ बैंककर्मियों का आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन’ -बोल्ड लेटर में हेडिंग लगा था। ‘हड़ताल की चेतावनी’ -क्रशर लगा था। साथ में एक फोटो भी लगा था जिसमें बैंककर्मी मुट्ठी बाँधे हाथ हवा में लहरा रहे थे।

ब्यूरों चीफ ने बताया कि “बैंकवाले खुद न्यूज और फोटो लेकर संपादक जी के पास आए थे। संपादक जी चाह रहे थे कि यह न्यूज राहुल के नाम से लगे। वह भारी चमचा है संपादक का। पर मैं तुम्हारे लिए लड़ गया। मैंने तर्क दिया कि यह न्यूज कवर करने की जिम्मेवारी किशोर को दी गई है।

उसी के नाम से जाना चाहिए। तुम्हें कितना खोजवाया पर तुम्हारा कहीं पता नहीं चला। कार्यक्रम तो कब का खत्म हो गया था। इतनी देर कहाँ थे? ........कोई चक्कर तो नहीं चल रहा है!” मुस्कुरा रहे थे ब्यूरो चीफ। माहौल खुशनुमा था पर किशोर के मन में दूसरी आँधी चल रही थी। उसने अपने मन की बात कही -

“सर! बैंकवालों का लिखा न्यूज क्यों जा रहा है। मैं तो दूसरे ऐंगल से न्यूज लिखना चाह रहा था।”

“किस ऐंगल से?”

चिहुँक उठे थे ब्यूरो चीफ।

वह प्रेस काफ्रेस में हुई बातचीत को संक्षेप में बताते हुए बोला -

“सर! ये निजीकरण के खिलाफ नहीं, सिर्फ अपने सुख-सुविधा के लिए लड़ रहें हैं। सभी यूनियने अलग-अलग लड़ रहीं हैं। नई आर्थिक नीति का ये विरोध् नहीं कर रहीं हैं। जबकि निजीकरण उसका अनिवार्य अंग है। ऐसा कैसे हो सकता है कि पूरे देश पर नई आर्थिक नीति का प्रभाव पड़े और बैंकवाले उससे अछूते रहें। ...........बारी-बारी से सब क्षेत्रों का निजीकरण होगा। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर की बाहाली अब अनुबंध् के आधार पर हो रही है। होता कमीटि की रिपोर्ट के मुताबिक आई.ए.एस. , आई.पी.एस. जैसे पदों पर भी तीन साल के अनुबंध् के आधर पर बहाली होनी चाहिए। देर-सबेर सरकार इसे भी लागू करेगी..........।” अभी वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि ब्यूरो चीफ फट पड़े-

“बंद करो अपनी बकवास एक नंबर के बेवकूफ हो तुम। हर बात में फिलासफी झाड़ते हो। सारी दुनिया तुम्हें उल्टे नजर आती है। ...........। इस तरह न्यूज लिखने से बैंकवाले नाराज हो जाएंगे...........। उनका दम फूलने लगा था।

अरे हमलोगों को बैंकवालों से हरदम काम पड़ता है। हमारे यहाँ के कई स्टाफ लोन के लिए अप्लाई किए हैं। हमलोगों के हाथ में है ही क्या! न्यूज उनके हिसाब से छपेगा तो वे खुश रहेंगे, उनसे जान पहचान बढ़ेगा, काम करवाने में सुविधा होगी...।

उनकी आवाज सुनकर कई पत्रकार चेम्बर में जमा हो गए। वे अपनी रौ में बोले जा रहे थे -

“यहाँ बहुत फिलासफी की जरूरत नहीं है। यहाँ रहना है तो। इसी चाल के मारे तुम अभी तक परमामेंट नहीं हो पाए हो। यहाँ नौकरी करने आए हो कि पूरी दुनिया सुधारने........। अब तुम जा सकते हो।”