बंद हुआ कपिल शर्मा का फूहड़ तमाशा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 फरवरी 2016
टेलीविजन की चाय की प्याली में कपिल शर्मा और 'कलर्स' ने तूफान ला दिया है। कपिल का लोकप्रिय कार्यक्रम 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' बंद कर दिया गया है। इस फूहड़ कार्यक्रम के बंद होने से दर्शक की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। कार्यक्रम की सफलता का आधार केवल महिला अपमान और उस सप्ताह प्रदर्शत होने वाली फिल्म के सितारों की मौजूदगी था। पूरे कार्यक्रम में कपिल अपनी पत्नी और उसके रिश्तेदारों का मखौल उड़ाते थे और दो पुरुष कलाकार महिलाओं की पोशाक में प्रस्तुत होकर भोंडापन रचते थे। उनमें से एक अतिथि कलाकार के गाल पर पप्पी देने के लिए सर्कस समान करतब करता था। आजकल एक विज्ञापन में कपिल शर्मा को यह कहते बताया गया है कि पंजाबी मर्द की 'पप्पी' भी 'पप्पा' हो जाती है। इस तरह की अर्थहीन बातें कपिल की पहचान बन गई हैं और वे इसे अपनी योग्यता मानने लगे हैं। उसमें एक बूढ़ा पात्र, जिससे ठीक से चला भी नहीं जाता, औरतों के लिए बेताब रहता था और उसकी लार टपकती रहती थी। कार्यक्रम के अंत में सारे लोग मंच पर ठुमके लगाते थे।
इस तरह के कार्यक्रम में मंच के सामने की भीड़ में अधिकांश लोग जूनियर कलाकार संघ के सदस्य होते थे और उनको मेहनताना मिलता था। इस भीड़ में थोड़ा-सा प्रायोजित अवाम भी होता था और उन्हें क्या पूछना है, यह उन्हें रटाया जाता था। प्राय: यह प्रार्थना होती थी कि प्रश्नकर्ता कलाकारों के साथ नाचना चाहता है और कपिल इन लोगों का भी मखौल उड़ाते थे। मखौल उड़ाना हास्य नहीं है। दरअसल कपिल शर्मा को जॉनी वॉकर अभिनीत फिल्में देखनी चाहिए थी। 'अनोखी रात' में नवविवाहित जोड़ा बैलगाड़ी में घर लौट रहा है और दूल्हे का बाल सखा मुकरी प्रसन्नता से दुल्हन के सामने नाच रहा है। रोशन साहब का गीत था 'ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर से, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना।' पूरे गीत में मुकरी की मुख मुद्रा देखते ही बनती है। यह चुनौती है कि कपिल कभी ऐसा करके दिखाएं। जॉनी वॉकर की लोकप्रियता का यह आलम था कि विमल रॉय जैसे वैष्णव फिल्मकार ने भी जन्म-जन्मांतर की भावना की तीव्रता वाली संजीदा 'मधुमति' में उनकी भूमिका रखी और उन पर गीत भी फिल्माया। संजीदा गुरुदत्त की सामाजिक दस्तावेज नुमा फिल्म 'प्यासा' में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रची और उन पर एक गीत भी फिल्माया।
कपिल शर्मा के अवचेतन में काम-इच्छा के सांप रेंगते हैं और उन्हीं सांपों का पिटारा उन्होंने मंच पर खोल दिया। अब वे बीन तो बजा नहीं पाते, क्योंकि वाद्य के नाम पर केवल ताली बजाना जानते हैं। मेहबूब खान की प्रेम तिकोण वाली एक लोकप्रिय फिल्म के दृश्य में राज कपूर लेटे हुए बीन बजा रहे हैं और एक सांप उनकी छाती पर बैठ फन खोले बैठा है। वे जानते है कि बीन बजाना बंद किया तो सांप डंस लेगा। अब अपनी उखड़ती सांसों के साथ प्राण बचाने के लिए हांपते-हांपते बीन बजाते हैं। कपिल ने ऐसे दृश्य देखे ही नहीं। उनका सारा हास्य फूहड़ता व काम इच्छा के इर्द-गिर्द घूमता है। कपिल की सारी अवधारणाएं विकृत हैं। गौरतलब यह है कि यह भोंडापन लोकप्रिय बन गया था। हमारे कई नेता भी अपने फूहड़पन और भोंडेपन के कारण लोकप्रिय हैं। आज का राजनीतिक मंच भी कमोबेश कपिल के कॉमेडी शो की तरह है। जन मंच पर कोई नेता असल मुद्दों की बात नहीं करता। सब एक दूसरे का मखौल उड़ाते हैं और आपसी चुहलबाजी को नीतियां समझते हैं। जब राहुल गांधी संजीदगी से बोलते हैं तो लोग हंसने लगते है और शिखर पर विराजे महोदय का भाषण नौटंकी लगता है। वे अच्छे कपड़े पहनते हैं तो जनता कपड़ों पर मुग्ध होती है और वे समझते हैं कि भारत विकास कर रहा है। 'श्री 420' में संवाद है कि आदमी कपड़े पहनता है, कपड़े आदमी को धारण नहीं करते। पूरे भारत को इन्होंने लॉड्री बना दिया है जहां इंसान नहीं कपड़े ही कपड़े नज़र आते हैं। कोट की बाहें हिलती हैं, शर्ट परचम-सा लहराता है। हेंगर पर टंगी पतलूनें कांपती-सी नजर आती हैं। क्या आज के खोखले युग में फूहड़ता सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर गई है? भांडपन को कला कहा जाता है, वाकपटुता को अक्लमंदी समझा जाता है। शब्दों के हेर-फेर को साहित्य समझा जाता है। इस अजूबे दौर में कपिल शर्मा को हास्य समराट माना जाता है।