बंधन / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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इतनी सुबह माँ का फोन देख कर रमा चौक जाती है! क्या बात है माँ, तबीयत तो ठीक है ना? पापा ठीक है? हाँ बेटी चिंता मत करो, सब ठीक है। कल श्रेया बता रहीं थी तुम लोग जयपुर जा रहे हो घूमने, वाहा से पाँच किलोमीटर की दूरी पर ही रमण रहता है, मैं उसके लिए कुछ समान भेजना चाहती हूँ, जाने से पहले मुझसे मिलती जाना। ठीक है माँ, चिढ़ कर रमा ने फोन रख दिया। यह लड़की भी ना। मैं इसलिए यह बात माँ को नहीं बता रही थी। जब दोनो भाइयो को बूढ़े माँ बाप की परवाह नहीं है तो मैं क्यों व्यर्थ उनके यहाँ जाउ। इधर माँ पापा से कह कर थक गई की यहाँ आकर रहो। हमेशा यही जवाब की बेटी के घर में खाना पीना पाप है! जब कोई परेशानी होगी, फोन करके बुला लूँगा, टीन संतानो में तुम्ही तो मेरे पास हो। फिर हम दोनो है ना एक दूसरे के देख भाल के लिए. रमा सोच कर ही काँप जाती है। ईश्वर ना करे कभी दोनो में से किसी को भी अकेला रहना पड़े।

श्रेया को स्कूल से लाने वह दो घंटे पहले ही निकल गई, माँ के घर जो जाना था। माँ पहले से भी ज़्यादा कमज़ोर दिख रही थी, पापा भी कुछ बहुत स्वस्थ नहीं थे। बेटी के आते ही दोनो के चेहरे खिल उठे। माँ ने अपने हाथो से बनाई गुजीयाँ, मठरी, आचार, पापड़, चिप्स, बड़ी सब खोल कर दिखाया जो भेजवा रहीं थी।

माँ तुम कब बदलोगी? जब वह फोन से भी तुम्हारा हाल चाल नहीं पूछते तो तुम्हे यह सब करने की क्या ज़रूरत है। कोई बात नहीं बेटा-मेरे प्रेम में तुम क्यों अपने भाइयो से दुराव कर रही हो। मेरे बाद सुख दुख में वही तो तुम्हारे साथ खड़े होंगे। हम लोगो का क्या ठिकाना। वट वृक्ष का कर्तव्य छाया देना है। अब कोई वहाँ बैठ कर सुख लेता है तो कोई तपती धूप में चलता रहता है, यह तो उसकी अपनी मरज़ी है। किसी को हम अपने अनुसार चलने के लिए विवश नहीं कर सकते। उनकी ज़िम्मेवारी और परेशानियो को हम नज़र अंदाज़ कैसे कर सकते हैं। हम जीवन के आख़िरी पड़ाव में है, उन्हे अपना संपूर्ण जीवन जीना है। हम उनकी परेशानी जब बाँट नहीं सकते तो बढ़ा कैसे सकते है? मुझे पूरा विश्वास है जब भी हमे ज़रूरत होगी हमारे बच्चे मेरे साथ होंगे और न भी हो तो क्या, तुम तो अपने घर में रह कर भी हमेशा हम लोगो के साथ ही हो।

बचपन में तीनो भाई बहनों को मैं यह कहानी सुना चुकी हूँ, आज दुबारा सुना रहीं हूँ-

एक साधु नदी में स्नान करने गया। उसने पानी में एक बिच्छू को बहते देखा। उसकी प्राण रक्षा के लिए वह उसे उठा कर बाहर रखने लगा, बिच्छू ने डंक मार दिया और साधु के हाथ से छूट कर, पुनः पानी में छटपटाने लगा। पाँच सात बार इसी क्रिया को दोहराने के बाद आख़िर कार साधु ने बिच्छू की जान बचा ली। एक पथिक यह तमाशा देख रहा था। उसने पूछा-बाबा जब यह डंक मार रहा है तो आप क्यों उसके प्राण बचाने में लगे हो। साधु बोला-सृष्टि के प्रत्येक जीवों के प्राणों की रक्षा करना हुमारा धर्म और स्वाभाव है। डंक मारना उसका स्वाभाव है। जब यह छोटा-सा जीव अपना स्वाभाव नहीं छोड़ रहा तो मैं कैसे अपना स्वाभाव छोड़ दूँ? प्रत्येक स्थिति में जो धर्म के साथ रहता है और अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करता दुनिया तो क्या भगवान भी उसके बस में होते है। अब बेटी आगे कुछ भी कहने की मुझे आवश्यकता महसूस नहीं होती। हम दूर रहकर भी जैसी भावना दूसरों के प्रति रखते हैं वह उसतक पहुँच जाती है। इसलिए हमेशा अपने कर्मों का परिमार्जन करना चाहिए. यही एक ऐसे सुखद संसार की रचना करेगा जहाँ सब शांति से रहकर एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक सम्बंधों का निर्वाह करेंगे। बाँधने से भक्ति नहीं होती। सम्बंध ज़रूर टूट जाता है। इसलिए बंधन का पूर्णतया त्याग होना चाहिए.