बकरा / मनोज श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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मीनू की आँधी जब कमरे में आई तो उसके हाथ में पैक्ड फूड की एक पैकेट थी। कल सुबह आफ़िस जाते वक़्त उसने मेज पर परोसी गई थाली को हाथ मारकर नीचे गिरा दिया था और जाते-जाते अधीर से गुर्रा गई थी--"आइंदा मेरे लिए खाना मेज पर मत लगाना; वर्ना..."

अधीर का मूड इतना खराब हो गया था कि उसने भी अन्न का एक दाना हलक से नीचे नहीं उतारा। सुबह मीनू ने केवल अपने लिए चाय बनाई थी। अधीर को बड़ा कोफ़्त हुआ--थोड़ी-सी और चाय बढ़ाकर बनाई होती तो उसका क्या चला जाता? ख़ैर! ऐसी टुच्ची हरक़त तो वह रोज ही किया करती है।

उसके बाद वह किचेन में घुस गया था। बाक़ायदा दाल-चावल के साथ-साथ गोभी-आलू-मटर का दो-पियाजा बनाया था। सोचा था कि मीनू का मूड दो-पियाजे की खुशबू से ही बदल जाएगा। पर, उसकी रसोईगिरी की मशक्कत का ऐसा हश्र होगा कि मीनू ने सारा खाना जमीन पर छितरा दिया!

उसने छितरे खाने को बटोरकर डस्टबिन में डाला। फिर, बचा-खुचा खाना एक पालीथीन बैग में डालकर नीचे पार्क के एक कोने में रख आया। मोहल्ले के खबरहे कुत्तों को लगातार तीसरे दिन भी अच्छी दावत मिल गई थी। बहरहाल, अधीर को कुत्तों और बिल्लियों को खाना खिलाकर बेहद सुकून मिलता था। कम से कम वे उसके खाने को पर्याप्त सम्मान तो देते थे।

सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त ही उसने तय कर लिया कि वह आज भी दफ़्तर नहीं जाएगा। बल्कि, बैठकर कुछ लिखेगा-पढ़ेगा। पिछले कई महीनों से उसने न तो कोई कविता लिखी थी, न ही कोई कहानी। शायद, कुछ लिखने के बाद उसका मूड भी बन जाए। इसलिए, उसने अपने अफ़सर रेड्डी को फोन कर दिया--"सर, मेरा फ़ीवर अभी तक नहीं उतरा है; मैं आज भी..."

रेड्डी ने उसे एक दिन की और छुट्टी की स्वीकृति दे दी थी।

अधीर पहले से कहीं ज़्यादा हताश होता जा रहा था। पहले उसके मन में उम्मीद की एक धुँधलाती किरण टिमटिमाती रहती थी कि एक-न-एक दिन मीनू के खयालात जरूर बदलेंगे और उनके गृहस्थ जीवन में रस पैदा होगा। पर, वह तो जिस दिन से उसके आँगन में उतरी थी, वह उग्र से उग्रतर होती जा रही थी। पिछले दस सालों से संबंधों में कड़वाहट बढ़ती जा रही थी। इसका अन्य बातों के साथ-साथ, एक मुख्य कारण यह भी था कि अधीर को जो रुपए और सामान दहेज में मिले थे, उन्हें वह या तो अपने घर छोड़ आया था या अपनी छोटी बहन की शादी के लिए सुरक्षित रख दिया था।

जब उसने शादी के दो दिन बाद ही अपना स्कूटर अपने छोटे भाई के हवाले कर दिया तो मीनू ने पहली बार अपनी नाक-भौं सिकोड़ी थी--"एक दिन, तुम मुळो भी अपने भाइयों के हवाले कर देना..."

वह यह सोचते हुए चुप रह गया था कि--जब मीनू उसकी लौ में बहेगी तो उसके वस्तु-प्रेम का बुखार उतर जाएगा और वह भौतिक जीवन से उचटकर उसकी बौद्धिक दुनिया में कदम रखेगी जहाँ सुकून है, ज़िंदगी का असल मायने है।

शादी के बाद वह मीनू के साथ खाली हाथ ही हैदराबाद चला आया था। मीनू ने चलते-चलते कहा था--"तुमने शादी का सारा सामान उन लालची कुत्तों के हवाले कर दिया है, ये अच्छा नहीं किया..."

पहली बार अधीर उसकी टिप्पणी से ळाल्ला गया था--"मीनू, मेरे घरवाले तो तुम्हारे घरवाले भी हैं। फिर, उन्हें कुत्ता कहकर अपने किस बैकग्राउंड का परिचय दे रही हो? पढ़ी-लिखी लड़की हो; कम से कम कुछ तो शालीनता से पेश आओ..."

उस पल मीनू का चेहरा पश्चाताप से पसीजने के बजाय एकदम तमतमा गया था। अधीर को पहली बार एहसास हुआ कि वह बेइन्तेहां हिंसक भी हो सकती है। दोनों ने एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए ही उस रिज़र्व कम्पार्टमेंट में यात्रा की। सुबह जब ट्रेन सिकंदराबाद पहुँची तो अधीर ने उठकर उसकी पीठ पर हाथ रखा--"डियर, रेडी हो जाओ। हैदराबाद आने ही वाला है।" तब अधीर ने बर्थ पर बिखरे कंबल, चादर जैसे सामान खुद समेटकर बैग और अटैची में रखे थे। मीनू तो उठकर आइने के सामने सिर्फ़ अपने मेकअप को फ़ाइनल टच देने में मशगूल थी।

अधीर ने अपनी नवब्याहता पत्नी को ख़ुश करने के लिए हैदराबाद के उस किराए के फ़्लैट में अमूमन सारे इंतज़ामात कर रखे थे। कुआँरा रहते हुए भी उसने किचेन, बेडरूम और ड्राइंगरूम को जरूरी सामानों से सज्जित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। लेकिन, उसे आश्चर्य हो रहा था कि मीनू ने उसके सलीकेदार बंदोबस्त के बारे में तारीफ़ के एक भी लफ़्ज़ नहीं खर्च किए। उसने भी उससे यह नहीं पूछा कि तुम्हारे आने से पहले मैंने जो गृहस्थी सजा रखी है, उसके बारे में तुम्हारी क्या राय है।

समय--दिन, हफ़्ते, महीने और साल के रास्ते लिसढ़ता चला जा रहा था। तीन साल तक उनकी कोई संतान नहीं हुई तो सारा लांछन अधीर को ही ळोलना पड़ा--'उसी में कोई ऐब होगा।' जब दबंग सास हैदराबाद आई तो वह अधीर को बाक़ायदा यह मशविरा दे बैठी--"इस हैदराबाद में हमारे रिश्ते का एक डाक्टर है, तुम उसीसे अपना चेकअप करा लो। उसने कई बेऔलादों की तक़दीर बदली है।" पर, जब उस डाक्टर ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि अधीर में कोई कमी नहीं है तो मीनू और उसकी सास का चेहरा ही सूजकर फुटबाल हो गया। मीनू का गुबार तब तक नहीं गया जब तक कि वह मेडिकल जाँच और इलाज के बाद गर्भवती नहीं हो गई।

पहले बच्चे के बाद दूसरी बिटिया हुई। अफ़सोस कि अधीर के घरवाले दोनों बच्चों के पैदा होते समय उपस्थित नहीं हो सके। मीनू ने तो इस बात पर ख़ूब ताने दिए। जब अधीर सफ़ाई पेश करता तो वह और विस्फ़ोटक हो जाती। पर, इसके पीछे कारण ये था कि अधीर की माँ की कुछ ही वर्षों पहले हुई अकाल मृत्यु के सदमे से उसका परिवार उबर नहीं पाया था और इसके चलते उसके घर के लोगों का मन किसी खुशी में शरीक़ होने में नहीं लगता था। अधीर ने तो शादी केवल इसलिए की थी कि वह हैदराबाद में नौकरी करते हुए अपने एकाकीपन से बोर हो गया था। उसके लिए घर का काम निपटाकर आफ़िस की ड्युटी करना भारी पड़ रहा था। अन्यथा, वह तो यूँ ही खुश था। दरअसल, माँ की असमय मृत्यु के बाद उसकी शादी-वादी में दिलचस्पी ख़त्म-सी हो गई थी।

पर, उसे विवाह के बाद जो सुकून मिलना चाहिए था, वह कभी नहीं मिला। मीनू की परवरिश ही कुछ ऐसे माहौल में हुई थी कि उसके लिए अपने माँ-बाप, भाई-बहन आदि के अतिरिक्त किसी अन्य से तालमेल बैठा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि बिल्कुल असंभव-सा था। पहले वह मीनू की तानाजनी सुनकर प्रतिक्रियाएं कर देता था, जिससे बात बढ़कर बतंगड़ बन जाती थी। तिल का पहाड़ बन जाता था। धुआँधार बहसा-बहसी में माहौल इतना गरम हो जाता था कि तलाक के लिए वक़ील का दरवाज़ा खटखटाने तक की नौबत आ जाती थी। आख़िरकार, मुंहफट्ट मीनू के आगे उसकी बोलती बंद हो जाती थी। घर का शोरगुल मोहल्ले में चर्चा का विषय बन जाता था। एक अच्छी पोस्ट और तनख़्वाह पर कार्य करने के बावज़ूद उसे समाज और परिवार में वह इज़्ज़त नहीं मिल पाती थी, जिसका वह हक़दार था।

पर, अधीर बड़े धीरज से काम लेता था।

सो, उसने उससे ज़बानज़दगी करनी छोड़ दी और मीनू को शांत करने के लिए सारे हिक़मत अपनाने शुरू कर दिए। सुबह उससे पहले उठकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, सुबह की चाय बनाना और लंच के लिए खाना तैयार करने में हाथ बँटाना आदि उसने शुरू कर दिया। वैसे भी, वह आदतन घरेलू कामकाज में मीनू की मदद किया करता था और उसे यहाँ तक कि ळााड़ू-पोछा लगाने तक में कोई हिचक नहीं होती थी।

बहरहाल, वह उसके स्वभाव को बदलने में हमेशा नाकामयाब रहा। मीनू सारी हदें लाँघकर अमर्यादित तरीके से बर्ताव करने लगी थी। बच्चों और पति को ळिाड़कना और डाँटना तो मामूली बात थी; अब तो वह गाली-गलौज़ करने पर आमादा हो गई थी। उसे बेलगाम विस्फ़ोटक होने से बचाने के लिए अधीर सुबह से ही ऐसे सभी कामों को निपटाने में जुट जाता था जिन्हें करने से मीनू जी चुराती थी। उसे संतुष्ट करने के लिए वह आफ़िस को भी दाँव पर लगा बैठा था। आफ़िस लेट-लतीफ़ जाना, पहले लौट आना और काम को गंभीरतापूर्वक न लेना उसकी आदत बन गई थी। उसकी अनियमितताओं पर इन्क्वायरी भी बैठ गई थी। इतने पर भी, मीनू को अधीर की हर बात से शिकायत थी। अगर वह खाना खाने के बाद जूठे बर्तन किचेन की सिंक में डाल आता तो वह कहती कि उसे जूठे बर्तनों को आँगन में डालना चाहिए था। अगर वह कपड़ों को वाश बेसिन में सुखाए बग़ैर डारे पर फैला आता तो वह कहती--'जब बिजली बचाकर पैसे ही बचाने की चिंता थी तो क्यों नहीं कुआँरे रह गए?' अगर वह खाली समय में कभी-कभार अपनी किन्हीं पुरानी पांडुलिपियों को सहेजना शुरू कर देता तो वह उसे डपटे बिना नहीं रहती थी--'तुम्हें तो किताब-कलम से ही शादी कर लेनी चाहिए थी...'

कई बार अधीर को एहसास होता था कि वह घर का काम करते-करते औरत बनता जा रहा है। उसे यह भी लगता था कि वह अपनी माँ की तरह कोई सत्तर फ़ीसदी सहनशील और अंतर्मुखी हो गया है। उसे याद है कि पापाजी की यातनाओं को माँ किस ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लेती थी! पापाजी तो उसकी देवी-सरीखी माँ के चरित्र पर हमेशा शक किया करते थे। इस वज़ह से घर में कलह के चलते माहौल हमेशा तनावपूर्ण रहता था। वह तनाव तब दूर हुआ जब पापाजी, मम्मी की असमय मौत के बाद अपने पुश्तैनी घर में अकेले ही पेंशन भोगने चले गए। घर के अन्य सदस्य उनके खरीदे गए फ़्लैट में ही ज़िंदगी बसर करने लगे। पापाजी ने तो अपनी बेटियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों तक से पल्ला ळााड़ लिया था।

अधीर की तंद्रा तब टूटी जब उसके दोनों बच्चे यानी सात वर्षीय अंकुश और चार वर्षीय अलि घर में दाख़िल हुए। वे एक ही स्कूल में पढ़ते थे और एक ही गाड़ी में साथ-साथ आया करते थे। बच्चों को आश्चर्य हो रहा था कि पापा आफ़िस जाने के बजाए आज घर पर ही जमे हुए हैं। दरअसल, उन्हें यह नहीं मालूम था कि आज पापा-मम्मी के बीच कुछ ज़्यादा ही छिड़ गई थी। वे तो उनके बीच जंग छिड़ने से पहले स्कूल जा चुके थे।

अंकुश रोज की तरह सीधे किचेन में गया और वहाँ भगौनों और दोंगों में खाना नदारद पाकर भूख से बिलबिला उठा। अधीर ने उसकी पीठ थपथपाई : "मैं अभी खाने का बंदोबस्त करता हूँ।"

उसने फोन करके रेस्तरॅा से तत्काल भोजन मंगा लिया और बच्चों के हाथ-पैर धुलाते हुए उनका खाने की मेज पर स्वागत किया। जब दोनों बच्चे आराम करने बेड रूम में जाने के बजाए ड्राइंग रूम में टी0वी0 पर कार्टून फ़िल्म देखने में खो गए तो वह शाम का डिनर तैयार करने में जुट गया। सोच रहा था कि शायद आज मीनू का मूड बन जाए।

तभी मोबाइल की बेल बजी। उसे यह जानकर कोई ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ कि मीनू के नंबर पर बिर्जू की आवाज़ आ रही थी और बिर्जू उससे बात न करके अंकुश से बात करना चाह रहा था। तब, मोबाइल पर मीनू ने अंकुश को बताया कि वह आज घर नहीं आएगी। अधीर को यह जानकर बड़ा कोफ़्त हुआ। उसने खाना बनाने का कार्यक्रम स्थगित करके बच्चों को यह समाचार दिया कि वे आज बाहर जाकर खाना खाएंगे।

होटल से लौटकर अधीर को चैन नहीं था। उसके लिए यह बात छिपी नहीं थी कि मीनू व्यवहार्यतः बिर्जू की रखैल बन चुकी है। बिर्जू उसका बॅास है जो उसका सेक्स एब्यूज़ करता है। वह मीनू की वे सारी जरूरतें पूरी करने की दम भरता है जो वह नहीं कर सकता। वह ऐसी स्थिति में है भी नहीं कि वह उसे मोटी पॅाकेट मनी दे सके और इम्पोर्टेड कास्मेटिकस, कपड़े व घूमने-फिरने के लिए उसे एक आलीशान कार मुहैया करा सके। उसके कंधे पर इतनी ज़िम्मेदारियाँ हैं कि वह अपना मकान और अपनी गाड़ी तक के बारे में कुछ नहीं सोच सक ता।

देर रात तक उसे नींद नहीं आई। वह बेहद मायूस था। उसे मीनू के साथ एक ही बिस्तर पर सोए हुए कोई साल भर तो गुजर ही गया होगा। इस दरमियान उसने, कभी एक ही मच्छरदानी में सोने के बहाने से भी, उससे साथ-साथ सोने का आग्रह नहीं किया। उसकी लानत सुनते हुए जोर-जबरदस्ती करके उसके साथ हमबिस्तर होना अब उसे रास नहीं आता था। जी करता था कि वह भी अपने किसी आफ़िसकर्मी के साथ गुलछर्रे उड़ाए। मौज़-मस्ती के हुड़दंग में बाकी ज़िंदगी को हँसी-ठठ्ठा में गुजार दे। लेकिन, वह किसी प्रकार का नाज़ायज़ हरक़त करके ख़ुद को या अपने घर के संस्कारों को कलंकित करना नहीं चाहता था। उसने घड़ी की ओर सिर घुमाया--डेढ़ बज चुके थे। उसे एक बार हल्की नींद भी आई थी। किंतु, वह अपने ही खर्राटों से जग गया। तभी उसे कुछ याद करके हँसी-सी आ गई। कोई दो साल पहले वह अपने साले की शादी में शामिल होने ससुराल गया हुआ था तो एक शाम सोते हुए वह अचानक जग गया था। मीनू उसके सामने खड़ी, अपने रिश्तेदारों से कह रही थी कि--'

'आओ, मैं तुम्हें बकरे का बिबियाना सुना रही हूँ...'

वह तो इस मजाक पर रिश्तेदारों के सामने ळोंप गया था; पर, मीनू ठठाकर हँस रही थी।

अधीर सोच रहा था कि अगर उसके खर्राटे को टेप करके सुनाया जाए तो वह यह तय करना चाहेगा कि वाकई! उसका खर्राटा बकरे के बें-बें जैसा ही सुनाई देता है।

देर रात सोने के बाद सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसे बड़ा अचंभा हो रहा था। उसने एक लंबा सपना देखा था जिसमें मीनू ने उसे जादू की छड़ी से छूकर बकरा बना दिया है और उसके गले में एक पट्टा डाल दिया है। वह उसे डंडे से मार-मारकर घर के सारे कूड़े-कचरे जबरन खिला रही है और उसके बें-बें करने पर उस पर डंडे बरसा रही है।

सुबह अधीर बच्चों को स्कूल न भेजकर उन्हें अपने साथ आफ़िस ले गया। उन्हें पार्क में बैठा दिया और अपनी स्टेनो को हिदायत दे दी कि वह आज उसके बच्चों का ख्याल रखेगी। उसका काम वह ख़ुद कर लेगा।

मीनू ने जैसे ही अपने कदम घर में रखे, दोनों बच्चे टी0वी0 आफ़ करके अधीर के साथ बाहर निकल आए और लॅान में सैटी पर बैठ गए। मीनू ने सीधे किचेन में जाकर पैक्ड फूड की पैकेट को डाइनिंग टेबल पर फ़ेंक दिया। कुछ देर तक वह अंदर ही व्यस्त रही। अधीर ने सोचा कि वह कपड़े वग़ैरह बदल रही होगी।

अंकुश उसके मना करने पर भी अंदर मीनू की ख़बर ले आया--"मम्मी जो खाना लेके आई थी, वह अकेले ही अकेले गड़प रही हैं।"

अधीर, मीनू पर गुस्सा होने के बजाए अंकुश के बचकानेपन पर ही रहम खाने लगा। वह बुदबुदाए बग़ैर नहीं रह सका--"कैसी भुक्खड़ माँ है!"

शाम को मीनू को बुलाए बिना अधीर ने बच्चों के साथ खाना खाया। जब तक वह बच्चों के साथ बेडरूम में सोने का प्रबंध करता रहा यानी मच्छरदानी लगाता रहा और सिरहाने पानी की बोतल आदि सहेजता रहा तब तक मीनू से न तो अधीर की, न ही बच्चों की बातचीत हुई थी। अधीर ने बच्चों से फ़ुसफ़ुसाकर कह दिया था : "इस समय वह बहुत ग़ुस्से में है; इसलिए उससे बात करने की ग़ुस्ताख़ी मत करना..."

पिछली रात को नींद पूरी न होने के कारण और आफ़िस में पेंडिंग काम को निपटाने की ज़द्दोज़हद में अधीर इतना थककर चूर हो गया था कि वह तकिए पर सिर रखते ही नीद में लुढ़क गया।

कोई 11 बजे होंगे कि एक हृदय-विदारक चींख से अधीर और बच्चे जग गए। चींख मीनू के बेडरूम से आई थी, इसलिए वे उधर ही भागे। वहाँ मीनू अपने पेट को दोनों हाथों से जोर से दबाए हुए काँप रही थी। असह्य दर्द के मारे उसका दम घुटता-सा लग रहा था और चींख मुँह के अंदर ही ज़ज़्ब हुई जा रही था। सारा शरीर पसीने से नहा गया था। बच्चे उसकी हालत देख जोर-जोर से रोने लगे।

अधीर ने ळाटपट उसे बेहोशी की हालत में अस्पताल में दाख़िल कराया। रात भर वह उसी तरह रुक-रुककर दर्द से चींखती रही जिससे उसकी मेडिकल चेकअप में बार-बार रुकावट आ जाती थी। अधीर ने रात ही ससुराल को उसकी हालत के बारे में फोन पर इत्तला कर दिया था। सुबह जब उसके फोन करने पर मीनू के आफ़िसवाले उसे देखने आए तब तक सारी मेडिकल रिपोर्टें भी आ गईं। डाक्टर की इस सूचना पर अधीर को ग़शी-सी आने लगी कि मीनू के दोनों गुर्दे अत्यधिक शराब पीने के कारण खराब हो गए हैं और उनसे लगातार रक्तस्राव हो रहा है।

डाक्टर ने अधीर से कहा : "आज शाम तक उसके लिए कम से कम एक गुर्दे का बंदोबस्त हो ही जाना चाहिए ताकि उसका ट्रांसप्लांट किया जा सके।"

बहरहाल, अधीर को दुःखद आश्चर्य हो रहा था कि आख़िर, मीनू ने कब से शराब पीना शुरू किया जबकि उसे इसकी भनक तक नहीं लगी। बेशक! उसके गुर्दों के ख़राब होने की वज़ह उसका प्रेमी बिर्जू ही होगा।

अधीर के तो हाथ-पाँव फूल गए। गुर्दे बदलने में कम से कम दस लाख का खर्च आने वाला था जबकि अधीर इतने रुपयों का बंदोबस्त करने में एकदम असमर्थ था। लेकिन, उसे आशा थी कि ससुरालवाले उसके लिए नहीं तो, अपनी बेटी के लिए रुपए का इंतज़ाम तो कर ही देंगे।

दोपहर तक मीनू के माँ-बाप और भाई पहुँच चुके थे। अधीर ने उनका स्वागत ही इस मांग से किया : "मीनू के इलाज के लिए दस लाख की जरूरत है।"

पर, आश्चर्य कि उसकी सास ने बड़े बेहूदे ढंग से प्रतिक्रिया की : "अभी तक तुम्हारी दहेज़ की चाह पूरी नहीं हुई? मेरी बेटी को मौत के मुँह में धकेलकर भी तुम अपने लालचीपन से बाज नहीं आ रहे हो?"

चुनांचे, मीनू के कुछ आफ़िसवालों के समळााने-बुळााने पर ससुरालवाले यह मानने को तैयार हुए कि मीनू की जान की कीमत कोई दस लाख है।

अधीर के ससुर ने कहा : "अरे! इतने पैसों की क्या जरूरत है? हममें से कोई अपना गुर्दा मीनू को दे देगा..." उनकी बात सुनते ही अधीर की सास छाती पकड़कर गिर पड़ी। उसे आई सी यू वार्ड में भरती कराने के लिए स्टैचर मंगाना पड़ा। ससुर ने कहा : "मैं तो ख़ुद ही बी0पी0 और शूगर से अधमरा हूँ। गुर्दा निकलने के बाद तो बचूँगा ही नहीं...तुमलोग जवान हो, तुम्हारे गुर्दे ही उसमें ज़्यादा फिट बैठेंगे। आख़िर, तुम उसके शौहर हो..."

अभी गुर्दे के बंदोबस्त के संबंध में चर्चा चल ही रही थी कि मीनू का भाई टहलते हुए दूर निकल गया। जब हताश अधीर ने मीनू के ख़िदमतग़ार बॅास--बिजेन्द्र उर्फ़ बिर्जू की ओर रुख किया तो वह तेजी से चलता हुआ अपनी कार में बैठकर कार स्टार्ट करने लगा।

अधीर ने फिर किसी की ओर नहीं देखा। वह तेज कदमों से चलते हुए डॅाक्टर के कमरे में आ गया। उसने अपने दोनों बच्चों को टाफ़ी, बिस्कुट और अंकल चिप्स के कई पैकेट थमाते हुए कहा : "मैं काफ़ी देर तक तुम्हारी मम्मी के पास रहूँगा। तब तक तुम इसी कमरे में मेरा इंतजार करना। ध्यान रहे, मैं तुम्हारी मम्मी की जान बचाने जा रहा हूँ। अगर तुम दोनों ने कोआपरेट नहीं किया तो तुम्हारी मम्मी का भला नहीं होगा।"

दोनों बच्चों ने कान पकड़कर वादा किया।

कोई दो घंटे के आपरेशन के बाद अधीर का एक गुर्दा निकाल लिया गया। उसने बच्चों को बुलवाकर बेड पर लेटे-लेटे बताया : "अब रोना मत । मैंने तुम्हारी मम्मी को बचाने का पुख़्ता इंतजाम कर रखा है..."

तभी अंकुश ने यह जानकारी दी कि उसकी नानी को हार्ट अटैक नहीं पड़ा था। वह तो नाटक कर रही थी ताकि उसे अपना गुर्दा न देना पड़े। डाक्टर ने उसे एकाध गोली देकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया है।

अधीर मुस्कराकर रह गया। उसने कहा : "ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी मम्मी की तबियत ठीक हो जाएगी। लेकिन, तुम सभी यह प्रार्थना करो कि उसके दिल में रहम और दिमाग़ में समळा पैदा हो..."

पिछले आठ सालों से मीनू भली-चंगी चल रही है। उसके स्वभाव में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है--सिवाय इसके कि वह लड़ने-ळागड़ने के बाद कोर्ट से कोई कार्रवाई करने का धौंस नहीं देती। बड़ी से बड़ी लड़ाई लड़ने के बाद भी वह रात को अधीर के बेड के किनारे आकर सो जाती है। अधीर के खर्राटा लेने के बावज़ूद वह बेड नहीं छोड़ती है; बल्कि भुनभुनाकर रह जाती है--'बकरा कहीं का।' हाँ, शराब के साथ-साथ बिर्जू से भी तौबा कर लिया है। अस्पताल से छूटकर वह सीधे बिर्जू के पास गई थी और अपना त्याग-पत्र सौंपते हुए उससे जोरशोर से ळागड़ आई थी कि उसने उसकी मुसीबत में क्यों नहीं साथ दिया। एक और बदलाव उसमें यह आया है कि वह बच्चों को डाँटने-फटकारने के बाद उन्हें प्यार से सबक भी देने लगी है। पर, अधीर की दिनचर्या में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। वह आज भी आफ़िस जाने से पहले और वहाँ से लौटने के बाद किचेन में लगा रहता है। महरी के न आने पर वह बरामदे से बेडरूम तक बड़े मन से ळााड़ू-पोछा लगाता है क्योंकि डाक्टर ने उसे ख़ास हिदायत दे रखी है कि अपने इकलौते गुर्दे को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए उसके लिए व्यायाम करना बहुत जरूरी है और उसे मेहनत से कतई जी नहीं चुराना चाहिए। जब वह थककर सुस्ताने लगता है तो अपने सामने मीनू को हाथ में छड़ी लिए हुए खड़ा पाता है : "अगर ज़िंदा रहना चाहते हो तो काम करो।"

अधीर को कुछ वर्षों पहले का वह सपना याद आ जाता है जिसमें मीनू उसे जादुई छड़ी घुमाकर बकरा बना देती है और उसे डंडे के बल पर घर में बिखरा कूड़ा-कचरा खाने को मज़बूर करती है।