बकाया / उमेश मोहन धवन
“आपके स्कूटर की ट्यूब ही बदलनी पड़ेगी और कोई चारा नहीं है क्योंकि इसमें तीन इंच लम्बा कट लग गया है। ट्यूब की कीमत तथा बनवाई मिलाकर ढाई सौ रुपये लगेंगे।” पंक्चरवाले ने चाँदबाबू को बताया। “पर मेरे पास तो इस समय दो सौ ही रुपये हैं। रात का समय है। दूर जाना है। मैं रोज दफ्तर इधर से ही जाता हूँ। कल दे दूँगा बाकी के पचास रुपये पर इस समय तो नया ट्यूब लगा दो भैया।” “बाबूजी कोई नहीं देता बाद में । फिर मै तो आपको जानता तक नहीं। आप ही लोग तो सिखाते हो हमें। अभी तीन दिन पहले ही मैने एक साहब के सौ रुपये बाकी कर लिये थे तरस खा के। बहुत गिड़गिड़ा रहे थे कि दूर जाना है, कल दे दूँगा पर आज तीन दिन हो गये, बाबूजी का कुछ अता पता नहीं है। इस बार तो मैं बाकी नहीं करुँगा” गरीब पंक्चरवाला और धोखा नहीं खाना चाहता था “भैया सुनो। तभी पीछे से एक आवाज आयी । मैं परसों भी आया था और कल भी पर तुम सामान लेने बाजार गये हुये थे । दुकान पर कोई छोटा लड़का बैठा था तो मैं वापस लौट गया। ये लो अपने बकाया सौ रुपये भैया।” पंक्चरवाले के चेहरे पर अब साधुवत संतोष और सरलता वापस आ गयी। उसने आवाज लगायी “ए लड़के जरा बढ़िया वाली एक ट्यूब निकाल अंदर से बाबूजी के स्कूटर के लिये। इनको बहुत दूर जाना है”