बखत की बात / प्रतिभा सक्सेना
जैसे ही मैने रमेश को आवाज़ लगाई, अम्माँ जी ने आकर टोक दिया, 'देखो बहू, रमेस, को रमेस न कहा करो। '
'क्यों अम्माँ जी?'
'इतना तो खुद समझना चाहिये। रमेस तुम्हारे छोटे जेठ का नाम हैगा। मुँह से कैसे निकल जाता है तुम्हारे?'
मैं एकदम से चकपका गई. पूछ बैठी,'फिर क्या कह कर आवाज दूँ उसे?'
'गनेस कहा करो। '
मेरी बडी इच्छा हुई जोर से हँसूँ, लेकिन खूब सिर झुकाकर बोली, 'अच्छा। '
बडी मुश्किल है।
देवताओं का तो हमारे यहाँ पूरा जमघट है -ससुर जी हैं कृष्णचन्द्र,तइया ससुर रामकिशन,चचिया ससुर शिवशंकर, फूफा जी विशन स्वरूप और रही-सही कसर पूरी कर दी जेठों और ननदोइयों ने। आखिर कौन-कौन से नाम निकाल दूँ अपनी जीभ से?
मुँह से निकला, 'हे भगवान!फिर मैं किसी देवता नाम न लूँ?'
'बहू देखो, भगवान-भगवान मत करो। भगवान हमारे बडे भैया का नाम हैगा -तुम्हारे ममिया ससुर। और देवता दीन हैं तुम्हारे मौसिया ससुर, हमारे मँझले जीजा। इतना मान तो हमेरे मैकेवालों का होना ही चाहिये। '
' हाय अल्ला, अब नहीं कहूँगी अम्माँजी। '
'तुम हिन्दुअन के घर की बहू हो, ये अल्ला -अल्ला काहे करती हो?अरे ठीक से बोलो, नहीं कोई समझेगा मुसलमानी ब्यह लाये हैंगे। '
वैसे तो मेरी ससुरालवाले बडे उदार हैं.पर्दा तो नहीं के बराबर है, और बहू नौकरी कर ले तो भी कोई आपत्ति नहीं.अम्माँजी जरा पुराने ढर्रे पर हैं, पुराने कायदे पसन्द हैं उन्हें. क्या किया जाय? उनका भी मन रखना है। पर अभी एक ही साल तो हुआ है शादी को, इस घर में तो और भी कम दिन! आदतें बदलते बदलते ही तो बदलेंगी।
यह जो रागिनी है मेरी ननद, मेरी आदतों से वाकिफ़ है। शादी के पहले से पहचान है, चार साल साथ-साथ पढ़ी हैं। हम दोनों की खूब घुटती थी.ऐसे मौकों को वही सम्हाले रखती है। साल-डेढ साल में वह भी चली जायेगी। शादी तय हो गई है, लडका विदेश गया है। दोनों की चिट्ठी-पत्री चलती है,पर इसका पता सिर्फ मुझी को है.
ससुर जी बडे रोशन-खयाल हैं.पढ़ी-लिखी बहू को देख-देख सिहाते हैं। कहते हैं इत्ता पढ़ा-लिखा है उसने,घर में पडे-पडे ऊबेगी। उसकी इच्छा है तो करने दो नौकरी। '
खुद इन्टरव्यू दिलाने ले गये थे। लौट कर बोले, 'देखना, हमारी बहू बडों-बडें के कान काटेगी। '
अम्माँजी कुछ बोलीं नहीं, मुँह बिचका कर कमरे में चली गईं थीं.
आजकल परीक्षायें चल रही हैं, नंबर वगैरा चढाने का काफी काम घर लाना पडता है। रागिनी बहुत मदद करती है मेरी.
मैं नंबर चढा रही थी, वह बोल रही थी। वह बोली, 'अब मैं बोलती हूँ, तुम मिला लो। चेकिंग भी यहीं हो जायगी। '
मैं बोलने लगी। इतने में नाम आया -इन्द्रेश कुमारी। पास के कमरे से झाँकर सासजी बोलीं, 'इन्द्रेस कौन?'
वैसे तो उन्हें कुछ ऊँचा सुनाई देता है,पर ऐसी बातें बड़ी जल्दी सुन लेती हैं।
'भाभी की एक स्टूडेन्ट है। और देखो तो अम्माँ, एक जगदीश भी है.'
'तुम्हारी किलास में है?'मुझसे प्रश्न हुआ।
'हाँ, मेरी में ही तो। '
'तुम रोज-रोज नाम ले के पुकारती होओगी?'
'हाजरी तो रोज ही लेनी पडती है। '
'सब लड़कियन का सामने दूल्हा और जेठ का नाम तुमसे कैसे बोला जाता हैगा?'
'नाम कहाँ लेती हूँ?'
'कुछ नहीं उनके नाम आते हैं तो शकल देखके पी लगा देती हूँ। ' मैं साफ़ झूठ बोल गई।
'अउर का?हमसे तो सुहागनों के न्योते में भी तुम्हारे ससुर का नाम नहीं निकलता हैगा, हम तो के सी कह देती हैंगी। '
'के.सी. मतलब कृष्ण चन्द्र ' समझने की कोशिश में मैं बोल बैठी।
अम्माँजी ने आँखें तरेर कर देखा, मैने जुबान काट ली -हाय राम, ससुर जी का नाम ले बैठी।
'माफ करो अम्माँ जी, गलती हो गई। आगे से कभी नहीं कहूँगी। '
वे पैर पटकती चली गईं, कुछ शब्द पीछे छोड गईं,'आजकल की बहुअन को जरा सरम -लिहाज नहीं--'
रागिनी मेरा मुँह ताके जा रही थी,मुस्करा कर बोली, 'सच्ची भाभी, शकल देख के हाजरी लगा देती हो?'
'चलो हटो ! मैं काहे को शकल देख कर हाजरी लगाऊँ? कल तो इन्द्रेश को आवाज़ लगा कर वो फटकार लगाई कि बस। '
'और, जगदीश। '
'वो तो जेठ जी हैं;फिर भी बुलाना तो पडता ही है। ससरी बडी बदमाश है.इसकी तो एक चिट्ठी पकड़ी थी हम लोगों ने। .'
रागिनी खिलखिला कर हँसी, 'फिर तो खूब मजा लिया होगा तुम लोगों ने। अच्छा क्या लिखा था, हमें भी बताओ न.'
'अरे, वही सब जो तुम लोगों की चिट्ठियों में होता है.बस, भाषा जरा सस्ते टाइप की और भाव भी अधकचरा। '
'तुम्हें क्या पता हम लोग क्या लिखते हैं?मेरी चिट्ठी चुरा के पढती हो तुम?'
'वाह,वाह !ये अच्छी तोहमत !'
'सच्ची बताओ भाभी, तुमने हमारी चिट्ठियाँ पढी हैं?'
'अरे बाबा, चुरा कर क्यों पढूँगी?तुम्हारे ढंग देख कर अंदाज तो लगा सकती हूँ। '
वह कुछ शान्त हुई, 'भाभी तुम बड़ी खराब हो। '
'मैं खराब हूँ !अभी अम्माँ जी को पता चले कि तुम-लोगों की चिट्ठी-पत्री चलती है, और तुम सुकान्त का नाम लेती हो तो तुम्हारी गर्दन काट के फेंक देंगी। '
'कहीं न काट के फेंक देंगी। अपनी बिटिया की तो सब बातें दबा दी जाती हैं, वो सब तो तुम्हें सुनाने के लिये है। '
'हो समझदार ! फ़ोटोवाली बात याद है न?'
'अच्छी तरह?'
मेरे कमरे में, जो इनके साथवाला मेरा साइड पोज का फोटो फ्रेम में लगा रखा है, अम्माँजी उसे उठा कर देखने लगीं एक दिन। घुमा-फिरा कर ध्यान से देखती रहीं, फिर पूछने लगीं, 'ये क्या गाल पे गाल धर के खिंचाया हैगा।
'मैं कटकर रह गई.बोली, 'थोडा आगे-पीछे खडे हैं, साइड से तो ऐसा ही पोज़ आता है.'
'पोज-ओज तुमलोग बनाओ,हम क्या जाने !हमें तो सबके सामने ये सब देख के सरम लगती हैगी.'
बात लग गई थी मुझे। सुकान्त ने विदेश जाने से पहले रागिनी के साथ फोटे खिंचाया था -रागिनी के बहुत पास खडे उसके कन्धे पर हाथ धरे उसकी आँखों मे देख रहे थे। फ़ोटो मेरे हाथ पड गया। मैंने मौके का फायदा उठाया। एक दम अम्माँ जी के पास पहुँची।
'अम्माँजी, एक चीज़ दिखाऊँ?'
'क्या है?'
'रहने दीजिये, आप नाराज न हो जायें कहीं ' मैंने वापस होने की मुद्रा बनाई।
'क्या है बहू, दिखाओ तो। '
'एख मज़ेदार चीज़ है, पर पता नहीं आपको कैसी लगे !'
'ऐसा क्या है?लाओ तो इधर, देखें। '
'आप नहीं मानतीं तो लीजिये, ' मैंने फ़ोटो पकडा दिया।
'ऐं,ये किसका फोटू है?कैसी बेहयाई से खिंचवाया हैगा,' ठीक से पहचानने के लिये चश्मा लगाने लगीं.मैं ध्यान से उनकी शकल देखती रही। चश्मा लगा कर उन्होने ध्यान से देखा, पहचाना फिर एकदम सामने से हटा दिया। मुझसे कहा, 'बेहया कहूँ की !लड़कियन के ऐसे फोटू कहूँ महतारी -बापन को दिखये जात हैंगे?अरे, दूल्हा ने कहा होगा खिंचाओ. क्या करती बिचारी !'
मैंने रागिनी से कहा,'हाँ, तुम्हें तो उनने बिना शादी के दूल्हा -दुल्हन बना रखा है.'
'डोन्ट करो परवाह भाभी, अम्माँओं की यह वीकनेस जग-विदित है। अपना याद करो न। और तुम्हें तो मैं हमेशा सपोर्ट करती हूँ। '
'तभी तो तुम्हारी हर नालायकी पचा जाती हूँ। '
'राधा शर्मा पन्द्रह,अनुपमा बीस, हिना उन्नीस, स्वप्ना तेरह, टेकवती सात, हरभजन। .'
'अरे रे रे, ये क्या कर दिया...?'
'क्या हुआ, गलत चढ गये?'
'तुमने तो आसमान से एकदम ज़मीन पर लाकर पटक दिया। '
'क्या मतलब?'
'मधुरिमा, स्वप्ना, हिना और एकदम से टेकवती। .?तुम्हार एस्थेटिक सेंस कहाँ चला गया भाभी? जरा नामों का सीरियल पहले ही ढंग से बना लिया करो, ऐसा धक्का लगता है कि। .। '
बडी देर से नंबर चढाते-चढाते ऊब रहे थे, चाय पीने की इच्छा हुई। इतने में रमेश दिखाई दिया, मैंने आवाज लगाई,'गणेश, ओ गणेश !'
उसने सुना ही नहीं, चलता चला गया।
'ओ रे गणेश, सुनता नहीं है, ' मैं फिर चिल्लाई।
पर उसका नाम गणेश हो तो वह सुने। हार कर अम्माँ जी की शरण ली। '
'अम्माँ जी, चाहे जित्ती आवाज दो, ये गणेश सुनता नहीं है.'
'क्यों रे, बहू ने आवाज दी तू बोला क्यों नहीं?'
'हमका नाहीं बुलावा रहे, ई तो गनेश का गुहरावत रहीं। '
'तो, तू बोला क्यों नहीं?'
'हमार नाम रमेस अहै। '
नहीं तेरा नाम गनेश हैगा। '
यह नया नामकरण किस खुशी में हो रहा है, वह समझ नहीं पाया, 'हम आपुन नाम ना बदली। '
'नाम से क्या फरक पडता हैगा?अरे रमेस न कहा गनेस कह दिया। '
'वाह माँ जी, बाप दादा केर दिया नाम अहै. हम काहे बदली?'
'अच्छा, तो घर में तुझे क्या कहते हैं?'
'महतारी छुटकू कहत रहीं, बाप रमेसुआ बुलावत रहे, भइया रमेसू कहित हैं। ...'
'अच्छा तो फिर तुझसे छुटकू कहें /'
'हां, ईमाँ कउनौ बात नाहीं.काहे से कि घर माँ छोट रहे तौन। ...'
'अच्छा तो बहू,इससे छुटकू कहा करो। '
ननद बैठी-बैठी मुस्करा रही है.
'अम्माँ ये नाम भाभी के लिये है कि हम भी। ..'
'तुम ससुर जेठों की लिस्ट मँगा कर अभी से आदत डाल लो। दूल्हा का नाम तो। ..',मैने वाक्य अधूरा छोड दिया। रागिनी ने आँखें तरेरीं, मुझे कहना थोडे ही था उसे छेड़ना भर था।
'तुमने इज्ज़तबेग नाम सुना है,भाभी?'
'हाँ, इज्ज़तबेग -अस्मतबेग दोनों सुने हैं.'
'सुनकर कैसा लगा तुम्हें?'
'लगना क्या है उसमें?बस नाम हैं जैसे तुम्हारे सुकान्त। '
'चुप करो भाभी, सुकान्त को क्यों घसीटती हो?इन दोनों नामों की बात कर रही हूँ। तुम्हें कैसे लगते हैं ये?'
'मतलब बोलो अपना। '
'इज्ज़तबेग सुकर लगता है जैसे किसी ने अपनी इज्ज़त उठाकर बैग में रख दी हो और चल दिया हो ;अस्मतबेग भी....' 'खाली रहती हो, तभी न ये खुराफातें सूझती हैं। '
इतने में अन्दर से आवाज आई,'किसकी इज्ज़त ले ली?'
हम दोनों चकपका कर एक-दूसरी का मुँह देखने लगीं.
अम्माँ जी चली आ रही थीं।
मुझसे कहने लगीं, 'कैसी-कैसी बातें करती हो तुम-लोग! रागिनी, तुम तो थोड़ी सरम करो। ...और हाँ बहू, परसों साम को तुम माल रोड के ठेले पे गोलगप्पे खा रही थीं?'
मैने खोज भरी निगाह रागिनी के चेहरे पर डाली।
'मैं और चाट ! किसने कहा अम्माँ जी?'
'वो मिसराइन चाची इस्टेसन से लौट रहीं थीं, कह रहीं थीं -हमें तो बिसवास नहीं हुआ। इत्ती कायदेवाली बहू नन्हा-सा बिलाउज पहने, अधनंग पीठ किये पत्ते चाटती हैगी ! हमने कहा -हमारी बहू तो इसकूल के परोगराम में गई हैगी। वो कहाँ से जायगी? तो बोलीं -नहीं, वही पीली जरी के बूटोंवाली साडी पहने थी। '
परसों के प्रोग्राम में तो भाभी ने बैंगनी साडी पहनी थी, पीली साड़ी, तो कबसे मेरे पास पडी है अम्माँ। ये तुम्हारी पडोसिने भी घर में आग लगानेवाली हैं, झूठी लगाई-बुझाई करती रहती हैं.'
'अरे, अब समझी, ' मैं भी शुरू हो गई, 'मेरी वो सहेली थी न रमा। मुझसे बहुत शकल मिलती है. सब कहते हैं.मेरी साड़ी देख के उसने भी वैसी ही खरीदी थी। दूर से तो लोगों को अक्सर ही धोखा हो जाता है। '
'वो तुम्हारी सहेली कैसी है?'
'पूछिये मत अम्माँजी, बड़ी बेशरम है। सारी पीठखोले घूमती है। अब तो बाल भी कटा लिये हैं... 'कहते-कहते मेरे हाथ अपने कटे बालों पर चले गये,जिन्हें अब तक अम्माँजी से छिपाये थी।
पीठ पर पल्ला खींचती मैं हड़बड़ा कर वहाँ से हट गई।
रागिनी मेरे पीछे-पीछे चली आई,' क्यों, ये बाल कटाने की बात क्यों कही तुमने?'
'घबराहट में एकदम मुँह से निकल गया, रागिनी.......ये सब तुम्हारी वजह से हुआ.तुम तो उन्हें दिखाई नहीं दीं मै पकड़ गई। ....और बाल भी तुम्हीं ने जिद करके कटवाये। '
'वाह, कित्ती अच्छी लगती हो भाभी, जरा भैया के दिल से पूछो !और हमने तो तुमसे भी छोटे कराये हैं। अगर अम्माँ कहें तो कह देना -दूल्हा ने कहा कटाओ, मैं मना नहीं कर पाई...बिचारी। '
'अम्माँजी, वो जो मेरी सहेली है न, रमा जो मेरे जैसी लगती है। ....'
'कहती तो रहती हो हमेसा, कभी घर पे नहीं लाईं, बहू?'
'उस बेहया को घर पर लाकर क्या करूँ?अपने पति का तो नाम लेकर पुकारती है। लव-सेरिज की है, आपको अच्छी नहीं लगेगी। शादी के पहले भी कॉलिज में मिलने आता था...'
'लड़कियन के इस्कूल में। .?'
'अपनी बहन को बुलाने के बहाने से जाता था.'
'किसकी बात कर रही हो?'
'उसी रमा की। बडी बेशरम है. मैं तो उसका साथ ही छोड़े दे रही हूँ। '
मुझ लगा अम्माँ हल्के से मुस्कराईं।
'बखत-बखत की बात है। न देखो तब तक लगता है। अब घर-घर यही हाल है। '
मैं चौंकी, ' क्या हाल अम्माँजी?'
अरे, कुछ नहीं, बहू. तुम उसे कहती हो, वो तुम्हें कहती होयगी। इन्द्रेस भी तो जाते थे रागिनी को बुलाने। तुम दोनों का सहेलापा था। अब क्या उसे कहें क्या तुम्हें?'
अम्माँ जी मेरी ओर देख कर मुस्करा रहीं थीं।
मेरे बोलने को बचा ही क्या था !