बचकालो / तुषार कान्त उपाध्याय
बाबूजी इनकर नाम रखले रहले विष्णुकली। ऊहो पंडीजी के कहला पर। अपने त पढ़ाई-लिखाई से कौनो जनम के नाता ना रहे आ नाहीं उनका मेहरारू के. पंडीजी के कहला पर नांव रख देहले। महीना साल बितत-बितत विष्णुकली साचो के अपना नांव के हिसाबे बढ़े लगली। विष्णुकली के बाबू जी विभूति तिवारी रहले त बाबाजी के कुल खानदान में जामल। बाकी पढ़े-लिखे आ पूजा-पाठ से कौनो नाता ना रहे। ऊहे का उनकर पूरा गांउअे ऐके कुल खानदान के, ऐके नियन पढ़ाई-लिखाई से दूर, खेती-गिरहती आ गरूआरी में जिनगी के कुल सुख भोग लेवे वाला रहे।
छोट गांव, चारों ओर गढ़ही से घेराईल। अहिर, चमार, गोंड़ आ दू घर पूरोहित के छोड़ के बाकि पूरा गांव बाबाजी के ऐके कुल खानदान से रहे। दू घर सुकुल परिवार के आके कबो बस गइल आ गांव जवार में पूरोताई के काम में लाग गईल। तिवारी जी लोग रहले असली गिरहत। न उधो के लेना ना माधो के देना। गांव में ना चोरी-चिकारी ना झगरा फौदारी। बड़ो-छोट के कौनो अधिका भेदभाव ना रहे। सभे जात के लोग चाचा, भइया, काका लागस। बाबाजी अहिरान के खेत रहे। तो बाकी लोग मजूरी और दोसर काम कहके मगन रहस। बाकी गरीबी आ पेट-जरी सबके जिनगी में घाम आ छांह लेखा आवत जात रहे। तनी कम भा तनी बेसी. अधिका लोग के खेत खाए पीये भा बिया शादी के फेर में रेहन रखा गईल रहे। इ रेहन लेवे वाला रहले तो उनकर भाईये देयाद। बाकी गरीब के भाई के देयाद। ना ही ना कौनो नाता। सब कहे आउ सुनावे के ह। विभूति तिवारी प दरिद्रता तनि अधिके खुश रहलि। कुछ खेत रेहन तो कुछ सुखाद और दहाड़ के फेरा में बांज का कोख लेखा सुन्न हो गईले रहे। खाहूँ के कभो भेटाये त कबो ठनठन गोपाल। ऐही में अईली विष्णुकली। बियाह के दस बरिस के बाद। विष्णुकली अपना पीठिये पर लेके आईली भाई - गजानन।
विष्णुकली के डेगाडेगी चले से बियाह तक जाए में उनकर नांव डेगाडेगी चलत कब बचकली आ तनी अधिका सनेह दिखावे में बचकालो हो गईल पते ना चलल। अब तो सभे उनका के बचकालो कहे। ऐसहूँ लइकी अउ मेहरारू के आपन नांव रहिये कहाँ जाला। केहू के बेटी, केहू के मेहरारू तो केहू के माई. मरद के नांव के बाहर ओकर आपन पहचान ऐसही भुला जाला। जईसे भादो के अंधरिया में कउनो सूई भुला गईल होखे। बचकालो महीना आवे के पहिले हीं बाप के जांघ प बईठा के कन्यादान क दहिल गईली। मरद फौज में नोकरी करस आ पहिली मेहरारू के मरला पर बचकालो उनका भाग में परली। लोग कहे ला कि उनकर बाबूजी लइका वालन से ढ़ेरे पइसा लेके दुआह के खूंटा बांध देहले। गाई आ बेटी- दुनों अनबोलता। जेकरा खूंटा बांध दीं बंन्हा जाई. ओकर मन का बा ऐसे से केहू के का मतलब, भला कबो कोई पूछले बा। बियाह के साले भर बाद गउना करके बचकालो अपना ससुरा भेज दिहल गईली। बड़ घर, सास-ससुर, ननद-देवर, देवरानी से भरल पूरल घर-आंगन। दुनों बेरा भर पेट खाए के अउ दूध-दही के कउनों कमी न रहे। सभे बचकालो के बड़ा इजत या मान से रखें। कमासुद मरद के महरारू और अहो में दुवाही। सबके तरहथी पर रहस। बचकालो के कुल्ह लइकाइ में सुनल कउनों राजकुंवारी के कहनी लेखा लागी। बाकी जब मरद के देखस त मंुह भक दे करिया पर जाई. रात के उ दरद मन पर लागे जइसे कउनों चिरई असहाय लेखा बिलार के पंजा में छटपटाले, मरद के बिछउना पर उनकर नाजुक देह अउसेही छिन-भिन होखे लागे। सुख त ना लेकिन उ जांन लेवा पीड़ा उनका दिन भर बेचैन कके राखे। केनियो बइठल बइठल नींद में ढ़िमलाजस। त सास ठिठोली करत उठाके बिछवना पर पहुंचवा देस।
दु महीना बितत-बितत मदर के छुटटी खतम हो गइल। आ उ जे फौज में गइले त फिर लौट के घरे ना आवे पवले। लोग कहे ला कि उ कउनो पहाड़ से गिर गईल रहले। देहियो ना मिलल। फौज के तरफ से रूपया-पैसा, पिनशन, तगमा सब मिलल बाकी घर के भीतर उ तगमा अब बचकालो से छिना गईल रहे। भीतरे भीतर लोग इनका के आंगछ के छोट मान ले ले रहे। सास के लागी कि ऐकरे चलते इनकर जवांन कमासूद बेटा अलोपित हो गईल। रोअस त कबो-कबो बचकालो के माथे दोस मढ़ दईस। थोड़ी देर आपन गलती बुझाइल। त गोदी में लेके उनकर हिमत बंधावस। बचकालो त कठकरेज हो गईल रहली। चुप। सुखाईल आंखि टक-टक सबके ताकस। पीड़िया पारे, कजरी गावे, आ झुलुहा लगावे के उमिर में बचकालो रांड़ के उजर साड़ी पहिन ले ले रहली। साल कब बिते पते ना चलल कबहू नहिअर, कभू ससूरा। मरद के कतनो महरारू मरे ता उ बियाह कर सके ला। बाकी लईकी, उहो बाबाजी के. सोंचतो पाप लागी। जईसे उ माटी के कांच पर बरतन होखे। ऐक बेर पानी पर गईल तो बस त जईसे बरतन ढ़ह जाए वैसे हीं लईकी ह।
अपना दमाद पर खिसयाईल बेलसर साहू चिचआत रहले 'हमनी के कवनों बाबाजी लोग लेखा दोगला हंई जा कि मरद खातिर अलग अ मेहरारू खातिर अलग नियम। तू बियाह करब तो हमहूँ अपन बेटी के बियाह दूसरा जागो कर देईब।'
दुनियां के ई बात बुझाला। लेकिन बाबाजी लोग अबहीं अपना के दूसरे लोक में बूझे ला। रसरी जर गईल बाकि अईठन ओसहीं बा।
दस बरिस गुजर गईल रहे। बचकालों के जिनगी अब घर के कामधाम भा पूजा पाठ में गुजरे। तीरथ बरथ भी कबो केहूँ के साथ चलिये जास। उनकर देवर शुरूए से अपना भउजाई के कुल खयाल राखस। बाकी ऐने तनी अधिके धेयान राखे लागल रहले। ई बात धीरे-धीरे सब का खटके.
'राखिहीं के चाहीं' ससुर बात काटत अपना मेहरारू के डांटले।
'बड़ भाई के ना रहिला पर उ ना करिहें त के करी। उमरिया में ना छोट बाड़ी बाकि हई त भउजाई नू। हमनीं के बादो त उनके निबाहे के बा।'
'अइसे का ताकत बाड़ू तेहरा तो आदतिये हा हरेक बात में शक करे के.' मरद के बात सुन सास चुप तो हो गईल बाकि उनकर पेट अईठात रहे।
'दइब करसू। पत राखस। ना त केकरा के मुंह देखावे जोग रह जाईब जा।' उठत-उठत अपन मरद के आपन मन के पाप सुनाईये देहलि।
क्रमशः
पँचकोस के मेला चलत रहे। चार गांव होके आज पांचवा चरितर वन में लिट्टी भंटा के साथे खतम होखे के रहे। सास कई दिन से जाए के मन बनवले रहलि। छोटकी पुतोह के लइका-लइकी संगे चले के जिद लगा देहलि।
'निके बा। तनि हमरो मन लागी। गांव के आधा से अधिका मेहरारू लइकी जाते नू बाड़ी।' सास सोंचलि। दिन भर लिट्टी भंटा रात खा ओइजे रूक के भोर में गंगा जी नहा के लौट आवेके मन बनल। सबका मेला गइला पर घर सुन हो गइल रहे। बचकालो अपना कोठरी में अउर ससुर देवर दलान पर। अब त सभे केहूके काल्ह दोपहरिया के बादे लौटी.
अबहिं किरिनियों ना फूटल रहे कि बचकालो के अँगना में हल्ला-गादह मच गईल। ऐह रोहारोहट में टोला के लोग जुट गईल रहिले। बाकि केहु कुछू बोले के तईयार ना रहे। भइल ई रहे कि सांझ होत-होत छोटकी पतोह के पेट झरे लागल रहे। आ मेला में अब निबाह होखे लाइक रह ना गईल रहे। कईसहू ऐगो टमटम करके सास सबके लेके गांवे लौट ली। बाहर के भिड़कावल फाटक पार करके आँगन में अईली आ बचकालो के जगावे के खातिर उनकर किवाड़ी खटखटवली। ई का -बचकालो के संगे उनकर देवरों अचकचाईल निकल लें। सामने माई मेहरारू आ लईकन के देख अईसन लागल कि जईसे चोर सेंध मारते धरा गईल होखे। देवर केसहू निकले के फेर में रहले लेकिन उनकर मेहरारू सामने खाड़ हो गईल।
'हमरा तो बहुत दिन से लागत रहल हा। ई राड़ी आपन भतार चबाके दूसरा के मरद पर डकइती डाली।' ऐकरा बाद गांव के लोग कुछ-कुछ त अंदाज लगावही लागल रहले। सास-ससुर छुपावे के कोई बड़ा कोशिश कइले तो ओसे का होखे। आगि लगला पर धुंआ तो बाहर जइबे करी। सगरो गांव में कानाफुंसी होखे शुरू हो गईल। बचकालो अब अधिका नईहर आ कबो कबो ससुरा जास। उहो एक-दू दिन खातिर।
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गजानन जवान हो गइल रहले। अब बियाहो हो गइल रहले। मेहरारू मिलल रहे एकदम सिधबक। अपना बाप विभूति तिवारी के छांही लेले गजानन खेतीबारी आ मेहनत से तनि दूरे भागस। चिलम पीये आ गवनइ में मगन रहे मंे दिन कटि जाए. करसु कबो बिया न जूटे तो कभी सोहनी के पइसा ना रहे। बचकालो अपना संगे पइसा आ गहना लेके आइल रहले। मरद के फौज वाला पिनसिन रहबे करि। घर के काम चले लागल आ उ गंवे-गंवे घर के मलकाइन लेखा रहे लगली। अब गजानन खेतीबारी देखस बचकालो घर। दिन केहू के घरे जाइके मन लगावस। गांव के बेटी उहो रांड़। सभे मांस राखे। बचकालो गंगा जी के किनारे वाला मठिया में जाय लगली। राम जी के भजस। पूजा पाठ आ कीरतन में मन रमे लागल।
मठिया दूर तक फइलल रहे। कई गो देवी-देवता के अलग-अलग मंदिर। बाकि असली मंदिर राम जी के. लइकन के पढ़े-लिखे खातिर ऐगो पाठशाला आ रहे के निमन जोगाड़। सांझ के पंगत होखे।
'पंगत के सीताराम हो।' घंट घरियाल के साथे कुछ लोग चिचिआस। मठ में रहे वाला सभे आपन-आपन थरिया-पत्तल लेके पांत मंे बैठ जाय। अगल-बगल रहे वाला भिखार, रिक्शा-ठेला चलावे वाला आ जेहूँ मठ में रात में रूके के ठिकान पावे खातिर आइल रहे सबके भरपेट खाना। ऐके पांत में बइठा के. कउनो भेदभाव ना। मठ के कउनो कमी त रहे ना। आपने सौ से अधिका बिघा जमीन उपर से अगल-बगल के गांवन के गिरहत लोग साल में अनाज भेजस। मंदिरन के चढ़ावा, आ कितने गाय, घोड़ा, हाथी भरल रहे।
खड़ाउ, त्रिपुंड, रेशमी धोती आ गमछा लेले महंथ जी जब कबो बाहर निकलस तो लोग जमीन पर सुत के गोड़ लागे। महंथ जी के चमकत मुंह आ दमकत देह देख के लागे कि छुअते खून निकल जाई. इहे हाल उ मठ में रहे वाला सभे साधु-संत आ सेवादार लोगन के रहे। करीब बीस बरिस के अपना भगति आ सेवा से उ बड़का महंथ जी के सबसे खास सेवादार बन गइले। एक दिन बड़का महंथ जी ऐगो बड़ पूजा कराके इनका के आगे वाला महंथ घोषित क दिहले। इनका के एगो नाम मिलल 'रामसुख दास'। एक तरेह एगो इ इनकर नया जिनगी रहे। बड़का महंथ जी एक दिन अचानक राम में लीन हो गइले। मठ में लोगन के शक रहे कि रामसुखदास बड़का महंथ जी के अचके में ब्रहमलीन होखे के असली कारण रहले। बाकि बोलो के. जल में रहिके मगर से बैर।
लेकिन इ महंथ जी के गददी पर बइठला पांच बरिस हो गइल रहे। आठ दस बरिस के उमिर में आइल तो रहले उ गाय गोरू के सेवा करे खातिर। मठ से करीब पांच कोस दूर गंगा के किनारे बसल 'साधू बाबा के डेरा' से। ओह डेरा के सबे लोग गाई-भइस राखे आ दूध-दही के बैपार करे। उनकर बाबू जी जगलाल चउधरी गाई-भइस पालस आ माई दूध-दही लेके शहर में बेचे आवे। औरि दूध वालिन के बिके भा न बिके इनकर सब दूध-दही जगेसर हलवाई खरीद लेस। कबो-कबो गरमी के दुपहरिया में उ ओहिजे टिक जास। आ दिन जुड़इला पर गांवे लौटस। जगलाल के मेहरारू, चउधरी के मेहरारू जतने सुन्दर और सुबेख रहलि जगलाल ओतने खरखटल। लोग कहेला। कि रामसुख दास लइकाईन में एकदम से जोगेसर हलवाई आ कुछ कुछ अपना माई पर गइल रहले। वईसही सुनदर, बरिआर आ तेज चमकत आंख। गरीबी के मार ओही आठ दस बरिस के उमिर में मठिया पर काम करे जाइके पड़ल रहे। गददी पर बेइठला के बाद मठ के हालत अउरी सुधर गइल रहे। ऐह पांच बरिस में रामसुख दास जी भगवान लेखा पुजाये लागल रहले।
बचकालो के लाम छरहर देह आ चमकत सुगढ़ मंुह केहू के अपना ओर खिंच लेवे खातिर मजबूर कर दे। गते-गते मठ में उनकर मान बढ़े लागल रहे अब उनकरा महंथोजी के कोठरी में जाय में कउनो रोक-टोक ना रहे। बचकालो के धन्न भाग कि महंत जी के अइसन आसिरवाद मिलल। सब लोगन में इनकर ऐगो अलगे मान रहे। बचकालो पहिले त सांझ होत-होत गांवे लौट आवस। बाकि अब जब ना तब रात के भजन कीरतन के नांव पर मठे में रूक जास। मठ में अब महंथ जी के बाद अगर सबसे जादा दबदबा केहू के रहे त उ रहे बचकालो के. इ मठ के असरा में उनका नईहर के दिन फिरे लागल। ऐह पूजा-पाठ के आसिरवाद रहे कि गजानन के घर बन गइल। खेत खरिदा गइल। गांव में लोग बचकालो के बारे में कई तरह से बतियावस।
'बिना मेड़ के पानी आ राँड़ के जवानी कबो रूके ला।'
कई बेर अलोता में गजानन के लोग 'मठिया' कहि के मजाक उड़ावस।
गजानन सुनस बाकि कुछ बोलस ना। आखिर कुल्ह ठाट त ओही बचकालो के चलते रहे।
कई हपतन से बचकालो के बुझाय कि महंथ जी कुछ बदलल बदलल बाड़े। उ दिन सांझ के बचकालों नहा धोके महंथ जी के कोठरी में सेवा खातिर चललि। महंथ जी कोठरी के बाहर खाड़ उनकर सेवादार उनका सामने खाड़ हो गइले।
'आजु सरकार से रउवा भेंट ना होई.'
'का कहत बड़ा। अइसन कबो भइल बा।'
'का करबू। समय ह।' उदास चेहरा लिहले सेवादार उनका के लउटा दिहले। अब महंथ जी के सेवा में ऐगो नया बचकालो आ गइले रहिले। इनका से जादा जवान अउ सुनर। बचकालो के धीरे-धीरे सब मालूम हो गइल। अब उ सेवादार भा कउनो बड़ दानी के सेवा खातिर रहि गइल रहलि।
माथा प बांधे वाला पगरी से उतर के जूता पोछे वाला लुगा होके रह गइली। गंवे-गंवे मन उनकर मठिया से उचटे लागल रहे। अब कभिये मठ पर जास। तबो केहूँ पूछे वाला ना रहे। उनका याद आवे जब एको हपता ना गइला पर कईसे सब लोग उनकर हाल पूछे, मान करे। बाकि दिन बदल गईले रहे सांचे।
बचकालो के घरो में अब केहूँ उ मान ना दे। कई बेर उनका लागे कि ई सब उनका अईसही बुझाता। उ मलिकाउ, उ उनकर आँख के इशारा पर उठे-बैइठे वाला गजानन अउ उनकर मेहरारू के ढ़ेर फिकिर ना रह गइल रहे।
'तोरा चलते त जवन हमनि के जग हंसाई भइल कि कई पुहूत ले उ दाग धोआई ना। चाभी दे बहिनियां बहुत दिन मलिकाउ चलउलिस।' कउनो बात के लेके बचकालो गजानन के मेहरारू के तनी जोर से बोलत रहलि कि गजानन आ गइल रहले। उनकर खिसआइल मंुह अउर झपट के उनका से छिनल चाभी बचकालो के आज पहिलका बेर अपना रांड़ होखे के मन परा देले रहे।
'ओह! जेकरा खातिर चोरी करि उहे कहे चोरा।' बचकालो जइसे भठात इनार में गिर गइल रहलि। 'गजानन के मालूम नइखे। कि हमरे बियाह से बाबू जी के लोग बेटी बेचवा कहे। का न कइनी ऐह घर खातिर।' बचकालो आके बिछउना पर सुत गइली। मरद के मरला के बाद पहिलका बेर आंखि से लोर के धार चलल रहे।
'जब ओह अधबुड़ मरद के बियाह दोबारा-तिबारा हो सके ला। त लइकी के काहे ना। बुझला अतना नरक त ना देखे के परित।'
दूसरा दिन गजानन के घर से रोअे चिचियायके आवाज सुनके सभे गांव जुट गइल रहे। बचकालो के देह अकड़ गइल रहे आ मुँह नीला परि गइल रहे। राम जानस का भइल रहे।