बचपन और बुढ़ापे के बीच एक सेतु / जयप्रकाश चौकसे

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बचपन और बुढ़ापे के बीच एक सेतु
प्रकाशन तिथि :06 नवम्बर 2015


संत हृदयराम की प्रेरणा व पहल से स्थापित बैरागढ़ में जिसका अब आधिकारिक नाम हृदयराम नगर है। जीव सेवा संस्थान के तहत विशाल शिक्षा परिसर का निर्माण हुअा है, जहां कॉलेज, स्कूल, अस्पताल और वृद्धाश्रम इत्यादि संस्थाएं सक्रिय हैं। वहां महिलाओं को उच्च शिक्षा की व्यवस्था है और उन्हें वाणिज्य प्रबंधन से मार्केटिंग तक की शिक्षा दी जाती है। देश में इस तरह के द्वीप, जो बाजारुपन और भ्रामक प्रचार की उत्तुंग लहरों से अपने को बचाए रखते हैं, वे इस असहिष्णु दौर के घटाटोप नैराश्य के अंधेरे में जुगनू की तरह प्रकाश देते हैं और यकायक लगता है कि सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। वहां 4 नवंबर को छात्रों से लंबी बातचीत का अवसर मिला। उस परिसर से निकलते समय यह अफसोस रह गया कि मैंने उनके वृद्धाश्रम की बात नहीं की और उससे जुड़ी यूरोप की फिल्म 'ए बुक ऑफ विशेज़' का जिक्र नहीं किया।

इस महान फिल्म के प्रारंभ में एक स्कूल होस्टल में अाधी रात को आग लग जाती है और सजग कर्मचारियों की सहायता से सारे विद्यार्थी बचा लिए जाते हैं परंतु सवाल यह है कि शहर से दूर रचे परिसर में आधी रात को उन छात्रों को किस सुरक्षित स्थान पर ले जाएं। एक कर्मचारी बताता है कि थोड़ी दूर पर एक वृद्धाश्रम है, जिसमें अनेक कमरे खाली हैं। अत: पूरा दल वहां जा पहुंचता है। सुबह बच्चों की किलकारियों और हंसी-ठहाके से उम्रदराज लोग जाग जाते हैं और उन्हें इन बच्चों से सख्त नफरत है। सच्चाई यह है कि उन्होंने अपने बच्चों को प्यार से पाला और पढ़ाया परंतु बड़े होकर वे अपनी पत्नी तथा बच्चों में रमे हैं और अपने उम्रदराज माता-पिता को वृद्धाश्रम में दाखिल कर देते हैं। एक तो उम्र का यह संगदिल उतार ही एकांत है, अवर्णनीय दु:ख है और उस पर इन बच्चों का शोर उन्हें असहनीय लगता है। अपने प्रियजन द्वारा तिरस्कृत ये उम्रदराज लोग कहीं का क्रोध कहीं और उतार रहे हैं।

बच्चे उन लोगों में अपने दादा-नाना खोज रहे हैं और उनसे प्यार चाहते हैं। बच्चेे समय की नदी के उस पार से अभी-अभी आए हैं। अत: वहां का निश्छल प्रेम और अध्यात्म उनमें है। ये उम्रदराज कुछ ही समय में समय की नदी के उस पार जाने वाले हैं, जहां से तमाम शिशु आते हैं। एक तरह से उस आश्रम में दो दल बन गए हैं। एक घटना उनके बीच की उग्रता को समाप्त कर देती है। एक उम्रदराज व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उनका दल यह तय करता है कि देर रात कब्रिस्तान जाएंगे, क्योंकि बच्चों को मृत्यु का अर्थ कैसे समझाएं। वे उन बच्चों के सामने बच्चों की तरह बिलख-बिलखकर नहीं रोना चाहते। उनके एक साथी का जाना उन्हें अपने द्वार पर मृत्यु की दस्तक की तरह लगती है। अत: आश्रम की बस में मृत शरीर के साथ आश्रम के लोग बैठकर कब्रिस्तान की ओर निकलते हैं, जो लगभग तीन किलोमीटर दूर है। कब्रिस्तान में पहुंचकर उम्रदराज लोग अचंभित हैं कि बच्चे वहां पहले ही पैदल चले आए हैं और वे फूट-फूटकर रोते वृद्धों के आंसू पोंछते हैं, उन्हें ढांढस बंधाते हैं। संवेदना की इस समान घटना से दोनों दलों के बीच अपरिचय का विंध्याचल ढह जाता है और अब वे मित्र हैं। अगले दिन से आश्रम हमेशा ठहाकों से गूंजता है और एक बूढ़े का नकली डेंचर गिर जाता है। बच्चे उसे उठाकर वृद्ध के सामने टूथब्रथ से साफ करते हैं। उम्रदराज लोग भी बच्चों की कक्षा के होमवर्ग में सहायता करते हैं। इन बच्चों में वृद्धों को अपने बचपन के साथ अपने बच्चों का बचपन याद आ जाता है। निर्देशक का संकेत है कि उम्र के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं बचपन एवं बुढ़ापा। भले ही आवागमन विपरीत दिशा में होने वाला है, समय की नदी की निकटता उनके हृदय को शीतल कर देती है।

समय को पंख लग जाते हैं और नए होस्टल की इमारत बन चुकी है तथा अब इन्हें अलग होना है। बच्चे भी दु:खी हैं, क्योंकि निर्जीव होस्टल से यह सजीव साथ अच्छा था। बूढ़ों को लगता है कि बच्चों से बिछुड़ना अर्थात मृत्यु का आने के पहले आ जाना है। संस्था के अधीक्षक एक समझौता करते हैं कि प्रतिदिन उम्रदराज लोग बच्चों से मिलने एक घंटे के लिए आ सकते हैं और इतवार के दिन बच्चे दिनभर के लिए वृद्धाश्रम में जा सकते हैं। इस अभिनव फिल्म में आनंद के साथ गहरी मानवीय संवेदना है। मुझे यह भी बताया गया था कि इस संस्था के संचालक ने वृद्धाश्रमबनाते समय यह कामना की थी कि यहां कोई वृद्ध नहीं आए और उनका आशय था कि परिवार ही अपने उम्रदराज लोगों का ध्यान रखें। इस परिसर की सेवा गोपाल गिरधारी की तरह अनेक लोग नि:शुक्ल करते हैं। विगत कुछ वर्षों में समाज संरचना में यह परिवर्तन हुआ है कि उम्रदराज लोगों के लिए जगह परिवर्तित हुई है। उनके लिए जगह-जगह आश्रम बनने लगे हैं, क्योंकि उपभोक्तावाद ने हमें सुविधाभोगी बना दिया है।

मंगलेश डबराल की कविता है,- 'मां कहती है जब हम रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं, दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं, हमारी खातिर, हमारे सपनों, हमारे सुखों के लिए।' याद रहे तुम्हारी नींदों में तुम्हारे पूर्वजों के कई रतजगों की थकानें हैं।