बचपन का संरक्षण और नागरीय जिम्मेदारियाँ / कौशलेन्द्र प्रपन्न
आज की तारीख में बच्चों के बचपन का संरक्षण और देखभाल काफी अहम है। बच्चों पर होने वाले चौतरफा प्रहार की मार को हम आज बेशक नजरअंदाज कर दें लेकिन उसके घातक परिणामों से इंकार नहीं कर सकते। हमनें अनुमान तक नहीं किया है कि नब्बे के दशक के बाद और 2000 के आरम्भिक दौर में बच्चों पर कई प्रकार के दबाव और प्रभावित करने वाले तकनीक उभर कर सामने आए। हमें उन तमाम घटकों की प्रकृति और बुनावट को पहचानने की आवश्यकता है जो बच्चों से बचपन को खत्म करने पर आमादा हैं। इनमें सबसे मजबूत घटक है विभिन्न माध्यमों में बच्चों के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगिताएं। प्रतियोगिताओं से परहेज नहीं है लेकिन उन प्रतियोगिताओं के बाजारीय दर्शन और सिद्धांतों से असहमति रखी जा सकती है। क्योंकि इन प्लेटफॉम पर प्रतियोगिता के साथ कुंठाएं, निराशा, दुःचिता को धीरे से सरका दिया जाता है। दूसरा घटक तकनीक है जिनसे धीरे-धीरे बच्चों से उनके पारंपरिक सहगामी क्रियाओं, खेल, मनोरंजनों के माध्यम का गला घोटा दिया। कभी समय था जब बच्चे पत्रिकाएं, कहानी की किताबें आदि पढ़ा करते थे। अब न किताबें रहीं और न घर में पढ़ने का माहौल। इस संस्कृति को विकसित करने में टीवी की बहुत बड़ी भूमिका रही। भूमिका तो सूचना और तकनीक क्रांति की भी कम नहीं रही जिसने हाथों में खेलों के सामान को छीन कर स्मॉट फोन, टेब्लेट्स, आई पैड पकड़ा दिए। फोन में होने को तो वडर््स गेम भी होते हैं जिससे अपनी शब्द-भंड़ार को बढ़ाया जा सकता है कि उसकी जगह पर गेम्स खेलने की प्रवृत्ति ज़्यादा विकसित होती गई. मोटेतौर पर बच्चों से बचपन छिनने वाले घटकों की पहचान हम इन रूप में कर सकते हैं-सूचना और तकनीक क्रांति, प्रतियोगिताओं का डिजिटलीकरण और हमारे बीच से पढ़ने-सुनने और सुनाने की आदतों को छिजते जाना।
विभिन्न निजी और सरकारी टीवी चैनलों पर बच्चों के लिए बच्चों के कंटेंट के नाम पर जिस प्रकार के जाल बिछाए गए उनमें हमारे अभिभावक, बच्चे, नागर समाज धीरे-धीरे फंसते चले गए. हमें कंटेंट के स्तर पर, उसकी प्रस्तुति के स्तर, उसके दर्शन पर सवाल उठाने चाहिए थे लेकिन हमने उन्हें बिना जांच-पड़ताल किए, बगैर विमर्श के अपने-अपने घरों में स्वागत किया। उसी का परिणाम है कि अब अभिभावक शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे उनकी नहीं सुनते। दिन भर टीवी के सामने बैठे रहते हैं। इसमें दोश सिर्फ़ बच्चों का ही नहीं है बल्कि अभिभावक भी उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि जब बच्चों को व्यस्त रखना है तो टीवी ऑन कर देने की शुरुआत भी तो हमने ही की थी। शुरू में बच्चे व्यस्त रहे। हमने अपने काम निपटा लिए। सिर दर्दी से जान छूटी। लेकिन जब वही टीवी के कार्यक्रमों बच्चों की आम ज़िन्दगी में शामिल हो तब हमारे चिंता बढ़ी कितना बेहतर होता कि हमने शुरू में ही इन माध्यमों के इस्तमाल और समय-सीमा पर घर में बातचीत की होती। हालांकि यह जल्दबाजी होगी कि कैसे अनुमान लगा लें कि वह हमारे बच्चों के महत्त्वपूर्णसमय को खत्म कर रहा है। लेकिन इतनी एहतीयात तो बरती ही जा सकती थी कि जिन चैनलों के हाथों हम अपने बच्चों को सौंप रहे हैं उन्हें खुद देख परख लेते। इसी लापरवाही का नतीजा हैकि बच्चे दिन-दिन भर टीवी से चिपके होते हैं। मांए, घर के अन्य सदस्य चिल्लाते रहते हैं लेकिन टीवी देवता बंद नहीं होते।
टीवी पर प्रसारित होने वाले बच्चों के कार्यक्रमों की वेशभूशा पर नजर डालें तो एक दिलचस्प बात यह नजर आएगी कि बड़ों के पहनावे और बच्चों के पहनावे, मेकअप आदि में बुनियादी अंतर खत्म हो चुके हैं। हेयर स्टाइल, वेशभूशा, बोलने के अंदाज आदि सब एक दूसरे में ऐसे मिल चुके हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल होगा। यह कहीं न कहीं बच्चों की सहज दुनिया और उनकी देह भाषा, पहनावे को बड़ी चतुराई से उनसे छीन ली गई और हम उसी मूर्खता से उन्हें स्वीकारते और स्वीकृति भी देते रहे।
तकनीक के विकास के साथ ही बाज़ार ने कभी नारा दिया था कर लो दुनिया मुट्ठी में हम उसके पीछे भागने लगे। बच्चों तक के हाथों में मोबाइल आ गए. अब मोबाइल सिर्फ़ संवाद का माध्यम भर नहीं रहा। बल्कि मनोरंजन के अन्य साधनों के तौर पर भी हमारी मुट्ठी में ऐसे बंधा कि सोना, जगना, बाथरूप जाने तक में साथ होता है। बच्चों हमीं से सीखते हैं जब बच्चे स्वयं देखते हैं कि मां-बाप, भाई बहन सब शौचालय में भी फोन लेकर जाते हैं तो वे क्यों पीछे रहें। तकनीक विकास का फंदा आज इतना कस चुका हैकि हमारा निजी से निजी पल भी उसी के हाथ में है। वही बच्चे भी सीख रहे हैं। सुबह आंखें मीचते, रात सोते हाथ में मोबाइल देख सकते हैं। बच्चों की मुट्ठी से हमने पत्रिकाएं, किताबें छीन कर गजेट्स पकड़ाकर अब रो रहे हैं।
पढ़ने की आदत न केवल बच्चों में खत्म-सी हो गई बल्कि बड़ों की ज़िन्दगी से भी लगभग कमतर ही होती चल गई। जब बच्चों में अपने घरों में पत्रिकाओं, किताबों के स्थान पर गजट्स देखेंगे तो उनकी रूचि भी उन्हीं में होगा न कि किताब पढ़ने व पत्रिकाओं में उलटने पलटने में। हम यह दोश दे कर नहीं बच सकते कि आजकल बच्चों को पढ़ने में मन नहीं लगता। बच्चे किताबें नहीं पढ़ते आदि। बच्चों के आस-पास यानी परिवेश से ही पठनीय सामग्रियां खत्म हो गई हैं। जो कुछ सामग्री बची है वह पाठ्यपुस्तकें हैं जिसमें अमूमन उनकी रूचि मुश्किल से जगती है। पाठ्यपुस्तकेत्तर पठनीय सामग्रियों उपलब्ध कराना हमारी जिम्मेदारी बनती है न की बाज़ार की।
शिक्षा की दृश्टि से देखें तो कहीं न कहीं हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति भी काफी हद तक बच्चों से उनके बचपन छिनने वाली ही लगती है। विभिन्न विशयों के विभक्त शिक्षा दरअसल रूचि पैदा करने की बजाए महज ग्रेड और अंक हसोतू ज़्यादा हो गई है। बच्चे पढ़ते सिर्फ़ इन्हीं उद्देश्यों को हासिल करने के लिए हैं। बच्चे उन्हीं विशयों को चुनते हैं जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा अंक हासिल किए जा सकते हैं। यदि भाषा की बात की जाए तो उच्च माध्यमिक स्तर तक आते-आते बच्चे हिन्दी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू जैसी भाषाओं को छोड़कर जर्मन, फ्रैंच, अंग्रेज़ी आदि को चुनते हैं। क्योंकि उनके माँ-बाप, अभिभावक, सहपाठी आदि भी उन्हें ही चुनने के लिए प्रभावित और दबाव बनाते हैं। बाज़ार आर्थिकी दृश्टि से देखें तो इन्हीं भाषाओं का बााजार और रोजगार भी गरम है। पारंपरिक भाषाओं में यूं तो कहा जाता है कि रोजगार की पूरी संभावनाएं हैं। हिन्दी को ही लीजिए तर्क तो यही दिया जाता है कि आज विश्व भर में हिन्दी बोली-समझी जाती है। हिन्दी वैश्विक हुई है आदि। फिर क्या कारण है कि हिन्दी के विभागों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या दिन प्रति दिन घटती ही जा रही है।
प्रकारांतर से देखें तो शिक्षा, समाज, तकनीक आदि में बच्चे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं। महज चंद फ़िल्में बच्चों के लिए बना देने, कुछ हजार बाल साहित्य के नाम पर कहानियां, कविताएं लिख देने से बच्चों के बचपन नहीं लौटा सकते और न ही संरक्षित करने का दावा कर सकते हैं। यह बचपन को संरक्षित करना है और उनकी देखभाल करनी है तो हमें वर्तमान की राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोगों, राज्य स्तरीय अधिकार संरक्षण आयोगों को और ज़्यादा सक्रिए भूमिका निभानी होगी। सिर्फ़ नारा भर बोल देने या बैनरों में बच्चों को चस्पा कर देने से हजारों, लाखों बच्चों के बचपन नहीं लौटाए जा सकते।
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र बाल-बाल अधिकार संरक्षण घोशणा 89 यानी यूएनसीआरसी 89 में विश्व भर के तमाम बच्चों को पांच अधिकार प्रदान करने की घोषणा वैश्विक स्तर पर की गई थी। इन अधिकारों में जीने का, स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास और सहभागिता शामिल की गई इस। दृश्टि से भारत में नजर डालें तो लाखों बच्चे हर साल नागर समाज के भूगोल से गायब हो जाते हैं उनमें से कम ही की घर वापसी होती है इस पर हमारी कोई सार्थक कार्य-रणनीति तक नहीं है। गोया बच्चे नागर समाज के हिस्सा ही नहीं हैं। बार-बार न्यायपालिका को हस्तेक्षप करना पड़ता है कि कार्यपालिका, सरकार क्या कर रही है। यह एक गंभीर चिंता का विशय है। हम न तो उन्हें शिक्षा प्रदान कर पा रहे हैं, न स्वास्थ्य, न संरक्षण तो हम बच्चों के साथ कर क्या रहे हैं? स्पष्ट शब्दों में किन्तु कठोर हकीकत है हम बच्चों से उनके बचपन को रौंद रहे हैं।