बचपन के दिन / अशोक भाटिया

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मेरा बचपन अम्बाला छावनी में बीता। सन छियासठ में जब पंजाब का तीन राज्यों में विभाजन हुआ तो जिला अम्बाला हरियाणा के हिस्से में आया।

तब छोटा-सा शहर था अम्बाला छावनी; इतना छोटा कि इसे क़स्बा कह सकते हैं। (बहुत बड़ा तो अब भी नहीं है) । मेरा बचपन सन सत्तर तक इसके अहाता शीतल प्रसाद में बीता। करीब बारह-पंद्रह घरों का मोहल्ला। सब तरह के मेहनतकश लोग इसमें रहते थे। सरदार मिल स्टोर, बुक स्टोर, सब्ज़ी की दूकान, तांगेवाला, कपड़े रंगनेवाला, चायवाला, कबाड़ी, साइंस फैक्ट्री का वर्कर, रूपए ब्याज पर देने वाला और... कईयों के काम हमें नहीं पता थे।

तब पांच साल के होने पर स्कूल में दाखिला मिलता था। पहली क्लास से स्कूल शुरू होते थे। उससे पहले का अपना बचपन मुझे ज्यादा याद नहीं। तब खेलने और खाने के अलावा और कोई काम नहीं होता था। तब तक के एक-दो प्रसंग ही याद आ रहे हैं। खुले मौसम के दिनों में घरों से माएँ छोटे बच्चों को नहला-नहलाकर, सुरमे डालकर मोहल्ले के बीचोबीच रखी चारपाई पर बिठाती जाती थीं। एक और याद आ रहा है। एक दिन मेरी माँ गली में बैठकर सबसे छोटी बहन सुलोचना को दूध पिला रही थी। फिर उसने उससे बड़ी, पर मुझसे छोटी बहन सावित्री को पिलाना शुरू किया। वह हट गई, तो मुझे कहा कि आ जा। मैं संकोच कर गया। चारेक साल का हूँगा तब।

मोहल्ले में सुबह-सुबह अंगीठी लगती थी हर घर में। पांच बजे के आसपास सबकी अंगीठियाँ गली-मोहल्ले में होतीं। कुछ देर धुंआ ही धुंआ रहता। स्टोव सन सत्तर के आसपास आए थे। अंगीठी लगाने के लिए केरी के गोले और उपले काम आते। केरी यानी कोयले का चूरा और मिट्टी मिलाकर हम गोले बनाते थे। दोनों को भिगोकर मिक्स्चर बनाते, फिर कटोरी में पानी लगाकर इसे भरते और जमीन पर ठप्पा लगाते जाते। हम सबने बचपन में यह काम बड़ी उमंग से किया। कुछ काम बेमन से भी करते थे। जैसे, माँ हमें हमारे कपड़ों को भिगोकर साबुन लगाने और थोड़ा मलने को कहती, तो हम बड़े ही अनमने भाव से यह सब करते। कोई एहसास नहीं था कि माँ सुबह से शाम तक काम करते हुए शाम तक थककर चूर हो जाती है। एक और काम, दूध बिलौना, भी ऐसा ही अनमना काम था। कुन्नी (मटकी) में दही और मधानी (मथनी) डालकर माँ ने हमें बिलौने को कहना। हम कभी-कभी ही एक बार में पूरा मथते। अक्सर थोड़ा मथकर बाहर खेलने को भाग जाते और बीच में आकर पानी पीकर या कुछ खाकर थोड़ा-सा दूध रिड़क कर फिर भाग जाते। मेरा क्रम तो यही था। जब दूध बिलो लिया जाता, तो मक्खन पर हाथ साफ़ करने में मैंने कभी कोताही नहीं की। यह भी चुपके से होता और आसपास कोई न होने पर मक्खन में चीनी डालकर खाने का मजा ही न्यारा होता। हालांकि शाम के समय हमें पच्छी में रखी दोपहर की रोटी कई बार मक्खन के साथ खाने को मिलती थी, जिसे हम पछाईं कहते थे। कई बार प्याज को मुक्का मारकर साथ में अचार की फाड़ी लेकर भी काम चला लेते थे। हाँ, मक्खन चुराने से याद आया, मोहल्ले में खेलते हुए मैं कई बार चुपके–से घर आता और पीपे में रखी पिन्नियों में से एक लेकर वहीँ बैठकर खाने के बाद मुंह साफ़ कर फिर बाहर भाग जाता। सारी सर्दियाँ सोलह किलो के पीपे में पिन्नियाँ मौजूद रहतीं। करीब रोज़ ही मेरा दांव लग जाता। कई बार सुबह भी नाश्ते में चाय के साथ पिन्नी खाने को मिलती। लेकिन चुराकर पिन्नी खाने का स्वाद बड़ा अलौकिक और दिव्य लगता था। वैसे मैंने घर में पिताजी की संदूकड़ी में से कई बार पैसों की चोरी की थी। घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। फिर भी मैं पैसे चुराकर सदर बाज़ार स्थित क्वालिटी स्वीट्स पर जाता और एक पीस काजू की बर्फी के साथ मीठी लस्सी बनवाता। तब अम्बाला छावनी में मिठाई की सबसे मशहूर दूकान वही थी। हाँ, दूकान से मैंने कभी चोरी नहीं की।

मोहल्ले में तब भी खाने की चीज़ें बेचने लोग आया करते थे। सफेद धोती-कुरते और पगड़ी में एक आदमी गन्ने सर पर रखे आता और गाते हुए कहता–आने-आने गन्ना, जे तूँ आखें ते मैं भन्ना। "यानी एक आने का एक गन्ना है। अगर तू कहे, तो तोड़कर दे दूं। 'इसी तरह एक सूखा-सा, गहरे काले रंग का आदमी चूरन बेचने आता और कुछ इस तरह आवाज़ लगाता—ननिया ननी ननी।" हमें यही समझ आता था। वह आदमी चूरन को आग लगाता था और इसीको देखने के लिए हम सब बच्चे भागे चले आते थे। इसी तरह एक गूंगा आदमी झूला लेकर आता था। लोहे का, चार बच्चों के बैठने का वह झूला हमें इसलिए बहुत अच्छा लगता था कि पांच पैसे में झूले लेने के बाद हमें प्लास्टिक की एक छाप (अंगूठी) मिलती थी। इसी तरह बनियान और धोती पहने सेहत वाला एक गंजा आदमी भल्ले बेचने का छाबा लेकर आता। दई आले भले (दही वाले भल्ले) , छोले भले' की आवाज़ सुनते ही मैं दौड़ा चला जाता। खाने के लिए नहीं, बल्कि जब वह भल्ले को हाथ उठाकर, सर के पीछे ले जाकर निचोड़ता, तो मुझे लगता कि वह उसका पानी अपने गंजे सर पर डाल रहा है। मुझे कभी साफ़-साफ़ ऐसा दिखाई नहीं दिया, फिर भी मैं ऐसा ही मानता रहा। कभी उसकी आवाज़ सुनकर बाहर आने में मुझे देर हो जाती और वह मोहल्ले से चला जाता, तो कई बार उसके पीछे भागकर जाता। वह बाहर किसी जगह भल्ले देने को बैठता और मैं उसे भल्ले निचोड़ते हुए उसके सर का पिछला हिस्सा देखने पीछे की तरफ जाता कि भल्लों का पानी उसके सर पर पड़ा या नहीं।

मोहल्ले में शाम को बारहों महीने बहार होती। हर घर के बच्चे खेल रहे होते। क्या लड़के और क्या लड़कियाँ, कोई फर्क ही नहीं था खेल में। सब खेल सबके लिए खुले। छुपन छुपाई, चील-चील काटा, लक्कड़ छू, ऊँच-नीच, कड़क्को सबसे ज्यादा खेले जाते। छुपन छुपाई खेल में दो भाई-जीता और काला-अक्सर बचे रहते थे। दोनों निपट काले थे। अँधेरे में किसी भी दीवार की तरफ मुंह करके खड़े हो जाते और चोर को ठप्पा लगा देते। चील-चील काटा दो बच्चों का खेल था। दोनों ने किसी भी सतह पर लाइनें लगानी हैं, जितनी भी लगा सकें। कागज़ पर, पत्थर पर, स्लेट पर, लकड़ी पर कोयले से, ईंटों पर, सीमेंट की दीवार पर चाक से वगैरा। लगाकर उनको छिपा देना होता था। फिर दोनों एक-दूसरे की वे चीज़ें ढूँढकर काटते जाते। इसके बाद जो बच जातीं, उन पर लगाईं लाइनें गिनते। जिसकी ज्यादा होतीं, वह जीत जाता। इसी तरह लक्कड़ छू का खेल था। इसमें कितने ही इकट्ठे खेल सकते थे। इसमें एक चोर पुगा लिया (तय कर लिया) जाता। बाकी सब लकड़ी की किसी चीज़, दरवाज़े वगैरा को पकड़कर खड़े हो जाते। वे बोलते—अम्बां वाली कोठड़ी, अनारां वाला वेहड़ा, बाबे नानक दा घर केहड़ा? 'चोर जिस घर का नाम लेता, वहाँ भागकर लकड़ी को छूना होता था। पहुँचने से पहले ही जिसको चोर पकड़ ले, फिर वह चोर बनकर बारी देता था। इसी तरह का खेल ऊंच-नीच का था। एक बंदा चोर चुन लिया जाता। बाकी सब पूछते—ऊँच मांगी या नीच?' चोर एक चीज़ मांगता। अगर ऊँच मांग ली, तो बाकी खिलाड़ी किसी ऊँची जगह पर जाकर बोलेंगे—हम तुम्हारी ऊँच पर। ' और वह चोर उनको पकड़ेगा। जो नीचे आने से पहले पकड़ा जाएगा, फिर वह चोर बनकर बारी देगा।

कड़क्को दो लोगों का खेल है, जिसे मोहल्ले की लड़कियाँ ज्यादा खेलती थीं, हालांकि कोई ऐसी बंदिश नहीं होती थी। जमीन पर सात खाने बनाकर बाहर से एक में फीटो (मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा) डालते। डलने पर बाकी खानों में एक पैर से जाना और आना होता। वापसी पर फीटो उठाकर बाहर निकलते। इसी तरह हर खाने में फीटो डालकर जाना-आना हो जाए, तो वह जीत जाता था। अगर किसी बार फीटो सही खाने में न पड़े, या खाना ठीक तरह न टापकर दूसरे खाने में पैर आ जाए, तो इसे आउट माना जाता था। फिर दूसरे की बारी आ जाती।

इनके अलावा भी कितने ही खेल थे। रस्सी टापना, झूला झूलना भी सामूहिक खेल थे, जो हमें खूब भाते थे। मोहल्ले के एक तरफ कुआँ था, जिसके पीछे कोने में डिप्टीमल का मकान था। मकान का सिर्फ एक दरवाज़ा दीखता था, कोई खिड़की वगैरा नहीं थी। भीतर घुप्प अँधेरा रहता था। गर्मियों में उस दरवाज़े पर झूला डाला जाता था। हम छोटे थे, तो देखकर डरते थे कि पींग इतनी ऊँची जा रही है, कहीं कोई गिर न जाए। बड़े होकर वह डर तो कम हो गया, पर इतने जोर से झूले लेने से हमेशा संकोच किया। और रस्सी टापने के लिए तो कोई भी, कभी भी आ जाता और कुछ टप्पे लेकर चला जाता था।

गली-मोहल्ले के खेलों में बिना नाम का भी एक खेल शामिल था। रबड़ की गेंद से हम दो लड़के खेला करते। मुट्ठी बाँधकर उलटी तरफ से गेंद को उछालते हुए गिनती करते जाते। सौ या ज्यादा बन जाएँ, तो फिर से वही लड़का नंबर गिनने लगता। मान लो पहले एक सौ तीस पर गेंद गिरी थी, तो तीस से वह फिर शुरू करता। सौ नंबर पर एक बिच्ची यानी बारी मानी जाती थी। जब भी, कुल मिलकर, एक सौ से कम पर गेंद गिर जाए, तो फिर दूसरे की बारी आ जाती थी।

कुछ बड़े हुए तो हमारा प्रिय खेल कंचे हो गया। इसे हम दो तरह से खेलते थे। था यह दो ही लड़कों का खेल। बैठकर एक लड़का मुट्ठी में कुछ कंचे लेकर बंद मुट्ठी आगे करता। दूसरा लड़का बूझता कि उसमें कंचे चार के विभाजन के बाद एक, दो या तीन कितने बच जाएँगे? इसके लिए वह कुछ कंचे अपनी तरफ से भी वहाँ रखता। अगर सही बूझ लिया, तो मुट्ठी वाले कंचे उसके हो गए। अगर गलत बूझा, तो उसके कंचे पहले वाले लड़के के पास चले जाते थे। एक दो तीन चार के लिए नक्का, दोइया, तेइया और पूर कहा जाता था। इस खेल को नक्का-पूर कहते थे। और दूसरा खेल तो सबने बचपन में खेला होगा। जमीन में गुच्छी खोदकर यानी एक गढ़ा बनाकर दो लड़के बराबर-बराबर कंचे मिला लेते और बारी-बारी से एक निश्चित दूरी से फेंकते। जो गुच्छी में चले जाएँ, वो उसके हो गए। बाहर रहे कंचों में से दूसरे लड़के द्वारा कहे कंचे को कंचे से चोट मार दे, तो सारे उसके हो गए।

छल्ला भी खेला जाने वाला खेल था। रेलगाड़ी की दो बोगियों को जोड़ते वक्त काले रंग के छल्ले का इस्तेमाल किया जाता है। इससे दो लोग खेलते हैं। थोड़ी दूरी पर दो दायरे बनाकर दो लड़के खड़े हो जाते और एक लड़का दूसरे के दायरे में छल्ला फेंकता। पड़ जाए, तो एक नंबर मिल गया। अगर पैरों से रोक ले, तो रूककर जहाँ छल्ला गया है, वहाँ से वह रोकने वाला लड़का अपनी बारी चलेगा।

हम सब बच्चों को बाहर के खेल खेलकर ज्यादा मजा आता था। ख़ास तौर पर गर्मियों में या खुले मौसम में दोपहर का खाना खाने के बाद कोशिश होती कि घर से निकल लिया जाए। उस समय माँ गली के नुक्कड़ पर चाय की गड़वी और कप लेकर पड़ोसन के साथ बतिया रही होती। मैं मौका देखकर वहाँ गली के कोने में लगे खम्भे के पास पहुँचकर खम्भे के आसपास घूमता रहता और बीच-बीच में माँ को देखता रहता, ताकि जब वह बातचीत में बिलकुल मशगूल हो, तो खिसक जाऊँ। मैं करीब हर बार इसमें कामयाब हो जाता था। कभी-कभार कोई घर का या मेरा जरूरी काम होता तो माँ एकदम बुला लेती। तब लगता, स्वर्ग छिन गया है, जो मिलने ही वाला था। तब कभी समझ नहीं आया कि माँ की नजर तब भी मुझ पर होती थीं। कितनी गलतफहमियाँ रहती हैं बचपन में।

हम घर में भी कई गेम खेला करते थे। लूडो, सांप-सीढ़ी, गीटे तो सबने खेले हैं छुटपन में। हमारे सबसे छोटे मामाजी प्रताप सिंह भाटिया अम्बाला छावनी में एयर फ़ोर्स में वारंट ऑफिसर लगे हुए थे। वे तब अविवाहित थे। रोज़ शाम को घर आ जाते। उन्होंने हमें कई गेम और उनके नियम सिखाए। कैरम बोर्ड, चैस, चाईनीज़ चक्कर, ट्रेड–ये चारों गेम हमने उनसे ही सीखे थे। ट्रेड गेम के समय मैं आठवीं-नवीं में आ गया था। मामाजी, बड़े भाई गुरचरन दास और मैं खेलते थे। इस खेल में बैंक से हम एक-बराबर रुपए लेते। फिर चाल चलते हुए जो भी स्टेशन आता, उसे खरीदते या पास करते। इस तरह जब कोई दूसरा खिलाड़ी चाल चलते हुए हमारे खरीदे स्टेशन पर आता, तो उससे किराया लिया जाता। स्टेशन खरीदने पर उस नाम के लिखे कार्ड के ऊपर ही किराया लिखा रहता था। जिसके पास रुपए ज्यादा हो जाते, वह अपनी बारी में अपना कोई स्टेशन आने पर उस पर कोठी डाल सकता था, जिसके लिए उसे कुछ और रुपए बैंक को देने होते थे। तब उसे दूसरों से किराया भी ज्यादा मिलता था। एक स्टेशन पर दो बार कोठी डाली जा सकती थी। एक बार ऊपर के कमरे में हम तीनों ट्रेड खेल रहे थे। मेरी हालत खस्ता हो चुकी थी, इतनी कि दिवाला निकलने वाला था। मेरा भाई और मामाजी दोनों अच्छी स्थिति में थे। मुझे लगा कि मैं जल्दी ही जोर से रोने या चीखने लगूंगा, कि तभी नीचे से माताजी ने खाने के लिए आवाज़ लगाई और मेरी जान में जान आई।

और हाँ, गिज्जी दाना और बारां गाट भी खेल थे। इमली की दो गिटक बीच में से तोड़कर चारों से गिज्जी दाने की चाल चलते थे। बारां गाट में दो खिलाड़ी दस-दस पत्थर या ईंट के टुकड़े रखते थे। फिर चाल चलते हुए एक-दूसरे की गीटियों को काटना होता था। जिसकी बची रह जाएँ, वो जीत जाता था। और इसके अलावा सदाबहार ताश तो होती ही थी। दुक्की बजार, भाभी, रम्मी, तीन दो पांच–ताश के कई खेल होते थे, जिनके अब नाम भूल गए हैं। अरे याद आया! हम फिरकी भी तो चलाते थे। राय मार्किट के पीछे सफेदे के बहुत से पेड़ होते थे, जिनके पके हुए बीज उठाकर हम फिरकी की तरह चलाते थे। लकड़ी की फिरकियाँ तो बहुत बाद में देखने को मिली थीं।

सन उन्नीस सौ साठ या इकसठ में टीन के चमचमाते हुए एक, दो और तीन नए पैसे के सिक्के चलन में आ गए थे। पहली बार नए पैसे का चलन हुआ था। इससे पहले छह पैसे का एक आना और सोलह आने का एक रुपया होता था। अब रुपया सौ नए पैसे का हो गया था। हम मोहल्ले में इकट्ठे होकर नया सिक्का हथेली पर रखते और उसके नीचे फूंक मारकर उसे हवा में उठाते। सिक्का बड़ा हल्का होता था, अक्सर थोड़ा उठ जाता था। तब यह एक करतब लगता और करने वाला अपने को बाकियों से कुछ श्रेष्ठ मानने लगता।

कुछ और बड़े हुए तो मोहल्ले में ही गेंद से फुटबाल की तरह खेलने लगे। इसमें दिक्कत यह थी कि एक तरफ खुला गन्दा नाला था, जिससे मोहल्ले-भर का गन्दा पानी वगैरा बाहर जाता था। साठ के उस दशक में घरों के मल-मूत्र भी खुले नाले-नालियों में ही जाते थे। हमारे मोहल्ले का वह नाला कभी भी बिलकुल साफ़ नहीं होता था। तो खेलते हुए गेंद कई बार उसमें गिर जाती थी। उसे निकालकर फिर खेलने लग जाते। कभी-कभी हमारे बीच अरुण नाम का बहुत बड़ा लड़का खेलने आ जाता, जिसे हम चाहते नहीं थे। उम्र के साथ-साथ उसकी कद-काठी भी बहुत बड़ी थी और पैर बड़े और मजबूत थे। वह ठुड मारकर हमारे पैर जैसे तोड़कर रख देता था। जिधर वह होता, उसने जीतना ही होता था। हमने अरुण का नाम चौरासी बच्चे रखा हुआ था। क्यों रखा यह नाम, हम नहीं जानते थे। इसी तरह एक और अलग-सा लड़का था, जो हर वक्त गट्टा खाता रहता था। (गट्टा गुड़ का बनता था।) तो 'गट्टे' को देखते ही हम कहने लगते–गट्टा लाचियाँ वाला, के मुंडा (लड़का) चाचियाँ वाला। " हमारे बीच वह अकेला महासुस्त लड़का था। उस गट्टे के आठ हिस्से हमेशा चोटिल रहते थे–दोनों कुहनियाँ, दोनों घुटने और दोनों पैरों के चारों गिट्टे।

खेलों में एक खेल तो भूल ही गया। इसका कोई नाम भी नहीं है। इसे खेल कहें या नहीं, यह आप देखें। हमारे घर की दूसरी मंजिल पर एक कमरा होता था। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बाएँ तरफ एक पट्टी-सी बनी थी। वहाँ हम गीली मिटटी से खिलौने बनाया करते थे। बेलन, चकला, कुर्सी, मेज़ वगैरा खास तौर से बनाते थे। जब भी थोडा वक्त मिलता, हम वहाँ पहुँच जाते थे। ऐसे दत्त-चित्त होकर बनाते, मानो वह हमारे पाठ्यक्रम का जरूरी हिस्सा हो। आज कह सकता हूँ कि वे क्षण हमारे रचनात्मक क्षण होते थे। अनुकरण का अनुकरण भी रचनात्मक होता है।

मोहल्ले में जिधर कुआँ था, उस तरफ मकानों के पीछे एक बहुत ऊँची दीवार थी। अक्सर शाम के वक्त उस पर धीमी गति से एक-दो बंदरों का अवतरण होता। बाएँ से दाएँ तरफ सीधे देखते हुए वे इस तरह चले जाते, मानो मंच पर नाटक का कोई पात्र एक तरफ से आकर दूसरी तरफ निकल गया हो। हम उसे देखकर अक्सर कहते–ले बन्दर रोटी, तेरी माँ मोटी। " कुछ ऐसे ही कभी न भूलने वाले दृश्य स्मृतियों में स्थायी भाव की तरह बसे हुए हैं। उन दिनों लैंप और डीलक्स सिगरेट ज्यादा चला करती थी। उनका विज्ञापन करने के लिए लकड़ी की लम्बी-लम्बी टांगों वाले दो-तीन आदमी शाम को सड़क पर आया करते थे। करीब दस-बारह फुट लम्बे वे आदमी हमारे लिए बड़ा आकर्षण होते थे। एक और दृश्य ऐसा ही है। सड़क के खम्भों पर तब बल्ब नहीं होते थे। रोज़ शाम के समय एक आदमी आकर सीढ़ी से खम्भे पर चढ़ता और वहाँ रखी ढिबरी में तयशुदा अनुपात में तेल डालकर जलाया करता।

कुएँ से एक रोचक किस्सा याद आया। मोहल्ले में हम चार-पांच लड़के अक्सर इकट्ठे ही खेलते और शरारतें करते थे। कुएँ के ठीक पीछे फकीर चंद का घर था। हम भरी दोपहर मोहल्ले में खेलते, बतियाते। हमारा शोर सुनकर कई बार फ़कीर चंद आकर हमें डांट लगाता। वह उसका आराम का समय होता था। लेकिन हमें इससे क्या! हमने भी उसे चिढ़ाने का एक नायाब तरीका ईजाद कर लिया था। दोपहर को जब बिलकुल सन्नाटा होता; लू सांय-सांय कर रही होती, तो हममें से कोई एक लड़का कुएँ में ईंट डालकर भाग जाता। फकीर चंद अंदर से जोर से बोलता। उसकी क्रोध-भरी आवाज़ सुनकर ही हम भागना शुरू करते। इसमें दुष्ट किस्म का सुख छिपा था। हम मोहल्ले से बाहर एक चक्कर लगाकर लौट आते। मोहल्ले से बाहर भी बहुत कुछ था...निम्बोरियाँ, गटारे, लसूढ़े का पेड़...कई बार पूरी दोपहर ही लसूढ़े के पेड़ पर चढ़कर लसूढ़े खाने में बीत जाती। पर मोहल्ले में जब भी हम दोपहरी काटते, एक बार फकीर चंद को जरूर उठाते। एक दिन हमने कुएँ में कई बार ईंट गिरा लीं, पर फकीर चंद ने कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दी। दो जुड़वां ईंटें डालीं, तब भी कोई असर नहीं। अपने इरादों में हम पक्के ढीठ थे, इतने कि जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ हम पर फिट बैठती थीं

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

तो मन बेचैन हो उठा। क्यों नहीं उठा फकीर चंद? दो पल सोचा। फिर एक बहुत बड़ा पत्थर हम चारों ने जैसे-कैसे उठाया और कुएँ के (लोहे के) जगत पर रख दिया। मैंने सबको पत्थर छोड़कर थोड़ा दूर होने को कहा। उन्होंने पत्थर छोड़ा, तो मेरे हाथ की ऊँगली नीचे आ गई। नाखून तो अलग हो गया, पर हमने मिलकर जोर का धमाका कर डाला। भीतर से फकीर चंद ऊँचे-ऊँचे बोलता हुआ जोर से दरवाज़ा खोलकर बाहर आया। अपने महान लक्ष्य में सफल होते ही हम बाज़ार की तरफ भाग गए थे। बाहर बाएँ मुड़कर फिर दाएँ, दाएँ होते-होते कोई बीस मिनट में चुपके से मोहल्ले में दाखिल हुए। हमारे मन में चोर था, लेकिन चेहरे आनंद से पुलकित।

अम्बाला छावनी में ऐसे पेड़ होते थे, जिन पर गर्मियों में जंगल जलेबी उगा करती थी। लम्बी फलियों में बीजों के साथ-साथ हल्के गुलाबी रंग की, मीठी, एक फांक-सी चिपकी होती। हमारे लिए वह गर्मियों का तोहफा होता था। उसे तोड़ने के लिए हम ढांगा बनाते, लकड़ी के बांस पर मुड़ा हुआ चाक़ू-सा बाँधकर ढांगा तैयार होता। उससे जंगल-जलेबी काटते जाते और कुछ-कुछ खाते जाते। किस्साकोताह यह कि दोपहर घर में नहीं बितानी। कभी-कभी मैं अकेला भी निकल जाता। उन दिनों लोकल बस सदर बाज़ार से चला करती थी। आकर बस को मुड़ना होता था। मैं कई बार हाथ देकर खड़ा हो जाता, फिर हट भी जाता। एक बार काफी देर ऐसे ही खड़ा रहा, तो कंडक्टर ने आकर एक थप्पड़ जमाया। उसके बाद मैंने यह दुष्टता करना छोड़ दिया। दरअसल मेरे पैर घर में नहीं टिकते थे। जब बारिश होती, तो घर की खिड़की से गली में देखता कि बगल की नाली पानी से भरकर चल रही है या अभी कसर है। ज्यादा बारिश होती तो रुकने पर सी. बी. हाई स्कूल के पास वाला बड़ा-सा नाला देखने जाता कि वह कितना भरकर चल रहा है।

थोड़ा बड़ा होने पर हम आसपास के मोहल्ले से भी कुछ लड़के लेकर सी. बी. हाई स्कूल के मैदान में फुटबाल खेलने जाने लगे थे। हालाँकि वह स्कूल अब सरकारी कॉलेज बन चुका है और वह मैदान अब इंटरनेशनल फुटबॉल का मैदान बन रहा है। मैदान वाले उस चौक का नाम भी फुटबाल चौक बाद में रखा गया, पहले वहाँ फुटबाल के शानदार मैच हुआ करते थे। हीरो क्लब, लीडर्स क्लब, जे. सी. टी. मिल्स फगवाड़ा जैसी ऊँचे दर्जे की टीमों के मैच देखने सारा शहर उमड़ पड़ता था। मैं पांच-छह साल का हूँगा। मैच देखने का शौक था, पर टिकट कहाँ से लेता? अन्दर जा रहे किसी अंकल को कहकर उनके साथ मैच देखने पहुँच जाता था।

जब मैच नहीं होते थे, तो हम और पड़ोस के मोहल्ले वाले लड़के मिलकर वहाँ फुटबाल मैच खेला करते। हमारे स्कूल में खेल के पुराने सामान की हर साल नीलामी हुआ करती थी। मैंने भी फुटबाल खेलने के लिए एक बाल खरीद ली थी। एक बार हम उस मैदान में खेलने गए। वह दीवाली का दिन था। अपनी चप्पलें उतारकर दोनों तरफ गोल बना लिए। शाम को खेलना ख़त्म हुआ तो बाहर निकले। अचानक याद आया कि मेरी चप्पलें अंदर ही रह गई हैं। मैं चप्पलें लेकर बाहर निकला तो सब साथी आगे जा चुके थे। मैं भी चल पड़ा। पर घर वाली सड़क तो आई ही नहीं। चलता गया, चलता गया। फिर एक साइकिल वाले बुज़ुर्ग सरदार जी से पूछा, तो वे बोले कि यह तो (छावनी से पांच किलोमीटर दूर) अम्बाला शहर है। फिर उस बुज़ुर्ग ने मुझे साइकिल पर बिठाकर सदर बाज़ार छोड़ा, जहाँ से मेरा घर पास पड़ता था। घर गया, तो तब तक अँधेरा हो चुका था। सब मेरी इंतज़ार में बैठे थे। घर में किसीने कोई दीया-मोमबत्ती तक नहीं जलाई थी। पर मुझे किसीने कुछ नहीं कहा। न मुझे किसी तरह का एहसास ही हुआ।

चौथी कक्षा के बाद पढ़ने में मेरा मन जितना कम होता गया, खेलों में मैं उतना ही रमता गया। या कहूँ कि खेलों में मैं जितना रमता गया, पढ़ने से उतना दूर होता गया। घर में सबसे कम नंबर मेरे ही आते थे। आठवीं में सब भाई-बहनों की फर्स्ट डिवीज़न आई, पर मेरी सेकंड डिवीज़न थी। फिर दसवीं में भी मैंने अपना यही स्तर बरकरार रखा। अपने को कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। खाने और खेलने को मिल जाए तो और चिंता क्या हो सकती थी? इन दोनों कामों में मैं शुरू से उदार रहा हूँ। पर पढ़ने की बात न करो। घर पर भी जब पढ़ना होता तो माँ को कहता कि पहले मेरे साथ शतरंज खेलो, फिर पढूंगा। माँ जाने कितनी थकी होती, पर रात को सब सो जाते तो मेरे साथ शतरंज खेलती। उसके बाद मुझे पढ़ना पड़ता। स्कूल में नवीं-दसवीं कक्षा में हर शनिवार को आधा दिन क्लास लगती। तब हम उमंग से स्कूल के बाहर निकलते हुए कहते-अद्धी छुट्टी सारी, मियाँ मक्खी मारी। "हमें जेल से छूटने का-सा एहसास होता। कभी-कभी आधी छुट्टी के बाद लाइब्रेरी का एक पीरियड लगता था। उसमें हमें लाइब्रेरी से लाकर कोई किताब दी जाती कि पढ़ो। उस पीरियड में हम अक्सर बातें करते रहते या मास्टरजी को सामने पाकर चुप बैठे रहते। जिस शनिवार को यह पीरियड नहीं लगता था, उस दिन या तो हम अपने स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेलने पहुँच जाते या वहाँ से कोई एक मील दूर टांगरी नदी के किनारे चले जाते। वहाँ अमरूदों के बागों में जाकर माली से बच-बचाकर अमरुदों का भोग लगाते जाते। एक दिन माली अचानक मेरे सामने आ गया। मैं अमरुद खा रहा था। पता नहीं वह मुझे कुछ कहता या नहीं, पर मैंने फ़ौरन जेब से चवन्नी निकाली और आगे बढ़ाते हुए कहा–अमरूद दे दो।" अच्छी तरह याद है, माली ने चवन्नी के सत्रह अमरुद दिए थे। इसी तरह एक बार सदर बाज़ार की तरफ रसभरियों वाला भाई बैठा होता था...सफेद पगड़ी कुरते में। मैंने एक टका (तीन पैसे) देकर रसभरियाँ मांगी। उसने कहा–बुक कर " (हथेलियाँ आगे कर) । मैंने दोनों हथेलियाँ जोड़कर आगे बढ़ाईं। उसने ढेर सारी रसभरियाँ मेरे हाथों में डाल दीं, इतनी कि कुछ बाहर भी गिर गईं।

पढ़ाई में मेरा मन बेशक नहीं लगता था, पर किताबों में मोरपंख जरूर रखता था। इसे हम विद्या-पढ़ाई कहा करता थे। जब इम्तहान नजदीक आते, तो आँख बंद कर किताब को हाथ में घुमाकर खोलते। जो पाठ सामने निकलता, हम मानते कि वह जरूर आएगा। वह आया या कि नहीं, कभी मिलान नहीं किया।

स्कूल जाने के भी किस्से हैं। शुरू में मुझे जैन स्कूल में पहली क्लास में डाला हुआ था। स्कूल एक गली-सी में था। एक ही बड़ा गोदामनुमा कमरा था। लकड़ी का एक बड़ा-सा दरवाज़ा, बस। बाकी सब बंद, अँधेरा घुप्प। अंदर मास्टरजी का लकड़ी का भारी-सा बक्सा रखा होता था। अब इतना याद है कि एक बार मेरी तख्ती, स्लेट-बत्ती वगैरा सब मेरे थैले में से गायब हो गए थे। पता चला कि किसीने मास्टरजी के बक्से के नीचे डाल दिए थे। मैंने देखा कि बक्से के नीचे कुछ है जरूर, लेकिन तब मेरे बाजू मोटे होते थे। वहाँ हाथ नहीं पहुँच पाया। मैं खाली थैला लेकर घर आ गया। माँ ने कुछ नहीं कहा। दादी को दूसरे स्कूल दाखिल करा आने को कहा, तो उसने इनकार कर दिया। माँ सब काम छोड़कर मुझे बनारसीदास स्कूल के जूनियर विंग में ले गई, जहाँ दूसरी और तीसरी की कक्षाएँ लगती थीं। मास्टरजी ने एक सवाल पूछा-उनचास कितने होते हैं? 'मैंने यह संख्या सुनी नहीं थी, अभी अपनी मातृभाषा पंजाबी में ही संख्याएँ जानता था। माँ ने मेरी दुविधा को भांपकर फ़ौरन पंजाबी में तर्जुमा करते हुए कहा-उनंजा।' मैं फौरन बोला–चाली नौ। ' मास्टरजी ने दाखिला दे दिया। यह सन इकसठ की बात है।

तीसरी तक का यह स्कूल काफी खुला था। आधी छुट्टी होती, तो खाने के अलावा हमें तख्ती सुखानी होती थी। हम तख्तियाँ धोकर, गाचनी लगाकर अपनी तख्तियाँ घुमाते और कुछ न कुछ गाते। जैसे–चूहे-चूहे मैं तेरी खुड (बिल) खोददा, तू मेरी फट्टी सुखा। ' आज सोचकर हँसी आती है कि क्या खुड खोदना फट्टी सुखाने से आसान काम है?

अगर हमारे पास कुछ वक्त बच जाता तो हम बड़े स्कूल के दर्शन करने निकल जाते। बड़ा स्कूल चौथी कक्षा से शुरू होता था और छोटे स्कूल से कोई डेढ़ सौ गज की दूरी पर ही था। एक बार मैं अपने दोस्त के साथ बड़े स्कूल की तरफ जा रहा था, तो रास्ते में कोई मास्टरजी मिल गए। मैंने उनको पहले नहीं देखा था। मेरे दोस्त ने कहा–मास्टरजी नमस्ते। 'मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया–छोले खाओ सस्ते, पानी पीओ ठंडा, सर में मारो डंडा।' कहकर मैं तो फ़ौरन वापिस मुड़ा और अपने स्कूल पहुँचकर दरवाज़े के पीछे जाकर छुप-सा गया; कहीं मास्टरजी मुझे पकड़ ही न लें।

सभी बच्चे दो क्लास पास कर चौथी कक्षा में इसी बड़े स्कूल में अपने आप दाखिल हो जाते थे। बनारसी दास हाई स्कूल यानी बी.डी.स्कूल। स्कूल में प्रवेश करते ही बाएँ तरफ पहला कमरा चौथी क्लास का होता था। बनारसी दास हाई स्कूल में चौथी क्लास का एक ही सेक्शन था। मैं चौथी क्लास में सौ में से बयासी नंबर लेकर प्रथम आया था। मेरे साथ और पांच बच्चे भी प्रथम रहे थे। हमारे अध्यापक का नाम बाबू राम था। सभी विषय वही पढ़ाते थे। लम्बा-चौड़ा डील-डौल, हमेशा सफेद कुरता-पायजामा पहनते। साल-भर कभी किसी बच्चे को उनसे डांट नहीं पड़ी, न कभी उन्हें गुस्सा आया। उनकी दो बातें याद हैं। एक तो वे कहा करते थे कि मछली खाया करो, तब तुम रेल के इंजन को भी रोक सकते हो। दूसरे, जो बच्चे पढ़ने में तेज़ होते थे, उनको चौथी कक्षा का काम कराने के बाद रोज़ पांचवीं का हिसाब भी पढ़ाते थे। हम चार-पांच ऐसे ही छात्र थे। हमें पीछे कोने में अलग बिठाया जाता था।

कुछ बातें ऐसी घटित हो जाती हैं, जिनके बारे तब पता नहीं चलता, लेकिन बाद में सोचकर ग्लानि होती है कि ऐसा क्यों किया। घर से माँ आधी छुट्टी के लिए पौने (रुमालनुमा कपड़े) में दो रोटी और सब्जी बाँधकर साथ देती थी। कभी सब्ज़ी न होती तो दस-पंद्रह पैसे दे देती कि चने लेकर रोटी खा लेना। एक बार मुझे आम पापड़ खाने का लालच आ गया। चुपके से रोटी नाले में फेंक दी और पंद्रह पैसे का आम पापड़ लेकर बड़े स्वाद से खाया। आज इस प्रसंग की चाहें तो नैतिक, दार्शनिक धरातल पर जो मर्ज़ी व्याख्या करें, पर बाल-मन तो बाल-मन ही होता है।

जीभ का स्वाद जो न करा दे, वही कम है। और बचपन तो खाने-खेलने का दूसरा नाम है। चौथी या पांचवीं क्लास में हूँगा तब। पंद्रह पैसे की पचास ग्राम मीठी फुलियाँ आती थीं तब। मैं करीब रोज़ ही माँ से पैसे मांगता कि फुलियों का प्रसाद लाना है। माँ धरम के नाम पर फ़ौरन पंद्रह पैसे देती। मैं बाहर चौक पर नककटे हलवाई (यह नाम हमने रखा हुआ था, उसकी नाक थोड़ी कटी हुई थी) से फुलियाँ लेता, राम या किसी भी मूर्ति को भोग लगाता और थोड़ी-थोड़ी सबको देकर बड़े चाव से सारी खा जाता। इसी तरह घर से थोड़ी दूरी पर एक घर में हर सोमवार को सत्यनारायण की कथा होती थी। मैं और मेरी बहन सावित्री वहाँ बिला नागा जाते, क्योंकि बर्फी का प्रसाद मिलता था। खाने के बारे मैं शुरू से ही उत्साहित रहा हूँ, इस क्षेत्र में अनुशासित तो साठ पार करके भी ढंग से नहीं हो पाया। अच्छा, याद आया, सावित्री से मेरी बहुत पटती थी, पर उससे छोटी सुलोचना से नहीं बनती थी। उसे बचपन में मैंने पीटा भी बहुत। इसके कई कारण थे। माँ उसे थोड़ी दही बिलोकर और थोड़ा पानी डालकर अधरिड़का बनाती और सिर्फ सुलोचना को पिलाती। मुझे इस बात से बहुत चिढ़ होती थी। कुछ-कुछ दिन बाद माँ को और सुलोचना को भी मैं इस बात के ताने देता रहता, लेकिन कोई असर नहीं हुआ। या तो मुझे भी मिलता, या उसे भी न मिलता, तभी मुझे तसल्ली होती कि न्यायपूर्ण बात हुई है। इसी तरह एक और प्रसंग था। बड़े भाई साहब ऊपर के कमरे में पढ़ते थे। एक बार कमरे की परली तरफ बाहर रखी लकड़ियों के नीचे से सफाई हो रही थी, तो बहुत सारे मूंगफली के छिलकों का ढेर मिला। पता चला कि भाई साहब सुलोचना को मूंगफलियाँ खिलाया करते थे। ऐसी बातों से सुलोचना से मैं ईर्ष्या करता था और किसी बहाने उसे पीटकर अपनी भड़ास निकाल लेता था। हालांकि बाद में फिर सुलोचना से बनी भी बहुत, क्योंकि वह भी जिंदगी में बेकार की लकीरों को मेरी तरह ही तोड़ने में यकीन करने लगी थी, तोड़ने भी लगी थी। पर वे बचपन से बाद की बातें हैं।

चलो, फिर लौटें स्कूल की तरफ। चौथी क्लास की गर्मियों की छुट्टियाँ हुईं। दिल्ली में सुशील मामाजी की शादी थी। माताजी ने कहा कि पहले स्कूल का काम निबटाओ, तो ही लेकर जाएँगे। मुझे 490 सवाल मिले थे। दिल्ली जाने का चाव इतना था कि दो दिन में सारे सवाल उड़ा दिए। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दाएँ तरफ गली की ओर छोटी-सी खिड़की खुलती थी, ठीक वैसी, जैसे काशीनाथ सिंह की कहानी 'सदी का सबसे बड़ा आदमी' में खुलती है। वहीं यह काम निबटा दिया था। दिल्ली गए, तो शादी के बाद ओम मामाजी के यहाँ से छोटे आकार का कैरम बोर्ड मिल गया था। हम घर आकर गर्मियों की दोपहरी में कैरम बोर्ड खेलने लगे थे। माँ अगर सोई होती तो हमें आराम करने को कहती। पर हम बड़े ही अताही (उच्छृंखल) थे, खास तौर पर मैं तो टिककर बैठ ही नहीं सकता था। एक दिन माँ ने कई बार समझाया कि उसे आराम करने दो और कैरम खेलना बंद करो। हम दो-तीन मिनट रुकते और फिर शुरू हो जाते। मजबूर होकर माँ ने उठकर छतरी ली और उसकी नोक से कैरम में पांच छेद कर दिए। एकबारगी तो हम डर गए। लेकिन अगले दिन से कैरम को थोड़ा ठीक कर फिर शुरू हो गए। आज एहसास होता है कि माँ को हम कितना तंग करते थे। सुबह उठकर माँ नाश्ता-पानी ही नहीं बनाती, हमें कलम घड़कर देती, हमारे बूट पालिश करती, बहनों की कंघी करती और उन पर किसी बात का गुस्सा आता, तो साथ में पीठ पर धौल भी जमाती जाती थी। हम कई बार एक-दूसरे की शिकायत करते तो माँ गुस्से में पहले एक की छितरोल करती। फिर शिकायत करने वाले को भी यह कहकर दो-तीन पड़ जाते—हुन ठाड पई आ! (अब ठण्ड पड़ गई तुझे) ! "

माँ से हम ज्यादा नहीं डरते थे। पिताजी से बड़ा डर लगता था। वे सुबह-सुबह साढ़े सात बजे दूकान के लिए निकल जाते और रात आठ बजे के आसपास ही आते। उनके आते ही घर में अनुशासन लौट आता। पिताजी का पलंग बैठक में लगा था। उनके आने के बाद हम पलंग को छू भी नहीं सकते थे। पिताजी के पास इंग्लिश साइकिल थी, जो आम साइकिलों से थोड़ी बड़ी थी। उसमें एक पहिए के साथ डायनमो लगा था, जिसे जोड़ने पर आगे बल्ब जल उठता था। हमारे लिए यह बहुत ख़ास था। पिताजी इतवार को पड़ोसी की दूकान सरदार मिल स्टोर पर ताश खेलने जाते और खाने तक लौटते। कभी दुबारा भी जाते। जब दोपहर के बाद घर पर होते तो रिकॉर्ड में गाने सुनते। उन दिनों बड़े रिकॉर्ड पर बड़ा तवा रखकर आठ-दस बार हैंडल घुमाना होता था, फिर तवे पर सूई टिकाई जाती थी। एक तवे पर एक ही गाना होता था। एक गाना पिताजी को बड़ा पसंद था–मज्झ गां वालया, बारां पैसे नवें-नवें मेन दवानी ही चा दे। "(हे गाय-भैंस वाले, तेरे पास बारह नए पैसे हैं। मुझे द्वन्नी ही दे दे।") । मैं बाहर खेल रहा होता तो पिताजी मुझे ख़ास तौर से यह गाना सुनाने के लिए बुलाते। इसी तरह वे उर्दू अखबार 'हिन्द समाचार' पढ़ा करते थे। इतवार को उसमें चुटकुले आते, तो मुझे बुलाकर जरूर सुनाते।

एक वाकया याद आ गया। घरों में जो चिट्ठियाँ आती थीं, सब उसे सम्हालकर रखते थे। बिजली का बिल तो तार में ही पिरोकर रखा जाता था। हमारे घर में सारी पुरानी चिट्ठियाँ एक जगह ढेर के रूप में पड़ी रहतीं। एक बार जाने मुझे क्या सूझी कि सारी चिट्ठियाँ लैटर बॉक्स में डाल आया। अगले दिन डाकिया आया तो उसके हाथ में चिट्ठियों का ढेर देखकर आसपास के घरों से औरतें निकल आईं। सबको मेरी कारिस्तानी का पता चल गया। किसीने कुछ नहीं कहा। यह करतब था या करतूत, कहना मुश्किल है।

थोड़ा बड़ा होने पर घर से हमें कुछ जेब-खर्ची मिलने लगी थी। कितनी, अब कुछ याद नहीं। पर माँ पैसे देकर कहा करती थी कि बचत किया करो। भला हमारा बचत से क्या वास्ता! हमें मिट्टी की एक-एक बुगनी (गोलक) भी ले दी थी पैसे बचाने के लिए। एक दिन सुलोचना ने दो नए पैसे सुबह अपनी बुगनी में डाले। शाम को ही उसे निकालकर बाहर वलैती राम की रेहड़ी से मीठे शर्बत का गोला खा आई। मेरे मन में भी बचत का ख्याल आया, हालाँकि उसके मकसद का मुझे दूर तक कुछ पता नहीं था। एक दिन मक्की की रोटी जो खाने से बच गई, उसे एक डिब्बे में रख लिया और माँ को इस बचत बारे बताया। माँ कुछ नहीं बोली। फिर दीवाली के रोज़ चीनी के खिलौने मिले, तो चीन का एक आदमी मैंने बचाकर रख लिया। रोज़ शाम वह डिब्बा खोलता और एक बार उस खिलौने को चाटकर फिर रख देता।

उन दिनों मैदान में मेले बहुत लगते थे। वहाँ भीड़ भी बहुत होती। एक बार माँ ने हम पाँचों को पैसे बांटने शुरू किए, तो बारी-बारी से सबको कुछ पैसे देती गई। बड़े को कुछ ज्यादा मिलते थे। यह सिलसिला ख़त्म हुआ तो मेरे हिस्से में कुल तैंतालीस पैसे आए। माँ ने मेरे ये पैसे बड़े भाई को देकर कहा कि हम दोनों मेले में इकट्ठे जाएँगे। वही सी. बी.हाई स्कूल के मैदान में मेला लगा करता था। भाई साहब ने पंद्रह पैसे के छोले खिलाने से शुरू किया और मैं खर्च हो रहे पैसे गिनता गया। आखिर में मेरे कुल चालीस पैसे खर्च हुए। बाकी के तीन पैसे बड़े भाई साहब की तरफ अब तक बकाया हैं, जो मैं उन्हें कई बार याद करा चुका हूँ। अभी तक मिले नहीं हैं।

हमारी बैठक में आठ बैंड का मरफ़ी का रेडियो होता था। पाकिस्तान से पैंसठ की लड़ाई लगी, तो रोज़ शाम को आठ बजे के समाचार सुनने के लिए ज्यादातर घरों के आदमी हमारी बैठक में इकठ्ठा होते। तब मुझे अपने रेडियो पर गर्व होता। शाम के वक्त पिताजी के आने से पहले कभी-कभी मैं रेडियो को शार्ट वेव्स पर लगाकर घुमाता और सुनने की कोशिश करता। कभी कुछ समझ तो नहीं आया, लगता कि अंग्रेज़ी में कुछ बोल रहे हैं। ऐसा कर मैं बड़ा-बड़ा महसूस करता।

हमारे मोहल्ले के बाहर सड़क पर तेली का बैल अक्सर बंधा रहता था। तेली का घर साथ वाले मोहल्ले के शुरू में ही था। जिस दिन वह बैल मुझे न दीखता, तो अंदर उसे तेल के कोल्हू के आसपास चक्कर काटते हुए देख आता। उसकी आँख पर कटोरीनुमा पट्टी-सी बंधी होती, जिसका अर्थ तब हमें न तो पता था, न ही जानने की कोई जिज्ञासा। कभी-कभी बाहर खड़े उस बैल के सिर पर मैं अपनी गाय की तरह हाथ फेरने लगता। ऐसा करते हुए मुझे एक बार उसने सींगों से उठाकर फेंका, तब मालूम पड़ा कि यह हमारी गाय नहीं है। वैसे वह तेली हर साल रामलीला में रावण बना करता था। उसे देखकर हमें हमेशा रावण ही याद आता था। वैसा ही डीलडौल। वह हर दीवाली की रात ठीक बारह बजे एक मोटा-सा सूतली बम पास वाले चौक पर बजाता था, जिसका जबरदस्त धमाका सुनने की हम लड़कों को आदत हो गई थी। एक-दो साल बाद हम भी यह नजारा देखने के लिए बारह बजे से पहले उस चौक पर जमा हो जाते थे। सन पैंसठ-छियासठ में वह बम एक रुपए का आता था।

मैं तब छठी क्लास में हूँगा। उस दिन माँ के पास वक्त नहीं था। तो पहली बार मुझे अपने बूट पालिश करने का मौका मिल गया। आता तो था नहीं। तो बूटों पर पालिश की मोटी पार्ट जमा दी। तभी भाई आ गया। उसने देखा तो बूट उठाकर एक फोटो के पीछे छिपा दिए और बोला–आ लेने दे पिताजी को। " मेरी जान सूखने लगी। पर फिर कुछ नहीं हुआ। लगे हाथ बता दूँ कि हमारी बैठक में दीवार पर चारों तरफ एक पट्टी थी, जिस पर देवी-देवताओं के शीशे में मढ़े चित्र लगे होते थे। एकाध चित्र सुंदर युवती का भी होता था। उनके नीचे कुछ केलिन्डर भी पंक्तिबद्ध सजे होते थे।

हमारा स्कूल शहर के अच्छे स्कूलों में गिना जाता था। तब अंग्रेज़ी पांचवीं क्लास से पढ़ाई जाती थी। मुझे अंग्रेज़ी अजीब लगती थी। वैसे भी पांचवीं से मेरा मन पढ़ने में कम और खेलने में ज़्यादा लगने लगा था। फिर भी नम्बर ठीक-ठाक आ जाते थे। पर छमाही इम्तहान हुए, तो अंग्रेज़ी में पचास में से पच्चीस नम्बर आए। कम इसलिए लगे कि क्लास में अध्यापक द्वारा पूछने पर कई लड़कों के पैंतीस नम्बर आए थे। लगा, कि रिपोर्ट कार्ड घर दिखाऊंगा तो डांट पड़ेगी। एक-दो लड़कों से पता चला कि नंबर एक एसिड से मिटाकर और लिखे जा सकते हैं। लड़कों से एसिड ली और अंग्रेज़ी के नम्बरों पर लगा दी। उसने तो सतह को बेतरह खराब कर दिया। मैं एकबारगी घबरा गया। कोई और हल न निकलता देख उस पर पैंतीस लिखकर घर पर डरते-डरते कार्ड दिखाया। किसीने कुछ नहीं कहा तो जान में जान आई। स्कूल में मास्टरजी ने भी कुछ नहीं कहा। शायद देखा ही न हो।

आठवीं-नवीं में आकर मुझे फ़िल्में देखने का चाव चढ़ा। फिल्म देखने को तब अच्छा नहीं माना जाता था। मेरी हिम्मत भी नहीं थी कि माँ या पिताजी को यह बात कह सकूँ। हाँ, नज़दीक के मिनर्वा, निगार और निशात सिनेमाघरों में लगे पोस्टर बड़े ध्यान से नियमित देख आता था, मानो यह भी पाठ्यक्रम का एक जरूरी हिस्सा हो। फिर चोरी-छिपे सिनेमा देखना शुरू किया। इतनी बड़ी स्क्रीन पर चलती-बोलती तस्वीरें देखकर मन खुश हो जाता। कहानी न तो समझ आती थी, न ही समझने की कभी कोशिश की थी। अभी दो-तीन पिक्चरें ही देखी थीं कि मामला गड़बड़ हो गया। मैं मेटिनी (दोपहर के) शो में 'हमराज़' फिल्म देखने गया हुआ था। इंटरवल में बाहर कुछ खाने को निकला तो देखा, हमारी दूकान पर काम करने वाला पप्पू भी दूकान से भागकर फिल्म देखने आया हुआ है। मुझे देखकर वह भाग खड़ा हुआ। रात को पिताजी ने घर पहुँचते ही मुझसे पूछा–आज कहाँ गया था? "मैंने छूटते ही कहा–दोस्त के घर।" बड़े विश्वास के साथ झूठ बोला मैंने। पर पिताजी छूटते ही पूछ बैठे-कहाँ रहता है वह? "ये सामने गली में।" मैं एकदम बोल गया। पिताजी ने एकदम कहा–मुझे ले चलेगा उसके घर? "अब तो मुझे काटो तो खून नहीं। तब माजरा समझ आया कि पप्पू खुद दूकान से फूटकर आया हुआ था, पर शिकायत मेरी लगा दी। वह तो माँ ने फ़ौरन हस्तक्षेप करते हुए पिताजी से पूछा–की गल्ल है, किद्धर गया-सी?" (क्या बात है, किधर गया था?) पिताजी ने गुस्से में कहा-उल्लू दा पट्ठा खेड वेखण (खेल देखने) गया-सी। " खैर, बात आई-गई हो गई। घर वालों को मामला गंभीर लगा, तो उन्होंने तय किया कि मुझे जब कोई फिल्म देखनी होगी तो पहले घर पर बताऊंगा। वो पैसे देकर भेज देंगे। अंधे को क्या चाहिए, दो आँखें। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। कैपिटल सिनेमा पर विनोद खन्ना की फिल्म 'अचानक' लगी हुई थी। पर उस पर माता-पिता का राज़ी होना मुश्किल था। निगार पर पंजाबी फिल्म 'नानक नाम जहाज है' लगी थी। माँ को कहा कि 'नानक नाम जहाज है' फिल्म देखनी है। माँ बहुत खुश हुई कि बेटा धार्मिक फिल्म देखने जाएगा। सिर पर हाथ फेरा, ख़ुशी से पैसे दिए और मैं 'अचानक' फिल्म देख आया। आकर नानक नाम जहाज वाली फिल्म के एक-दो गीतों के बारे बता दिया, जो मैंने पहले से सुन रखे थे।

यहाँ एक-दो प्रसंग याद आ रहे हैं। एक तो आधी छुट्टी के वक्त हम टीलो बड़े ही चाव से खेला करते थे। फटाफट रोटी किसी तरह अंदर डाली और स्कूल के बीचोबीच पहुँच गए। टीलो में आधे-आधे लड़के दो हिस्सों में बंट जाते थे। आधों ने आधों को पकड़ना होता था। एक-एक करके या दो मिलकर या सारे मिलकर पकड़ें, उनकी मर्ज़ी। हरीश की और मेरी रेस बहुत बेहतर हुआ करती थी। हम सबसे बाद में ही हाथ आते थे। मेरा दोस्त रविंदर ढीला ही दौड़ता था। पर क्लास में हम हमेशा ही साथ-साथ बैठते थे। शरारतें मैं शुरू से ही खूब करता था। याद आ रहा है, पहली क्लास में जब मास्टरजी ने पढ़ाया-सोहन के घर में बहुत चूहे हो गए थे। 'तो क्लास में सोहन नाम के लडके को मैं रोज़ यही कहकर चिढ़ाता था कि सोहन के घर में बहुत चूहे हो गए थे।' फिर नवीं-दसवीं कक्षा में जब पढ़ा कि कवि तुलसीदास की माँ का नाम हुलसी था, तो मैं क्लास के शरीफ-से लड़के तुलसी को हररोज़ यही बात कहता कि तुलसी की माँ का नाम हुलसी था। 'उसने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। फिर अपने नज़दीकी दोस्त रविंदर को भी कैसे छोड़ता। उसके पिता का नाम तीरथ राम था। मैं उसके पिता का नाम उल्टा करके उसे कई बार कहा करता—थरती मरा।' उसने कभी कुछ नहीं कहा। एक बार किसी बात पर उसने मुझे पटों में जी की निब वाला होल्डर मार दिया। मैंने मास्टरजी से शिकायत कर दी। उसे दो थप्पड़ पड़े। फिर उसने शिकायत की–ये कहता है, तेरा बाप मरे। 'फिर एक थप्पड़ मुझे भी पड़ा। शायद यह पहला थप्पड़ था जो मैंने खाया था। पर इससे आगे का भी किस्सा है। हिंदी के सख्त-मिज़ाज मास्टर मधुमदन आधी छुट्टी के फ़ौरन बाद की क्लास में व्याकरण सुना करते थे। हम टीलो खेल-खेलकर थके होते थे। एक बार भिन्नार्थक शब्दों में से मुझसे पूछा–विजन और व्यजन का अंतर बताओ।' विजन का तो बता दिया कि सुनसान, पर व्यजन का याद नहीं आया। इसका अर्थ था–हाथ वाला पंखा। मुश्किल था, पर नहीं आया, तो दो डंडे पड़े टिकाकर। पहली बार डंडा खाया और खूब जोर का खाया। हाथों पर गहरे निशान पड़ गए। घर जाकर छिपाता फिरा, कि कहीं और डांट न पड़ जाए। बस वह दिन और कॉलेज का आखिरी दिन, फिर हिन्दी पढ़ने में कभी रत्ती-भर कोताही नहीं की। एम.ए. हिन्दी में यूनिवर्सिटी में पहला स्थान पाया। पर मधुमदन जी और उनके दो डंडे कभी नहीं भूले, आज भी याद हैं। बहुत साल बाद जब मुझे कॉलेज प्राध्यापक बने हुए भी कई वर्ष बीत गए थे, तो मैं मास्टरजी से मिलने गया, जिन्होंने सेवा-निवृत्ति के बाद बेटे के साथ सिविल अस्पताल के सामने केमिस्ट की दूकान खोल ली थी। तब मैंने अपनी एक किताब भी उन्हें दी।

हमारे स्कूल के बाहर किताबों की कई दुकानें थीं। बैनी की दुकान सबसे ज्यादा चलती थी, फिर शर्मा बुक डिपो था। थोड़ी दूर बग्गा बुक शॉप थी। बग्गा देश-विदेश की टिकटें रखता था। छोटी पारदर्शी थैली में दूसरे देशों की टिकटों का आकर्षण मुझे कई बार आधी छुट्टी के समय बग्गा बुक डिपो के आगे पहुँचा देता। यह खजाना इकठ्ठा करके मैं अपने को बड़ा-बड़ा महसूस करने लगा था। बड़ा तो तब भी लगा, जब अंग्रेज़ी के चार-पाँच नए शब्द पढ़ लिए थे। इसी तरह पांचवीं में हिन्दी की किताब के एक पाठ में कोचवान, गाड़ीवान, विराजमान जैसे शब्द पढ़े, तो भी लगा कि काफी हिन्दी आ गई है। हमारे घर के पहली मंजिल के कमरे के ऊपर चौबारा था, जिसकी तीनेक फुट ऊँची बाउंड्री बनी हुई थी। कई बार वहाँ उसके कोने में लकड़ी का बड़ा फट्टा लगाकर नीचे बैठकर पढ़ने का नाटक करता, तब भी अपने को बड़ा-बड़ा महसूस करता था। वहाँ मैं अपने को बड़ा महसूस करने के लिए ही बैठता था।

स्कूल से छुट्टी होने पर हम दो दोस्त घर को इकट्ठे ही आते थे। दोस्त वही रविंदर था, जो मोहल्ले के सामने थोड़ा आगे की गली में रहता था। हम दोनों वापसी पर लोगों के चेहरे देखते और हँसते जाते। हमें उन चेहरों पर कुछ न कुछ अजीब दीख जाता। यह हमारा रोज़ का काम था। रस्ते में चादरों पर ठप्पे लगाने वाली एक दुकान पड़ती थी, जिसका अंग्रेज़ी में नाम था–माय शॉप। ' हम रोज़ दुकान के भीतर सरदारजी को चादरों पर ठप्पे लगाते देखा करते। एक बार हमने कह दिया–सरदार जी, दिस इज माय शॉप। आप बाहर आओ। " वह तो उठकर सचमुच बाहर आ गए। हम तो सर पर पैर रखकर भागे। उसके बाद उसे दोबारा कभी छेड़ने की हिमाकत नहीं की।

कुल मिलाकर अपने बचपन की कारगुजारियों को याद करते हुए यही कह सकता हूँ कि किसी तरह की चिंता-फिकर से दूर, खाना-पीना, हँसना-खेलना और मौज करना ही बचपन है। तब दूर-दूर तक कोई भी नहीं जानता था कि खाने-खेलने के एकमात्र लक्ष्य वाला यह बच्चा कभी गंभीरता से पढ़ने-लिखने को ही अपने जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बना लेगा।