बची रहेगी ललकार (नीलेश रघुवंशी) / नागार्जुन

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क्या ‘कवियों के कवि’ की तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि नागार्जुन ‘मनुष्यों के मनुष्य’ (कवि) हैं। नागार्जुन को पढ़ते हुए हमेशा ऐसा लगता है कि प्रकृति और पशु-पक्षी जगत से कवि का तादात्म्य नहीं, बल्कि इसके उलट प्रकृति और पशु-पक्षी जगत ने कवि से अपना तादात्म्य स्थापित किया है। एक गहरा राग कवि और प्रकृति के बीच है। प्रकृति की ही तरह मनुष्य जगत और कवि के बीच भी रिश्ता है। हम सब कहीं न कहीं अधूरे हैं और कई बार अधूरेपन को कलात्मक आवरण भी पहनाते हैं। अधूरेपन का अपना सौंदर्य है, आकर्षण है। छूटी हुई जगह और छूटा हुआ जीवन लुभाता भी है और अपने सम्मोहन में बांधता भी है। लेकिन सब कुछ के बाद भी है तो वह अधूरापन ही। इसके उलट बाबा के यहां समूची प्रकृति और समूचा मानव-जीवन अपनी संपूणर््ाता में है। बाबा के यहां कुछ भी नहीं छूटता। तनी हुई रस्सी पर चलते हुए वे सबको एक साथ साधते चलते हैं। ‘नेवला’ और ‘अकाल और उसके बाद’ कविताएं इसका उदाहरण हैं। शोषणमुक्त और न्यायप्रिय समाज बनाने के सदियों पुराने मानव-जाति के उदात्त सपने’ अपनी पूरी खरोंच के साथ बाबा नागार्जुन के यहां हैं। उदात्त सपनों की खरोंचे किसी को सुख नहीं दे सकतीं। जनकवि को तो बिल्कुल नहीं: ‘प्रतिबद्व हूं संबद्व हूं आबद्व हूं प्रतिबद्व हूं, जी हां, प्रतिबद्व हूं बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त संकुचित ‘स्व‘की आपाधापी के निषेधार्थ अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खि़लाफ़ अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए अपने आप को ही ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर प्रतिबद्व हूं, जी हां, शतधा प्रतिबद्व हूं !’ अपने हर गुण, अवगुण, अंतर्विरोध और विरोधावास को सृजनात्मकता में ढालते हुए जनकवि होने को भी वे एक नया प्रतीक देते हैं। जनकवि की इमेज को एक नया अर्थ देते हुए उसकी हर कसौटी पर 322 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 खरा उतरते हैं। उनका आधे से ज़्यादा जीवन रेलवे स्टेशन, टेªन और धूल भरी पगडंडियों पर बीता। उनकी यात्राएं भी जीवन को जीने और समझने का सलीका देती हैं। जीवन और टेªन की तरह वे कहीं भी किसी भी जगह बहुत देर तक ठहर नहीं पाये। उन्हें ऊब से चिढ़ और पानी से प्यार था। इसीलिए वे ऊब को ट्रेन की सी गति और पानी को जीवन का उल्लास मानते हुए प्राथमिकता देते हैं। वे पानी बहुत कम खर्च करते थे। उसकी बूंद-बूंद को सहेजते थे। इस तरह अपने हिस्से का पानी दूसरों को देते थे। अपने जीवन व्यवहार और काव्य व्यवहार से वे हर क्षण बताते समझाते हैं कि- ‘देखो जीवन यहां है और कविता भी यहीं कहीं बिल्कुल पास।’ उनके सृजन की परिभाषा में दूर की कौड़ी दूर-दूर तक नहीं है। अबूझ को सूझ और सूझ को अबूझ में बदलने की कला में माहिर नागार्जुन की काव्य-दृष्टि विरली है। जीवन की सीमाओं को भी अतिक्रमित करते नागार्जुन कर्म के कवि हैं। कविता को, लेखन को अपना जीवन बनाया। और फिर इससे बढ़कर मनुष्यता और प्रकृति को अपना केंद्र बनाया। उनके लिए जीवन के मायने सिर्फ़ मानव-जीवन नहीं है बल्कि प्रकृति जगत,पशु-पक्षी जगत भी है। जो लोग चिड़ियों का घोंसला तोड़ देते हैं, उनके यहां का चिड़िया के लिए कुछ खाना तो दूर, पानी भी नहीं है। लेकिन बाबा के साथ ऐसा नहीं है। वे तो चिड़ियों को घोंसला बनाने में मदद करते रहे। बल्कि कई बार उनके लिए घोंसले भी बनाते रहे। इसीलिए तो समूची प्रकृति और समूचे जगत को उनसे राग हैं। यह दोतरफ़ा संबंध है। और यहीं नागार्जुन मनुष्यों के मनुष्य कवि हो जाते हैं। प्रसिद्वि और यश पाने के बाद भी उनके स्वर नहीं बदले। उन्होंने मजमा नहीं लगाया। वे मठाधीश भी नहीं बने। विरोध के स्वर भी धीमे नहीं पड़े। कुछ भी तो नहीं बदला। न राग बदला न विराग बदला। धूल भरी पगडंडी पर चलते हुए पांव भी नहीं थके। काया जर्जर हो गयी, लेकिन शोषण के खि़लाफ़ उनकी आवाज़ की लौ न धीमी हुई, न कंपकंपायी। लाठी लिए वे ढोंगियों, पाखंडियों, अन्यायियों और अत्याचारियों को ललकारते रहे। प्रतिरोध की शक्तियों के बिखर जाने और कमज़ोर हो जाने पर वे आज भी ललकार रहे हैं। जब तक धरती पर अन्याय रहेगा, तब तक उनकी ललकार रहेगी। जिस दिन अन्याय ख़त्म होगा, उस दिन उनकी ही कविताएं सबसे ज़्यादा उत्सव के गीत गायेंगी। जनकवि नागार्जुन से ज़्यादा जीवन का उल्लास कहीं और नहीं। मो.: 09826701393