बची हुई हवा का हिसाब / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
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एक आदमी ने सबसे ऊँची इमारत से छलाँग लगा दी। उसके गिरने की आवाज़ किसी ने नहीं सुनी; क्योंकि सबके कानों में बज रहा था बाज़ार का शोर। हवा तक नहीं हिली। नीचे फुटपाथ पर एक कुत्ता था, जिसने सिर्फ़ नाक सिकोड़ी और सामने पड़े रोटी के टुकड़े की ओर बढ़ गया। एक बच्चे ने इशारा किया—"मम्मी, वह चुप क्यों है?"

माँ ने उसका हाथ झटक दिया—"चुपचाप चलो। यह कोई फुटपाथ नहीं।"

सुबह अख़बार वाले ने ख़बर छापी—"शहर का AQI सुधरा, एक कम हुआ साँस लेने वाला।" पुलिस वाले ने लाश उठाई, दफ़नाया और रिपोर्ट में लिखा—"कोई शक नहीं, स्वाभाविक मौत।"

उसकी जेब से एक डायरी मिली। आख़िरी पन्ने पर लिखा था—"मैं जब गिरूँगा, तो हवा में जगह बन जाएगी। किसी और की साँस चलेगी इस ख़ालीपन में।"

डायरी को कचरे के ढेर में फेंक दिया गया। उसी शाम एक कागज़ उड़ता हुआ किसी की बालकनी में जा घुसा। वहाँ एक आदमी ने उसे पढ़ा, सोचा और खिड़की बंद कर ली। बाहर शहर की हवा में अब भी वही गंध थी—आधी सड़ी हुई, आधी बची हुई।

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