बच्चे...मन के सच्चे/ प्रियंका गुप्ता
कहते हैं बच्चे भगवान का रूप होते हैं, लेकिन अक्सर उनकी बदमाशियों और शरारतों से ऊबकर हम बेझिझक उन्हें शैतान की उपाधि दे डालते हैं। अब बच्चे जब चाहें जिस रूप में आपके सामने आएँ; पर एक बात तो तय है, उनका हर रूप अपने आप में निराला होता है। कई बार बच्चे आपको इस दुनिया का सबसे बड़ा गुण सिखा देते हैं और आप उनको अपना ‘गुरु’ भी नहीं मानते। वह एक अमूल्य गुण है- बिना किसी शर्त के प्यार करना- यानी अनकंडीशनल लव।
प्यार एक अनमोल नियामत है और जब दुनिया में वे बच्चे आपसे प्यार करें, जिन्हें आपने न तो जन्म दिया है और न ही उनसे आपका कोई खून का रिश्ता है, तो समझ लीजिएगा- आप दुनिया के सबसे दौलतमंद इंसान हैं...और यह दौलत शायद सबसे ज्यादा एक शिक्षक को नसीब में होती है।
मैं पेशे से शिक्षक नहीं रही, पर फिर भी बच्चों के असीमित प्यार की दौलत मुझे हमेशा मिली। शुरू से अपने उम्र के लोगों की बजाय बच्चों का साथ मुझे ज्यादा भाता रहा। उनकी चुलबुली, निश्छल और गुदगुदाने वाली बातों के बीच ज़िन्दगी के तमाम तनाव, चिंताएँ या दुःख कहाँ बिला जाते, मुझे पता ही न चलता। बच्चे भी बेझिझक मुझसे बिना किसी दुराव-छिपाव के अपनी तमाम बातें मुझसे शेयर करते रहे। मेरी इसी आदत (या खूबी) के चलते एक तरफ जहाँ मेरे छोटे ननदोई राजेश जीजाजी ने मुझे- ‘बच्चों की टीम लीडर’- का ख़िताब दे रखा था, वहीं मेरे मँझले ननदोई मुकुल जीजाजी आज भी अक्सर अपने बड़े बेटे अपूर्व उर्फ़ टिंकू के मेरे प्रति लगाव को याद करते हुए आश्चर्य से भरकर कहते हैं, “मैंने कभी टिंकू को किसी के घर से जाते वक़्त रोते नहीं देखा, तुममे ऐसा क्या था कि पहली ही मुलाक़ात में टिंकू तुमसे इतना हिल-मिल गया कि तुम्हें छोड़ ही नहीं रहा था...और तुम गई हो तो खूब फूट-फूट कर रोया...।”
यहाँ बताती चलूँ कि यह घटना मेरी शादी के पंद्रह दिन बाद की है और उस समय टिंकू मात्र छह-सात वर्ष का नन्हा बच्चा था। आज तो वह खुद ही एक तीन साल के प्यारे से बेटे का पिता है।
ये सब बातें तो चलिए परिवार से सम्बंधित हैं, पर जिन बच्चों की यादें आज भी मेरे दिल के एक कोने में बिलकुल वैसे ही ताज़ा हैं, जैसे कल की बात हो, वो बच्चे हैं मेरे जीवन के एक बहुत ही छोटे से समयावधि की याद के रूप में...मात्र साढ़े तीन महीनों के लिए मेरा शौकिया किया गया शिक्षण-काल।
बात उन दिनों की है जब चुनमुन यानी मेरा नटखट बेटा प्रांजल पाँचवी कक्षा में आ चुका था और अब उसे खुद छोड़ने-लाने की जगह हमने उसकी स्कूल बस लगा दी थी। रूटीन के इस परिवर्तन के साथ अब मेरे पास आधे दिन का काफी सारा वक़्त भी बचने लगा था। लिखने-पढ़ने और घर के कामों के बीच भी लगता था, कुछ और भी करना चाहिए। ऐसे में मेरे कई करीबी लोगों ने भी मुझे उकसाना शुरू कर दिया...देखो तो, आजकल हर लड़की काम कर रही, चार पैसे कमा रही। तुम भी निकलो अपने घर से और बाहरी दुनिया देखो...सीखो कुछ, वर्ना ऐसे ही बुद्धू-भोंदू बनी रहोगी। अब अक्सर की इन लगातार सलाहों से बचने का एक ही रास्ता था, मैं भी कुछ करूँ, पर क्या ? फुल टाइम जॉब करना नहीं था; क्योंकि दोपहर के बाद का सारा समय मैं चुनमुन के हिसाब से बिताती थी। उसे खिला-पिला के थोड़ी देर उसे सुलाना, साथ में खुद भी सो लेना...फिर समय से उसे उठाकर उसका होमवर्क कराना, हर हफ़्ते होने वाले उसके टेस्ट, प्रोजेक्ट्स वगैरह की तैयारी कराना और उसके अलावा और भी जाने कितना कुछ। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आखिरकार तय किया-मुझे किसी स्कूल में पढ़ाना है। इस तरह मैं तथाकथित बाहरी दुनिया भी देख लूँगी, चार पैसे भी कमा लूँगी और चुनमुन के समय से घर पर भी रह पाऊँगी।
घर से अधिक दूरी वाले स्कूल में आने-जाने का समय अधिक लग सकता था, इसलिए मैंने अपने घर के पास के ही एक स्कूल में सबसे पहले अपनी किस्मत आजमाने की सोची। वो शहर के एक नामी स्कूल की एक छोटी ब्रांच थी। तनख्वाह कम मिले तो भी क्या...कम से कम वहाँ का समय ऐसा था कि न केवल मैं हमेशा की तरह चुनमुन को उसकी बस में बैठा सकती थी, बल्कि उसके लौटने से पहले वापस भी आ सकती थी। ये बात है पंद्रह जनवरी की...। मैं तो ये सोच कर वहाँ अपना रिज्यूम लेकर पहुँची थी कि अगर उन्होंने मुझे चुना, तो शायद आने वाले अप्रैल माह से मुझे अपने जीवन की इस नई पारी की शुरुआत करने का मौका मिलेगा, पर वहाँ तो कमाल हो गया। उस दिन स्कूल के मालिक खुद वहाँ किसी काम से आए हुए थे और मेरा इंटरव्यू प्रधानाचार्या के साथ-साथ खुद उन्होंने भी लिया। अंग्रेजी माध्यम स्कूल था, सो उसी भाषा में मैंने उन्हें साफ़-साफ़ बता दिया...अब तक की मेरी ज़िन्दगी में यह मेरा पहला अनुभव होगा। न केवल नौकरी का, बल्कि अपने बच्चे से इतर दूसरे कई सारे बच्चों को पढ़ाने का भी। लगभग एक घंटे तक बेहद सहज वातावरण में चले इस इंटरव्यू के बाद उन्होंने- वी विल कॉल यू लेटर- बोलकर मुझे विदा कर दिया। मैं पूरी तरह से तनावमुक्त और खुशनुमा मूड में वापस आ गई। पहले इंटरव्यू का अनुभव अच्छा लगा था, रही बात चुने जाने की, तो उसके लिए भी मुझे कोई टेंशन नहीं था। मिल गई नौकरी तो ठीक, न मिली तो किसी और जगह कोशिश करूँगी।
अभी घर लौटे मुश्किल से एक घंटा ही बीता था कि स्कूल से फोन आ गया- आप कल आकर मिलिए। दूसरे दिन पहुँची प्रिंसिपल मैडम बेहद प्रफुल्लित मुद्रा में मिली- आपको हम नर्सरी विंग का को-ऑर्डिनेटर बना रहे, साथ ही कक्षा पाँच की मोरल साइंस और नवीं-दसवीं का सोशल स्टडीज और अंग्रेजी का क्लास आपको लेना होगा। कल सुबह से आप आ जाइए। तनख्वाह बाकी टीचर्स से अधिक होगी।
मैं आश्चर्य-मिश्रित खुशी में थी। दूसरे दिन तय समय पर अपने काम पर पहुँची, सब साथी टीचर्स से मेरा परिचय करवाया गया, क्लास दिखाकर काम समझाया गया आदि-आदि। अब अचानक से एकदम किसी नौसिखिया को अपने ऊपर पाकर उन बरसों पुरानी अध्यापिकाओं के दिल पर क्या बीती, उनका क्या रिएक्शन रहा, वो कहानी कभी और...पर आज के मेरे इस संस्मरण में तो उन प्यारे-प्यारे बच्चों की बातें जो आज भी मेरे चेहरे पर एक मुस्कान ले आती हैं।
स्कूल में मेरा आधा समय उन नन्हे बच्चों के साथ बीतता था। मैंने चुनमुन के साथ उसकी उस उम्र में बिताये गए अपने अनुभवों को वहाँ भी आजमाना शुरू किया। खेल-खेल में पढ़ाना, रोज़ छुट्टी से पहले के आखिरी पीरियड में उन्हें कहानी सुनाना, अच्छे बच्चे बनने और बात मानने वाले बच्चों को उनके चेहरे और हाथों पर छोटे से स्टार और फूल बनाना (जिसे वे बेहद उत्साह से अपने साथियों और मम्मियों को दिखाते थे), आदि अनेक चीजें जो उनको मेरे करीब लाती गई। इसके अलावा नर्सरी विंग की सभी टीचर्स को मेरा साफ़ निर्देश था...मेरे रहते इसं बच्चों को कोई हाथ नहीं लगाएगा। मेरे इस निर्देश से बहुत खलबली मच गई थी, क्योंकि उनके हिसाब से अधिकतर बच्चे लातों के भूत थे, जो बातों से न मानते। पर मैं अपनी बात पर अटल थी। जाने उन नन्हे-मुन्नों को इसका अहसास हुआ या कुछ और...पर स्कूल ज्वाइन करने के एक सप्ताह बीतते-बीतते उन बच्चों में जैसे एक होड़ लग गई...। अपने इंटरवल में उनमें से हरेक बच्चा मेरी कुर्सी घेरकर खड़ा हो जाता, अपना टिफिन खोलकर...आंटी, मेरा खाना, आंटी मेरा...। उनका मन रखने के लिए मैं हरेक के टिफिन से ज़रा-सा कौर निकालकर मुँह में रख लेती और प्यार से उनका गाल थपथपा देती। दो तीन दिन चले इस क्रम के बीच अचानक एक प्यारी -सी बच्ची ने मेरे गाल थपथपाने के प्रत्युत्तर में मेरे गाल पर एक ‘किस्सी’ दे दी। फिर क्या था, अब रोज मैं उनके टिफिन से चुटकी भर खाना चखती, उनका गाल थपथपाती और बदले में एक-के-बाद एक मीठी-मीठी किस्सी बोनस में मिलती। बच्चे तो वैसे भी मासूम होते हैं, सो मेरे निर्देश के कारण चूँकि बाकी टीचर्स से भी उनका पिटना बंद हो चुका था, सो बिना किसी दुराव के उन बच्चों ने बाकी अध्यापिकाओं के साथ भी यही प्रक्रिया दोहरा दी। इस बात पर भी उन अध्यापिकाओं का रोष मुझे झेलना पड़ा। अपने घरों में वे सभी माएँ थीं, पर शायद उनकी ममता सिर्फ अपने कोख-जायों के लिए ही थी। उनकी शिकायत थी कि मैंने बच्चों को अनावश्यक रूप से बिगाड़ दिया है, जिन टीचर्स को देखकर बच्चों को डरना चाहिए, वे बिंदास उनको ही ‘चुम्मी’ देकर जा रहे। मुझे उनका ये लॉजिक न तब समझ आया, न अब। खैर! उनको ये बोलकर कि बिना हाथ लगाए, अगर वे चाहें, तो बच्चों को अपने प्रति इस ‘प्रेम-प्रदर्शन’ के लिए मना कर दें। मेरा तो ऐसे ही चलेगा।
चलिए, ये तो रही इन नन्हे बच्चों की दास्ताँ...अब याद उस समय नवीं कक्षा के एक अत्यंत उदंड और लापरवाह छात्र- लकी- की...। उस ‘कुख्यात’ छात्र के विषय में सीनियर टीचर्स ने अपना गुरुमंत्र मेरे कान में पहले ही फूँक दिया था...इस लकी पर निगाह रखिएगा। परले दर्जे का बदतमीज़ और लापरवाह है। आपकी एक बात भी नहीं सुनेगा, न खुद पढ़ेगा न बाकी बच्चों को पढ़ने देगा। तो उसके साथ अहिंसात्मक होने की कोई ज़रूरत नहीं है, ज़रा भी बदमाशी करे, घुमाकर एक ज़ोरदार झापड़ दीजिएगा। शुरू से ही अपना ‘टेरर’ रखेंगी , तभी उस क्लास को हैंडल कर पाएँगी। ये सारे ‘गुरु’ उम्र और अनुभव दोनों में मुझसे बड़े थे, सो सामने तो मैंने शिष्टाचारवश गर्दन हिला दी, पर मन में निश्चय था...अपने प्यार-भरे विश्वास को लकी पर भी आजमाना है, बाकी तो भगवान मालिक...।
स्कूल तो कहने को अंग्रेजी-माध्यम था, पर वहाँ सही अंग्रेजी न अध्यापकों को आती थी, न प्रधानाचार्या जी को, सो बच्चों को तो वैसे भी नहीं आनी थी। हाँ, स्कूल के मालिक की अंग्रेजी ज़रूर अच्छी थी। अब लगता है कि अपने स्कूल की असल हालत जानते हुए मुझ जैसे अनुभवहीन-नौसिखिया को झट से एक को-ऑर्डिनेटर और बड़े क्लास की अध्यापिका की नौकरी शायद मेरे अच्छे अंग्रेजी-ज्ञान के कारण ही दी उन्होंने। पर ये सब बातें बाद में, पहले बात लकी की। उस कक्षा में पहला दिन मैंने परिचय का रखा। एक-एक का विस्तृत परिचय पूछते-पूछते जब लकी का नम्बर आया, तो स्वाभाविक था, मेरी उत्सुकता कुछ अधिक ही थी। लेकिन बाकी बच्चों की अपेक्षा उसने अनमनेपन से अपना बेहद संक्षिप्त परिचय दिया। मैंने भी जाने क्या सोचकर उसे कुरेदा नहीं। अगले दो-तीन दिन उस क्लास में पढ़ाकर मुझे अहसास हुआ, लकी के बारे में बाकी टीचर्स की राय पूरी तरह न भी सही, पर कुछ हद तक सच थी। जैसा कि आमतौर पर होता है, कमज़ोर छात्र होने के नाते उसकी सीट पीछे थी, जहाँ से वह बड़े आराम से अपनी शरारतों को अंजाम देता था। सबसे पहले मैंने उसकी सीट बदली, बिलकुल आगे, ठीक मेरी डेस्क के सामने। इस क्लास में मैंने अपना प्यार-भरा ‘कड़ाई और दोस्ती’ वाला फार्मूला आजमाने का सोचा था। बच्चों से सहज बातें और कभी-कभी थोड़ी हँसी और मस्ती भी, तो कभी थोड़ी कड़ाई से अपना काम पूरा करने का निर्देश भी। लगभग सभी बच्चे मेरी बात मान रहे थे, पर लकी में कोई सुधार नहीं था। अधूरा काम, वो भी ढेर सारी ग़लतियों वाला...किसी बात पर ध्यान न देना...वगैरह-वगैरह। मेरी नज़र अगर लकी पर थी, तो पुराने अध्यापकों की मुझ पर। उन्होंने बिना माँगे एक और सलाह दे डाली...अरे भाड़ में झोंकिए ऐसे स्टूडेंट्स को...भुगतेंगे खुद ही...। मैंने बेहद शालीनता से उन्हें जवाब दिया- जहाँ तक मेरी जानकारी है, मुझे एक टीचर का काम दिया गया है, भड़भूजे का नहीं...। उस निरुत्तर-खिसियाए अध्यापक की आगे की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश किए बिना मैं कक्षा में चली गई। मेरे जवाब की चिढ़ उन्होंने कुछ ही मिनटों बाद बेचारे लकी पर निकाली, जब अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के मेरी क्लास में घुसकर उन्होंने सामने बैठे लकी को उस काम को पूरा न करने के लिए एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा, जो शायद उन्होंने उसे करने को कहा ही नहीं था। इस अचानक हुए उनके आक्रमण से मैं ऐसा हकबका गई कि तुरंत कुछ कर ही न पाई। होश तो जैसे तब आया, जब इस मार के निशान पर अपना हाथ रखे सुबकते लकी ने कहा-देखा मैम, मेरी ग़लती न भी हो तो भी सब कोई मुझे ही मारता है। उस समय तो मैंने लकी को थोड़ा समझा-बुझाकर चुप कराया और कुछ सोचकर क्लास भी पूरी की, पर उसके बाद सीधा प्रधानाचार्या के पास जाकर उन्हें पूरे घटनाक्रम से अवगत कराने के साथ यह भी बोल दिया कि मेरे सामने मेरी कक्षा के बच्चों को कोई हाथ नहीं लगाएगा। बच्चों की ग़लती हो, तो उसे अपने पीरियड में हैंडल करें या मुझसे बता दें, मैं उचित कार्यवाही करूँगी। मैंने उसी समय ये सोचकर रियेक्ट नहीं किया था कि दो अध्यापकों को किसी बात पर बहस करते देख बच्चों के मन पर न केवल बुरा असर पड़ेगा, बल्कि अध्यापकों के लिए उनके मन में सम्मान की भावना भी कम होगी। मेरी बात का संज्ञान लेते हुए प्रधानाचार्या ने उन अध्यापक महोदय को उचित चेतावनी दे दी।
अब लकी के व्यवहार के पीछे की मूल वजह मुझे समझ आने लगी थी। मुझे यह भी पता चला कि वह आर्थिक रूप से पिछड़े घर का था, शायद यह भी उसके प्रति टीचर्स के उपेक्षापूर्ण व्यवहार का कारण था। लकी की बदतमीजी, लापरवाही और उदंडता शायद उसके कोमल मन के विद्रोह करने का एक तरीका था। मैंने अगले दिन क्लास में पढ़ाने की बजाय सभी बच्चों के साथ एक सहज संवाद करने का मन बनाया, जिसे सुनकर बच्चे भी खुश हो गए। बातों-बातों में ही मैंने बच्चों को मेहनत, लगन और पढ़ाई का महत्त्व, माता-पिता के उनके भविष्य को लेकर देखे गए सपने-चिंताएँ, आदि की बातें करने के अलावा अपनी बातें भी शेयर की। बच्चे भी उत्साहपूर्वक अपनी-अपनी बातें मुझे बता रहे थे। इन सबके बीच लकी जाने क्यों चुप बैठा था। पूछा तो बोला- मैम, मेरा दिमाग़ बहुत तेज़ नहीं है, मैं कहाँ कुछ बन पाऊँगा। मुझे हँसी आ गई- इतनी आसानी से इतनी बदमाशियाँ सोच लेते हो तो अक्ल की प्रॉब्लम नहीं है, लगन की प्रॉब्लम है। अगर दिल से कुछ करना चाहते हो तो थोड़ा तुम सब मेहनत करो, थोड़ा मैं मदद करूँगी। बाकी बच्चों के साथ शायद लकी को भी बात समझ में आ गई। उसके बाद हर पाठ को ध्यान से समझने-पढ़ने के साथ-साथ न केवल लकी के काम समय से पूरे होने लगे, बल्कि कहीं अटकने पर वह अक्सर खुलकर न केवल अपनी बात रखता, वरन् बाकी बच्चों की मदद भी करता। दो महीने बाद हुई परीक्षा में इसका सुखद परिणाम भी दिखा...किसी न किसी विषय में रह जाने वाला लकी हर विषय में न केवल पास था, बल्कि उसका प्रदर्शन पहले के मुकाबले बहुत बेहतर भी था।
इसी बीच नौकरी की छुरा-घोंपू राजनीति के चलते मेरा मन वैसे ही उचाट हो रहा था, तिसपर हफ्ते में छह दिनों वाली अपनी इस नौकरी में बाकी सभी बच्चों पर ध्यान देने के कारण कहीं न कहीं पाँच दिन के स्कूल वाला मेरा खुद का बेटा चुनमुन मेरी पूरी देखभाल से वंचित -सा हो रहा था। उसे मैं ही पढ़ाती थी, सो अक्सर बाकी बच्चों की पढ़ाई के प्रति मेरी ड्यूटी और चुनमुन के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी की रस्साकशी में मेरे अन्दर की माँ कुछ हारा-सा महसूस करने लगी थी।
आखिरकार एक माँ की जीत हुई और मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया। चुनमुन के साथ-साथ उन बच्चों की परीक्षाएँ भी शुरू हो चुकी थी, उनके प्रति भी मेरे कुछ नैतिक दायित्व थे। सो मैंने चुपचाप उनकी परीक्षा पूरी कराई, रिजल्ट तैयार किए और अपने बाकी के काम भी पूरे करके रख दिए। मज़े की बात यह कि वर्तमान सत्र की आखिरी ऑफिसियल मीटिंग में मात्र साढ़े तीन महीनों की नौकरी में ही मुझे सीनियर विंग में प्रमोशन दे दिया गया। पर मैं चुनमुन के प्रति अपने दायित्व-निर्वाह के लिए अपना मन बना चुकी थी। जैसे ही नए सत्र की घोषणा हुई, मैंने उन्हें अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया।
जिन बच्चों के साथ कितनी कुछ यादें बन गई थी, उनसे मिले बिना उस जगह को छोड़ना नहीं चाहती थी। सो आखिरी बार हर क्लास में गई। नवीं के बच्चे दसवीं में आ चुके थे, सो जब वहाँ पहुँची, बच्चों की ख़ुशी देखते ही बन रही थी। सबसे ज्यादा लकी चहक रहा था- मैम, अब आप सीनियर विंग में आ गई हैं न, आप प्लीज इस बार हमारी क्लास टीचर बन जाइए!
बच्चों की खुशी कम करते अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर जब मैंने उन्हें अपनी नौकरी छोड़ने की बात बताई, तो बाकी बच्चे तो शांत हो गए, पर लकी अचानक रो पड़ा- ऐसा मत कीजिए प्लीज...सिर्फ आप ही हैं जिन्होंने मुझे न मारा, न कुछ कहा। आप मुझे समझ गई, आपके जाने के बाद किसको अपनी बात बताऊँगा ? मेरी आँखें भी छलक पड़ी, पर खुद पर काबू पाकर बड़ी मुश्किल से उसे शांत कराया। चलते-चलते उसने अपना एक पेन ज़बरदस्ती मुझे दिया, यह कहकर कि इससे मैं कभी उसको भूलूँगी नहीं। क्या कहती उससे...? यही न कि माएँ भूला नहीं करतीं...।