बच्चे कल मिलेंगे / सूर्यबाला
पहली सुबह
मितुल सुबह-सुबह अपनी रेड-जेन में हमें एयरपोर्ट पहुंचा गई-
'उतरो! भई... टिकट, पासपोर्ट निकाल लीजिए अपने-अपने। पापा! मैं ट्रॉली लाती हूँ।'
डिकी खोलकर हमारे सूटकेस, शोल्डर-बैग्स, ट्रॉली में जमाए, फिर मेरे गाल ऐसे थपके जैसे वह नहीं, मैं उसकी बेटी हूं-'अच्छे से रहना तुम और पा... कोशिश करना कि तुम लोगों की वजह से वासवी और विभव का रूटीन डिस्टर्ब न हो। बहुत बिजी रहते हैं दोनों और अब तो बच्चियाँ भी बड़ी हो रही है... तो दोनों को, नहीं चारों को, मितुल दीदी और मितुल बुआ का नाम रटाती रहना बीच-बीच में। विभू से कहना, दीदी बहुत याद करती हैं, ओ.के.।'
फिर झट से कलाई में बंधी घड़ी देखने के बहाने (कि लेट हो रही है, ऑफिस के लिए) अपनी डबडबी आंखें छुपाती और मेरी आंखों से कतराती अपनी लाल उड़नखटोली में फुर्र हो गई.
प्लेन भी ठीक दो घंटे बाद अपने वक्त पर रन-वे पर दौड़ा, चिंघाड़ा और आसमान में टंग गया। मिनटों में पूरा शहर, बस्ती, धुंध में विलीन हो गए.
छोड़ना, छूटना, अपनी कहीं जाने वाली चीजों का, अपनी हवा-धूप और आसमान का, सांसें जिन हवाओं के बीच से अपनी राह बनाती हैं उसका, इतना कठिन क्यों होता है! ...
मेरे मन में कोई रेलमपेल नहीं है। है तो सिर्फ़ एक ठहरी हुई जड़ता। जहाँ जा रही हूँ, उसका उत्साह कम, जो छूट रहा है, उसकी कचोट ज्यादा।
कारण? प्रत्यक्ष कोई नहीं। ढूंढ़ने पर भी नहीं। वहाँ बच्चे हैं, सौतेले नहीं, मेरे अपने। मुझे बुलाने और सम्मान से रखने वाली सुविधाएँ यहाँ की सौगुनी, संपन्नता बेशुमार और आए दिनों की हजार खिचखिचों से छुट्टी. तब क्यों भाई?
जवाब कोई नहीं।
या शायद हम जवाबों से जबरन कतराते हैं क्योंकि वे पराएपन और बेगानेपन के अहसासों से जुड़ें होते हैं और हम उन्हें झटककर अपनी हवा, धूप वाली शर्तों से जोड़ना चाहते हैं। ...
अगला दिन
ब्रह्मांड का डांवांडोल यहीं से शुरू हो गया न! जिस तारीख को चले, उसी पर पहुंचे। सूरज पूरे बारह घंटे देर से जो यहाँ उगता है। अपने वाले समय से आधे दिन पीछे।
वासवी बहू का पहले से ज़्यादा सजा-संवरा शानदार बंगला। शांति अपने चरम पर। उसी शांत भव्यता में अपनी अगवानी करवाई और ठंडे दूध के साथ अपनी-अपनी गोलियाँ निगलकर सो रहे। मन न माना तो पूछ बैठी-बच्चे?
' सुबह स्कूल जाना होता है न, मम्मीजी, तो जगाये रखना ठीक नहीं होता। उनका टाइम से सोने जाना ज़रूरी रहता है।
बिलकुल। ...
अगली सुबह
चूक गई न। 'जेटलैग' के मारे हम जब तक उठे, बच्चियाँ स्कूल जा चुकी थीं। मन कचोटा। वासवी से कहना चाहा, बुला क्यों न लिया, हम तो जगे ही थे। इतने बड़े घर में सुराग ही नहीं लगता कि कौन कहाँ है?-वरना हम खुद न निकल आए होते... (या बच्चियाँ ही दादी-दादा के कमरे में झांक गई होतीं।)
वासवी कह रही थी-'मैंने सोचा, आप लोग सो रहे होगे। डिस्टर्ब करना ठीक नहीं। एनी वे, मैं निकलती हूँ मम्मीजी. विभव आज आधे घंटे लेट जाएंगे। आप और पापाजी ब्रेकफास्ट ले लीजिएगा। फ्रिज में ब्रेड, अंडे, दूध, चीज वगैरह सब हैं। बाहर सीरियल्स के जार भी, ओ.के.!'
फिर ठहरकर कहती है-'मैंने केका और मानू को बता दिया है, तुम लोगों के दादा-दादी आए हैं। उनके साथ आफ्टरनून बिताना... यू कैन हैव, लॉट्स ऑफ फन विद योर ग्रैंड पेरेंट्स...' और वासवी 'बाय' करती हुई निकल जाती है।
दोपहर
घर खाली झुनझुने-सा महसूस हो रहा है। दोपहर भर दरवाजे की आहटों पर कान लगाए बैठी रही। टी.वी. का रिमोट और सामने पड़ी 'न्यूजवीक' के पृष्ठ खुलते-बंद होते रहे।
मुझे पता है, यहाँ घर के लोग बेल नहीं बजाते, यूं ही दरवाजे का लैच घुमाकर अंदर आ जाया करते हैं। मैं दरवाजे की तरफ देखती बैठी हूँ। कहीं ऐसा न हो कि बच्चियाँ घर में घुसें और मैं नदारद। नहीं, बाथरूम थोड़ा रूककर ही जाऊंगी... अभी केका आयेगी। शायद खुद मेरे पास आने में शरमाये...
तभी खयाल आता है, वासवी डिश-वाशर आन करके गई थी। धुली क्रॉकरीज ही निकालकर लगा दूं। दरवाजे पर ध्यान लगाये रहूंगी...
अचानक हलकी-सी खुट् के साथ दरवाजा खुल गया। दरवाजा खुलने की आहट आती है और जब तक मैं भागकर दरवाजे तक आऊँ, केका ऊपर अपने कमरे तक जानेवाली सीढ़ियाँ चढ़ चुकी होती है।
मैं आवाज में ढेर सारी ममता उड़ेलकर कहती हूं-
'हाय केकाऽऽ'
तीन सीढ़ियों ऊपर से एक उदासीन-सी मद्धम आवाज आती है-
'हाय। ऽऽ'
' आयम... योर दादी बेटे...
याऽऽ, आय नो। '
केका का चेहरा सादे कागज-सा सपाट है।
मैं बेबस-सी उसकी ओर देखे जा रही हूँ।
केका अपने स्कूल बैग की ओर इशारा करती हुई कहती है-
'मैं... ऊपर' फ्रेशेन-अप'होने जा रही हूँ।'
'ओ.के. बेटे।' जाओ.
सीढ़ियाँ चढ़ती केका के चेहरे पर मैं दादी जैसी कोई इबारत ढूंढने की कोशिश करती हूँ। नहीं मिलती। हारी हुई-सी चुपचाप सोफे पर लौट आई हूँ।
उधेड़बुन जारी है। सुबह न चूकी होती, वासवी ने बुला लिया होता तो माता-पिता की उपस्थिति में बच्ची शायद खुलकर मिल पाती। मेरी भी हिचक टूटती। पिछली बार की तरह उसे गोदी में बिठा पाती। तब छह की थी, नौ की ही तो हुई है। लेकिन नौ की केका इतनी बड़ी कैसे लग रही है। पिछली बार का सब कुछ पूरी तरह भूल गई.
तब इससे दो वर्ष छोटी मानू को हम कैसे याद होंगे!
दूसरा सप्ताह
ठंड कम हुई है। घिरी शाम, वासवी ने बैकयार्ड में 'बारबी-क्यू' लगाया है। उसकी ग्रिल पर ब्रेड, पनीर, बर्गर सेंक रही है। विभव तंदूर जैसी अंगीठी में लकड़ियाँ डाल रहा है, जिससे ठंड से थोड़ी राहत मिले।
बच्चियाँ खुश-खुश अपनी तश्तरियों में पैटिस, पनीर के टुकड़े लिये खा रही हैं। अचानक विभव कहता है-हाँ ठीक, ठहरो मुझे यह महक बहुत पहचानी-सी लग रही है। एकदम ऐसी ही महक दिद्दा (दादी) के चूल्हे पर सिंकती रोटियाँ से भी आती थी न! '
हम मिनटों में, पैतीस सालों की दूरियाँ फलांग जाते हैं। हमें स्मृतियों के आर-पार पहुंचाता एक खूबसूरत पुल बन जाता है। विभव जब चाहे, इस पुल से गुजर सकता है। बिलकुल 'लक्ष्मण-झूले' की तरह।
अच्छा, केका और मानू के पास ऐसा कोई लक्ष्मण-झूला नहीं होगा न!
शायद इसीलिए वासवी और विभव, केका और मानू को बताते हैं हम जिस इंडिया से आए हैं न हम जिस इंडिया के हैं न, वहाँ ऐसी-ऐसी दीवाली ऐसे-ऐसे पटाखे, ऐेसे होली ऐसे गुलाल इतने फन, इतने एन्जॉयमेंट...
केका पिता की बात काटती, गंभीर आवाज में कहती है-
' डैड! लेकिन फायर (आग) से खेलना खतरनाक होता है न। इसी से तो यहाँ एलाउड नहीं है।
एक क्षण को विभव उसकी बात सुन कर अटपटाता है, फिर तत्काल संभाल ले जाता है-'अरे तो उसकी पूरी प्रिकॉशन ली जाती है न! ...सब लोग केयर फुली करते हैं... तुम्हें याद नहीं है केका? हम गए तो थे इंडिया—' ओऽऽ येस... जब मानू का स्टमक अपसेट हो गया था न! ' -स्टमक यहाँ भी तो अपसेट हो जा सकता है कभी-कभी... लेकिन याद करो, वहाँ हमने ताजमहल देखा था... और चारों तरफ कितने पीकॉक थे... -' इयाऽऽ राइट... मुझे ताजमहल और पीकॉक दोनों की याद है... रास्ते में एक बूढ़ा एलीफैंट भी था और ढेर सारे 'बग्स; और' फ्लाइस'भी... -' हां', विभव ने बग्स और फ्लाइज़ झटके से उड़ाते हुए कहा-' हम लोग तुम्हें फोर्ट दिखाने भी ले गए थे! ... -'बट वह फोर्ट बहुत गंदा था-ऐंड व्हाट वाज़ दैट यकी स्मेल? ... वह गंदी बदबू...' केका ने विभव का खिंचता चेहरा शायद लक्ष्य कर लिया था, इसलिए अपनी बात की सत्यता प्रमाणित करने के लिए दूसरा जरिया ढूंढा—' यू नो डैड! मेरी फ्रेंड ईशा भी बता रही थी कि जब वह लोग इंडिया में शॉपिंग कर रहे थे तो फुटपाथ पर काउडंग था और स्टेशन के प्लेटफार्म पर तीन-चार डॉगीज... ईशा ने ये भी बताया कि वह लोग जिस टेंपल में गए थे, वहाँ गॉड्स तो कम थे लेकिन मंकीज बहुत सारे थे-एक मंकी तो ईशा की मॉम का हैंडबैग ही छीन कर भाग रहा था। ... इट्स डैंजरस नो?
निरूत्तर विभव जब जबाब नहीं तलाश पाया तो वासवी मोर्चे पर डट गई थी-'क्यों? तुमने नेट पर नहीं देखा? वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी में लोग' मैंकाव' (रंगीन तोतों) को हनी नहीं खिलाते? ... उन्हें अपने कंधों पर नहीं बिठाते? हेलेन का डॉगी तो उस दिन तुम्हारी स्लीपर घसीट ले गया था।
पता नहीं, वासवी इंडिया का बचाव कर रही थी या हमारा। पर उसकी कोशिश के लिए उसे शाबासी देने का मन अवश्य हो आया था... कि तब तक छोटी मानू जो अब तक काउ, डॉगी, मंकी सुन-सुनकर बेसब्र हुई जा रही थी, खुश-खुश बोली—'क्या हम किसी फार्म-हाउस की बात कर रहे हैं? और क्या मेरी बुक की तरह ही इंडिया में मेरे ग्रैंड पा के भी फार्म-हाउस में' डॉगीज और 'काउज' के साथ-साथ 'पिग्स' के 'पिग्लेट्स' (सुअर के बच्चे) भी हैं? ...
विभव और वासवी अब तक बुरी तरह पस्त हो चुके थे।
फिर भी इंडिया को सुनाने और समझाने की कोशिशें जारी हैं। कभी-कभी हास्यास्पद सी. कभी कातर भी। ... मैं महसूस करती हूँ कि ऐसी हर कोशिश के दौरान 'इंडिया' बच्चियों की कल्पना में एक धुंध-सा घिरता और छंट जाता है। जैसे किसी दूर-दराज देश, इलाके की अजोबोगरीब सूचनाएँ हों।
तीसरा सप्ताह
आज वासवी का 'थीम' इंडियन मिठाइयाँ हैं। वह स्वाद के जोर से बच्चियों को ललचाना चाहती है। ओह! इंडिया में कितनी तरह की मिठाइयाँ होती हैं-लड्डू, रसगुल्ले, गुलाब जामुन! तुमने खाई तो है...
केका और मानू याद करने की कोशिश करती हैं और गरदन झटकाकर दोनों हाथों से गोला बनाती हैं, 'दैंट' बॉल'शेप स्वीट नो?'
वासवी उत्साहित होती है, 'हाँ, हाँ, वही... दादी को खूब सारी मिठाइयाँ बनानी आती हैं, तरह-तरह की... यमी स्वीट्स।'
छोटी मानू पलकें झपकाकर पूछती है, 'क्या इन्हें वह मिठाई भी बनानी आती है, जिसके किनारे स्पाइरल होते हैं।'
'अं? हां-हाँ गुझिया, गुझिया तो दादी बहुत अच्छी बनाती है।'
केका टोकती है, 'लेकिन मुझे सिर्फ़ डायमंड शेप काजू कतली पसंद है और वह तो बाज़ार से आती है।'
'नहीं, दादी वह भी बना सकती है... पूछो, बनाएंगी न तुम्हारे लिए? और जानती हो, गुझिया होली में बनाई जाती है, दादी को होली और प्रह्लाद की स्टोरी भी आती है।'
'स्टोरी?' दोनों एक साथ चहक पड़ती हैं।
'हाँ, हाँ बहुत सारी स्टोरीज' ... दादी सुनाएंगी तुम्हें... न दादी?
मुझे भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत' कहानी याद आ जाती है-जहाँ बूढ़ी माँ अपनी आंखें फोड़कर भी खुश-खुश बेटे के बॉस के लिए फुलकारी बनाने के लिए राजी हो जाती है। यह दादी भी काजू कूटेगी, कतली जमाएगी, गुझिया बनाएगी, कहानियाँ सुनाएगी। बच्चों को मनाने फुसलाने, रिझाने और लुभाने के लिए कोई कसर उठा नहीं रखेगी। लेकिन तब भी ये दादी कोई दावा नहीं कर सकती कि...
चौथा सप्ताह-
सुबह-सुबह केका का माथा सहलाते हुए मैंने कहा-
'हम नेक्स्ट वीक इंडिया वापस चले जाएंगे केका।'
उसने समझदारी से गरदन हिलाते हुए कहा-
'याऽ आय नो... मोस्टली गेस्ट लोग तो दो-तीन दिनों तक ही रूकते हैं और आप लोग तो...'
पास खड़ी छोटी मानू को अचानक याद आया। उसने तोतली इंग्लिश में बहन को टोका-'केका! फिर तो हमें दादी से हर रोज और-और ज़्यादा स्टोरीज सुन लेनी चाहिए न?'
केका ने उसी समझदारी से गर्दन हिलायी-
'हाँ, आपकी स्टोरीज खूब मजेदार होती हैं। मॉम और पा को ऐसी स्टोरीज नहीं आतीं। उनके पास सुनाने का टाइम भी नहीं। वी लाइक योर स्टोरीज।'
मैं खूशी से हलकोरती बरबस पूछ बैठती हूँ, 'अच्छा तुम्हें कौन-सी कहानी ज़्यादा अच्छी लगी?'
'बताऊँ, एक तो वह जो कृश्ना, पॉयजनस स्नेक के ऊपर खड़े होकर बांसुरी बजा रहे थे (डेंजरस वट ब्रेव...) और दूसरी, राम ने जो' डीमन'(राक्षस) रावण को मार गिराया वह वाली।'
अचानक मानू बोली, ' और केका! गैण्डी जी (गांधी) वाली भी तो... मैत्मा गैण्डी जी (महात्मा गांधीजी) ।
'हाँ, हाँ, ही वाज थ्रोन आउट ऑफ द फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट... एैंड ही टुक अ वाउ टू फ्री इंडिया फ्रॉम ब्रिटिशर्स..., नाइस स्टोरी... वी लाइक द स्टोरीज ऑफ इंडिया। आप नेक्सट टाइम जब आना तो और ज़्यादा स्टोरीज लेकर आना।' हमें स्टोरीज वाला इंडिया अच्छा लगता है।
मुझे अपना चेहरा जगमगाता हुआ प्रतीत हो रहा है। मेरी शिराओं में नए रक्त का संचार हो रहा है। जैसे मरीचिका में ठंडे जल की धारा प्रवाहित हो रही हो। बच्चियों का इंडिया का 'कुछ' अच्छा लगाता है। हाँ, मेरे पास अभी इंडिया की इतनी सारी, बहुत सारी कहानियाँ हैं, कभी न खत्म होने वाली... केका और मानू को सदियों-सदियों तक सुनाने के लिए. उन्हें इन कहानियों वाला इंडिया बहुत अच्छा लगता है, इसलिए.
अंतिम सप्ताह
इतवार की सुबह-
पिघली बर्फ वाली ड्राइव-वे के बीच से छोटी मानू, एक हाथ में ड्रॉइंग-बैग, दूसरे में विभव की उंगली पकड़े सुबक-सुबक कर रोती घर में दाखिल हुई. वासवी दौड़ी-क्या हुआ हनी? व्हाट हैपेंड टू यू? व्हाई क्राइंग बेबी? टैल मी।
मां से मिली सहानुभूति से रूलाई का वेग और तेज बढ़ाती मानू बड़ी मुश्किल से रोते-रोते बोल पाई-
आइऽऽ गॉऽऽट बोऽऽऽऽर्ड
बोर्ड...? ड्राइंग-क्लास में...? तुम तो ड्रॉइंग करना कितना इन्जॉय करती हो... मेरे मना करने पर भी ड्रॉइंग क्लास जाने की जिद्द करती हो... फिर आज क्या हो गया तुम्हें... कहीं मिस टीना टीचर ने सुजाता की पेंटिंग को वेरी गुड तो नहीं दे दिया?
मानू ना में गर्दन हिलाकर दुबारा हिचकिंया लेने लगीं।
परेशान वासवी दुबारा बाल सहलाते, आंसू पोछते, मानू को बहलाती पूछ रही थी-
अच्छा बताओ आज पेंट क्या कर रही थी तुम? जंगल? सूरज? बिल्ली या हम्टी डम्टी?
' नोऽऽ, द सेम सिली कृष्णाऽऽ... कितने दिनों से मिस टीना मुझसे वही पेंट करा रही हैं-उनके पीकॉक फीदर वाले ऑर्नामेंट को पेंट करते-करते मैं बोर हो गई. ... आयम बोर्ड ऑफ दिस सिली कृष्णाऽऽ।
वासवी एक क्षण को मुझे देखती हुई जल्दी से मानू को कहने लगती है-
ओह, नो हनी...चच्च... रोते नहीं बट यू नो, कृष्णा इस अवर गॉड नो-वह हमारे भगवान जी है... कोई बात नहीं, मैं मिस टीना से पूछ कर तुम्हारी कृष्णा वाली ड्राइंग पूरी करा दूंगी, ओके! ...
एक तरफ लगातार हारती जा रही वासवी मुझसे नजर नहीं मिला पा रही।
दूसरी तरफ सब कुछ हास्यस्पद होने पर भी हममें से कोई हंस भी नहीं पा रहा। ...