बच्चों को बनाना क्या है / मनोहर चमोली 'मनु'
मेरा बचपन का एक सहपाठी था। उसका नाम बुद्धिनाथ था। ये ओर बात है कि वह बुद्धि का प्रयोग कम ही किया करता था। अक्सर कक्षा में वे गुरूजनों द्वारा खूब पीटा जाता। जब वो रोता तो उसके काले-कलूटे चेहरे पर सफेद दांत खूब चमकते। दुर्बल काया के चलते उसे सहपाठी भी जमकर पीटते। कई बार मैंने भी उस पर अपनी दुलत्ती झाड़ी। मैंने उसे कई बार पिटने से बचाया, यही कारण था कि वो मेरी बात का बुरा न मानता। मुझे याद है कि कभी उसने कक्षा में किसी सवाल का जवाब नहीं दिया। कभी वह गृहकार्य करके नहीं लाया। उसकी कॉपी-पुस्तकें फटे-हाल रहतीं। उसकी कमीज के कॉलर में मैल की मोटी परत कभी नहीं छूटती थी।
जैसा अमूमन होता ही है। अधिकतर बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सहपाठी बिछड़ जाते हैं। मैं भी बुद्धिनाथ से बिछड़ गया। दरअसल वह फेल हो गया था। वो पीछे रह गया और मैं आगे निकल गया। मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए कानपुर चला गया था। मेहनत, संघर्ष और प्रतिस्पर्धा के चलते मुझे बाबू की नौकरी मिल गई थी। एक अदद बीवी और तीन बच्चों के साथ मैं महानगर में रह रहा था। किराए के मकान में जैसे-तैसे अपना गुजर-बसर कर रहा था। तीसरे बच्चे का चूड़ाकर्म संस्कार करवाया गया। बीवी एक पंडित को बुला लाई। मुझे वो पंडित कम और महाजन ज्यादा लग रहा था। उनकी तोंद एक घड़े से कम न थी। पण्डित जी जब चल रहे थे, तो उनकी तोंद गेंद की तरह हिल रही थी। उनकी मूंछें चमकदार थी। जो संकेत दे रही थी कि वो अभी-अभी मलाईदार या मक्खनयुक्त नाश्ता तोंद के हवाले कर चुके हैं।
पंडितजी का माथा और सिर एक हो गया था। उनका सिर एक चिकने कटोरे के रूप में दीखने लगा था। अलबत्ता कानों के ऊपर पुराने ब्रुशनुमा बाल चिपके हुए थे। उन चंद बालों से खुशबूदार तेल की महक आ रही थी। पंडितजी के दोनों हाथों की आठ अंगुलियों में कुल जमा तेरह अंगूठियां चमक रही थी। गले में सोने की भारी-भरकम चेन चमक रही थी। जो कढ़ाईदार कुर्ते के कालर से बाहर निकली हुई थी। हाथ की दोनों कलाईयों में चांदी के कढ़े पहने हुए थे। पंडितजी के सामने के दो दांत सोने के थे। जबड़ा खुलते ही जो चमक रहे थे।
चूड़ाकर्म संस्कार के दौरान पंडितजी बार-बार मुझे घूर रहे थे। मुझे शक हुआ। सब कुछ समाप्त होने पर मैंने
उनसे पूछा, ’’आपका परिचय?’’
’’मेरा नाम बुद्धिनाथ है। मुझे लगता है कि हम एक-दूसरे को जानते हैं।’’ पंडितजी ने अपने सोने के दांत दिखाते हुए कहा। पण्डित जी की हंसी पर चमकते दांत मुझे बचपन के बुद्धिनाथ की याद तो दिला ही रहे थे। फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। फिर पता चल ही गया कि पंडितजी और कोई नहीं, मेरे बचपन का सहपाठी ही है। एक दुबली-पतली काया में ऐसा बदलाव देखकर मैं हैरान था। दस-पंद्रह वर्षों के अंतराल में एक असहाय-सा छात्र बड़े परिवर्तन के साथ खुद को स्थापित कर सकता है। ये मैंने बुद्धिनाथ को देखकर ही जाना। बीवी ने बताया था कि आमतौर पर चूड़ाकर्म संस्कार में पंडितजी ग्यारह सौ रुपये, दो जोड़ी कुर्ता, दस किलों सूखे मेवे, एक टोकरी फल और एक किलो घी तो लेते ही हैं। जब मैंने पंडित जी को लिफाफा पकड़ाना चाहा तो उन्होंने लेने से इन्कार कर दिया। जाते हुए अपना विजिटिंग कार्ड मुझे दिया। मुझे अपने घर आने का न्यौता भी दिया। मेरे घर का फोन नंबर लेते हुए अपना मोबाईल नंबर दिया।
वैश्वीकरण तेजी से समाज को बदल रहा है। समाज के सरोकार भी तेजी से बदल रहे हैं। नए रोजगारों का सृजन हो रहा है। पारंपरिक रोजगार समाप्त हो रहे हैं। कुछ बुद्धिपरक कार्य ऐसे हैं जो आज भी बदस्तूर चले आ रहे हैं। पहले ये बुद्धिपरक कार्य सम्मान और जनकल्याण के माने जाते थे। आज वही जनकल्याण के क्षेत्र कईयों के पेट पाल रहे हैं। आज यह क्षेत्र रोजगारपरक माने जाते हैं।
बुद्धिनाथ भी बुद्धिपरक कार्य कर रहा है। मैं अपने आप से कह रहा था, ’’इन बुद्धिपरक कार्यों में पंडिताई का कार्य खूब फल-फूल रहा है। इस क्षेत्र में धन, मान और सम्मान भी बहुत है। आज के दौर में कमोबेश सभी बीमार पड़ते हैं। पर पंडित नहीं। बुद्धिनाथ को देखकर तो ऐसा ही लगता है। दूसरे शब्दों में इस क्षेत्र में सेहत भी औसत से अच्छी हो ही जाती है।’’
मैं चिन्ता में घुला जा रहा था। मन ही नहीं माना। बुद्धिनाथ से मिलकर मेरी बैचेनी बढ़ गई थी। मैं उसके ठाट-बाट से हैरान तो था ही। अब उसे और नजदीक से देखना चाहता था। दो दिन बाद ही बीवी मुझसे बोली,’’क्यों जी, क्या अपने सहपाठी का न्योता स्वीकारने के लिए कोई मुहूर्त निकलवाओगे ?’’
अब तो मैंने बुद्धिनाथ के घर जाने का मन बना ही लिया। सो दिए गए विज़िटिंग कार्ड के आधार पर मैं बुद्धिनाथ से मिलने चल दिया। बुद्धिनाथ पॉश कालोनी में रहता था। कॉलोनी में घुसते ही मैंने एक आदमी से बुद्धिनाथ का पता पूछा। वह मुझे बुद्धिनाथ के घर के तक छोड़ आया। बुद्धिनाथ की नेमप्लेट एक आलीशान कोठी पर जड़ी थी। अत्याधुनिक घंटी बजी। दरवाजा किसी नौकर ने खोला। मुझे ससम्मान बिठाया गया। विशेष महक से बैठक सराबोर थी। बुद्धिनाथ ने प्रवेश किया। मुझसे लिपटते हुए वह बोला,’’अचानक आ गए। मुझे कह दिया होता। मैं गाड़ी भिजवा देता।’’
मैं चुप ही रहा। मेरी आंखें, नाक, कान तो सारी स्थितियों पर नज़र रखे हुए थी। मसलन घर में कैसा वातावरण है। क्या-क्या जुटाया गया है। बहरहाल बुद्धिनाथ के पास वह सब कुछ था, जो किसी धनवान के पास होता ही है। बातचीत से पता चला कि बुद्धिनाथ को कोठी दान में मिली है। कॉलोनी के मंदिर का चढ़ावा घर में ही आ जाता है। हर रोज कालोनी में कोई न कोई धार्मिक अनुष्ठान करवाता रहता है। दान करने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
पंडितजी ने मेरी खूब आवाभगत की। चार प्रकार की सब्जियां बनी थी। पनीर, छोले और रायता भी था। व्यंजन शुद्ध घी के छोंके से सराबोर थे। काफी देर के बाद मैंने चलने की अनुमति चाही। विदाई पर मुझे एक बड़े टोकरे में नाना प्रकार के फल, दो हाण्डियों में घी और मेरे तीनों बच्चों के लिए कपड़े दिये गए। नौकर साथ में आया। ड्राईवर ने मुझे मेरे घर तक ससम्मान छोड़ा।
घर तक पंहुचने से पहले मैं न जाने क्या-क्या सोचता रहा। मसलन कि पंडिताई का धंधा चोखा है। हर रोज चढ़ावे के फलों से घर भरा रहता है। दान में अनाज, घी, कपड़े, नकद और जेवर तक मिलते हैं। सम्मान तो मिलता ही है। रहने-खाने की व्यवस्था भी हो ही जाती है। तीज-त्यौहार और उत्सव-समारोह में पारितोषिक अलग से मिलता है।
घर में बीवी को सब कुछ बताया, तो वह जल-भुन गई। कहने लगी, ’’तुम्हारी अक्ल भैंस चरने गई थी क्या? तुम्हें किसने बाबू बनने की सलाह दी थी। तुम भी पंडिताई करते। कान खोल कर सुन लो। मेरे दोनों बेटे पंडिताई ही करेंगे। ये अच्छा काम है। तुम्हारे सहपाठी ने तुम्हें सीख दे दी है। जिंदगी में कभी इतना मान-सम्मान तुम्हें कभी कोई न देगा। तुम जिंदगी भर कुछ भी कर लो। दो जून की रोटी के अलावा हमें कुछ न दे पाओगे। मैं नहीं चाहती कि जिस तरह मैं जिंदगी भर तरसती रहूंगी, उसी तरह मेरे बच्चे भी तरसे, यह मुझसे बर्दाश्त न होगा। ’’
पत्नी को मैं समझा नहीं पाया कि आखिर उसमें और मुझमें क्या अंतर था। बचपन का वो अंतर न जाने कहां खो गया। मैं खुद को कोस रहा था और बुद्धिनाथ की प्रगति से मन ही मन खीज रहा था।