बजरंग पांडे के पाड़े / हरि भटनागर

Gadya Kosh से
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बजरंग पांडे की भैंसों के जब पाड़े हुए तब बजरंग पांडे ज़रा भी दुखी या विचलित नहीं हुए। अमूमन लोग पाड़ों को पसंद नहीं करते। पाड़ी होती है, तो फलती है, वंश बढ़ता है। पाड़े भार जैसे होते हैं। लेकिन बजरंग पांडे के दिमाग़ में ये बातें नहीं आईं। वे खुश हुए और उन्‍होंने ऐलान-सा किया कि ये पाड़े उनकी अपनी संतान जैसे हैं। उन्‍हें वे भैंसों जैसा ही पालेंगे और ऐसा जबरजंग बनाएंगे कि देखनेवाले देखते रह जाएं।

बजरंग पांडे ने जैसा ऐलान किया, वैसा किया। पाड़ों की उन्‍होंने संतान जैसी सेवा की। और बड़े होकर दोनों पाड़े ऐसे जबरजंग निकले कि देखने वाले देखते रह गए।

एक पाड़े का नाम उन्‍होंने चंदुआ रखा। उसके माथे पर चांद जैसी सफेदी थी। नाम उन्‍हें जंच गया था। दूसरे का नाम भोला। भोला बहुत ही सीधा था। चंदुआ उधमी। धींगामुश्‍ती उसे ज्‍़यादा रास आती। हरा चारा, खली, चूनी दो तो शौक से खाता, किसी काम से लगाओ तो धम्‍म से बैठ जाता। बजरंग उससे दुखी थे। भोला से भारी प्रसन्‍न। भोला उनके इशारे पर दौड़ता था।

बजरंग औसत दर्जे के किसान हैं। खाने भर का अन्‍न रखते, बाक़ी बेच आते। उनके पास बहुत ही सुंदर बैलों की जोड़ी थी। दुर्भाग्‍य था कि उसमें से एक कुएं में गिरा और दूसरा जंगल में उल्‍टा-सीधा सा आया। हफ्‍ते भर में दोनों चटक गए। बजरंग पांडे उधार की बैलगाड़ी से अपना काम चलाते।

दोनों पाड़े जब काम लायक हुए तो बजरंग ने एक पाड़ागाड़ी बनवाई। भोला तो उसमें अच्‍छे से नध गया लेकिन चंदुआ जैसे न नधने की क़सम खाए बैठा था। वह न प्‍यार से नधा और न मार से। चूँकि भोला से उनका काम चल जाता था, इसलिए उन्‍होंने उसे छुट्‌टा छोड़ दिया। मार उसकी चाहत का मेहनताना था। वह खुश था और भैसों के पीछे दौड़ता जबकि भोला एक दूसरी ही दुनिया से वाकि़फ़ हो रहा था।

भोला बजरंग पांडे के साथ हफ्‍़ते में एक बार जरूर शहर जाता। शहर बहुत दूर न था। रात में खा-पी के चलो तो पौ फटने तक ठिकाने पर लग जाओ। गांव से मुख्‍य सड़क तक का रास्‍ता कच्‍चा और औंधक-नीचा था। उसके बाद तो ऐसा लगता जैसे आईनेदार सड़क पर चल रहे हों। भोला को मुख्‍य सड़क तक आने में भारी दिक्‍़क़त उठानी पड़ती। लगता कि बजरंग पांडे, पाड़ागाड़ी और वह खुद अलग-अलग दिशाओं में पटखनी न खा जाएं। उसे हर पग पर ऐसा लगता। लेकिन हर बार आफ़त से बच जाता। मुख्‍य सड़क तक आते ही वह खुशी से भर उठता। उसके गले में पीतल की सुंदर-सी घंटी थी जो हरदम टुनटुनाती रहती। आईनेदार सड़क पर उसके बजने का एक अलग ही संगीत था जिसे सिर्फ भोला ही समझता। पाड़ागाड़ी के पीछे लालटेन लटकी होती जिसकी रोशनी में अपनी छाया को वह दूर तक जाता देखता। छाया कभी पेड़ों पर चढ़ जाती, कभी खेतों में पसर जाती और तरह-तरह के रूप धारण करती। दूधिया रोशनी का रह-रह सैलाब छोड़तीं, आगे-पीछे से शोर करती गाडि़याँ आतीं और जातीं। भोला उनसे तनिक भी न घबराता। सधे क़दमों से किनारे-किनारे चलता रहता। रह-रह कर उसे दूर सड़क पर दो जोड़ी अंगार नज़र आते। लेकिन जैसे ही गाड़ी पास आती, ये अंगार बैलों की आंखों में, तब्‍दील हो जाते।

दो-चार बार आने-जाने में भोला शहर का सारा ठौर-ठिकाना समझ गया। बजरंग पांडे गांव से मुख्‍य सड़क पर उसे ला देते और थोड़ी देर में पगही हाथों में लिए पीछे सरक जाते। भोला जानता है कि बजरंग निंदिया रहे हैं। वह मुस्‍तैदी से चलता। पहिए की चर्र-चूं इस तरह आलाप लेते, लगता गांव की जर्जर बुढि़या, परमेश्‍वरी अपने झोपड़े में पोते को सुलाने के लिए लोरी गा रही है। लोरी में वह कहती कि हे लाल, तू सो जा। देख, आंगन में चांदनी सो गई है, पलंग पर रानी, आसमान में तारे सो गए हैं। और बांसुरी में उसकी धुन। भोला को लगता कि वह, पहिए और उसकी घंटी मिल कर लोरी गा रहे हैं। यही वजह है कि बजरंग पांडे थोड़ी देर में सो जाते।

अचानक पक्षी चहचहा उठते। वह देखता, दूर पेड़ों के पीछे पौ फट रही होती। ठंडी-ठंडी हवा आ रही होती। झीना उजास झड़ता होता। बजरंग पांडे तभी जागकर ज़ोरों से खांसते हुए आगे आ बैठते। पीठ पर हाथ फेर उसे चुमकारते। पूंछ झटक कर वह हुंकार छोड़ पुचकार का जवाब देता।

भोला ने अपने सारे अनुभव एक दिन जब चंटुआ को सुनाए तो उसका मन शहर देखने को ललच उठा। लेकिन संकट था। मन की बात कहे कैसे। भोला अंदर ही अंदर हंसेगा। अचानक एक युक्ति सूझी। वह भोला के पास आया। बोला - मैं तुम्‍हारी तरह काम करना चाहता हूँ।

भोला को अपने कान पर य़कीन नहीं हो रहा था। बोला -क्‍या? गाड़ी में नधना चाहते हो?

- हां यार! गांव में दिन भर घूमते रहने से जी उकता गया है। शहर जाएंगे, काम करेंगे, कुछ मनबहलाव होगा।

भोला हँसा।

चंदुआ कड़क हो आया-तू हँस क्‍यों रहा है? इसमें मेरी कोई शरारत दीख रही है क्‍या?

- नहीं, ऐसे ही हँसी आ गई - भोला बोला।

- देख, तू चाहे हँसी कर या निंदा, मैंने सच बात तुझे बता दी।

- ठीक है। - मैं बजरंग पांडे से कह दूँगा।

बजरंग पांडे ने जब यह बात सुनी तो उन्‍हें इस पर भरोसा नहीं हो रहा था। लेकिन जब चंदुआ को पाड़ागाड़ी के पीछे खड़ा देखा तो उन्‍हें इंतहा खुशी हुई। उन्‍होंने चंदुआ को गले से लगा लिया और थपथपा डाला।

रात में जब पाड़ागाड़ी चली तो चंदुआ, पीछे बंधी नाथ की रस्‍सी के सहारे आगे बढ़ा।

औंधक-नीचे रास्‍ते, गाड़ी का ओलार और सीधा होना उसे बहुत ही अच्‍छा लगा। अंधेरी रात, घंटी की टुनटुन, पहियों का गाना गाना, गाडि़यों का शोर करते हुए आना-जाना-सब उसके लिए अजूबे थे और उसे स्‍फूर्ति से भर रहे थे। लेकिन जब पौ फट रही थी और वह शहर में दाखिल हो रहा था, एक घटन घट गई।

हुआ यह कि पाड़ागाड़ी के पीछे-पीछे चले आ रहे चंदुआ को शहर के एक उजड्‌ड साँड़ ने देख लिया। उसे पता नहीं क्‍या सूझा, ज़ोर-ज़ोर से डौंकने लगा। डौंकने की उसकी आवाज़ पर उसका एक संगी पता नहीं कहां से उसके पास आ गया। अब दोनों डौंक रहे थे और फुँफकारते हुए सीगें चला रहे थे। थोड़ी देर में दोनों साँड़ पाड़ागाड़ी के क़रीब थे और बजरंग पांडे जब तक सँभलते, एक साँड़ ने चंदुआ के आगे ऐसी सींग भंजी कि चंदुआ धूल चाट गया। जब तक बजरंग पांडे लट्‌ठ ले दौड़ते तब तक दोनों साड़ों ने चंदुआ को सींगों से बुरी तरह रगेद डाला। और दूर खड़े हो डौंकने लगे जैसे कह रहे हों कि हमारे एरिया में गुंडई। देखते हैं कैसे करते हो !!!

चंदुआ ध्‍वस्‍त पड़ा था जैसे शरीर का सत्त्‍व खिंच गया हो। नाथी खिंच जाने की वजह से नाक से बेतरह खून बह रहा था। सींगों की मार से बदन जगह-जगह चिथ गया था।

उस दिन बजरंग पांडे काफ़ी दुखी थे। लेकिन चंदुआ प्रसन्‍न। इस घटना से शहर देखने की उसकी इच्‍छा तो तार-तार हो गई। मगर एक बात सध गई थी। आवारा होने की वजह से बजरंग अक्‍सर उसे निकाल देने की धमकी दिया करते थे। उस दिन उन्‍होंने मरहम-पट्‌टी करते हुए उसे कभी न बेचने की काली माई की क़सम खाई। उस वक्त़ भी नहीं जब भारी विपदा में हों और हाथ तंग।

लेकिन दुर्भाग्‍य का क्‍या करेंगे, वह आता है तो रुकता नहीं। इस बार वह बजरंग पांडे के बच्‍चे की बीमारी बन कर आया। बजरंग पांडे के दस वर्षीय बेटे, राधे को पहले मियादी बुखार था जो बिगड़ कर मोतीझरा में तब्‍दील हो गया था। यह ऐसा समय था जब चंदुआ को लग गया कि उसे बेच दिया जाएगा क्‍योंकि बजरंग के हाथ तंग थे। पिछली खेती सूखे से चौपट हो गई थी। उधारी पर किसी तरह काम चल रहा था। बच्‍चे की बीमारी ने रहा-सहा कचूमर अलग निकाल दिया।

चंदुआ रंज में था।

घर में उसे बेच देने की बातें ज़रूर थीं; लेकिन एक दिक्‍़क़त भी थी। बजरंग पांडे ने उसे कभी न बेचने की काली माई की क़सम खाई थी। कहीं ऐसा न हो, क़सम तोड़ने पर, काली माई का कोप भुगतना पड़े। सो घोर संकट था।

चंदुआ इसी बिंदु के सहारे राहत महसूस कर रहा था। बावजूद इसके प्राण अधर में अटके थे। कहीं बजरंग पांडे ने कसम तोड़ दी तो! तब तो वह कहीं का न रहेगा। रात भर वह काफ़ी दुखी रहा। सबेरे नज़ारा ही कुछ और था! और वह दंग!

भोला बजरंग पांडे के पास आया, बोला-मुझे बेच दो या किसनू साहू के यहाँ गिरवी रख दो। जब पैसा हो, छुड़वा लेना। किसी तरह राधे भैया का इलाज तो हो।

बजरंग पांडे रुआंसे हो आए। उन्‍होंने उसे गले लगा लिया। बेमन से उन्‍होंने भोला की बात मान ली और किसनू साहू के यहाँ गिरवी रख दिया।

दोपहर को जब बजरंग पांडे राधे को इक्‍के पर बैठा, शहर रवाना हुए, चंदुआ की खुशी का छिकाना न था।

चार-छे रोज़ खुशी के बीते होंगे कि शहर से लौटे गांव के एक किसान ने खुबर दी कि राधे की तबियत पहले से ज्‍़यादा बिगड़ गई है। बजरंग के पास पैसे नहीं हैं। एक-आध दिन में वे चंदुआ को बेचने के लिए आने वाले हैं।

चंदुआ को काटो तो खून नहीं। वह भूसा खा रहा था, अधूरा छोड़ दिया। दूसरे दिन सबेरे और शाम को उसने पानी तक नहीं छुआ। रंज में डूबा रहा।

राधे की बड़ी बहन, सांवली ने उसे इस रूप में देखा तो पास आकर उसके गले पर हाथ फेरती बोली- काहे रोता है! राधे भैया ठीक हो जाएंगे।

अब वह कैसे कहे कि उसे राधे का नहीं, अपने बिकने का रंज है। वह आंखों से आंसू ढरकाता रहा। सांवली ने गुड़ की भेली दी तो उसने उस तरफ़ देखा तक नहीं।

वह उस सूनी राह की तरफ़ आंखें टिकाए रहा, जिस पर से होकर राधे शहर गया था और उसी से होकर आएगा। वह इंतज़ार में था।

दूसरे दिन बजरंग पांडे आए। बजरंग पांडे के साथ दो-तीन किसान थे जो बातें करते हुए चंदुआ को तिरछी निगाहों से देख रहे थे। उनमें से एक किसान चंदुआ के पास आया और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा। हाथ फेरने के ढंग से यकायक चंदुआ के प्राण हलक में आ गए-वह तो क़साई है! कभी वह सींग पर उंगलियां बजाता, कभी पीठ पर अंगूठा धँसाता जैसे वजन माप रहा हो। यकायक उसने उसका मुँह पकड़ा और मजबूत पंजों से खोला। होंठ भींच कर उसने दांत गिने। दांत गिनते वक्त उसकी उससे आंखें मिलीं। उसकी आंखें लाल थीं। यह तो बड़ा ज़ालिम क़साई है तभी ऐसी हरकत कर रहा है। चंदुआ ने यह सोचा तभी उस किसान ने उसका मुंह छोड़ दिया और वह बजरंग पांडे के पास चला गया। माची पर बैठ गया। उनमें बातें होने लगीं। वह कान लगाए था और बातों का मर्म निकालना चाह रहा था। लेकिन बातें समझ में नहीं आ रही थीं। आखिर में एक किसान ने कहा कि मैं पैसा दे दूंगा सूद पर, लिखा-पढ़ी करवा लो। दरअसल चंदुआ को बेचने की बात न थी। वह किसान तो यूँ ही उसके डील-डौल की जाँच कर रहा था। चंदुआ की जान में जान आई। बावजूद इसके उसने दाना-पानी न छुआ और तभी छुआ जब राधे शहर से ठीक होकर घर आ गया।

सांवली ने जब बताया कि राधे की बीमारी पर चंदुआ ने दाना-पानी तज दिया था, रंज में था और तभी कुछ खाया-पिया जब वह ठीक होकर घर आया। सबकी निगाहों में चंदुआ का क़द बढ़ गया। बजरंग पांडे और उनकी घरवाली उसे देर रात तक स्‍नेह से थपथपाते रहे।

राधे ने उपहार स्‍वरूप उसके गले में मोर पंख के साथ एक नई घंटी बांधी जिसकी ध्‍वनि बहुत ही मधुर थी।

चंदुआ के लिए यह एक सुनहला अवसर था। उसने अपने पांव जमाने के लिए एक ऐसी युक्ति निकाली जिससे कि वह कभी उखड़ नहीं सकता था। उसने राधे को पटा लिया। अपनी पीठ पर बैठा कर वह उसे सैर कराता। नदी पार कराता और तालाब। राधे घर का दुलरुवा था, भला कोई क्‍यों उसकी बात काटे, और उसका जी दुखाए।

चंदुआ अब पूरी तरह निश्‍फिकर था।

क्‍वांर में बजरंग पांडे भोला को लेने किसनू साहू के घर गए। भोला के नाम पर उसने बजरंग पांडे को जो जवाब दिया, वह कलेजातोड़ था। उसने कहा कि भोला को तो उसने कर्रे नोटों से खुरीदा था न कि गिरवी रखा था। इसलिए फिजूल की बातें नहीं होनी चाहिए। हम व्‍यापारी हैं और व्‍यापार के ईमान से राई भर भी इधर-उधर न होते हैं और न किसी को होने दें!

बजरंग पांडे हत्‌प्रभ थे। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। थोड़ी देर में उन्‍हें गुस्‍सा आया तो उन्‍होंने थाने में डलवा देने की धमकी दी। इस पर किसनू ने सहज हो कहा कि कलेजा हो तो यह भी करके देख ले। बजरंग पांडे दौड़ते हुए थाने गए और अपना दुख-दर्द बयान किया तो थानेदार ने दो-चार रोज़ बाद आने को कहा क्‍योंकि इस वक्त़ उसे साहब के बंगले पर जाना था।

थाने से बजरंग पांडे निराश लौटे, तभी उनका ध्‍यान सरपंच किशोरीदास पर गया जिनके बारे में ख्‍यात था कि हर किसी मजलूम की मदद करते हैं। लेकिन सरपंच इस वक्त भोजन करके उधारी चारपाई पर सिर के नीचे गमछा रखे औंघा रहे थे, बोले- क्‍या तुम पाड़ा-पाड़ी का रोना ले आए! कोई और बात हो तो बताओ। अभी किसनू को खैंच के रख दें।

बजरंग समझ गए कि सब किसनू के बिके हुए हैं, इसलिए फरियाद के लिए किसी और के पास नहीं गए। न थाने में और न कोर्ट-कचहरी और न जनता के बीच। खून का घूंट पीकर अपनी खाट पर पड़ गये।

भोला अगर किसनू साहू के पास ही होता तो उन्‍हें सब्र हो जाता कि चलो यहाँ अपने घर में न सही, थोड़ी दूर पर, किसनू साहू के यहाँ बंधा है, कम से कम गांव में तो है! दुखद यह था कि किसनू ने कचरा ढोने के लिए उसे नगर-पालिका के हाथों बेच दिया था।

पास में खड़ा चंदुआ जबरदस्‍त गुस्‍से में था। उसका मन हुआ कि जाकर किसनू साहू को ज़मीन पर पटक कर चीथ डाले। इस ख्‍़याल से वह किसनू साहू के घर गया। आगे बढ़ा, लेकिन घर के सामने खाट पर बैठे उसके लठैतों को देख, वह निराश लौट आया।

उस दिन बजरंग पांडे के घर के सभी सदस्‍य मौत जैसे सन्‍नाटे में डूबे थे। बजरंग रात भर पाड़ागाड़ी पकड़े सिसकते रहे और चंदुआ उनके पीछे खड़ा, उन पर गर्म सांसें छोड़ता, उन्‍हें ढाढ़स-सी देता रहा।

भोला के हाथ से निकलने के बाद बजरंग पांडे उदास रहने लगे। लगता जैसे किसी प्रिय का निधन हो गया हो। चंदुआ किसी काम का न था। लेकिन उसके करतब दिल को लुभाते थे। बावजूद इसके बजरंग उससे खुश न थे। पर यह बात किसी से कहते न थे।

लेकिन यही चंदुआ उनकी ही नहीं वरन्‌ पूरे गांव की नाक ऊँची कर देगा-उन्‍हें इसका तनिक भी गुमान न था।

हुआ यह था कि शहर में पशु-मेला लगा था जिसमें जनपद के पशुओं का हुजूम था। पाड़ों में बजरंग पांडे के चंदुआ को अच्‍छी डील-डौल और श्रेष्‍ठ नस्‍ल के लिए प्रथम पुरस्‍कार मिला था। साथ में बीस हज़ार रुपये की नकद राशि।

चंदुआ की चारों तरफ़ जै-जैकार थी। जिसे देखो वही चंदुआ को देखने चला आ रहा था। सुंदर-सी चांदनी के नीचे चंदुआ की सींगों में रंग-बिरंगे फुलरे सुशेभित थे। पीठ पर सुनहरे गोट की रेशमी चादर थी। पैरों में घुंघरू। उसका रूप देखते बनता था।

चंदुआ रुआब में तना था जैसे कह रहा हो कि सब मुझे निठल्‍ला और भार मानते थे, अब कहो मैं क्‍या हूँ !!!

उस दिन चंदुआ को ट्रक से शहर ले जाया गया। वहाँ वह नस्‍ल सुधारेगा। उसका मुख्‍य काम अब यही था।

गांव के औंधक-नीचे रास्‍ते से निकलकर ट्रक आईनेदार सड़क पर तेजी से दौड़ने लगा।

ट्रक जब चला था, उस वक्त सुबह की हल्‍की पीली धूप फैली थी और ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। एक घंटा ही बीता होगा, ठंडी हवा गर्म लपट में बदल गई थी। पीली धूप उजली होकर आग बनती जा रही थी।

चंदुआ पहली बार ट्रक में खड़ा था और उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि उड़ा चला जा रहा हो। आजू-बाजू बजरंग पांडे और राधे थे। स्‍नेह से उस पर हाथ फेरते जा रहे थे।

चंदुआ का प्‍यास से हलक सूख रहा था। ठंडा पानी पीने का मन हो रहा था।

बजरंग पांडे ने चंदुआ के मन की बात जैसे भांप ली, कहा-बस थोड़ा सबर करो, शहर आ गया है, मवेशी बाज़ार में पानी पीएंगे।

थोड़ी देर बाद, धूल और भीड़ भरे चक्‍करदार रास्‍ते-बाज़ार पार करता ट्रक, मवेशी-बाज़ार के एक कोने में नीम के नीचे छांव में खड़ा था। जानवरों का हल्‍ला मचा हुआ था। जैसे प्‍यास से बेहाल हों और बेचे जाने के लिए दुखी। नीम के पेड़ के पास ही चौड़ी जगत का विशालकाय कुआँ था जिसमें एक भी गड़ारी न थी। लोग डोर और रस्‍सी से बंधे लोटे और बाल्‍टी को कुएं में ढील रहे थे।

चुंदुआ को ट्रक से उतारा गया। बजरंग पांडे ने उसके आगे ठंडे पानी से भरी बाल्‍टी रखी। वह पानी सोख ही रहा था तभी किसी को ज़ोरों से हन-हन के डंडे से पीटे जाने की आवाज आई। हड़बड़ाकर उसने बाल्‍टी से मुंह निकाला और सामने देखा-एक निहायत ही मरियल किस्‍म का आदमी था, जो सिर पर गंदा-सा चादरा लपेटे था और बदन में फटा-सा कुर्ता, नंगे पैर था, एक हडि़यल से पाडे़ को डंडे से बेतरह पीट रहा था। आदमी का चेहरा पकी-अधपकी बेतरतीब दाढ़ी-मूंछ में खोया था जिसके बीच वह दांत पीसता जाता। वह पाड़े को रस्‍सी से खींचकर आगे ले जाना चाहता था। किन्‍तु पाड़ा था कि टस से मस नहीं हो रहा था। डंडे की मार से पाडे़ की पीठ पर डंडे की सफ़ेद लकीरें थीं जिनमें जगह-जगह खुून छलछला रहा था। पाड़े के मुंह से झाग छूट रहा था। और वह कातर-सा सामने देखता हाँफता-सा कांप रहा था। उसकी नाथ की रस्‍सी आदमी के हाथ में थी।

यकायक वह आदमी ज़ोरों से चीखा। पता नहीं क्‍या सोचकर उसने नाथ की रस्‍सी ज़मीन पर छोड़ दी और पाड़े के पीछे आया। उसने पाड़े की पूंछ पकड़ी और कसकर मरोड़ी और शरीर का पूरा ज़ोर लगाकर हथेलियों से उसे धक्‍का दिया ताकि पाड़ा कुछ तो टसके लेकिन पाढ़ा ज़रा न टसका।

आदमी हांफ गया और असहाय-सा इधर-उधर देखने लगा। यकायक आगे आकर उसने नाथ की रस्‍सी पकड़ी, ज़ोरों से खींची और दांत पीसकर ज़ोर ज़ोर से ठुनकी देने लगा। इस पर भी जब पाड़ा बाज न आया, वह ताबड़तोड़ उसके शरीर पर लट्‌ठ बरसाने लगा। लट्‌ठ बरसाते-बरसाते वह थक गया। हाफ गया। लट्‌ठ उसने ज़मीन पर फेंक दिया। गाली बकता हुआ वह धीरे-धीरे चलता कुएं की जगत पर जा बैठा जैसे सुस्‍ताकर फिर मारने-पीटने और किसी तरह ठीहे तक ले जाने की नई योजना बना रहा हो।

आदमी के इस व्‍यवहार पर चंदुआ को ग़ुस्‍सा आया। नथुने फूल गए। जानवर है तो क्‍या हुआ। इतनी बेरमी से पीटने की क्‍या ज़रूरत है। सोचता चंदुआ धीरे-धीरे चलता पाड़े तक पहुँचा जैसे सांत्‍वना देना चाहता हो।

पाड़े को देखते ही वह सन्‍न रह गया। यह तो अपना भोला है! इसकी क्‍या से क्‍या गत हो गई !!!

वह कुछ बोलता, इस बीच वह आदमी दौड़ा आया और भोला को भद्दी गाली देता लट्‌ठ चमकाता चीखा-तुझे तो कटना है, हरामखोर! चाहे क़साईखाने में कट, चाहे यहाँ!!

चंदुआ की आँखों के सामने अंधेरा छा गया।