बज्जिका लोकगीतों में छठ / हरिनारायण सिंह 'हरि'
भारत का अतीत गौरवशाली रहा है और इस गौरवशाली इतिहास में बिहार का प्रमुख स्थान रहा है। इस बिहार में भी बज्जिकांचल अपनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों और विशेषताओं के कारण श्रद्धा कि दृष्टि से देखा जाता रहा है। यहाँ भगवान महावीर ने जन्म लिया और भगवान बुद्ध को भी यह क्षेत्र परमप्रिय था। विश्व में सर्वप्रथम राज्य-व्यवस्था यहीं जन्मी, फूली और फली।
लोकगीत जनसामान्य की मनोभावनाओं, यथा-हर्ष, उत्साह, दुःख-दैन्य आदि को उजागर करने का माध्यम है। यह सदैव अपने क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक चेतना से परिचय करवाता है और साथ ही उसे सजीव बनाये रखने में बड़ी भूमिका निभाता है। वैसे तो लोकगीत मुख्य रूप से संस्कार-गीत है, किन्तु बज्जिका लोकगीत संस्कार, पर्व-त्योहार, ऋतु, शृंगार और नृत्य जैसे सभी इन्द्रधनुषी रंगों में मिलते हैं।
कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को बिहार के अन्य अंचलों की तरह बज्जिकांचल में भी लोक आस्था का महापर्व छठ मनाया जाता है। इस पर्व में भगवान भास्कर के साथ-साथ छठी मइया कि भी पूजा होती है। शायद यह एकमात्र पर्व है, जिसमें उदीयमान एवं अस्ताचलगामी-दोनों ही स्थितियों के सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यह पर्व दो दिन पूर्व से ही प्रारंभ हो जाता है। चतुर्थी को विवाहित महिलाएँ व्रत का आरंभ करती हैं। इसे 'नहाय-खाय' कहते हैं। पंचमी को वे व्रत रखती हैं और भरदिन उपवास करके शाम में छठी मइया के पूजनोपरांत वे खीर-रोटी का प्रसाद ग्रहण करतीं हैं। इसको 'खरना' कहते हैं। षष्ठी की शाम को वे किसी नदी या तालाब के किनारे जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी भगवान सूर्य को अर्घ्य देती हैं। पुनः कल, सप्तमी को उगते हुए भगवान भास्कर को अर्घ्य दिया जाता है। इस पर्व में मुख्यतः केला, ठकुआ, नारियल और मौसमी फलों से सूर्य की उपासना कि जाती है।
भविष्य पुराण में इस व्रत का उल्लेख करते हुए कहा गया है—
" कार्तिकस्य सिते पक्षे षष्ठी वै सप्तमीयुता।
तत्र व्रतं प्रकुर्वीत सर्वकामार्थसिद्धये॥"
अर्थात् कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सप्तमीयुक्त होने पर सारी कामनाओं (मनोरथों) की सिद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है।
बज्जिका लोकगीतों में छठ-गीत अपना विशेष स्थान रखता है। एक गीत में वर्णन है कि बेटा केला लाने के लिए जा रहा है। केला दूर से लाना है। पुत्र सुकुमार है, कमजोर है। मां कहती है, "पुत्र, केला लाने इतनी दूर कैसे जाओगे? एक तो तुम दुबले-पतले हो, उसपर कमजोर भी हो। तुम अग्नि की घाट (दिन की गर्मी) को कैसे झेल पाओगे?"
पुत्र कहता है, " मां, तुम्हारे लिए जो अग्नि का घाट है, वह मेरे लिए शीतल वातास (ठंढी हवा) है।
" केरबा लाबे जयबऽ हो बबुआ
जयबऽ बड़ी हो दूर
एक तऽ पातर हो बबुआ, दोसरे सुकुमार
कइसे के सहबऽ हो बबुआ अगिनिया केरा हो
धाह!
तोरा लेखा हऊ गे अम्मा, अगिनिया केरा हो धाह
हमरा लेखा हई गे अम्मा, सीतल हो बतास! "
भाई अयोध्या (परदेश) जा रहा है। बहन वहाँ से छठ व्रत के लिए सूप, नारियल वगैरह लाने के लिए कहती है। भाई कहता है, "हे बहन! इस समय सूप और नारियल महंगा हो गया है, इसलिए यह व्रत छोड़ दो, मत करो।"
तो बहन उत्तर देती है, "हो भइया, मैं छठी मइया का व्रत कैसे छोड़ूं? इसी छठी मइया ने मुझे भतीजा दिया है, उन्हीं की कृपा से मेरी मांग में सिन्दूर चमक रहा है और मेरी गोद में बालक खेल रहा है। सूप, नारियल आदि नहीं होगा, तो पान-फूल से ही छठी मइया का व्रत कर लूंगी।"
दैन्य और दारिद्र्य के बीच ऐसी आस्था!
" तू तऽ जे जाइछऽ हो भइया अजोध्या नगरिया
हमरा ला लइहऽ हो भइया, सूपवा सनेसवा
नारियल सनेसवा
हमहू करछिअइ हो भइया, छठी मइया के बरतिया
अइसन समइया गे बहिनी, सूपवा भेलइ महंगिया
नारियल भेलइ महंगिया
छोरी दही आ गे बहिनी, छठी मइया के बरतिया। "
" हम कइसे छोरिअइ हो भइया, छठी माई के बरतिया
जोन छठी देलथिन हो भइया, भाई से भतीजवा
ऐहे छठी देलथिन हो भइया, चुटकीभर सेनुरबा
ऐहे छठी देलथिन हो भइया, गोदी में बलकबा
पाने-फूले करबइ हो भइया, छठी माई के बरतिया! "
एक दूसरा गीत देखिए, जिसमें व्रती नारी का पुत्र पीली धोती पहने, माथे पर प्रसाद का दउरा लिए नदी के किनारे जा रहा है—
" हे ललना, कौने साई के डांर में पीअर धोती
माथे पर दउरा शोभे हे
ललना, सुजीत साई (पुत्र का नाम) के डांर में
पीअर धोती
माथे पर दउरा शोभे हे
हे ललना, कौने देई (देवी) के गोदी में बलकबा
तऽ छठी बरत शोभे हे
हे ललना, कनिया देई (देवी) के गोदी में बलकबा
तऽ छठी के बरत शोभे हे! "
एक और छठ का लोकगीत है, जिसमें छठी मइया का मानकीकरण किया गया है। उनका गौना (द्विरागमन) हुआ है। उन्हें दहेज में जो कुछ मिला है, उसका कैसा सजीव चित्रण है—
" ऊ जे छठी मइया अयलन गओना से
उनका कथी मिललन दहेज? " आदि
सप्तमी के दिन व्रती सवेरे से सूर्य का अर्घ्य लिये उनके उदित होने की प्रतीक्षा कर रही हैं। किन्तु भगवान भास्कर देर से उदित हुए। व्रती कहती है—"हे सूर्यदेव! सब दिन तो आप प्रातःकाल उगते थे, आज दोपहर क्यों हो गया? सब व्रती महिलाएँ कब से हाथ जोड़े आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। भगवान सूर्य जवाब देते हैं—" हम तो आ रहे थे, किन्तु रास्ते में एक अंधा मिल गया / निर्धन मिल गया / कोढ़ी मिल गया और मिल गयी बांझ स्त्री। मैं उन्हीं को आँख देने लगा, धन देने लगा, कोढ़ी को काया देने लगा और बांझ को पुत्र देने लगा, इसीमें में मुझे देर हो गयी।
इस छठगीत का यह अर्थ निकलता है कि सूर्यदेव का व्रत करने से अंधा आंखवाला, निर्धन धनवाला, , कोढ़ी नीरोग और बांझ स्त्री पुत्रवती हो जाती है।
इस प्रकार इन छठगीतों में आम आदमी की संवेदनाएँ, आशा-आकांक्षाएँ और उनकी आस्थाएँ मुखरित हुई हैं। कुल मिलाकर इन लोकगीतों की बदौलत बज्जिकांचल की संस्कृति जीवंत और अक्षुण्ण रही हैं।