बज्रमूर्ख / प्रताप नारायण मिश्र
यह पदवी बहुधा उन लोगों को दी जाती है जो पढ़ने के नाम काला अक्षर भैंस बराबर समझते हैं, बरंच बुद्धि से काम लें तो इतना और समझ सकते हैं कि भैंस इतनी बड़ी होती है कि जी में धरे तो हजारों लाखों काले अक्षरवाली पोथियों को घड़ी भर में रौंद-रौद अथवा चबा के फेंक दे और अक्षरों का घमंड रखने वाले पोथाधारी जी को एक हुसलेंड में मिट्टी में न मिला दे तो अधमरा जरूर कर डाले। यदि गुणों की तुलना की जाए तो भैंस घास खाती है और दूध देती है जिसका सेवन करने से स्वादु का स्वादु मिलता है, बल का बल बढ़ता है पर अक्षरों के सीखने वाले बरसों परिश्रम करते-करते दुबले हो जाते हैं , गुरू महाराज की बातें कुबातें और मार सहते-सहते मरदई का दावा खो बैठते हैं तथा जन्म भर पूजा पाठ करने, कथा बरता बाँचने वा नौकरी चाकरी के लिए भटकते रहने के सिवा और किसी काम के नहीं रहते। फिर भला हमारी प्यारी भैंस की बराबरी मच्छर ऐसे अच्छर पच्छर क्या कर सकेंगे!
ऐसे लोगों को विश्वास होता है कि बहुत पढ़ने से मनई बैलाय जाता है! पढ़े लिखे ते लरिका मेहरा हो जात है! हमका पढ़ि कै का पंडिताई करै का है? हमरी जाति माँ पढ़बु फलतै नाहीं ना! ऐसे को विद्वानों और बुद्धिमानों के पास बैठने तथा उनके कथोपकथन सुनने समझने आदि का समय एक तो मिलता ही नहीं है और यदि मिले भी तो पंडितराज अथवा बाबू साहब को क्या पड़ी है कि अपने अमूल्य बिचार इनके सामने प्रगट करके अंधे के आगे रोवैं अपने दीदे खोवैं।
उपदेश करना तो दूर रहा इनके मोंगरी के से कूटै मोटे ताजे अनगढ़ शरीर और बस्त्राभरण के नाते एक छोटी-सी मोटे कपड़े की मैली अथवा हिरमिजी से रँगी हुई धोती और लंबा-सा मोटा लट्ठ देखकर तथा बात-बात में सार ससुर इत्यादि शब्दों का संपुट पाठ सुनकर प्रीतिपूर्ण बातें तक करना वे अपनी शान के बईद समझते हैं। किंतु बिचार कर देखिए तो यह लोग मूर्ख भी नहीं कहे जा सकते बज्रमूर्ख तो कहाँ रहता है, क्योंकि अपने खेती किसानी आदि के काम पूरे परिश्रम और धैर्य के साथ करते हैं, यथा लाभ संतोष सुख का सच्चा उदाहरण बने रहते हैं। अपनी दशा के अनुसार कालक्षेप और अपनी जाति की रीति भाँति का निर्वाह तथा सजातीय मान्य पुरुषों का यथोचित सम्मान करने में चूकते नहीं है, जिससे व्यवहार रखते हैं उसकी यथासाध्य एक कौड़ी तक रख लेने का मानस नहीं रखते। राजा और राजपुरुषों के गुण दोषों की समालोचना न करके उनकी आज्ञा पालन करने में चाहे जैसा कष्ट और हानि सहनी पड़े कभी मुँह नहीं मोड़ते बरंच शिकायत का हर्फ भी जबान पर बहुत कम लाते हैं। मन का मसूसा मन ही मन में मारे हुए "राजा करे सो न्याव है" इस बचन को वेदवाक्य से समझते रहते हैं।
जिससे मित्रता करते हैं वा जिसे शरण देते हैं उसके रक्षणार्थ अपने मरने जीने की चिंता नहीं रखते। जिन बातों को धर्म समझते हैं उनमें पूर्ण रूप से दृढ़ रहते हैं। जो बात उनकी समझ में अच्छी जँचा दीजिए कैसे तन मन धन प्रान पन से कटिबद्ध हो जाते हैं। फिर यह मूर्ख क्यों हैं? पढ़े नहीं हैं तो न सही पर अपना भला बुरा समझने और देश काल के अनुसार चलने में किसी पढुआ से कम नहीं बरुक सैकड़ों कपटी, कामी, चोर और उलटी समझ वाले विद्याभिमानियों से हजार दजे अच्छे हैं। अत: इन्हें मूर्ख कहै सो मूर्ख। देशोद्धार के लिए जो बातें वस्तुत: परमावश्यक हैं वे यदि इनके मध्य प्रचार की जाए तो वह फल निकले जो शहर के लाला भैयों को शिक्षा देते देते सात जन्म नहीं निकल सकता।
हमारे इस वाक्य में जिसे संदेह हो वह स्वयं परीक्षा कर देखे। फिर देख लेगा कि यह कदापि मूर्ख नहीं है। मूर्ख, बरंच बज्रमूर्ख, वास्तव में वह हैं जिन्होंने बरसों बड़ी-बड़ी किताबें रटते-रटते मास्टर का दिमाग, बाप की कमाई और अपना बालविनोद स्वाहा कर दिया है और नाम के आगे पीछे ए.बी.सी.डी; भर का छोटा व बड़ा पुछल्ला लगवा लिया है, पर परिणाम यह दिखलाया है कि हिंदी का अक्षर नहीं जानते, पर इतना अवश्य जानते हैं कि वेदशास्त्र पुराणादि का वाहियात, जंगली असभ्यों के गीत, झूठी कहानी हैं। ईश्वर धर्म एवं परलोक सब बेवकूफों की गढ़ंत हैं। अथवा कुछ हैं भी तो कब? जब कोई यूरोप अमेरिका के महात्मा श्री मुख से आज्ञा करें तब। क्योंकि हिंदुस्तान तो अगले जमाने में बनमानुसों की बस्ती थी और अब भी हाफ सिबिलाइज्ड मुल्क है, इसमें मानने लायक मजेदार बातें कहाँ?
भोजन देखिए तो सात समुद्र पार से आया हुआ, महीनों का सड़ा हुआ, जाति कुजाति का छुआ हुआ, जुठे बरतनों में रक्खा हुआ, खज्ज अखज्ज सो तो चौगुन दामों पर भी सस्ता और स्वादिष्ट है परंतु खीर, पूरी, लड्डू, कचौड़ी, रबड़ी, रायता आदि शायद मुँह से छू जाएँ तो पेट फाड़ डालें। ताजा मांस अच्छी तरह घी और मसाला देकर घर बनाया जाए तो बुरा न बनेगा पर सड़े हुए मछलियों के अचार का मजा सा कहाँ। अंगूर, मुनक्का आदि का आयुर्वेद की रीति के अनुसार खींचा हुवा आसव नशे में भी अच्छा होगा और पुष्टिकारक भी होगा। किंतु वह टेस्ट कहाँ जो खानसामा की दी हुई, साहब बहादुर के द्वारा प्रसादी की हुई, साढ़े तीन रुपए की बोतल भर ली हुई सोने की सी रँगी हुई ब्रांडी में मिलता है।
परमेश्वर केन साहब का भला करे जिन्होंने यह छूत मिटाने पर कमर कसी है। नहीं तो मनु, पराशर, व्यास, बालमीकि आदि जंगलियों को कौन सुनने वाला था। यह कौन देखने वाला था कि यही सभ्यता की जनमघुटी, धन, बल, धर्म, प्रतिष्ठा, लज्जा बरंच प्राण तक की हरनेहारी है। भेष की ओर दृष्टि कीजिए तो बाजे-बाजे अँगरेज तो कभी-कभी मुरादाबादी चारखाना और भागलपुरी टसर भी पहन लेते हैं। पर हमारे जेंटिलमेन के शिर पाँव तक एक तार भी देशी सूत का निकल आवै तो क्या मजाल। कोट, बूट, पतलून, घड़ी, छड़ी, लंप, कुरसी, मेज जो देखो सो विलायती। देशी केवल चेहरे का रंग मात्र, उसमें भी विलायती साबुन और चुरुट की बू भरी हुई। केवल नाम से हारे हैं बिचारे। बाप ने किसी देवता का दास, प्रसादादि बना दिया है, सो भी जहाँ तक हो सकता है वहाँ तक बिधु भूषण को B.B और देवदत्त को D.D इत्यादि बना के अपने ढंग का कर लेते हैं। कहाँ तक कहिए, दिमाग में विलायती हवा यहाँ तक समाई है कि कठिन रोगों को शीघ्र आराम करने वाली थोड़े दाम की आजमाई हुई दवा तक नापसंद, पर देश सुधारने का बीड़ा उठाए हुए हैं, सो भी किस रीति से, जाति पाँति का भेद मिटा के, देवता पितरों की पूजा हटा के सनातनाचार को रसातल पहुँचा के, पुरुषों का धर्म कर्म और स्त्रियों की लाज शर्म धूल में मिला के, प्रजा का स्वत्व हर के, राजकर्मचारियों को रुष्ट करके, सचमुच किसी काम के न होने पर भी नामवरी पर मर के, भारत की आरत दशा गारत करेंगे। क्यों नहीं कुल्हिया की ऐनक लगा के मट्टी के तेल की रोशनी में महीन अक्षरों की किताबें पढ़ते-पढ़ते निगाह तेज हो गई है, इससे सूझती बहुत दूर की है! और समुद्र पार जाते-जाते बुद्धि में कुछ-कुछ हनोमान जी के स्वाभाविक लक्षण आ गए हैं, अकस्मात् सोचते हैं तो वही सोचते हैं जिसके द्वारा आर्य देश के प्राचीन रंग ढंग का लेश न रह जाए। जहाँ तक दृष्टि पहुँचे नई चाल ढाल वाली नई ही सृष्टि दिखलाई दे।
भला उस दशा में उन्नति क्या धूल होगी? हाँ काले रंग वाले साहब लोग बढ़ जायेंगे। उसी को चाहे इंडिया का प्रोग्रेस कह लीजिए, पर है वास्तव में सत्यानाश की जड़। किंतु यार लोग उसी के सोचने में लगे हुए हैं। इसी से हम नहीं जानते कि बज्रमूर्ख के सिवा इन्हें किस नाम से पुकारें। इनसे छोटे और दिहाती कुपड्ढ़ों से बड़े हमारे वह भाई हैं जिन्हें बिलायती हवा अभी नहीं लगी। काल की गति के देखे कुछ आर्यत्व की श्रद्धा बनी हुई है। नई बातों से चौंकते हैं, पुराने ढर्रे पर यथा शक्ति चले जाते हैं। पर आँखें खोलकर देखिए तो वह भी ऐसे ही हैं कि सारी रामायण सुन डाली, पर यह न जाना कि राम राक्षस थे कि रावण राक्षस थे।
रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत इत्यादि निसन्देह ऐसे ग्रंथ हैं कि उनमें हमें धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक, राजनीतिक सभी प्रकार के उपदेश प्राप्त हो सकते हैं। उनमें से यदि हम दास पाँच बातों का भी दृढ़तापूर्वक अनुसरण करें तो लोक में सुख, सुयश एवं परलोक में सुगति के भागी हो सकते हैं और हमारे पूर्वजों ने इसी मनसा से इनके सुनने सुनाने की प्रथा चलाई थी कि जो लोग संस्कृत भली भाँति नहीं समझते अथवा काम धंधों के मारे पुस्तकावलोकन का समय नहीं पाते, वे कभी-कभी वा नित्य-नित्य घंटे आध घंटे इन सदग्रंथों को सुना करेंगे तो कुछ न कुछ 'लोक लाहु परलोक निबाहू' के योग्य बने रहेंगे। पर आजकल देश के अभाग्य से इनके सुनने वाले यदि सुन नहीं डालने अर्थात् सुन के डाल नहीं देते तो भी इतना ही सुन लेते हैं कि आज के लड़के दशरथ थे, उनके बेटे राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न थे। रामचंद्र जी का ब्याह जनक जी की कन्या सीता जी से हुआ था। उन्हें दश शिर वाला रावण हर ले गया, तब रामजी ने सुग्रीवादि बंदरों की सेना के साथ समुद्र में पुल बाँध के लंगा पर चढ़ाई की और रावण को मार के जानकी छीन लाए। बस, बोलो सियावर रामचंद्र की जय!
बसदेव जी के पुत्र श्री कृष्णचंद्र थे। उन्होंने लड़कपन में नंद बाबा के यहाँ पल के गौएँ चराई थीं। गोपियों से बिहार किया था। गोबर्द्धन पर्वत उठाया था। फिर मथुरा आ के मामा कंस को मार के उसके पिता उग्रसेन को राज्य दिया था। फिर जरासंघ से भाग के द्धारिका बसाई थी। सोलह हजार एक सौ आठ ब्याह किए थे। बहुत से राक्षसों को मारा था। अपनी बुआ के लड़के युधिष्ठिरादि को उनके चचेरे भाई दुर्योधनादि से उबारा था। फिर एक बहेलिए के बाण से परम धाम को चले गए। बस, बोलो नंदनंदन बिहारी की जय!
जो इनसे भी बड़े श्रोता हैं, जिन्होंने कई बार कथा सुनी है, वे इतनी जानकारी पर मरे धरे हैं वा हिंदू धर्म की नाम बचाए हैं अथवा बैकुंठ में घर बनाए बैठे है कि 'हँसे राम सीता तन हेरी' यों कहे? लछिमन केती के काहे न हेरेनि? 'जो सत संकर करैं सहाई। तदपि हतौं रघुवीर दुहाई' लछिमन जी यो कहेनि तौ कैसे कहेनि? अक्रूर के बाप का नाँव रहै? राधा जी ब्याही केहेका रहैं? हाय री बुद्धि!
क्या बालमीकि और व्यासादि लोकोपकारी महात्माओं ने वर्षों परिश्रम करके यह दिव्य ग्रंथ केवल कहानी की भाँति सुन भागने के और आपस में बैठ के कनपटिहाव करने के लिए बनाए थे? यदि यों ही है तो अलिफलैला के किस्से क्या बुरे हैं जिनसे अवकाश का समय भी कट जाता है और किसी धर्म के किसी मान्य पात्र की हँसी भी नहीं होती? किंतु हमारे बक्ता श्रोताओं ने हमारे परम देव कृष्णादि की यह प्रतिष्ठा बढ़ा रक्खी है कि मिशन स्कूल के लौंडे तक उनके चरित्रों पर हँस देने का साहस कर बैठते हैं और भगतजी को जवाब नहीं सूझता।
वही यदि भगवान रामचंद्र जी की गुरुभक्ति, महाराज दशरथ जी की धार्मिकता, लक्ष्मण और भरत जी की भ्रातृभक्ति, सीता जी की पतिभक्ति, कौशल्या जी का धैर्य, श्रीकृष्ण भगवान की कार्यकुशलता, श्रीगोपी जन की प्रेमदृढ़ता, यशोदा मैया का बात्सल्यभाव, कर्ण का दानबीरत्व, भीष्मपिताह का धीरत्व, बशिष्ठ विश्वामित्रादि के सदुपदेश, रावण कंसादि की उद्दंडता इत्यादि पर ध्यान देते जो उक्त ग्रथों में पूर्ण रूप से दर्शाई गई हैं और भलाई बुराई की पराकाष्ठा दिखलाने को अद्वितीय दिव्य दर्पण के समान दिव्यमान हैं, उन्हें मन की आँखों से केवल देख भी लेते तो क्या हमारी भीतरी तथा बाहरी दशा ऐसी ही बनी रहती जैसी आज दिन देखने में आती है? कदापि नहीं! मनु भगवान की आशा है कि - "श्रुत्वा धर्मविजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्। श्रुत्वा ज्ञानमवानोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात।।" और इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि रामायण भागवत तथा भारत से बढ़ के सुनने योग्य पदार्थ अथच वास्तविक सnन्मार्ग प्रदर्शक दिव्यदीपो न भूतो न भविष्यति। पर कोई सुने तब न! सुनने वाले तो केवल कहानी सुनते हैं।
हाँ, गीत और योगवासिष्ठादि सुनने वाले भगवतादि के श्रोताओं की अपेक्षा कुछ अधिक मनोयोग से सुनते हैं। पर सुन के समझते क्या हैं? अह्मब्रह्मास्मि ! वाह! घंटे भर खाने को न मिले तो आँखें बैठ जाएँ, एक पैसे का नुकसान होता हो तो सारी गंगा पैर जाएँ, कानिस्टिबिल की डाँट में मुँह से तमाखू गिर पड़े, पर आप ब्रह्म हैं! निर्विकार, निराकार, अकर्ता, अभोक्ता ब्रह्म हैं! बेशक ब्रह्म है क्योंकि 'खं ब्रह्म' वेद में लिखा है और आप भी आकाश की भाँति शून्य हृदय हैं, फिर ब्रह्म होने में क्या संदेह! ऐसा न होता तो इतना अवश्य सोचते कि वशिष्ठ जी ने श्रीरामचंद्र को और श्रीकृष्णचंद्र जी ने अर्जुन को वह उपदेश उस समय दिए थे जब उन्हें सामयिक कर्तव्यपालन से विमुख देखा था। तात्पर्य यह है कि जिस समय जो काम जिसे अवश्य करणीय हो उस समय वह उसे अवश्यमेव करना चाहिए। पर आप अपने देश, जाति, गृह, कुटुंबादी की दशा देखने और सुधारने के अवसर पर अकर्ता अभोक्ता बनते हैं, फिर क्यों न कहिए कि आप ब्रह्म अर्थात् जड़ हैं जिसका प्रजाए ब्रजमूर्ख भी है! और आप ही के भाई (अरे राम! ब्रह्म के भाई भगिनी आदि कहाँ? सो सही पर देख भाई तौ भी) वह हैं जो दूसरे भाइयों में जातिपक्ष, जातीय गौरव, आत्महितादि दिव्य गुण एवं तज्जनित मधुर फल प्रत्यक्ष देखते हैं तौ भी सीखने के नाम नहीं लेते। एक माड़वारी भाई पर, परमेश्वर न करे कोई आपदा आ पड़े तो सब कोई छूँ-छूँ कर-कर काँव-भाँव कर करा के जैसे बने वैसे सँभाल लें, पर कोई पश्चिमोत्तर देशी किसी दैहिक, दैविक, भौतिक दुरवस्था में फँसा हो तो उसके स्वदेशी 'बहते को बहि जान दे दे धक्के दुई और वाला मंत्र यदि न पढ़ैं तद्यपि इतना अवश्य कहेंगे 'भाई हम क्या करें? जो जस करै तो तस फल चाखा'।
कायस्थ भाई अपने विद्याहीन धनहीन सजाती को मुंशी जी, दीवान जी इत्यादि कह के पुकारेंगे। बंगाली भाई अपने देशवासी को चटरजी महाशाय, बनुरजी महाशाय कहेंगे। पर हमारे हिंदू दास अपने लोगों को यदि मिसि या सुकुलवा आदि न बनावैंगे तो भी गंगाप्रसाद को गंगू काका और मूलचंद को मल्लू दादा की पदवी दिए बिना न मानेंगे। एक तमाखू वाले अथवा बिसाती की दुकान पर जा के देखिए तो छोटे ऐ एक दरे में दस पाँच चिलमों, दो तीन मिट्टी के पिंडों और थोड़ी सी खानी पीनी तमाखू तथा पंद्रह बीस दियासलाई बकसों, सूत की लटाइयों आदि के सिवा अधिक बिभूति न देख पड़ेगी।
बेचने वाला भी फटी मैली सुथनिया वा नील का अंगौछा पहिने बैठा होगा, पर साइनबोर्ड पढ़िए तो 'शेख हाजी मुहम्मद कल्लन तंबाकू फरोश' अवश्य लिखा पाइएगा किंतु उसके पड़ोस ही किसी बनिया राम की दुकान पर दृष्टि कीजिए तो भीतर कम से कम पाव भर केसर, सेर भर छोटी इलायती, पसेरी भर कपूर निकलेगा जो तंबाकू और सूई पेचक से दसगुने बिसगुने दामों का है पर नाम वाली तखती पर 'छक्कू वल्द भग्गी पसारी' किसी मेले ठेले वा नाच वाच में इन छक्कू और उन कल्लपन को कोई तो लाख विश्वा यह जानेगा कि वह कोई अमीर, रईस, नव्वाब के संबंधी हैं और यह कोई डंडिदार वा पल्लेदार होगा!
यही नही कि अपनी और अपनायत वालों की प्रतिष्ठा ही करने में बछिया के बाबा हों, नहीं, अपने तथा आत्मीयों की स्वास्थ्य रक्षा में भी प्रक्षाचक्षु हैं। स्त्री के पास गहना दो चार सौ का होगा, पर उसकी थाली पर घी शायद पोंछे पाछे धेला पैसार भर निकल आवै। लड़के के ब्याह में कम से कम सौ रुपए की आतशबाजी फुँकेगी पर उसी को कोई रोग हो जाए तो बैद्यराज वही बुलाए जाँगे जो दवा देते रहें, दोनों बखत ती जाए करैं पर भेंट और दाम माँगने के समय काका बाबा इत्यादि शब्दों ही से संतुष्ट हो जाएँ। ऐसे ही ऐसे लक्षणों से घर भर के लोग हजार हजार हाथी का बल रखते हैं और शिर में पीड़ा होती है तौ भी खैराती असपताल को दौड़ते हैं। पर यदि कोई दूसरा मनुष्य अपने रोग की कथा कहै तो भी झट सोंठ, मिर्च, पीपर बतला देंगे और अश्विनीकुमार की भाँति आशीर्वाद दे देंगे कि-बस तीन दिन में आराम हो जाएँगे।
भला इस प्रकार के आचरण, ओ अपना पराया दोनों का सत्यानाश करने में रामबाण हैं, जिन लोगों की नस-नस में भर रहे हों उन्हें कौन बज्रमूर्ख न कहेगा? यदि यह बज्रमूर्ख न हों तो हम बीसौ विश्वा बज्रमूर्ख हैं जो ऐसों के लिए हाव-हाव करते हैं जिन्हें हमारी बातें बज्रमूर्ख की बकवास का सा मजा भी नहीं देतीं! अथवा कौन जाने वह बज्रमूर्ख हो जिसने हमें ऐसी सनक से भर दिया है!