बड़की दी का यक्ष प्रश्न / दयानंद पाण्डेय
बस अभी हिचकोले ही खा रही थी कि अन्नू ने मुझे अपनी सीट पर बुलाया। मैं अभी अपनी सीट से उठी ही थी कि बस एक स्पीड ब्रेकर पर भड़भड़ कर गुजरने लगी। मैं गिरते-गिरते बची। अन्नू की सीट पर जा कर बैठी तो वह बोला, ‘हियरिंग एड लगा लीजिए।’ मैं ने उसे बताया कि, ‘लगा रखा है।’ तो वह बोला, ‘बड़की बुआ से मिलेंगी?’ इस बीच बस किसी ट्रक को ओवरटेक करने लगी। ओवरटेक और तेज हार्न के बीच अन्नू की आवाज गुम सी गई। उस ने बात फिर दुहराई, ‘बड़की बुआ से मिलेंगी?’ उस ने अपना मुंह मेरे कान के पास ला कर और जोर से कहा, ‘उन का कस्बा बस आने ही वाला है।’
मैं ने सहमति में सिर हिला दिया।
बड़की दी हम दस भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थी और सात बहनों में सब से बड़ी। भाई बहनों में मैं सब से छोटी थी। मैं अब कोई पचास की थी और बड़की दी कोई ‘पचहत्तर’ की। घर में वह बड़की थी और मैं छोटकी। इस तरह हमारे उस के बीच उम्र का कोई पचीस बरस का फासला था। पर विडंबना यह थी कि मेरे पैदा होने के पहले ही बड़की दी विधवा भी हो चुकी थी। बाल विवाह का अभिशाप वह भुगत रही थी। उस का दांपत्य जीवन बमुश्किल दो ढाई बरस का ही था। पेट में पलता एक जीव छोड़ कर जीजा जी हैजे की भेंट चढ़ गए। बड़की की जिंदगी उजड़ गई थी। वह तब सोलह सतरह की ही थी। उस के एक बेटी हुई। वह बेटी ही उस की जिंदगी का आसरा बन गई।
बड़की दी के साथ भगवान ने भले अन्याय किया था पर मायका और ससुराल दोनों ही उसे भला मिला था। उस को एक पति की कमी छोड़ किसी और बात की कमी नहीं होने दी। जवानी आने के पहले ही उस के बाल कट गए। साथ ही विधवा जीवन की तमाम शर्तें उस ने ख़ुशी ख़ुशी ओढ़ लीं। घर से बाहर वह निकली तभी जब अधेड़ हो गई। उस के बाल पकने लगे और देह पर झुर्रियों ने दस्तक दे दी। सालों साल तक लोगों ने उस की आवाज तो दूर उस के पैरों की आवाज भी नहीं सुनी थी। पर अब जब बड़की दी घर से बाहर निकली तो एक दूसरी ही बड़की दी थी। उस की आवाज कर्कश हो चली थी और पैरों में जैसे तूफान समा गया था। माना गया कि यह उस के विधवा जीवन के फ्रस्ट्रेशन का नतीजा है। एक बार बड़के भइया से गांव के किसी ने शिकायत की कि, ‘तुम्हारी बहन बहुत टेढ़ा बोलती है।’ तो बड़के भइया ने पलट कर उसे जवाब दिया था, ‘बोलती टेढ़ा जरूर है। पर हमारी मूंछ तो टेढ़ी नहीं करती।’
और सच जवानी आने के पहले ही विधवा हो जाने वाली बड़की दी के बारे में किसी ने न खुसफुस की, न खुसफुस सुनी, न बड़की दी की नजरों में कोई चढ़ा, न किसी की नजर उस पर पड़ी। पर जिंदगी के पचहत्तर बरस बेदाग रहने वाली बड़की दी की जिंदगी पर अब एक दाग लग गया था। लोगों की उंगलियां उस पर अनायास ही उठ गई थीं। मायके और ससुराल दोनों ही से उस का रिश्ता जैसे ख़त्म सा हो गया था। छोटके भइया कहते, ‘हमारे लिए तो बड़की दी मर गई।’
यह वही छोटके भइया थे जो अभी हाल तक यह कहते नहीं अघाते थे कि बड़की दी ने हमारी तीन पीढ़ी को अपनी गोद में खिलाया है। हम भी इस की गोद में खेले, हमारा बेटा भी खेला, और अब हमारा पोता भी खेल रहा है।’ जवाब में बड़की दी हुमक कर कहती, ‘और का!’ कह कर वह बालकनी में छोटके भइया के पोते को तेल मालिश करने लगती। फिर जैसे ख़ुद से ही कहती, ‘अब ई हमारे मान का नहीं। बहुत उछलता है। और हमारे पास अब शक्ति नहीं रही। बुढ़ा गई हूं।’ कहते हुए छोटके भइया के पोते को गोद से उछालती और उस से तुतला कर पूछती, ‘है न बुढ़ऊ !’ फिर जैसे जोड़ती, ‘न तोहरे दांत, न हमरे दांत। कहो बुढ़ऊ!’ कहते कहते वह बच्चे के हाथ-पैर दबा-दबा कंधे तक ले जा, ले जा साइ-सुई खिलाती और वह खिलखिला कर हंसने लगता। छोटके भइया के पोते यानी अन्नू के बेटे से बड़की दी को जाने क्यों बहुत लगाव था। अन्नू को भी वह बहुत मानती थी। अन्नू बचपन में बड़की दी से बहुत डरता था। उस की कर्कश आवाज और झन्नाटेदार थप्पड़ अच्छे अच्छों को डराता था। अन्नू तब टीन एजर था। गांव में किसी की बारात विदा हो रही थी। दुल्हा जा रहा था। अन्नू तमाम लड़कों के साथ टेंपो पर लटका आ रहा था। दूर से ही उस ने बड़की दी को देख लिया। फिर क्या था मारे डर के वह चलते टेंपो से उतर पड़ा। जान तो बच गई पर सिर बुरी तरह फूट गया था। वह घटना सोच कर अन्नू आज भी सिहर उठता है। अन्नू बड़की दी से डरता बहुत था, पर उन्हें मान भी बहुत देता था। जाने क्या था कि बचपन से ही अन्नू जब कभी और कहीं भी बीमार पड़ता, बड़की दी कहीं भी होती आ धमकती। और अन्नू की सेवा टहल में लग जाती। कम से कम तीन बार वह अन्नू को मौत के मुंह से खींच कर लाई थी। बड़की दी डॉक्टर तो क्या पढ़ी लिखी भी नहीं थी। पर किस बीमारी में क्या खिलाना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, क्या देना चाहिए आदि-आदि उसे सब मालूम था। और अन्नू ही क्यों कोई भी बीमार पड़े तो बड़की दी प्राण प्रण से सेवा टहल में लग जाती। वह न तो बीमार से परहेज करती, न बीमारी से घृणा। वह जैसे सब कुछ आत्मसात कर लेती। और भूत की तरह बीमारी के पीछे पड़ जाती, उसे भगा कर ही दम लेती। बड़की दी जहां भी रहती चाहे मायका हो या ससुराल, पूरे दबदबे से रहती। मजाल क्या था कि बड़की दी की बात कोई काट दे। उस के आगे क्या छोटे, क्या बड़े सभी दुबके रहते। वह डट कर घर के सारे काम करती। हाड़ तोड़ मेहनत। कोई मना भी करता तो कहती, ‘काम न करूं, तो बीमार पड़ जाऊं।’ सो लोग बड़की दी का सहारा ढूंढते। ससुराल और मायका दोनों ही जगह उसे रखने की होड़ मची रहती। पर कहां रहना है, यह बड़की दी ख़ुद तय करती। और जहां ज्यादा जरूरत समझती, वहीं रहती। पर सब का सहारा बनने वाली बड़की दी उम्र के इस चौथेपन में ख़ुद सहारा ढूंढने लग गई। उम्र जैसे-जैसे ढलती जा रही थी, वैसे-वैसे अवसाद और निराशा में घिरती बड़की दी आशा की एक किरण ढूंढते-ढ़ूंढते छटपटाने लगती। फफक-फफक कर रोने लगती। रोते-रोते कहती, ‘अभी तो जांगर है। करती हूं, खाती हूं। पर जब जांगर जवाब दे जाएगा, तब मुझे कौन पूछेगा?’ हर किसी से बड़की दी का यही एक सवाल होता, ‘तब हमें कौन पूछेगा?’ हमारे जैसे लोग उसे दिलासा देते, ‘सब पूछेंगे।’ और अन्नू उन्हें चुप कराते हुए कहता, ‘मैं पूछूंगा। जब तक मैं जिंदा हूं, बड़की बुआ आप को मैं देखूंगा। मैं आप की सेवा टहल करूंगा।’ छोटके भइया, भाभी भी बड़की दी से यही बात कहते। उस की ससुराल में उस के देवर भी उसे दिलासा देते। पर बड़की दी को किसी की भी बात पर विश्वास नहीं होता। वह फफक-फफक कर रोती और पूछती, ‘जब हम अचलस्त हो जाएंगे तो हमें कौन पूछेगा?’ बड़की दी रोती जाती और पूछती, ‘हमें कौन देखेगा।’ वह आधी रात में अचानक उठती और रोने लगती। और पूछने पर यही यक्ष प्रश्न फिर दुहरा देती।
और फिर वह मन ही मन अपनी बेटी की याद करती। अपने यक्ष प्रश्न का जवाब बड़की दी जैसे अपनी बेटी में ही ढूंढती। उस की बेटी जो अब नाती पोतों वाली हो गई थी। पर बड़की दी के लिए जैसे वह अभी भी दूध पीती बच्ची थी। वह अपनी बेटी को हमेशा असुरक्षा में घिरी पाती। और अपना सब कुछ उस पर न्यौछावर करती रहती। रुपया-पैसा, कपड़ा-लत्ता, जेवर-जायदाद जो भी उस के पास होता, वह चट बेटी को पठा देती। और बेटी भी उसे जैसे कामधेनु की तरह दुहती रहती। और यह बात लगभग हम सब लोग जानते थे कि बड़की दी के प्राण उस की बेटी में ही बसते हैं। पर पता नहीं क्यों हम सब लोग यह नहीं जान पाए कि बड़की दी अपने यक्ष प्रश्न, ‘तब हमें कौन पूछेगा?’ का जवाब भी अपनी बेटी में ही ढूंढती है। ढूंढती है, और पूछती है। तो शायद इस लिए भी कि इस पुरुष प्रधान समाज में हम कभी यह नहीं सोच या मान पाते कि मां बेटी के घर भी जा कर रह सकती है। ख़ास कर उस समाज में जहां मां-बाप बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते हों।
ख़ैर, बड़की दी शुरू से ही एक-एक कर अपने सारे जेवर, चांदी के रुपए और तमाम धरोहरें बेटी को थमाती गई। और दामाद उसे शराब और जुए में उड़ाता गया। धीरे-धीरे उधर दामाद की लत बढ़ती गई और इधर बेटी की मांग। पर बड़की दी ने कभी भी उफ नहीं की। बड़े जतन से जोड़े गए एक-एक पैसे वह बेटी को देती गई। बेटी ने कभी यह नहीं सोचा कि लाचार मां को भी कभी इन पैसों की जरूरत पड़ सकती है। वह तो आती या पति को भेजती अपनी परेशानियों का चिट्ठा ले कर। और बड़की दी इधर-उधर से पैसे जोड़ कर पठा देती। पर बात जब ज्यादा बढ़ गई तो बड़की दी धीरे-धीरे हाथ बटोरने लगी। उस ने दो एक बार दामाद पर लगाम लगाने की भी कोशिश की। शराब और जुए के लिए टोका-टाकी की। तो उस ने जा कर बड़की दी की बेटी की पिटाई की। और कहा कि आइंदा अपनी मां को टोका टोकी के लिए मना कर दो नहीं तो फांसी लगा कर मर जाऊंगा। बेटी ने मां को टोका टोकी के लिए मना कर दिया। और बड़की दी मान भी गई।
यह तब के दिनों की बात है जब बड़की दी का दबदबा था और उस के पास कोई यक्ष प्रश्न भी नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे बड़की दी का जोड़ा बटोरा धन, जेवर सब चुक गया और दामाद बेटी की आमद भी कम से कमतर हो गई। पर कहा न कि बेटी में बड़की दी के प्राण बसते थे। वह कहीं शादी ब्याह में नेग के साड़ी, कपड़े, पैसे पाती, चट-पट बेटी को पठा देती। बिन यह सोचे कि इस की उसे भी जरूरत है। पहले तो बड़की दी की बेटी दामाद की उस के ससुराल और मायके दोनों ही जगह ख़ूब आवभगत होती। कुछ समय तक तो यह सोच कर कि बेटी दामाद हैं। और बाद के दिनों में बड़की दी से डर कर कि कहीं उस के दिल को ठेस न पहुंचे। पर दामाद की ऐय्याशी जब ज्यादा बढ़ गई, उस की नजर घर की बेटियों, औरतों पर भी फिरने लगी तो उस का आना-जाना तो कोई फिर भी नहीं रोक पाया पर आवभगत में वह ‘भाव’ ख़त्म हो गया। धीरे-धीरे दामाद ने आना बंद कर दिया। वैसे भी बड़की दी के पास उसे देने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया था। बड़की दी ने उसे पैसे देना बंद किया तो उस का जुआ शराब भी कम हो गया। बड़की दी भी अब अधेड़ से बूढ़ी हो चली थी। उस की देह पर अब झुर्रियों ने घर बना लिया था और जबान पर वह यक्ष प्रश्न, ‘तब हमें कौन देखेगा ?’ बस सा गया था।
और संयोग ही था कि बड़की दी का यक्ष प्रश्न जल्दी ही कसौटी पर कस गया। वह तब ससुराल में ही थी। रात में अचानक उस का पेट फूल गया। अब तब हो गई। और खुद बड़की दी को भी लगा कि अब वह नहीं बचेगी। लेकिन वह बच गई। बड़की दी के यक्ष प्रश्न का जवाब भी आ गया था। मायका, ससुराल सब उस के साथ था। उस के देवर ने इलाज का खर्चा उठाया। पैसा कम पड़ा तो सूद पर ले आया। आख़िर आपरेशन हुआ था।
छोटके भइया भी पूरी तैयारी से थे। पर बड़की दी के देवर ने कहा कि, ‘यह हमारा धर्म है, हमें शर्मिंदा मत करिए। हम भी भौजी की गोद में खेले हैं,’ इस बीमारी में बड़की दी के बेटी दामाद भी आए थे। पर इस मौत के क्षण में भी उन्हें बड़की दी की तिजोरी ही नजर आती रही। उन का सारा जोर बड़की दी को उस शहर के नर्सिंग होम से निकाल कर अपने कस्बे में ले जाने पर रहा। दामाद बड़की दी के देवर को लगातार डांटता ही रहा, ‘आप लोग यहां इन्हें मार डालेंगे। हम को ले जाने दीजिए।’ बेटी भी इसी बात पर अड़ी रही। दरअसल बेटी दामाद को लगता था कि बड़की दी अब बचेगी नहीं। सो उन्हें अपने अख़्तियार में ले कर उन के हिस्से की खेती बारी भी लिखवा लें। सो उन की नजर बड़की दी के इलाज पर नहीं, उन की जायदाद पर थी। बड़की दी शायद होश में होती तो चली भी जाती। पर वह तो बेहोश थी। और उस का देवर दामाद की मंशा जानता था, सो छोटका भइया को सामने खड़ा कर दिया। और बड़की दी को नर्सिंग होम से नहीं जाने दिया।
आपरेशन के बाद बड़की दी बच जरूर गई थी, पर अब सचमुच उस की देह जवाब दे गई थी। आंखों की रोशनी मद्धिम पड़ गई थी। देह से फूर्ति बिसर गई थी। उस की सारी सक्रियता ख़त्म हो गई थी। वह चार छः कदम चलती और जमीन जरा भी ऊंची-नीची पड़ती तो गिर पड़ती।
बड़की दी का यक्ष प्रश्न अब कहीं ज्यादा सघनता के साथ उस के सामने उपस्थित था, उस की पनीली आंखों से छलछलाता हुआ।
वादे के मुताबिक अन्नू उसे अपने साथ ले गया। पर बड़की दी का शहर में मन नहीं रमा। वह कहती, ‘यहां तो कोई बतियाने के लिए भी नहीं मिलता।’ वह बरस भर में ही गांव वापस आ गई। फिर गई, फिर वापस आई। इसी तरह वह आती जाती रही। फिर अन्नू ने उस की आंखों की मोतियाबिंद का आपरेशन करवाया। इस बहाने उस की बेटी का बेटा, बेटी और पतोहू भी बड़की दी से आ कर मिलने लग गए। गुपचुप-गुपचुप तय हो गया कि बड़की दी अब अपने हिस्से के सारे खेत और जायदाद बेटी के नाम लिखेगी। एक बार अन्नू से भी बड़की दी ने इस बारे में पूछताछ की। अन्नू ने बड़की दी को साफ बताया कि कानूनी रूप से तो यह ठीक है, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक परंपरा के हिसाब से यह ठीक नहीं है। अन्नू ने बड़की दी को फिर यह भी कहा कि जिस ससुराल में आप का इतना मान है, उसे क्यों मिट्टी में मिलाना चाहती हैं। और आगाह किया कि अपने जीते जी यह काम मत करिएगा। और फिर आप की बेटी चाहेगी तो आप के मरने के बाद भी आप की जमीन-जायदाद कानूनन मिल जाएगी। और ज्यादा से ज्यादा आप चाहिए तो गुपचुप एक वसीयतनामा लिख जाइए। बड़की दी ने अन्नू की बात मुझे भी बताई और राय मांगी। मैं ने भी अन्नू की राय को ही ठीक बताया।
बड़की दी मान गई थी।
अन्नू के यहां से वापस जाने के बाद बीते दिनों बड़की दी ससुराल में थी। उस से मिलने उस की बेटी का बेटा आया। वह आया तो बड़की दी ठीक-ठाक थी। लेकिन जब जाने लगा तो वह ‘बीमार’ हो गई। बेटी के बेटे ने कहा, ‘चलो नानी डॉक्टर को दिखा दें।’ बड़की दी का देवर भी मान गया। बोला, ‘जाओ नाती नानी को दिखा लाओ।’ पर नाती बड़की दी को जो डॉक्टर को दिखाने ले गया तो फिर पलट कर नहीं आया। बड़की दी भी नहीं आई। सुबह से शाम हुई। बड़की दी नहीं आई तो देवर ने समझा कि शहर में रुक गई होंगी भौजी। पर जब दो-चार दिन नहीं, हफ्ते दस दिन बीत गए तो देवर का माथा ठनका। वह भाग कर छोटके भइया के पास गया। पर बड़की दी वहां थी कहां जो मिलती। बड़की दी मिली तो अपनी बेटी के घर। और वापस आने को तैयार नहीं। वह देवर वापस आ गया। अब दूसरा वाला देवर लेने गया तो दामाद खुल कर लड़ पड़ा। गुथ्थम गुथ्था हो गए दामाद ससुर। पर बड़की दी नहीं आई। देवर ने बड़की दी से कहा भी कि, ‘बेटी का अन्न जल खा कर हमारे मुंह पर कालिख मत लगवाओ भौजी। लौट चलो।’ पर बड़की दी नहीं मानी।
देवर लौट कर छोटके भइया के पास आया और सारा हाल बता कर कहा, ‘चलिए आप ही ले आइए। आख़िर समाज में हम कैसे मुंह दिखाएं। अब तो लोग यही कहेंगे कि जब भौजी करने धरने लायक नहीं रहीं तो हम ने घर से निकाल दिया। और फिर भगवान ने उन का पहले ही बिगाड़ा था, और अब वह बेटी का अन्न, जल ले कर अपना अगला जनम भी बिगाड़ रही हैं। इस पाप के भागीदार हम लोग भी होंगे।’ पर छोटके भइया नहीं गए। बोले, ‘बड़की दी अब हमारे लिए मर गई।’
फिर कुछ दिनों बाद बड़की दी ने सारी जायदाद बेटी के नाम लिख दी। और एक दिन उस की बेटी का बेटा छोटके भइया के पास पहुंचा और कहा कि, ‘नानी को बुलवा लीजिए। लेकिन उस को उस की ससुराल मत भेजिएगा। वहां लोग उसे जहर दे कर मार डालेंगे।’ पर छोटके भइया का जवाब फिर वही था, ‘बड़की दी हमारे लिए मर गई।’ और अब उन्हीं छोटका भइया का बेटा अन्नू चलती बस में पूछ रहा था मुझ से कि, ‘बड़की बुआ से मिलेंगी ?’ मैं ने सहमति में सिर हिला दिया और पूछा कि, ‘पता मालूम है ?’
‘मालूम तो नहीं हैं पर मालूम कर लेंगे। छोटा कस्बा है। कोई मुश्किल नहीं होगी।’ अन्नू बोला।
‘हां, मिल एरिया है। मिल ही जाएगा।’ मैं ने कह दिया।
‘कहीं पापा नाराज हुए तो ?’ अन्नू ने पूछा।
‘देखा जाएगा। पर अभी तो बड़की दी से मिल लें।’ कह कर मैं भावुक हो गई।
ढूंढते-ढूंढते आख़िर मिल गया बड़की दी के दामाद का क्वार्टर। घर में पहले अन्नू घुसा फिर मैं, अन्नू की बीवी और अन्नू के छोटे भाई मुन्नू और चुन्नू।
बड़की दी बिस्तर पर लेटी नीचे पैर लटकाए छत निहार रही थी। अन्नू ने उस के पैर छुए तो एकाएक वह पहचान नहीं पाई। हड़बड़ा गई। पर मुन्नू ने जब पैर छुए तो वह पहचान गई। उठ कर बैठ गई। मुझे देखते ही वह भावुक हो गई। बोली, ‘छोटकी तू !’ और मुझे भर अकवार भेंटने लगी। अन्नू की बीवी ने बड़की दी के पैर छुए और अपने बेटे को बड़की दी की गोद में बिठा दिया। बड़की दी, ‘बाबू हो, बाबू हो’ कह कर उसे जोर-जोर से गुहारने लगी। फिर उसे बुरी तरह चूमने लगी और फफक कर रो पड़ी। पर अन्नू का बेटा बड़की दी की गोद में नहीं रुका और रोते-रोते उतर गया। अन्नू के बेटे के गोद से उतरते ही बड़की दी का भावुक चेहरा अचानक कठोर हो गया। अपने चेहरे पर जैसे वह लोहे का फाटक लगा बैठी। वह समझ गई थी कि अब उस से अप्रिय सवालों की झड़ी लगाने वाली हूं मैं। पर उस की उम्मीद के विपरीत मैं चुप रही।
बिलकुल चुप।
बड़की दी ने जैसे अचानक अपने चेहरे पर से लोहे का फाटक खोल दिया। सिर का पल्लू ठीक करती हुई वह फिर से भावुक होने लगी। बोली, ‘अन्नू का तो नहीं जानती थी पर तुम्हारी बात जानती थी। जानती थी कि छोटकी जरूर आएगी।’
‘पर तुम यहां क्यों आई बड़की दी ?’ कहती हुई मैं बिलख कर रो पड़ी।
‘अब मुझ से और नहीं सहा जा रहा था।’ बड़की दी बोली, ‘अब मेरी उमर सेवा टहल करने की नहीं रही। और मेरी सेवा टहल की किसी को कोई फिकर ही नहीं थी। न नइहर में न ससुराल में।’ बोलते-बोलते वह रोने लगी। रोते-रोते कहने लगी, ‘अब मुझे सहारे की जरूरत थी। मैं चाहती थी कोई मुझे पकड़ कर उठाए- बैठाए। मेरी सेवा करे। पर करना तो दूर कोई मुझे पूछता भी नहीं था।’ बड़की दी आंचल से आंसू पोंछते हुए बोली, ‘चलते-चलते गिर पड़ती तो कोई आ कर उठा देता। या खुद ही फिर से उठ जाती। पर कोई हरदम साथ-साथ नहीं होता।’ वह बोली, ‘कोई मुंह बुलारो नहीं होता। नइहर हो या ससुराल हर जगह लोग यही समझते रहे कि बड़की को तो बस खाना और कपड़ा चाहिए।’ वह सिसकने लगी। बोली, ‘जवानी तो हमने खाना और कपड़े में काट लिया, बुढ़ापा नहीं काट पाई। क्यों कि बुढ़ापा सिर्फ खाना और कपड़े से नहीं कटता।’ बड़की दी बोलती ही जा रही थी, ‘मैं ऊब गई थी ऐसी जिंदगी से।’
‘तो तुम छोटके भइया के पास आ गई होती।’
‘वह आया भी कहां बुलाने ?’ वह बोली, ‘फिर जब से वह नौकरी से रिटायर हुआ है, खिझाने बहुत लगा है। घर भर को दुखी किए रहता है। मुझे भी जब-तब खिझा-खिझा कर रुला देता। फिर एक बार बात ही बात में वह मुझ पर और पैसा कौड़ी खर्च करने से मना करने लगा। कहने लगा मेरे खर्चे ही बहुत हैं। पेंशन में गुजारा नहीं चल पाता।’
‘तो तुम अन्नू के पास चली जाती।’ मैं ने कहा तो अन्नू भी कहने लगा, ‘हां, मैं ने तो कभी आप की जिम्मेदारी से इंकार नहीं किया।’
‘हां, अन्नू ने इंकार नहीं किया।’ हामी भरती हुई बड़की दी बोली, ‘पर अन्नू के यहां तो और मुश्किल थी। वह और बहू दिन में दफ्तर चले जाते और बच्चे स्कूल। फिर बाबू रह जाता और मैं। मैं अपने को संभालती कि बाबू को। फिर मैं यह भी नहीं समझ पाती कि अन्नू मेरी देखभाल के लिए मुझे अपने पास ले गया है कि अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए मुझे लाया है। और मुझे हर बार यही लगता कि अन्नू बच्चे की देखभाल के लिए ही मुझे लाया है।’ बड़की दी बोली, ‘ख़ैर, बाबू को देखने में कोई बुराई नहीं थी। पर मैं वहां अकेली पड़ जाती। कोई बोलने बतियाने वाला नहीं होता वहां। एक बार फाटक बंद होता तो फिर शाम को ही खुलता। फिर आते ही बच्चे, बहू, अन्नू सभी टी॰वी॰ देखने लगते, खाना खाते सो जाते। मेरे लिए जैसे किसी के पास समय ही नहीं होता।’ वह बोली, ‘तो मैं क्या करती अन्नू के यहां भी जा कर। जब वहां भी मुझे कोई देखने वाला नहीं था। उठाने-बैठाने वाला नहीं था।’
‘यहां कौन है उठाने-बैठाने वाला ?’ मैं बिफर कर बोल बैठी।
‘हैं न !’ बड़की दी सहज होती हुई बोली, ‘चार-चार जने हैं उठाने-बैठाने वाले। नाती, नतिनी, नतोहू सभी हमारी सेवा में लगे रहते हैं। उठती-बैठती हूं तो हरदम पकड़े रहते हैं।’ कहते हुए जैसे उस के चेहरे पर एक दर्प सा छा गया।
बड़की दी के चेहरे पर यह संतोष भरा दर्प देख कर मुझे कहीं खुशी भी हुई। अभी हमारी बात चीत चल ही रही थी कि बड़की दी की बेटी की छोटी बेटी आ गई जिस की उमर कोई सोलह-सत्रह बरस रही होगी। वह कहने लगी, ‘आइए, आप लोग बड़े वाले कमरे में बैठिए।’
‘नहीं हम लोग यहीं ठीक हैं।’ अन्नू बोला, ‘फिर अभी हम लोग चले जाएंगे।’
‘बिट्टी कहां है ?’ मैं ने पूछा तो बड़की दी बोली, ‘बंबई गई है। उसे कैंसर हो गया है।’ उस ने जोड़ा, ‘पर घबराने की बात नहीं है। अभी शुरुआत है। डॉक्टर ने कहा है ठीक हो जाएगी। बंबई में अभी उस की सिंकाई चल रही है।’
‘अच्छा अपनी जमीन-जायदाद का क्या किया ?’ मैं सीधे प्वाइंट पर आ गई और पूछ लिया, ‘किसी को लिख दिया कि नहीं ?’
‘हां, लिख दिया।’ कहती हुई बड़की दी बिलकुल कठोर हो गई। वह पूरी दृढ़ता से बोली, ‘बिट्टी को लिख दिया।’
‘पर तुम ने यह तो ठीक नहीं किया बड़की दी !’ मैं ने भी पूरी दृढ़ता और कठोरता के साथ कहा, ‘जो देवर जिंदगी भर तुम्हारे लिए जी जान से खड़े रहते रहे, उन के साथ यह ठीक नहीं किया।’ मैं बोलती गई, ‘बिट्टी को जो जमीन-जायदाद लिख दी, तो लिख दी तुम्हें यहां रहने नहीं आना चाहिए था बड़की दी।’
‘तो मैं वहां क्या करती ? गिरते-पड़ते जान दे देती। बेवा तो थी ही, बेसहारा मर जाती ?’ उस ने तल्ख़ी से पूछा।
‘नहीं। जब बिट्टी और उस के बच्चे, पतोहू तुम्हारी सेवा करने को तैयार थे तो तुम इन्हें बारी-बारी अपने घर ही बुला कर कर रखती। यह वहीं तुम्हारी सेवा टहल करते।’ मैं बोली, ‘पर कुछ भी कहो बड़की दी मैं तुम्हारी सारी बातें मान सकती हूं। पर यह बात नहीं मानने वाली। तुम्हारी गोद में मैं भी खेली हूं। तुम मुझ से बहुत बड़ी भी हो। पर बड़की दी, बेटी के घर आ कर यह तुम ने ठीक नहीं किया।’
‘क्यों ठीक नहीं किया ?’ यह बात बड़की दी ने नहीं, बिट्टी की बेटी ने कहा जो अभी-अभी बड़े कमरे में हम लोगों से चल कर बैठने के लिए कह रही थी। उस ने अपना सवाल फिर से उसी तल्ख़ी, तेजी और तुर्शी से दरवाजे के बीच खड़ी-खड़ी दुहराया, ‘क्यों ठीक नहीं किया ?’
‘नहीं, जमीन-जायदाद लिखनी थी बिट्टी दीदी को तो लिख देतीं बड़की बुआ पर यहां रहना नहीं चाहिए था।’ अन्नू बोला, ‘हमारे घर रह लेतीं। पापा के पास रह लेतीं।’
‘क्यों रह लेतीं ?’ बिट्टी की बेटी दहाड़ती हुई बोली, ‘जब दिया यहां, तो वहां क्यों रहेंगी ?
‘छोटके भइया कहते हैं कि हमारे मुंह पर कालिख पोत दिया।’ बोलते-बोलते मुझे रुलाई छूट गई। बोली, ‘वह कहते हैं कि अब तो दुनिया यही कहेगी कि जब तक काम करने लायक थी, तब तक रखा। और जब बूढ़ी और लाचार हो गई, काम करने लायक नहीं रही तो घर से निकाल दिया। तभी तो बड़की दी बेटी के घर रहने लगी !’
‘बेटी के घर रहने लगी तो क्या पाप कर दिया ?’ बिट्टी की बेटी फिर ललकार कर बोली, ‘मां-बाप बेटे के साथ रह सकते हैं तो बेटी के साथ भी क्यों नहीं रह सकते हैं ?’
‘नहीं रह सकते। हमारे यहां यह परंपरा नहीं है। दोष माना जाता है। माना जाता है कि नरक मिलता है....।’
‘और कीड़े पड़ते हैं।’ बात काटती हुई बिट्टी की बेटी जोर से बोली, ‘आप तो इन के देवरों वाली भाषा बोल रही हैं। नानी के देवर भी कहते हैं कि कीड़ा पड़ेगा।’ वह गुर्राती हुई बोली, ‘पहले जब इन के देवर लोग यहां आते थे, दस-दस दिन रह कर खाते थे, जाते थे तो किराया भी ले जाते थे। तब उन को कीड़ा नहीं पड़ता था। तो अब इन को कीड़ा क्यों पड़ेगा ? तब जब कि हमारा नहीं, अपना ही खा रही हैं। रही बात पानी की तो यह हमारा क्वार्टर नहीं है, मिल का क्वार्टर है, कोई पुश्तैनी गांव नहीं।’ वह यहीं नहीं रुकी। बोली, ‘आप लोग इन्हें बरगलाने आए हैं।’
‘देखिए अब आप प्लीज चुप हो जाइए। अब और बदतमीजी मत करिए।’ अन्नू बोला, ‘जिन से आप लगातार बदतमीजी से पेश आ रही हैं वह इन की सगी छोटी बहन हैं। सो यह भी आप की नानी हुईं। वह बोला, ‘और हम लोग इन को बरगलाने नहीं, इन से मिलने आए हैं। इन को देखने आए हैं। इन की जमीन जायदाद से हम लोगों का कुछ लेना-देना नहीं है।’ बावजूद इस के वह फिर बोलने लगी तो अन्नू ने उसे अब की जरा कड़ाई से डांटा, ‘प्लीज चुप हो जाइए।’
पर बड़की दी उस की बदतमीजी पर कुछ नहीं बोली। ऐसे बैठी रही जैसे कुछ हुआ ही न हो। किसी ने कुछ कहा ही न हो। यह वही बड़की दी थी जो मुझे कभी कोई कुछ कहता तो उस का मुंह नोच लेने को हरदम तैयार रहती थी। वही बड़की दी आज गुमसुम सी चुप थी। और मैं सिसक-सिसक कर रो रही थी।
इसी बीच बिट्टी की वह बेटी बिस्किट और पानी ले कर आई। पर पानी किसी ने पिया नहीं। बिस्किट किसी ने छुआ नहीं। माहौल गंभीर हो गया था। तब तक चुन्नू कैमरा लिए आया और अन्नू से पूछने लगा, ‘भइया सब के साथ बुआ की एक फोटो खींच लूं?’
‘हां, हां।’ अन्नू बोला। चुन्नू अभी कैमरे का लेंस ठीक कर ही रहा था कि बड़की दी का एक नाती आया और फोटो खींचने से चुन्नू को मना करने लगा।
चुन्नू ने अन्नू से चिल्ला कर कहा, ‘भइया यह फोटो खींचने से मना कर रहे हैं।’
‘तो रहने दो।’ अन्नू भी कुछ-कुछ उत्तेजित हो गया था।
तनावपूर्ण स्थिति देख कर मैं समझ गई अब यहां और रुकना ठीक नहीं है। माहौल बिगड़ सकता है। सो अन्नू से कहा कि, ‘अब चला जाए।’ अन्नू ने भी कहा, ‘हां, उठिए।’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ। उठते-उठते मुझे रुलाई फूट पड़ी। उठ कर चलने लगी तो सोचा कि बड़की दी जरा रुकने को कहेगी। पर उस ने नहीं कहा। मैं ने चलते-चलते बड़की दी को भर अकवार भेंटा। वह भी फफक कर रोने लगी। मैं तो रो ही रही थी। अन्नू भी रोने लगा। बोला, ‘बड़की बुआ हम आप को कभी नहीं भूलेंगे। और हमारे लायक आप जब भी जो भी समझिएगा, कहिएगा, जरूर करूंगा।’ इस बीच अन्नू की बहू भाग कर बस में गई। और अपने ब्रीफकेस से एक नई साड़ी निकाल कर ले आई। कुछ पैसे और साड़ी बड़की दी को देने लगी। उस ने ले लिया। हम सब के सब रोते हुए घर से बाहर आ गए। बस में आ कर बैठे। पलट कर देखा तो बड़की दी के घर का दरवाजा बंद हो गया था। बड़की दी के नाती, नतिनी जो घर में लड़ने पर आमादा थे, औपचारिकतावश भी बस तक या घर के बाहर तक छोड़ने नहीं आए थे। न ही बड़की दी।
बस स्टार्ट हो गई थी। सांझ घिरते-घिरते जैसे दोहरी हो रही थी। बस फर्राटे से चली जा रही थी कि तभी अन्नू ने मुझे फिर अपनी सीट पर बुलाया। उस की आंखें नम देख कर मैं भी सिसकने लगी। बोली, ‘जाने, बड़की दी के भाग्य में क्या बदा है। पता नहीं भगवान उसे कैसी मौत देंगे।’
‘मैं तो सोच रहा था कि अब तक जो हुआ सो हुआ। अब से बड़की बुआ को अपने पास लेते चलूं।’ अन्नू कहने लगा, ‘मैं तो कहने भी जा रहा था कि बड़की बुआ चलिए। पर कहूं-कहूं कि तभी चुन्नू ने बताया कि बुआ की फोटो नहीं खींचने दे रहे हैं। तो मैं चुप रह गया। यह सोच कर कि जब यह लोग फोटो नहीं खींचने दे रहे हैं तो ले कैसे जाने देंगे ?’
‘ठीक ही किया, जो नहीं कहा।’ मैं बोली, ‘बड़की दी आती भी नहीं। और तुम्हारी बात ख़ाली जाती।’
‘पर अब होगा क्या बड़की बुआ का ?’ अन्नू ने पूछा।
‘भगवान जाने क्या लिखा है।’ मैं बोली, ‘अभी तक तो बेटी के नाम जायदाद लिख कर, बेटी ही के घर रहने वाले मैं ने जितने भी देखे हैं, सब की दुर्दशा ही हुई है। जमीन-जायदाद लिखने के साल दो साल तक अगले की पूछ रहती है फिर लोग उसे दुत्कार देते हैं कुत्ते की मौत मरने के लिए। अपने घर के पिछवाड़े हरिमोहन बाबा को ही देखो। उन का क्या हाल हुआ। बेटी के यहां मरे। देह में कीड़े पड़-पड़ गए थे। न उन्हें जीते जी कोई छूने वाला था, न मरने ही के बाद। भरी बरसात में वह मरे थे। कोई उन की लाश फूंकने वाला भी नहीं था वहां। अंततः गांव के लोग गए। और फिर उन के भतीजे ने ही उन्हें आख़िरकार आग लगाई। यही हाल हमारे गांव की सुभावती का हुआ। भीख मांग कर मरी बेचारी। ओफ्फ ! और बड़की दी यह सब किस्से जानती थी, फिर भी यह कर बैठी। और फिर इस के यहां तो और मुश्किल है। बिट्टी को वह कैंसर बता ही रही थी। कहीं वह मर-मरा गई तो क्या होगा ? दामाद पहले ही से जुआरी और शराबी है। हे राम क्या होगा बड़की दी का!’
‘घबराइए नहीं। हम लोग हैं न। बड़की बुआ की ऐसी स्थिति नहीं होने देंगे।’ अन्नू बोला।
‘हां, ध्यान रखना अन्नू।’
‘एक बात है छोटकी बुआ।’ अन्नू बोला, ‘बड़की बुआ के इस फैसले में सिर्फ उन का ही दोष नहीं हैं उन के देवर भी सब दुष्ट हैं। वह सब बड़की बुआ की देखभाल तो करते थे पर ऊपरी तौर पर, और दिखावटी। उन सब की नजर भी बड़की बुआ की जमीन पर ही थी।’
‘यह तुम कैसे कह सकते हो ?’
‘शुरू-शुरू में बड़की बुआ जब मेरे पास रहने आई थीं तो एक बार इन का एक देवर आया। जो पुलिस में है। सुबह-सुबह आया और कहने लगा भौजी आप तुरंत चलिए, छोटकी भौजी बीमार हैं। बचेंगी नहीं। आप को तुरंत बुलाया है। पर बड़की बुआ उस का झूठ ताड़ गईं। हम से कहने लगीं कि अगर देवरानी मरती होती तो यह वहां उस की दवा-दारू में लगता, हम को बुलाने थोड़े ही आता। पर वह बड़की बुआ की कमजोर नस भी जानता था। और उस ने तुरंत एक दूसरा दांव भी फेंका। कहा कि रास्ते में बिट्टी का घर पड़ेगा, उस से भी भेंट करवा दूंगा। बड़की बुआ आनन-फानन तैयार हो गईं। और वह आने के एक घंटे के भीतर ही बुआ को लिवा ले गया। बड़की बुआ को बिट्टी के इस घर पर पहली बार वही ले कर आया था। तो रास्ता तो उसी ने खोला।’
‘पर वह आनन-फानन बड़की दी को तुम्हारे यहां से ले क्यों गया ?’
‘उसे अंदेशा था कि कहीं बड़की बुआ की जमीन मैं अपने नाम न लिखवा लूं।’ अन्नू बोला, ‘जब कि ऐसा पाप मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। फिर जब बड़की बुआ को यह बात पता चली तो उन्हों ने अपने देवर को इस बात के लिए बड़ी लताड़ लगाई।’
‘पर यह बात तुम्हें किसने बताई ?’
‘बड़की बुआ ने ही।’ अन्नू बोला, ‘बड़की बुआ कहने लगीं, पाप उस के मन में ख़ुद था, पर लांछन तुम पर लगा रहा था।’ अन्नू बोला, ‘यह जमीन-जायदाद भी बड़ी अजीब चीज है। क्या-क्या न करवा दे।’
‘हमको तो पता चला है कि बड़की बुआ के देवर भी अब आपस में उन की जमीन के लिए लड़ने लगे थे।’ मुन्नू बताने लगा, ‘हर कोई चाहता था कि अकेले उसी के नाम बड़की बुआ अपनी सारी जमीन लिख दें। सब के सब उन्हें फुसलाने से ले कर धमकाने तक में लगे थे, तभी तो बड़की बुआ घर छोड़ कर बिट्टी के घर चली गईं।’
‘हमने तो सुना है बड़की बुआ ने जो जमीन-जायदाद बिट्टी के नाम लिखा है, उस के ख़िलाफ उन के देवरों ने मुकदमा भी कर दिया है।’ चुन्नू ने कहा।
‘हो सकता है कर दिया हो।’ मैं बोली, ‘देवर भी सब दुष्ट हैं ही। सब दुष्ट न होते तो बड़की दी भला ऐसा क्यों करती ? बेटी के घर जा कर भला क्यों अपना अगला जनम भी बिगाड़ती। यह जनम तो उस का बिगड़ा ही था जो जवानी आने से पहले ही विधवा हो गई। और अब अंत समय में बेटी का अन्न-जल लेने उस के घर पहुंच गई, अगला जनम भी बिगाड़ने।’
‘आप लोग क्या तभी से वितंडा खड़ा किए हुए हैं ?’ पीछे की सीट पर बैठी अन्नू की बहू बुदबुदाई, ‘आख़िर वह अपनी बेटी ही के पास तो गई हैं। बेटी के पास न जाएं तो किस के पास जाएं ? रही बात जमीन-जायदाद की तो वह भी अगर बेटी को लिख दिया तो क्या बुरा कर दिया ? कौन सा आसमान फट पड़ा। किस को अपने बच्चों से मोह नहीं होता।’
‘हां, यह बात भी ठीक है।’ अन्नू बीवी की हां में हां मिलाते हुए बोला।
‘दुनिया कहां से कहां पहुंच गई। रीति-रिवाज, परंपराएं और मान्यताएं बदल गईं। यहां तक कि बड़की बुआ बदल गईं।’ अन्नू की बहू बोली, ‘पर आप लोग अभी भी नहीं बदले। तभी से बेटी का घर, बेटी का घर आप लोगों ने लगा रखा है। अरे, एक मां अगर अपनी बेटी और उस के बच्चों के बीच अपनी पहचान ढूंढना चाहती है, उन के साथ अपनी जिंदगी के अंतिम दिन बिताना चाहती है, अपनों में खो जाना चाहती है और इस के लिए जो अपना सर्वस्व गंवा भी देती है तो बुरा क्या है ?’
‘इस में बहुत बुरा नहीं है बहू।’ मैं बोली, ‘पर यहां बात दूसरी है। बड़की दी तो बेटी के मोह माया में फंस गई है। वह तो वहां अपनत्व ढूंढने गई है पर बिट्टी और दामाद तो उसे कामधेनु माने बैठे हैं। बिट्टी को कैंसर हो गया है। पता नहीं वह जिएगी कि मरेगी। और दामाद ठहरा जुआरी, शराबी। ऐसे में बड़की दी का क्या होगा ? मैं तो साफ देख रही हूं कि बड़की दी फंस गई है। वह सब उसे अपने यहां सेवा करने के लिए नहीं ले गए हैं। उन की नजर तो उस की जमीन-जायदाद पर है। देखा नहीं कि अभी चार महीने भी उसे नहीं हुए यहां आए। और सब कुछ लिखवा लिया। जाहिर है कि नीयत साफ नहीं है। नीयत साफ होती तो वह चार दिन का लड़का फोटो खींचने से भला क्यों रोकता ? और वह लड़की बेबात हम से क्यों झगड़ने लगती भला ?’
‘यही बात गड़बड़ लगी मुझे भी।’ अन्नू की बहू बोली, ‘पर बुआ जी को जो अच्छा लगे वही करने दीजिए।’
‘हां, अब तो यही हो सकता है।’
मैं ने देखा मेरी और बहू की बात चीत के बीच अन्नू सोने लगा था। जाने सो रहा था कि सोने का अभिनय कर रहा था। फिर भी मैं थोड़ी देर तक उस के साथ उस की सीट पर ही बैठी रही। बैठी रही और सोचती रही कि क्या बड़की दी ने बिट्टी के मोह में यह सब किया ? क्या बच्चों का मोह मां को ऐसे ही बांध लेता है ? कि गलत सही का खांचा आदमी भूल जाता है। जैसे कि द्वापर युग में धृतराष्ट्र भूल गया था दुर्योधन के अंध मोह में ? और इस कलयुग में गलत सही का खांचा भूल गई है बड़की दी बिट्टी के अंध मोह में ?
क्या पता ?
मेरे तो बच्चे ही नहीं हैं। मेरे भी बच्चे होते तो शायद यह बात ठीक से समझती। निःसंतान मैं क्या जानूं यह सब ? यह सोच कर ही रोने लगती हूं। रोती सिसकती अपनी सीट पर आ बैठती हूं। शायद बड़की दी के काट से बड़ा है मेरा काट। मैं सोचती हूं कि बड़की दी की जगह अगर मैं होती तो क्या मैं भी बिट्टी के लिए वही सब करती, जो बड़की दी कर गई है, परंपरा और संस्कार सब को दरकिनार करती हुई !
क्या पता !
और फिर जब मैं भी बड़की दी जितनी बूढ़ी हो जाऊंगी तो हमें कौन देखेगा? बड़की दी का यह यक्ष प्रश्न क्या मेरा भी यक्ष प्रश्न नहीं बन जाएगा ? तो मैं कहां जाऊंगी। फिर यह सोच कर संतोष मिलता है कि निःसंतान ही सही बड़की दी की तरह मैं बेवा तो नहीं हूं। हमारा पति तो है। हम दोनों जन एक साथ रह लेंगे। दोनों एक दूसरे की सेवा करते हुए।
हमारी बस को एक ट्रक बड़ी तेजी से ओवरटेक करता हुआ, तेज-तेज हार्न बजाता हुआ गुजर रहा है। और बाहर, अंधेरा गहराता ही जा रहा है। और यह घुप अंधेरा जैसे मेरे मन के भीतर कहीं बहुत गहरे धीरे-धीरे उतरने लगा है।
मैं फिर से रोने लगी हूं। और बस चलती जा रही है भड़भड़ करती हुई। शायद फिर कोई स्पीड ब्रेकर है !