बड़हिया, रेवड़ा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1936 से ले कर 1939 तक बिहार में कई महत्त्वपूर्ण लड़ाइयाँ किसानों ने लड़ीं , जिनके करते न सिर्फ वे , प्रत्युत बिहार की किसान-सभा काफी प्रसिध्द हुई। यों तो उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़ंतें जमींदारों और सरकार के साथ हुईं। उनमें बड़हिया , रेवड़ा और मझियावाँ के बकाश्त संघर्ष (सत्याग्रह) ऐतिहासिक हैं। उनसे मेरा घनिष्ठसंबंधभी रहा है। इसीलिए उनका संक्षिप्त वर्णन जरूरी है।
बड़हिया ─ इनमें बड़हिया टाल का आंदोलन सबसे पुराना है। वह कांग्रेसी मिनिस्ट्री बनने के बहुत पहले सन 1936 ई. के जून में शुरू होकर सन 1939 ई. के मध्य तक चलता रहा। अभी भी आग भीतर-ही-भीतर सुलग रही है। बड़हिया मौजा पटना से पूर्व ई. आई. आर. का स्टेशन तथा मुंगेर जिले का बहुत बड़ा गाँव है। उससे दक्षिण-पूर्व-पश्चिम और लाइन से दक्षिण की लाखों बीघा जमीन को बड़हिया टाल सकते हैं। वह सख्त काली मिट्टीवाली है और उसमें सिर्फ रब्बी की फसल होती है। वर्षा के शुरू में ही सारी जमीन पानी से भर जाती है और अक्टूबर में सूखती है। उसे जोतने की जरूरत नहीं। सिर्फ बीज बो देते और फागुन-चैत में तैयार फसल काट लेते हैं। फसल खूब उपजती है। इसीलिए हजारों बीघे की खेती एक-एक जमींदार आसानी से करते हैं।
टाल में टापुओं की तरह दूर-दूर पर गाँव बसे हैं। उनमें वर्षा में नाव से ही आ-जा सकते हैं। सिर्फ एक हड़ोहर नदी बीच से गुजरती है। उसी का पानी प्राय: सभी पीते हैं। शायद ही किसी-किसी गाँव में कुआँ है। फलत: गंदा पानी पीना ही पड़ता है। मुंगेर जिले में कांग्रेसी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड 15 वर्षों से है। मगर गरीबों की खबर कौन ले?वहाँ पक्की सड़क का भला पता कहाँ?वहाँ के बाशिंदे अधिकांश धानुक,ढाढ़ी,मल्लाह वगैरह हैं। पुराने जमाने में वही जमीन के मालिक थे। बड़हिया तथा और गाँवों के जमींदारों ने कल,बल,छल से उनकी पीछे जमीनें छीन लीं। फिर भी बटाई के नाम पर उन्हें देते थे। फलत:,काश्तकारी कानून के अनुसार उन जमीनों पर उन किसानों का कायमी हक हो गया है। क्योंकि 12 वर्ष से ज्यादा तो सभी ने वे जमीनें जोती हैं।
बिहार के जमींदारों के कब्जे में जो जमीनें हैं वे जिरात (सीर) और बकाश्त (खुदकाश्त) दो ढंग की हैं।सन 1885 ई. से पहले जो जमीनें जमींदारों की खेती में लगातार12 वर्ष रहीं, वही जिरात कहाती हैं। वे तो निश्चित हैं। घट-बढ़ नहीं सकती हैं। मगर जो जमीनें ऐसी न होने पर भी उनके कब्जे में कागजों में लिखी हैं वही बकाश्त हैं। कानून यह है कि लगातार 12 वर्ष जिस बकाश्त जमीन पर कोई रैयत (किसान) खेती करे वह उसकी कायमी (occupancy) हो जाती है। वैसा किसान फिर जिस बकाश्त को 1साल भी जोतेगा वह भी उसकी कायमी हो जाएगी। असल में किसान के पास कोई मौरूसी या कायमी जमीन रहने पर ही जो भी जमीन वह जोतेगा वही कायमी होगी। किसी मौजे में जिसके परिवार में 12 वर्ष तक लगातार खेती होती रहे वह ज्योंही बकाश्त जमीन जोतता है त्योंही उसका कायमी हक उस पर हो जाता है।
इसी कानून के अनुसार टाल के किसानों का हक हो गया था। मगर वे इसे जानते न थे। जमींदारों को भी इसकी फिक्र न थी कि वे कभी जमीन पर दावा करेंगे। जमींदारों ने प्राय: किसी के भी पास इसका सबूत रहने न दिया कि वह जमीन जोतता है। रसीद या कागज-पत्र पर कुछ लिख के देते न थे! सारा काम जबानी रहता था! फिर उन्हें फिक्र हो क्यों?वे लोग कांग्रेसी और प्राइम मिनिस्टर के लाड़ले हैं! इसलिए तो'करैला नीम पर ही चढ़ गया'।
इधर किसान आंदोलन ने जब किसानों में चेतना पैदा की और उन्हें उनका हक समझाया तो उन्होंने उन जमीनों पर दावा किया। उधर जमींदारों ने उनका हक साफ इनकार किया। बस,यही झगड़े की जड़ है। किसान केस तो लड़ सकते न थे। कारण,कागजी सबूत उनके पास न था। फलत: वहाँ के हमारे योध्दा पं. कार्यानंद शर्मा की राय से उन्होंने सत्याग्रह (सीधी भिड़ंत) शुरू किया। ऐसे ही बकाश्त सत्याग्रह बिहार के रेवड़ा आदि गाँवों में हजारों जगह चले हैं। किसानों ने,उनके सेवकों ने मारे खाईं,हड्डिया तोड़वाईं,वे जेल गए,लूटे गए! मगर फिर भी जमीन पर से न तो हटे और न मार-पीट का उत्तर ही दिया। सैकड़ों लालवर्दीवाले स्त्री-पुरुष इस संघर्ष का संचालन पं. कार्यानंद शर्मा के नेतृत्व में करते रहे। उनने हँस-हँस के सब कष्ट भोगे,स्वयं कार्यानंद जी को दो बार उसी सिलसिले में जेल जाना पड़ा। दो-दो बार घुड़सवार और हथियारबंद पुलिस का धावा टाल में हुआ। पहली बार सन 1937 के मार्च में सैकड़ों की संख्या में,और दूसरी बार सन 1939 में भी उन्हीं दिनों में। कभी तीन और कभी पाँच खास मजिस्ट्रेट भी लगातार वहाँ रखे गए। यों तो जब फसल बोने का समय अक्टूबर-नवंबर में आया तभी खास पुलिस,मजिस्ट्रेट और सवार भी पहुँचते ही रहे।
शर्मा जी पहली बार सन 1937 ई. में5वीं फरवरी को पकड़े गए और जून में छोड़े गए। उन पर तथा 19 और साथियों पर120 बी., 117, 107 आदि धाराओं के अनुसार केस चले थे। वे पीछे खत्म हो गए! दो-ढाई सौ किसान भी पकड़े गए। उन पर प्राय: झूठे केस चले। पीछे अधिकांश खारिज हो गए। दूसरी बार शर्मा जी ता. 2-5-39 को गिरफ्तार हुए। उनके साथी भी पकड़े गए।
टाल के ही संबंध में सन 1936 के अक्टूबर में मुंगेर में, सन 1937 की फरवरी में शेखपुरा में, 1937 के अक्टूबर में लखीसराय में, 1938 के नवंबर में लखीसराय में और 1939 के फरवरी में टाल में ही पाली में किसान सम्मेलन हुए। लखीसरायवाले सम्मेलन में आते हुए सौ किसानों का जत्था श्री पंचानन शर्मा की नायकता में बड़हिया में बुरी तरह पीटा गया! यों तो टाल के सत्याग्रह में बूढ़े स्त्री-पुरुषों की हड्डिया भी टूटीं। मगर वे इतने शांत रहे कि सरकार के अफसरों को लाचार हो के कहना पड़ा कि सचमुच यही शांति सेना है।
दूसरी गिरफ्तारी के बाद ही पं. कार्यानंद शर्मा और श्री अनिल मिश्र ने'किसान-मजदूर बंदी राजबंदी करार दिए जाए'इस माँग के लिए पूरे डेढ़ मास तक जेल में अनशन किया। अंत में कांग्रेसी मंत्रियों ने उन्हें मरणासन्न समझ कर छोड़ा!'किसान बंदी राजबंदी'इस माँग के लिए श्री राहुल सांकृत्यायन को भी दो बार दस और अट्ठारह दिनों तक अनशन करना पड़ा। वह हालत खराब होने पर ही जेल से दोनों बार छोड़े गए। इसी सिलसिले में श्री जगन्नाथ प्रसाद और ब्रह्मचारी रामवृक्ष (दोनों ही सारन जिले के हैं) ने पूरे 90 दिनों की भूख हड़ताल जेल में की और मृत्युशय्या पर ही ये लोग भी रिहा हुए। यह सारी घटनाएँ कांग्रेसी मंत्रियों के समय में हुईं! मगर वे टस से मस न हुए! उनने किसान या मजदूर बंदियों को राजबंदी नहीं ही माना!
पहली बार श्री कार्यानंद जी की गिरफ्तारी के बाद पं. यदुनंदन शर्मा को हमने प्रांतीय किसान-सभा की ओर से टाल में भेजा। वे वहाँ चारों ओर घूमकर देखभाल करते रहे। मुझे तो न जाने कितनी बार टाल में जाना पड़ा है।
सन 1937 के जून में श्री राजेंद्र बाबू,श्री कृष्ण सिंह आदि की एक कमिटी बनी। उनने कुछ फैसले भी किए,गो किसानों को उनसे ज्यादा लाभ न था। फिर भी हमने उन्हें मान लेने की राय दी। मगर जमींदारों ने ही न माना। पीछे तो उस कमिटी का वह फैसला ही दबा दिया गया।
फिर सन 1938 के अक्टूबर में मुंगेर के कलक्टर ने एक दूसरी पंचायत बनाई और फैसले का भार उसे सौंपा। उसने भी काफी गुड़ गोबर किया और बड़ी दिक्कत तथा दूसरी बार शर्मा जी की अध्यक्षता में मुंगेर कचहरी पर ही धरना देने के लिए किसानों के अनेक जत्थे पर जत्थे जाने लगे और शर्मा जी आदि की गिरफ्तारी के बाद ही उसने कुछ किया। मुश्किल से केवल एक हजार बीघे जमीन पर उसने किसानों का अधिकार बताकर उन्हें दिया। अभी उससे कुछ ज्यादा ही जमीन पर किसानों का दावा बना है। कमिटी कुछ न कर सकी। हाँ,इसी बीच बड़हिया टाल से मिले कुसुम्भा टाल में 1800 बीघे जमीन पर जमींदार ने,जो पटने के कोई नवाब साहब हैं,किसानों का हक मान लिया है।
सन 1936 के जून में टाल के किसानों ने कलक्टर के पास पहली दरखास्त भेजी। उनके दो जत्थे जाकर कलक्टर से मिले भी। उसी के बाद जमींदारों की नादिरशाही शुरू हुई और इंच-इंच जमीन छीन ली गई! फिर 1937 के बीतते-न-बीतते कमरपुर में किसान खूब पिटे। उलटे 32 के ऊपर 107 का केस भी जमींदारों ने चलाया। बस,सारा गाँव उजड़कर बाल-बच्चे,पशु आदि के साथ रवाना हुआ। साथ में लंबे-लंबे पोस्टरों पर जमींदार का नाम और अत्याचार मोटे अक्षरों में लिखा था! कई दिन चलकर वे लोग मुंगेर पहुँचे। रास्ते में ही धूम मची। मुंगेर में जब हर गली में नारे लगाते हुए वे लोग घूमे तो खासी सनसनी फैल गई! अंत में कलक्टर के दबाव से कुछ कांग्रेसी नेताओं की एक तीसरी कमिटी पंचायत करने के लिए बनी। वह तो आज तक खटाई में ही पड़ी है।
इस प्रकार बड़हिया टाल में जमींदारों के दुराग्रह एवं सरकार तथा मंत्रियों की कमजोरी,बल्कि उनके द्वारा जमींदारों को प्रोत्साहन देने और लीपापोती के कारण ही किसानों के साथ न्याय न हो सका। हालाँकि उनने मर्दानगी से कष्ट भोगे और लड़ाई लड़ी। उनके पथ-दर्शक भी पक्के मिले। सबसे बुरी दशा रेपुरा गाँव की है। वहाँ के स्त्री-पुरुषों की मर्दानगी से मैं दंग रह गया। मगर उन्हें एक इंच भी जमीन न मिली! वे भूखे नंगे हैं! तुम धन्य हो न्याय! धन्य हो शोषण!
रेवड़ा- सन 1938 ई. के अंत में मसौढ़ी जिला पटना में पटना जिला किसान सम्मेलन होने को था। उसके पूर्व ही बड़हिया टाल की परिस्थिति नाजुक हो गई थी। न तोमंत्रीलोग ही कुछ कर सके और न पंचायत कमिटियाँ या कांग्रेसी लीडर ही! किसान ऊब रहे थे। वे भूखों मर रहे थे। हमने भी किसान-सभा की ओर से अभी तक उन्हें सिर्फ उपदेश ही दिया था। बड़हिया टाल का सत्याग्रह व्यक्तिगत रूप से शर्मा जी और हम लोग चलाते रहे सही। मगर किसान-सभा ने उसे खुल कर अपने हाथ में लिया न था। असल में उसने तब तक सत्याग्रह तक कदम नहीं बढ़ाया था। बिहार के हर कोने में यही हालत थी। कांग्रेसी मंत्रियों के जमाने में तो जमींदारों की हिम्मत और भी बढ़ी थी। खास कर कांग्रेस-जमींदार समझौतों के करते। इसलिए जुल्म बढ़ रहा था। जमीने धड़ाधड़ छिन रही थीं। फलत: किसानसर्वत्रऊब चुके थे। खतरा था कि यदि हम शांतिपूर्ण संघर्ष में उन्हें सभा की ओर से न लगाते तो वे मारपीट और लूटपाट पर आ जाते। इधरदो-तीन मास पूर्व से ही पं. यदुनंदन शर्मा ने हार कर रेवड़ा में,जो गया जिले के नवादा सबडिवीजन में वारिसलीगंज से 8-10 मीलउत्तरहै,किसानों को तैयार करने के लिए अपना कैंप भी खोल दिया था। वहाँ किसान-सेवक भर्ती करके उन्हें तालीम दे रहे थे।
रेवड़ा की हालत यह थी कि वहाँ प्राय: डेढ़ हजार बीघा जमीन थी और सभी जमींदार ने नीलाम करवा ली थी। वारसलीगंज के पड़ोसी साम्हे गाँव के श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह वगैरह उसके जमींदार हैं। गाँव में 5-6 सौ आदमी चिथड़ा पहने भूखों मरते थे। ब्राह्मणों की लड़कियाँ बेची गईं और जमींदार ने उसमें भी आधा मूल्य जमींदारी हक में ले लिया! शेष बाकी लगान में! फिर भी जमीन न बची! बूढ़ी होने पर उनमें जो बची हैं उनने अपनी कहानी हमें सुनाई! दो कद्दू कहीं छप्पर पर फला तो एक जमींदार का हो गया! दो बकरे हुए तो एक उसका! गाँववालों से एक बार उसने दूध माँगा। मगर नहीं मिला। था नहीं। उसने कहा,जैसा कि मुझे बताया गया, कि औरतों को दुह लाओ!
जमींदार के पास,मजिस्ट्रेट के पास और मंत्रियों तथा लीडरों के पास दौड़ते-दौड़ते किसान थक चुके थे। अंत में उनने पं. यदुनंदन शर्मा को पकड़ा। उन्होंने भी जमींदार को बहुत समझाया। तीस रुपए फी बीघा सलामी दे कर भी जमीन लेने को किसान तैयार हुए। इस प्रकार जमींदार चालीस हजार रुपए एक मुश्त पा जाता! किसान कर्ज ला के या किसी प्रकार देते ही! मगर कौन सुने!
तब शर्मा जी ने कहा कि खेत जोत लो और फसल काट लो,जो भी थोड़ा सा धान बोया है। किसानों ने उत्तर दिया कि हम उपदेश नहीं चाहते। हमने तो समझा था,आप कोई रास्ता पकड़ाएँगे। मगर जब आप भी लेक्चर ही देते हैं,तो जाइए। हमें मरने दीजिए। और अगर नहीं तो आगे हल ले कर चलिए और जोतिए। धान काटिए। पीछे हम भी रहेंगे,आपके साथ ही मरेंगे। शर्मा जी को यह बात लगी और वहीं डँट गए। मुझे खबर भेज दी कि अब मैं जेल जाऊँगा। ऐसी ही हालत है। आप एक बार आयें और देख जाए। बिना पूछे पड़ गया,एतदर्थ क्षमा चाहता हूँ। असल में दोनों शर्मा (कार्यानंद और यदुनंदन) ने अभी तक बिना मुझसे पूछे ऐसा कदम कभी न बढ़ाया और न कोई खास काम ही किया था। मैं वहाँ गया और पचीस हजार किसानों-स्त्री,पुरुष,लड़कों की अपूर्व सभा थी! मैं भी हालत देख के दंग रह गया।
उसके बाद मसौढ़ी कॉन्फ्रेंस के समय मैंने पहला वक्तव्य दिया कि अब कोई चारा नहीं कि किसान-सभा आगे बढ़े और किसानों की सीधी लड़ाई-सत्याग्रह-का नेतृत्व करे। नहीं तो किसान हमसे भी निराश हो जाएगे, यही समझ के कि हम भी सिर्फ लेक्चर ही देते हैं। ये लेक्चर और प्रस्ताव तो पढ़े-लिखों के ही लिए हैं। वह इससे ऊबते नहीं। मगर जनता तो सदा काम करती है और बोलती कम है। इसलिए अब उसे काम देना हमारा फर्ज है। हम कांग्रेसी मंत्रियों को परेशान करने के लिए नहीं,किंतु अपनी हस्ती कायम रखने और अपना फर्ज अदा करने के लिए ही आगे बढ़ेंगे। और जरूर बढ़ेंगे।
बस,मंत्रियों और जमींदारों में खलबली मच गई। मुझे बहुत बुरा-भला सुनना पड़ा। मगर सम्मेलन में मैंने अपील की कि रेवड़ा सभी किसानों का तीर्थ बने और पुकार होते ही किसान पैदल ही चारों ओर से दौड़ पड़ें। अन्न, धान की सहायता करें। हुआ भी ऐसा ही। सैकड़ों आदमी वहाँ खाते रहते। जेलयात्रियों की धूम थी। मैं भी ज्यादातर वहाँ जाता। शर्मा जी की गिरफ्तारी के बाद तो वहीं रहने भी लगा। प्रांतीय किसान कौंसिल की एक बैठक भी वहीं हुई। सभी किसान नेता और कार्यकर्ता जमा हुए। सरकार परेशान थी। सैकड़ों पुलिस के जवान,उनके अफसर,खुफियावाले और दो मजिस्ट्रेट वहाँ रखे गए थे। मगर किसान आगे बढ़ते ही गए।
वहाँ की स्त्रियों ने हमें विश्वास दिलाया कि मर्द पीछे जाए तो जाए। मगर हम तो आपका साथ सदा देंगी। ह्निटेकर साहब जिला मजिस्ट्रेट बन के हमें वहाँ सर करने आए थे। मगर स्वयं सर होके विलायत चले गए! सभी ताज्जुब में थे कि क्या हो गया! उन लोगों को तो वहाँ खाना मिलना असंभव था। दूसरे गाँव में रहते थे! फिर भी दुर्दशा थी! जमींदार लाठी खाए साँप की तरह फुँफकारता था,मगर बेकार। रेवड़ा जमींदार और सरकार दोनों ही के लिए आतंक बन गया!
गया जिला कांग्रेस कमिटी ने भी हमारे सत्याग्रह का समर्थन किया था। बस, प्रांतीय कांग्रेस कमिटी बिगड़ी और प्रस्ताव करके कार्यकारिणी ने उसे डाँटा। बिना आज्ञा लिए चलाए गए सत्याग्रह को उसने नाजाएज ठहराया।
इससे अधिकारियों को हिम्मत आई। स्पेशल मजिस्टे्रट ने फौरन ही हमें हिम्मत के साथ वह प्रस्ताव दिखाया। हम हँसे और बोले कि हमने यह सब बहुत देखा है। फिर तो उनकी हिम्मत पस्त हुई।
किसानों की दशा यह थी कि उनसे जो भी कोई कुछ पूछता और सुलह की बात करता तो मुँह फेर देते और कहते कि पं. यदुनंदन शर्मा से पूछिए। हम तो उन्हीं का हुक्म मानेंगे। किसी की एक न चली और अंत में हम जीते।
किसानों को जमीन मिली,जो हलवाहे,चरवाहे सभी को दी गई। बिना जमीन वहाँ एक घर भी न रहने पाया। शर्मा जी से कलक्टर ह्निटेकर साहब ने जमींदार की ओर से समझौता किया। क्योंकि जमींदार ने लिख कर उन्हें अधिकार दिया था। प्राय: डेढ़ सौ बीघा जमींदार को दे कर शेष जमीन किसानों को मिली। कांग्रेस की बकाश्त जाँच कमिटी ने डेढ़ सौ बीघे पर जमींदार का कब्जा बताया था। इसीलिए मजबूरन उतनी जमीन देनी पड़ी। आखिर करते क्या? अपनी ही कमिटी ने तो पहले ऐसा बताया था।
रेवड़ा में पहले तो पुलिस हल आदि छीन ले जाती,ज्यों ही किसान खेतों पर जाते थे। क्योंकि नोटिस लगा के खेत जब्त किए गए थे। पीछे तो एक-एक हल पर दस-बीस किसान लिपट जाते और छोड़ते न थे,क्योंकि गरीबों को घाटा था छोड़ देने में। बस,पुलिस हार गई! जिस दिन सभी किसान नेता वहाँ थे उस दिन औरतों ने ऐसे कमाल का सत्याग्रह किया कि पुलिस शर्मिंदा हो के लौट गई।'इनक्लाब जिंदाबाद' 'जमींदारी नाश हो' का नारा औरतों ने पुलिस के सामने और पीछे भी लगाया। असल में पुलिस औरतों का लाठा रोकने गई थी। मगर औरतें दल बाँध के डँटी रहीं और लाठा चलाती ही रहीं। वही आखिरी भिड़ंत थी। फिर तो पुलिस को हिम्मत न हुई। हम लोग सारा नजारा देखते और दूर से हँसते रहे। पीछे पास में भी गए।
त्रिपुरी कांग्रेस के समय ही शर्मा जी साथियों के साथ जेल से रिहा कर दिए गए। सरकार ने लड़ाई के दौरान में दफा 145 के द्वारा मजिस्ट्रेट से फैसला कराने का हजार प्रलोभन दिया, तारीखें रखीं, खबर भेजी। मगर किसान नहीं गए और नहीं गए। तब अंत में जीते।
मझियावाँ और दूसरी जगहें ─ इन लड़ाइयों के अलावे गया के ही मझियावाँ,अनुवाँ,आगदा,भलुवा,मझवे,साँड़ा आदि गाँवों में किसानों ने सफलतापूर्वक सत्याग्रह संग्राम किया। इसके सिवाय शाहाबाद के बड़गाँव,दरिगाँव आदि में,सारन जिले के अमवारी,परसादी,छितौली आदि में,दरभंगा के राधोपुर,देकुली,पंडौल,पड़री (विथान) आदि में,पटना के दरमपुरा,अंकुरी,जलपुरा,तरपुरा,वेलदारीचक आदि में भी किसानों ने बड़ी मुस्तैदी से यह संघर्ष किया। चंपारन और भागलपुर में भी संघर्ष हुए और लोग जेल गए। पूर्णियाँ तो बहुत ही पिछड़ा हुआ है। वहाँ न तो किसान-सभा ही मजबूत है और न वैसेकार्यकर्ताही हैं। लेकिन खेद है कि मुजफ्फरपुर में न तो कोई संघर्ष हुआ और न किसान-सभा काइधरकोईमहत्त्वपूर्ण काम ही नजर आया। हालाँकि सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता उसी जिले के हैं। इधरवहाँ की किसान-सभा ने अपने अस्तित्व का सबूत भी नहीं दिया है,यह दु:ख की बात है।
मझियावाँ में तो असल में औरतों ने ही सत्याग्रह किया और न सिर्फ उस गाँव की, वरन आसपास के गाँवों की औरतों ने उसमें पूरा सहयोग दिया। जब टेकारी राज के गुंडे लाठियाँ ले कर खेतों पर से उन्हें हटाने गए तो डँटी रहीं और गुंडों को दो-तीन ने मिलकर पछाड़ा भी। और जब भाड़े की औरतें जमींदार ने भेजीं तो उन बहादुर स्त्रियों ने इन भाड़ेवालियों को बात की बात में भगा दिया। पटने के दरमपुरा में भी औरतों और बच्चों ने ही लड़ाई जीती। वैसी बहादुरी मुझे और कहीं देखने को न मिली।
साँड़ा में भी औरतों ने पुलिस का घेरा तोड़ कर खेत में हल जोता और पुलिस को भगाने को विवश किया। अनुवाँ में खेतों पर ही झोंपड़े बना कर बाल बच्चों के साथ सभी किसान जा डँटे। फिर तो सभी कोशिशें करके सरकार हार गई। उन्होंने 144, 147 और 107 आदि धाराओं की भी परवाह न की और न कचहरी या जेल ही गए। उन्होंने कहा कि या तो इसे ही जेल बना दीजिए या पशु आदि के साथ हमें जेल ले चलिए। हम इन्हें छोड़ के कहाँ जाए?
दरभंगा के राघोपुर में तो गोलियाँ भी चलीं। मगर खून से लथपथ होकर भी किसान डँटे रहे। पंडौल का सत्याग्रह तो कमाल का रहा। वहीं दरभंगा महाराजा को पाठ पढ़ना पड़ा। देकुली में सैकड़ों किसान जेल गए और तबाह किए गए। लेकिन वहाँ के सूदखोर जमींदार के नाकों दम करके ही छोड़ा। उसे एक आदमी तक मिलना असंभव हो गया! उसका ऐसा भीषण बहिष्कार किया गया। विथान में होनेवाली दरभंगा राज की नादिरशाही गरीबों ने धूल में मिला दी और जमींदारी-शान खत्म कर दी। हमारे सभी प्रमुख कर्मी बराबर जेल में बंद रखे गए। फिर भी उनने हिम्मत न हारी।
अमवारी की बात तो श्री राहुल सांकृत्यायन के उपवास को ले कर काफी प्रसिध्द हुई। वे दो बार जेल गए और प्रतिज्ञा के अनुसार उपवास किया। पहली बार तो सरकार (कांग्रेसी) किसान बंदियों को राजबंदी मानने को प्राय: तैयार भी हो गई थी। केवल राजबंदी की परिभाषा में उसे दिक्कत थी। वह भी करीब-करीब हल हो चुकी थी। मगर पीछे चुप्पी साध गई।
राजबंदियों के लिए न सिर्फ हमारे 8-10 प्रमुख कर्मियों ने प्राणों की बाजी लगा दी, किंतु हमने प्रांत भर में घोर आंदोलन किया,दिवस मनाया। अखिल भारतीय किसान-सभा ने भी उसमें हमारा साथ दिया। मगर सरकार टस से मस न हुई।
उस आंदोलन से हमने बहुत कुछ सीखा। उसमें कांग्रेसी नेताओं की मनोवृत्ति की पूरी झाँकी हमें मिली। यही क्या कम था?अमवारी के सत्याग्रह से ही इसका श्रीगणेश हुआ और प्रांत में यह बात फैली।
अमवारी में श्री रामवृक्ष ब्रह्मचारी ने जो स्त्री-पुरुषों का अपूर्व संगठन किया और वहाँ से पैदल 14 मील सीवान तक जुलूस का जो सुंदर प्रबंध किया, जिसमें स्त्रियाँ भी लाल कपड़ों में थीं, सीवान शहर में हमने उस जुलूस का जो महत्त्व देखा और उसने लोगों पर जो असर किया वह सभी बातें चिरस्मरणीय रहेंगी। जब वहीं ब्रह्मचारी जी को आधी रात के बाद पुलिस पकड़ने आई, तो औरतों ने घेरकर ऐसा रोका कि पुलिस दंग रही। पीछे समझाने पर कठिनता से हटीं। ब्रह्मचारी जी तो इस्पात के बने हैं। किसान बंदियों को ले कर पूरे 90 दिनों तक भूखे रहे और मृत्युशय्या पर ही छूटे। न सिर्फ उनके गाँव सबलपुर को,बल्कि किसान आंदोलन को और खासकर मुझे उन जैसा साथी पाने का गर्व है। श्री कार्यानंद, श्री यदुनंदन, श्री राहुल जी जैसे मेरे गिने-चुने साथियों में वह हैं। बेशक जैसे मुंगेर के लिए कार्यानंद,और गया के लिए यदुनंदन हैं। उसी तरह सारन (छपरा) के लिए राहुल जी हैं और उन्हें वैसा ही साथी मिला है।