बड़ा-भाई / दीपक मशाल
गाँव से थी तो क्या? वो इतनी भी नासमझ नहीं थी कि किसकी नज़र उसे कैसे देख रही है ये ना समझ पाती। सामने वाली सीट पर बैठे उस छोरे की चोर नज़र को कब का भांप लिया था उसने। वह रह-रह कर तिरछी नज़रें कर धोती के भीतर उसके इकलौते बेटे की भूख मिटाती छातियों की झलक पाने की कोशिश करता। बार-बार कभी बाथरूम जाने के बहाने उठता तो कभी पानी के।। और ऊपर से तो कभी बगल से झाँकने की कोशिश करता। किसी ने सच ही कहा है 'गरीब की लुगाई, गाँव भरे की भौजाई'।
उसकी झिर्री सी धोती और दयनीय दशा देख कर ही उस नवयुवक की इतनी हिम्मत हो रही थी कि भीड़ से भरी इस जनरल बोगी में भी उसके अंग-विशेष को हसरत भरी निगाहों से घूरे जा रहा था। मजूरी करते वक़्त अक्सर ठेकेदार की नज़रें भी तो ऐसे ही घूरती हैं उसे।
काफी देर हो गई तो उसने दूध पीते बच्चे को समझाने के अंदाज में कहा, “तू इतने से संतोष करले मुन्ना। तेरा बड़ा भाई तुझसे ज्यादा भूखा लग रहा है।”