बड़े काम की चीज है जूता / सुभाष चन्दर
जूता चाहे चमड़े का हो, कपड़े का या प्लास्टिक का। जूता हमारे देश की स्वस्थ सांस्कृतिक परंपरा का प्रतीक है। लोगों को गलतफहमी है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। ये सब बेकार की लंतरनिया हैं। अब भला आप समाज का दर्पण देखना चाहो तो पहले पढ़ना-लिखना सीखो, तब जाकर समाज को जानो। मेरा ख्याल है कि आप किसी समाज को जानना चाहते हैं, तो उसमें रहने वालों के जूते देखो। आपके सब समाज वमाज की पोल खुल जाएगी।
जूते और चमड़े में अन्योन्याश्रय संबंध है। कुछ अपवादों को छोड़कर जूता चमड़े से ही बनता है और चमड़े पर ही लगता है। वैसे यह लात नामक अंग का वस्त्र है। वैसे जूता मारने और खाने का उपयुक्त अंग सिर है। सिर जूते के प्रसाद को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता है और लगने के बाद पावती के सबूत के रूप् में गुमड़ जैसा उभार देता है। इसके अलावा भीगे जूते का भी प्रताप अलग किस्म का होता है। दो-चार दिन अगर पानी में भिगोकर जूते का सेवन किया जाए तो उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। सरकारी सहायता की तरह यह काम कम और आवाज ज्यादा करता है।
जूता मारना जितने महान् कार्य की श्रेणी में आता है उतना ही पुण्य महात्मय जूते खाने के पुनीत कार्य में है। बेताल ने विक्रम को जूता महातम्य बताते हुए कहा था- ‘हे राजन! बेटा बचपन में बाप के जूते खाता है, तो बुढ़ापे में बाप को ब्याज समेत जूते का अर्पण करता है और एडवांस में अपनी औलाद से भी बुकिंग करा लेता है।’
पत्नी पिटाई ड्यूटी में भी अधिकतर जूते नामक शस्त्र का प्रयोग उत्तम माना गया है। पति पत्नी को यदि जूते दान में देता है तो पत्नी भी बलम की अनुलब्धता में जूते की छोटी बहन चप्पल का दान पूरी श्रद्धा से देती है। ये तो रहा जूते का पारिवारिक स्तर पर प्रयोग लेकिन इसने अपने आपको घर-परिवार की सीमाओं में कभी नहीं बांधा। जब पड़ोसी धर्म का निर्वाह करने के लिए गाहे-बगाहे जब भी उसकी मां-बहनों को अलंकृत किया जाता है। इसके अलावा जब कोई सज्जन किसी कन्या को देखकर आंखें सेंकते-सेंकते जुबान अथवा हाथों को गर्मी देने लगते हैं तो उन्हें गर्मी की अतिरिक्त सप्लाई के लिए आस-पड़ोस के लोगों द्वारा जूते की ही भारी खुराक देने की परंपरा है।
खाने और लगाने के अलावा यह प्रदर्शन की भी नायब वस्तु है जहां जूते के खानपान और धारण से काम नहीं चलता, वहां इसको दिखाना काफी महत्वपूर्ण और कार्यसाधक माना गया है। हमारे एक मित्र हैं उन्हें जूता दिखाने का शौक है। वे कार्यालय में अधीनस्थों को, घर में पत्नी को और दर्पण में खुद को जूता दिखाते हैं।
बहुत से बड़े कार्य सिर्फ जूता प्रदर्शन से ही सिद्ध हो जाते हैं। जूते चलाना और साइकिल चलाने में जूता ज्यादा चलाना ज्यादा मुश्किल काम है। ये काम हमारे देश की संसद में बड़े इत्मिनान से होता है। संसद में आजकल प्रवेश ही उसको मिलता है जिसे विपक्ष पार्टी के सदस्यों से पारिवारिक रिश्ता एवं जूता चलाने में दक्षता हो। वैसे भी वाॅक आउस से समय मिलता है तो खुलकर जूता चालन क्रिया सम्पन्न होती है। एकलव्य ने तो सिर्फ कुत्ते का बाणों से मुंह बंद कर दिया था। लेकिन हमारे नेता जूते से ही इस काम को कर देते हैं। और वो भी प्रशिक्षण के। धन्य हैं वे और उनके जूते।
कहते हैं मेरा हाथी सवा लाख का होता है। वैसे ही जूता चाहे किसी भी अवस्था में हो वो सिर्फ जूता होता है। अब घिसे हुए जूते को ही ले लीजिए। घिसा हुआ जूता एक शानदार दर्पण होता है जिसमें से देश के बेरोजगार नौजवान का चेहरा साफ दिखाई देता है। इसके अलावा भी जूते के प्रताप बहुत हैं। जूता संकटमोचक का भी काम करता है। रोटी का अलख जगाने वाले बीमार कवियों को अंडे, सड़े टमाटर व जूतों को समान मात्रा में मिलाकर सेवन कराएं तो शर्तिया आराम होता है। बदायूं के एक कवि सम्मेलन में निर्भय हाथरसी गा रहें थे ‘रोटी दे दे‘ और गलती से श्रोताओं ने समझ लिया ‘जूता दे दे‘ तो उनकी तो आवश्यकता पूरी हुई ही साथ ही अन्य कवियों को भी भूखा नहीं रखा गया। इसके अलावा आश्वासन की खुराक दे रहे नेताजी को प्रत्युत्तर में कुछ देना है तो यही जूता समर्पण ही ठीक रहता है।
कहते हैं कि जूते के आगे भूत भी नहीं टिकते तो संसद में भी कुछ जूतों की दुकान खुलवानी चाहिए, देखें क्या परिणाम निकले। वैसे भी जूता खाया जाता है, लगाया जाता है, दिखाया जाता है, जूते से भगाने का काम भी किया जाता है। शायद जूता ही एक ऐसी वस्तु है जिसे चुराने पर रोकड़ा मिलता है। जूता यानी नावां...... मनी.... रुपया। जब शादी के बाद दूल्हे मियां एक दिन की चकाचैंध में सारी दुनिया भूले रहते हैं। वहीं साली उनकी मस्ती में 101/- रुपये का विघ्न डालने के लिए उनकी चरण पादुका हरण कर लेती है। आधे साली की मुस्कुराहट के और आधे नंगे पैर जाने के डर से, जीजाश्री द्वारा नकद नारायण की भेंट, चढ़ाई जाती है।
जूते में और भी बहुत गुण हैं। यही जूता जब द्रौपदी के घर के बाहर रखा होता है तो संतरी बन जाता है और यदि राजा के पैर में फिर आ जाए तो मंत्री बन जाता है। एक अनार सौ बीमार जूता तो एक है गुण हजार।
जूता आज से लाखों बरस पहले से विभिन्न रूपों से चलता रहा है और अधिक क्या कहूं। यहां तक की त्रेता युग में महापुरुष रामचंद्र ने तो भरत को अपनी निशानी के रूप में अपना जूता यानी चरण पादुकाएं ही दे दीं। और वाह रे महामन भरत! जिन्होंने रामजी के जूते को ही राजगद्दी पर बैठाकर जूते को महत्ता बख्शी।