बड़े लोगों का पार्क / दीपक श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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रामविलास को पहले सपने में ही आवाजें आईं। झूले की एकसर आवाज उसे देर तक थपकी देती रही। तभी खतरे की आशंका ने उसकी सारी इंद्रियों को एक साथ जागृत कर दिया। वह वर्माजी के घर के पोर्टिको में सोया था। चादर फेंकना, फोल्डिंग से उतरना, गेट खोलना और पार्क में प्रवेश करना, ये सारी क्रिया उसने एक ही टेक में किया। उसने देखा, लड़का पार्क में झूले पर झूल रहा है।

इसका मतलब, कल रात वह झूले में ताला लगाना भूल गया था। सुबह चार बजे की उस बेला में रामविलास को कँपकँपी हो आई। अगर, वर्माजी ने देख-सुन लिया, तो उसकी गुडमार्निंग गालियों से ही होगी। अभी आसमान में तारे थे। अक्टूबर महीने की सुबह, घास को ओस ने पूरी तरह से अपने आगोश में ले लिया था। वह लड़का झूले पर खड़ा होकर पेंगें ले रहा था। पहनने के नाम पर उसने सारे बदन पर हाफपैंट व बनियान पहन रखी थी।

रामविलास आवाजें करता हुआ उसकी तरफ चला। वह चाहता था कि लड़का उसको देख कर ही भाग जाए। रामविलास चुपके से जाकर उसे पकड़ने का खतरा नहीं लेना चाहता था। वह पिछली बार की कार्यवाही की पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता था। लड़के ने रामविलास की आवाजें सुनी, झूले से उतरा, पार्क की रेलिंग फाँदी और अँधेरे में गुम हो गया।

रामविलास आकर अब उसी झूले पर बैठ गया।

इस लड़के ने पिछले तीन महीने से परेशान कर रखा है। रामविलास ने हर तरह की कोशिश कर ली, लेकिन लड़के ने पार्क में आना बंद नहीं किया। रामविलास के डर की मुख्य वजह वर्माजी थे। वर्माजी को इस लड़के से जबरदस्त एर्लजी थी। वह जिस दिन पार्क में इस लड़के को देख लेते थे, उस दिन रामविलास की शामत आ जाती थी। लड़के की उम्र दस-ग्यारह साल थी। सारे प्रतिबंधों के बावजूद उसने पार्क में आना नहीं छोड़ा। वर्माजी को देख कर उसकी हरकतें कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती थीं। वर्माजी ने रामविलास को चेतावनी दे रखी थी कि लड़का पार्क में न आने पाए। हालाँकि पार्क सार्वजनिक है। माननीय मंत्री जी ने सात महीने पहले पार्क का लोकार्पण जनता के लिए किया था। उस दिन जलसा हुआ था और मिठाई बँटी थी।

लड़के ने भी मिठाई खाई थी। यह पार्क राजधानी के सबसे संभ्रांत और महँगे इलाके में विकास प्राधिकरण द्वारा नवविकसित कालोनी के एक सुरुचिपूर्ण खंड में है। यहाँ बड़े प्लाट ही हैं। पहले कुछ मध्यमवर्गीय लोगों को भी आबंटन मिला था। इस नवविकसित कालोनी के ग्लैमर और आर्कषण ने यहाँ की जमीन की कीमतें काफी बढ़ा दी थी। उन कीमतों के दबाव में आकांक्षी लोगों ने अपनी जमीनें बेच दीं। अब यहाँ मुख्यतः राजनेता, ब्यूरोक्रैट, पुलिस अधिकारी, परंपरागत व्यवसाई और नई नस्ल के व्यापारी रहते हैं।

अभी जिस जगह पार्क है, वहाँ पहले मैदान था। लोग कूड़ा फेंकते थे। झाड़ियों ने पूरे मैदान को ढँक लिया था। कालोनी में काफी बड़े लोग रहते हैं, इसलिए सामाजिक मेलजोल न के बराबर था। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, यह सिद्धांत इस कालोनी में लागू नहीं होता है। कुछ रिटायर्ड वृद्ध और स्वास्थ्य के प्रति जागरुक लोग जिन्हें सुबह-शाम सड़क पर टहलना पड़ता था - एक सार्वजनिक स्थल की जरूरत महसूस करते थे। उनमें से कई दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में रहते, घूमते थे। इसलिए वहाँ के पार्को के सुबह-शाम की रौनक के कायल थे।

ऐसी ही किसी चर्चा में यह बात वर्माजी तक पहुँची। वर्माजी उस समय नगर विकास विभाग में उच्च पद पर थे। नगर में पार्को के सौंदर्यीकरण की फाइल दो दिन पहले ही उनके पास आई थी। उन्होंने तत्क्षण सामाजिक उतरदायित्व और धार्मिक-भाव से घर के सामने के पार्क को बनवाने का प्रण लिया। धर्म उनके नस-नस में दौड़ता था। कोई भी सामाजिक कार्य जब वह करते तो उत्साह से मंदिर के घंटे और गीता के स्वर उनके कानों में बजने लगते। अगले ही दिन, दफ्तर में उन्होंने बड़े बाबू को बुला कर वात्सल्य खंड में पार्क का प्रोजेक्ट जोड़ने और उसके लिए बीस लाख रुपए का प्रावधान करने को कहा। पंद्रह दिनों में उन्होंने फाइल हर जगह से संस्तुति कराई और अपने खास ठेकेदार के लिए वर्कआर्डर निकलवा दिया।

उन्होंने जिस ठेकेदार को काम दिलवाया, जब उसको बुलवाया तो दफ्तर के बड़े बाबू ने वर्माजी के सामने उससे कहा, 'साहब का यह अपना पार्क है। इसमें कोई चालाकी और बेईमानी मत करना। यह समझना कि साहब की इज्जत इससे जुड़ी है।'

यह सुनते ही वर्माजी के अंदर आदमीयत छलछलाने लगी। कर्तव्य की भावना से उनका हृदय रुँधने लगा, हालाँकि रुँधता तो गला है, लेकिन उन्हें लगा कि उनका हृदय सद्भाव से रोने-रोने को हो रहा है। उनकी रीढ़ की हड्डी कड़ी होने लगी। यदि उनके पूँछ रहती तो यकीकन उस समय हिलने लगती।

पार्क बनवाना वर्माजी को एक मिशन की तरह लगा। कई मौकों पर उन्होंने खुद खड़े हो कर काम कराया। पार्क में फुटपाथ बना, फूलों की क्यारियाँ बनीं, मँझोले पेड़ लगे, अच्छी घास लगी। बच्चों के लिए झूला लगा। ठेकेदार ने भी वर्माजी की भावना के अनुसार काम कराया। पार्क का एक गेट उसने वर्माजी के घर के सामने खुलवा दिया। पार्क जब बनकर तैयार हुआ तब कालोनी के बहुत सारे लोगों ने वर्माजी को बधाई दी। कालोनीवासी वरिष्ठ आई.ए.एस. अफसरों ने भी वर्माजी के इस कार्य की सराहना की। इसके पहले आला दर्जे के ये अफसर वर्माजी को कोई तवज्जो नहीं देते थे। उन घरों की बर्थडे पार्टियों का निमंत्रण भी उनके यहाँ नहीं आता था। दरअसल वर्माजी सचिवालय कैडर से प्रोन्नत होते हुए अफसर बने थे। हाकिमों को अन्य सभी बातों के अलावा यह बात भी पता थी। इस पार्क ने वर्माजी की सामाजिक-प्रतिष्ठा और रुतबे में बढ़ोत्तरी कर दी थी।

वर्माइन भी वर्माजी के इस कार्य से फूली नहीं समातीं। पार्क पर उनका अधिकार मालिकाना था। मौसमी फूल कौन सा लगाया जाएगा, इसमें उनकी दखल रहती थी। माली हर काम में उनकी राय लेता था। रामविलास घर का नौकर ही हो गया था।

रामविलास ठेकेदार का आदमी था। पार्क बनवाने के अनुबंध में उसके पाँच साल रखखाव की जिम्मेदारी ठेकेदार की होती है। ठेकेदार ने रामविलास को देखरेख के लिए रखा था। दो माली भी चार घंटे के लिए आते थे। शेष सारा तकनीकी और गैरतकनीकी प्रबंधन रामविलास के जिम्मे था। पानी लगाना, सफाई करना, पार्क की देख-रेख, सुरक्षा आदि की सभी जिम्मेदारी उसी की थी। ठेकेदार उसे महीने के सोलह सौ रुपए देता था।

रामविलास जब इस नौकरी पर आया, तभी उसे वर्माजी का महत्व पता चल गया था। पार्क पर वर्माजी का अधिकार था ही, पार्क के चौकीदार पर भी हो गया। रामविलास, पार्क की देखरेख के साथ ही वर्माजी के घर के भीतर-बाहर के काम भी करने लगा। रात में उनके मकान के पोर्टिको में सोता था। उसे वर्माजी के घर से दोनों समय का भोजन मिलता और कभी-कभार चाय भी मिलती थी। वर्मा परिवार को खुराकी मात्र पर एक नौकर मिल गया था रामविलास को भोजन की चिंता से छुटकारा।

रामविलास शहर से चालीस किलोमीटर दूर स्थित गाँव का रहने वाला था। किसी पार्क का चौकीदार बनना उसकी किसी प्राथमिकता में नहीं था। वह इंटर पास था। अपनी युवावस्था में सेना और पुलिस की भरती के लिए कई प्रयास कर चुका था। उसके सपनों में फौज या पुलिस में भरती होना था। उसके गाँव के सफल नवयुवक यही बनते थे। इसके अलावा किसी नौकरी के लिए न प्रयास करते थे न उनकी क्षमता थी। बाकी सभी नौकरियाँ जुगाड़ से ही मिलती हैं ऐसी उनकी मान्यता थी। इस समय रामविलास की उम्र चौतीस वर्ष थी। सेहत भी वैसी नहीं रह गई थी, नहीं तो ढाई मन गेहूँ का बोरा वह अकेले पटक देता था।

गाँव पर उसकी पत्नी, तीन बच्चे, पिता, छोटे भाई का परिवार और एक कुँवारी बहन है। माँ तीन साल हुए गुजर गईं। खेत एक बीघा से कम ही है। दो बीघा के आसपास खेत अधिया पर ले रखा है। भाई और पिता खेती करते हैं। वह भी पहले खेती ही करता था। बाद में दोनों भाइयों ने मिल कर बाजार के चौराहे पर चाय और पान की दुकान खोल ली। चाय की दुकान उधारी के धंधे के कारण उसने बंद कर दी। कुछ दिन रामविलास ने दूध का धंधा किया, पूँजी की कमी के कारण उसमें भी खास लाभ नहीं हो पा रहा था। परिवार की आवश्यकता और खर्च दोनों बढ़ रहे थे। बहन की शादी भी करनी थी। बड़ा लड़का बारह साल का हो गया था। रामविलास उसे बेहतर शिक्षा दिलाना चाहता था। इसलिए, गाँव के पास ही सुकुल महराज की कोचिंग में दाखिला दिला दिया था। खर्च और कमाई में जब अंतर बढ़ने लगा और गाँव में कोई नगदी-काम भी नहीं मिला तब पान की दुकान भाई के हवाले कर रामविलास ने राजधानी का रुख किया।

उसी के गाँव का हरदयाल एक सिक्योंरिटी एजेंसी में काम करता था। शुरू में उसके पास ही रहा। रहने की समस्या थी। एक कमरे में चार लोग रहते थे। पाँचवा वह था। लेकिन दो लोगों की अमूमन नाईट ड्यूटी रहती थी इसलिए सोने की समस्या नहीं थी। सिक्योंरिटी एजेंसी के मालिक ने उससे कहा कि अभी छः महीने शहर में रहो, यहाँ के तौर तरीके सीख लो तभी तुम्हें नौकरी दी जा सकती है। हाँ, बंदूक का लाइसेन्स रहने पर नौकरी तुरंत मिल जाती। पार्क की नौकरी के मिलने तक चार महीने उसने कपड़े की दुकान पर काम किया। उससे मजदूर वाली सेवाएँ ली जाती थीं। बारह घंटे की नौकरी थी और आठ सौ रुपए मिलते थे। इससे ज्यादा तो वह पल्लेदारी में कमा लेता, लेकिन ग्रंथियाँ उसे पल्लेदारी का काम करने से रोकती थी।

पार्क की इस नौकरी में उसे आराम था। हालाँकि चौबीस घंटे की नौकरी थी, लेकिन मेहनत ज्यादा नहीं थी और इज्जत भी ठीक-ठाक मिलती थी। सौलह सौ रुपए उसकी अपेक्षा और जरूरत के हिसाब से कम थे लेकिन समय से मिल जाते थे।

ठेकेदार भी शराफत से बात करता और सबसे बड़ी बात थी कि हर समय सर पर सवार नहीं रहता था। उसके विकल्प के रूप में वर्माजी और उनका परिवार था, लेकिन रामविलास ने अपनी मेहनत से उन्हें साध रखा था। पार्क में मेहनत वह ईमानदारी व जिम्मेदारी से करता था; लेकिन जब से इस लड़के ने वर्माजी को चिढ़ा रखा था, रामविलास के लिए समस्याएँ हो रही थीं।

दरअसल समस्या एक घटना से शुरू हुईं।

बी-सत्रह वाले रिटायर्ड चीफ इंजीनियर तिवारीजी अपने पौत्र को साथ लेकर झूला झुलाने लाए थे। वह उस दिन बहुत खिन्न थे। एक तो पोते को झूला झुलाने जैसा दोयम दर्जे का काम उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता था। दूसरे, आज दोपहर भर घर में लड़के के नए धंधे को लेकर पंचायत हुई। उनका लड़का एक साइबर कैफे खोलना चाहता था। जिसके लिए तिवारीजी पाँच लाख रुपया से पाना चाहता था। तिवारीजी एक साथ इतना रुपया नहीं देना चाहते थे। माँ-बेटा और बहू एक हफ्ते से तिवारीजी को घेरे हुए थे। तिवारीजी को अपने लड़के की काबिलियत पर भरोसा नहीं था। उनका लड़का अपने प्रोजेक्ट की योजना और नियोजन में उनकी राय भी नहीं लेता था जिसके लिए तिवारीजी अपने को विशेषज्ञ मानते थे। उनके पास तमाम उदाहरण थे जब उन्हें नए और चुनौतीपूर्ण कार्य दिए गए और उन्होंने सफलतापूर्वक उन कार्यों को अंजाम दिया।

आज उनका पैसा सभी चाहते थे लेकिन मुख्य योजना में बेटे और बहू को उनकी राय या पुरुषार्थ की कोई दरकार नहीं थी। पैसे देने के मामले में उन्होंने अपनी सहमति दोपहर की पंचायत में नहीं दी। उनकी पत्नी भी इस निर्णय से खीझी थीं। शाम को जब पोते को टहलाने का समय आया, तब उनकी पत्नी जो रोज यह काम करती थी, ने ताना मारते हुए तिवारीजी से कहा कि किसी काम के तो हो नहीं, जाकर इसी को टहला लाओ।

तिवारीजी को दुख हुआ। हालाँकि अपने पोते से बहुत प्यार करते थे। वह तीन साल का था और उतना ही प्यारा और बातूनी है जितना तीन साल के बच्चे होते हैं। पत्नी के विरोध में वो ज्यादा नहीं बोलते थे, इसलिए पोते को लेकर घर से चुप-चाप निकल लिए। उन्हें परिस्थितियों पर हँसी आई और अपने अफसरी के दिन याद आए, जब उनका डंका बजता था। उनके मातहतों पर उनका आतंक तारी रहता था। कम से कम, तिवारीजी को यही इल्म था।

पार्क में आने के बाद बच्चा झूले पर चलने के लिए बाबा को उकसाने लगा जहाँ वह रोज झूलता था।

अपने पोते को लेकर तिवारीजी झूले के पास पहुँचे। एक झूले पर कोने वाले जज साहब का नौकर उनके घर के एक बच्चे को झुला रहा था। दूसरे झूले पर मजदूर का लड़का पेंगें ले रहा था। तिवारीजी ने उसे ध्यान से देखा। वह एक लंबी कमीज जो उसके घुटने से थोड़ा ऊपर थी पहने था उसका रंग काला था। पैर नंगे और बाल बिखरे थे। तिवारीजी ने उसे देखकर अधिकार से कहा, 'हटो।'

लड़का पहले समझ नहीं पाया कि उसे ही क्यों हटने को कहा जा रहा है? वह अभी-अभी झूले पर आया था। उसके बगल वाले झूले वाला बच्चा देर से झूल रहा था। लड़का बिना किसी परवाह के पूर्ववत् झूलता रहा। तिवारीजी ने इस बार जरा तेज आवाज में कहा, 'ए... तुम्म... हटो।'

लड़के ने भी वैसी ही तेज आवाज में पूछा, 'क्यों ?'

तिवारीजी को ऐसे पलट प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। कहाँ उनके जैसा कड़क और बदमिजाज अफसर, जिसके दौरे की खबर सुनकर इंजीनियरों और ठेकेदारों के पसीने छूट जाते थे। अब एक मजदूर का लड़का उनसे जवाब माँग रहा है। झूले के पास बेंच पर अन्य लोग भी बैठे थे, अन्यथा तिवारीजी उस लड़के से छोटे बच्चे की दलील देकर झूला हड़प लेते। अपनी प्रतिक्रिया वह तय नहीं कर पा रहे थे। इधर उनका पोता भी झूले के लिए सम पर रट लगा रहा था। एक बार उनकी इच्छा हुई कि लड़के को हाथ पकड़कर हटा दें लेकिन उन्होंने सोचा कि कहीं लड़का गाली न दे दे, लड़ाई करने लगे या पत्थर उठाकर मार न दे। आज का दिन वैसे भी अच्छा नहीं चल रहा था। अब इस उम्र में इतने लोगों के बीच वह बेइज्जत नहीं होना चाहते थे। पोते का हाथ पकड़कर वह चुपचाप आगे बढ़ लिए।

पार्क में अब काफी भीड़ होने लगी थी। सुबह तो वर्माजी के परिचित 'योगा' के प्रशिक्षक आते थे। विभिन्न चैनलों पर आने वाले योग के कार्यक्रमों ने एक 'योगा क्रांति' विकसित की थी। जिसकी चपेट में तनाव से ग्रसित भद्रजन, मुटियाती महिलाएँ, फिगर के प्रति सचेत बालाएँ, किसी भी प्रकार से श्रम से महरूम शुगर और ब्लड प्रेशर के ग्रसित अधेड़ तथा कैरियर के प्रति चिंतित युवा थे जो योगा से अपना ध्यान और व्यक्तित्व निखारना चाहते थे।

जो योग कार्यक्रमों से नहीं जुड़ पाए ऐसे लोग टहलते या हल्के-फुल्के व्यायाम करते थे। टहलने वालों की भीड़ शाम को ज्यादा रहती थी। उन टहलने वालों में रंगहीन, गंधहीन, रसहीन जिंदगी गुजारने वाले रिटायर्ड बूढ़े, महिलाएं और खेलने वाले बच्चे रहते थे, जिनके लिए पार्क एक सामाजिक रेनसा की तरह आया था। इस पार्क से विकसित सामाजिक चेतना की वजह से पड़ोसी एक दूसरे को पहचानने लगे और एक-दूसरे के परिवार के सदस्यों के बारे में भी लोगों को जानकारी मिल रही थी।

तिवारीजी को लड़के के व्यवहार से कोफ्त हुई। उनका पोता भी उनसे असंतुष्ट हो रहा था। तभी उन्हें एक कोने में सावधान-विश्राम करते वर्माजी दिखे। उन्होंने सोचा कि पार्क में बढ़ते अतिक्रमण से वर्मा जी को सूचित ही कर दिया जाय।

वह वर्माजी की तरफ बढ़े और उन्हीं के पास खड़े हो गए। वर्मा जी ने उन्हें अपने पास देखकर अपनी कवायद रोकी और तिवारीजी को नमस्कार किया। वर्माजी ने सोचा कि यही तिवारीजी पहले उन्हें कोई लिफ्ट नहीं देते थे। उन्हें अपने पास देखकर आज वर्मा जी को विस्मय मिश्रित चिंता हुई।

तिवारीजी ने बड़ी सावधानी और चालाकी से वर्माजी के महती प्रयासों को और पार्क की वजह से कालोनी में बढ़ते सामाजिक चैतन्यता, स्वास्थ्य के प्रति लोगों में बढ़ती जागरूकता और उससे होने वाले अन्य फायदों से अपनी बात शुरू की, फिर वर्माजी को बिना कोई मौका दिए शहर में बढ़ते अपराधों तथा अपराधियों की जघन्यता की सम पर गए और झूला झूलते हुए लड़के को दिखाते हुए पार्क में बढ़ते आपराधिक अतिक्रमण से वर्माजी को आगाह करते हुए अपना व्याख्यान समाप्त किया। तिवारीजी के लंबे बयान के बाद, संदर्भ में आए लड़के की तरफ वर्माजी ने ध्यान दिया। उन्होंने पहले उसे देखा नहीं था या फिर ध्यान नहीं दिया था।

वर्माजी ने पहले रामविलास के लिए पार्क के चारो तरफ नजर दौड़ाई लेकिन वर्माइन ने उसे कुत्ते को टहलाने के लिए भेज दिया था। तिवारीजी का लगातार खड़े रहना ठीक इस बात का परिचायक था कि वह तुरंत न्याय चाहते थे।

वर्माजी को इस आशय से आंतरिक प्रसन्नता हुई और वह झूले की तरफ बढ़े। लड़का पूरी साजिश से बेखबर तरन्नुम में झूला झूल रहा था। उसके बगल वाले झूले पर जज साहब का पोता अभी भी कब्जा जमाए बैठा था।

लड़के को खतरे के बारे में तब पता चला जब वर्माजी ने उसके झूले को पकड़ने की असफल कोशिश की और कहा 'अबे उतर।'

झूला रोकने की कोशिश में उन्हें चोट लग गई। इसलिए उनकी आवाज में खीझ गुस्सा और तेजी साथ-साथ आ गई। आवाज की तेजी ने पार्क के लोगों का ध्यान इस घटती हुई घटना पर कर दिया। टहलते हुए लोगों के कदम ठिठक गए और घटना के दोनों मुख्य पात्रों की तरफ उनका ध्यान आकृष्ट हुआ। तेजी से बदले हुए घटनाक्रम से लड़का घबरा गया लेकिन झूले के मोह को वह अभी नहीं छोड़ पाया था।

उसने अपनी आवाज को संयमित किया और वर्माजी की आँखों में देखते हुए बोला, 'क्यों?'

वर्माजी ने लड़के को हाथ पकडा औऱ घसीटकर गिरा दिया। वहाँ पर बहुत से तर्कशील लोग थे, जिनका रोजगार तर्क के पांडित्य से ही चलता था। लड़के के तर्क के समर्थन में कोई नहीं आया। लड़के का स्वास्थ्य और उसका पहनावा, उसकी सामाजिक स्थिति के बारे में सब कुछ बता रहा था। लड़के ने जुटती हुई भीड़ को निगाहों में देखा। लड़का महात्मा गांधी के बारे में नहीं जानता था। दक्षिण अफ्रीका का नाम उसने कतई नहीं सुना था।

भीड़ में से कुछ उत्साही नौजवान उसको मारने के लिए आगे बढ़े। लड़का उनके इरादों की भनक पाते ही वहाँ से भागा। कुछ लोग देर तक इस घटना की चर्चा पार्क में करते रहे। रात में भी कुछ घरों में इसकी चर्चा हुई। लेकिन, वर्माजी के घर उस दिन तांडव नृत्य हुआ। वर्माजी ने अपने को काफी अपमानित महसूस किया था। उन्होंने रामविलास को बेतहाशा गालियाँ दीं। अपनी पत्नी को भी डाँटा कि उसी समय कुत्ते को टहलाने के लिए भेजने की क्या जरूरत थी? गुस्से में वर्मा जी ने तिवारी को भी गालियाँ सुनाई। अब उन्हें तिवारी की चालाकी समझ में आ रही थी। वर्माजी ने डाँटते हुए अपनी पत्नी से कहा, 'अब इस साले (रामविलास) का खाना बंद करो। इसे बहुत मोटाई चढ़ गई है।'

रामविलास को उस रात पहली बार पता चला कि भोजन उसे सेवा का नहीं, दया स्वरूप मिलता है। जो कभी भी-किसी कारण से बंद किया जा सकता है।

रात काफी हो चुकी थी। कोई और इंतजाम न होने के कारण खाली पेट लेटने पर उसे अपने बीबी-बच्चों की बहुत याद आई। गालियाँ उसने पहले भी बहुत सुनी थी। वर्माजी भी कभी-कभार छिट-पुट गालियाँ देते थे। इतनी धारा प्रवाह गालियाँ उन्होंने पहली बार दी थी। रामविलास को सबसे बड़ा दुख हुआ कि उसे भोजन का ताना दिया गया था। इसके पहले वर्माइन उसे कभी-कभी बासी खाना देती थीं, या उसे लगता था कि किसी का बचा खाना भी परस दिया गया है। एक बार दाल दी गई जो बुरी तरह महक रही थी। वह महक उसके मन में बस गई। बहुत दिन तक उससे दाल नहीं खाई गई। रामविलास अपनी सामर्थ्य की सीमा में दिए गए भोजन का उपयोग करता रहा।

आज के प्रसंग से उसका विश्वास टूट गया। उसे अपनी पत्नी की याद आई जो कितनी भी देर क्यों न हो गरम-गरम रोटियाँ खिलाती थी। उसने लेटे ही लेटे तय किया कि अगली बार जब वह घर जाएगा, तब अपने बर्तन ले आएगा और पार्क में वाटर पंप वाली कोठरी के अंदर अपना खाना बनायेगा। अब इन भद्र लोगों का एहसान उसके बस की बात नहीं है।

इस घटना के बाद पार्क में सख्ती की जाने लगी। वर्माजी ने थाने को भी फोन कर दिया थाने के सिपाही सुबह शाम फेरा लगा जाते थे। अवांछित लोगों में लड़का ही था। थाने के सिपाहियों को उस लड़के बारे में बताना हास्यापद था इसलिए किसी ने बताया नहीं। लड़के के बारे में रामविलास को सख्त आदेश हो गए।

एक दिन लड़का रामविलास के पकड़ में आ गया था। दरअसल अब रामविलास झूलों को उसके साथ के खंभे में लोहे की चैन से बाँधता था। उस दिन की सुबह जैसे ही ताला खोलकर चेन रखने के लिए वह कोठरी में गया। लड़का प्रकट हुआ और झूला झूलने लगा। रामविलास ने जब झूले की आवाज सुनी, तो अपने अपमान की कसमसाहट ने उसे पराक्रम के लिए उत्प्रेरित किया। वह कोठरी के दूसरी तरफ से घूमकर निकला और पूरे पार्क का चक्कर लगाकर लड़के के पीछे पहुँचा। उसने लड़के की बाँह पकड़ ली। पहली बार उसने लड़के को करीब से देखा। लड़के की बाँह बहुत पतली थी। लड़का कद और आकार में छोटा और मासूम दिख रहा था। लड़का उसकी तरफ देखने लगा। रामविलास को वर्माजी की गालियाँ याद आई। उसने लड़के को एक तमाचा लगाया। लड़का न रोया, न घबराया। वह एकटक रामविलास को देखने लगा।

लड़के ने भीगी आवाज में पूछा, 'क्यों मारा?'

लड़के के विश्वास और देखने के अंदाज से रामविलास को घबराहट होने लगी। मार तो वह चुका ही था। अब उस मार की सार्थकता उसे प्रमाणित करनी थी। उसने तेज आवाज में कहा, 'साला, झूला झूलता है!'

लड़का अभी भी रोया नहीं, उसने रामविलास को एकटक देखते हुए कहा, 'सब तो झूलते हैं मैं क्यों नहीं झूला झूलेगा?'

रामविलास के तर्क समाप्त हो चुके थे। वह भी बच्चों का पिता था। उसका बड़ा लड़का इस लड़के जितना ही बड़ा था। वह लड़के को बता नहीं सकता था कि वह लड़का झूला क्यों नहीं झूल सकता। स्पष्ट रूप से उसे भी नहीं पता था कि लड़का झूला क्यों नहीं झूल सकता। उसे वर्माजी की गालियाँ, अपना अपमान सबकुछ भूल गया। उसने लड़के की बाँह छोड़ दी। लड़का घूमकर धीमे-धीमे जाने लगा। उसकी पीठ देखकर रामविलास को लगा कि वह हिल रही है, जैसे वह लड़का रो रहा हो। रामविलास के अंदर बहुत कुछ बदलने लगा। उसे अपने बच्चे याद आने लगे।

पूर्व घटित दो घटनाओं के बाद आज फिर लड़का झूला खुला पाकर सुबह ही सुबह पार्क में आ धमका। रामविलास को अब दोनों से डर लगने लगा था। उस लड़के से भी और वर्माजी से भी। वह जानता था कि वर्माजी नाराज हो गए तो उसकी नौकरी चली जाएगी। झूले से वह उठा और सर झटक कर उसने सोचा कि झाड़ू ही लगा लिया जाए। वह सुबह टहलने के पूरे पथ पर झाड़ू लगाता था। सुबह होने का आभास हो रहा था लेकिन अभी मुकम्मल सुबह नहीं हुई। वर्माजी के कमरे की लाइट जल गई। उसने झाड़ू लगाई और निपटने के लिए कोठरी में बने शौचालय में चला गया।

वह जब बाहर निकला - दृश्य आतंकित करने वाला था।

वर्माजी पार्क के गेट के अंदर घुस रहे थे और वह लड़का झूले के पास खड़ा था। राम विलास के पैर वहीं जम गए। वर्माजी ने जैसे ही लड़के को देखा उनका पारा एकदम से चढ़ गया। सुबह सहस्त्र नाम जाप करने के बाद ही वह मुँह में पानी डालते थे। उस लड़के को देखने से पहले यही पुण्य कार्य कर रहे थे। लड़के को देखते ही उनका पुरुषार्थ जगा। वह लड़के को पकड़ने-मारने के लिए दौड़े। लड़का भागा और थोड़ी दूर निकल गया। वर्माजी को लगा कि अभी भी वह लड़के को पकड़ लेगें। वह द्रुत में गाली देते हुए लड़के की तरफ दौड़े।

अब लड़के को इस खेल में मजा आने लगा। दो-चार टहलने वाले भी पार्क में आ चुके थे। लड़का अब ज्यादा दूर न भागकर वर्माजी के आस-पास ही एक निश्चित दूरी बनाकर चुनौती की भाषा में उनसे बचते रहने का खेल करने लगा। वर्माजी थोड़ी ही देर में हाँफ गए। दौड़ने के अनुभव का अभाव होने से इस हल्की ठंड में उनको जबरदस्त पसीना निकलने लगा। वर्माजी ने कुछ नामचीन गालियों का प्रयोग किया और अपना आखिरी प्रयास किया। लड़का फिर थोड़ी दूर जाकर रुक गया। अब वर्माजी को लग गया कि वह लड़के को नहीं पकड़ पाएँगे। लड़के को भी पता लग गया कि उसे वह अब नहीं दौड़ाएँगे। लड़के ने अपनी पैंट नीचे की और अपनी पौरुष मर्यादा को हाथ में लेकर वर्माजी को दिखाने लगा। यह कला उसने नई सीखी थी। उसके साथ के लड़के किसी को अपमानित करने के लिए ऐसा करते थे।

वर्माजी लड़के की इस धृष्टता पर अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाए। तब उनका ध्यान रामविलास की तरफ गया। वह कोठरी के पास खड़ा इस खेल का आनंद ले रहा था। उसे इस घटना की नियति पता चल गई थी। उसे लड़के के कृत्य से हँसी आ गई। वो भी एक विशेष विधा का जानकार था। बचपन से ही, जब चाहे तब वह जोर की आवाज के साथ पाद सकता था। उसने इस विधा को दोस्तों के बीच अपने प्रदर्शनों से साधा था। इसका उसे माहिर माना गया था। आवाज के डेसिबल स्तर से उसके मित्र चमत्कृत होते थे और ताली बजाकर उसका हौसला बढ़ाते थे।

बाणासुर की तरह वर्माजी अपने सभी शस्त्रार्थो से लैस उसकी तरफ बढ़ रहे थे। रामविलास अपनी कला के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए अपनी अंदरूनी यांत्रिक शक्तियों को सँजो रहा था।