बड़े होने पर/ मुकेश मानस

Gadya Kosh से
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वह भी आम बच्चों की तरह ही था। दूसरे बच्चों की तरह उछलता-कूदता, खाता-पीता और लाख मना करने पर भी घर की चीजों को छेड़ता और अपने बाप से अटूट जिद करता था। मगर उसमें एक खास बात थी वह हर चीज को बड़ी संदेहास्पद नजरों से देखता था। उसका पिता एकदम पियक्कड़ था। दिन भर एक कारखाने में खटता और रात को छककर पीये हुए लौटता, पत्नी को पीटता। मगर सुबह जल्दी उठकर एक आले में रखी कुछ मूर्तियों के आगे अगरबत्ती जलाता और आलथी-पालथी मारकर जाने क्या-क्या बुदबुदाता रहता।

जब वह पहली बार स्कूल गया तो उसने भी सैकड़ों बच्चों के साथ हाथ जोड़ ‘भगवान हम पर दया करो, पढ़ा-लिखा कर बढ़ा करो’ गीत गाया। दो-तीन साल तक वह इस गीत को गाता रहा मगर उसे इस गीत के अर्थों में संदेह होने लगा। वह जान गया था कि भगवान किसी को पढ़ा-लिखा कर बढ़ा नहीं करता। उसे याद था कि उसने 25 तक पहाड़े पूरे एक महीने रट-रट कर याद किए थे और बीच-बीच में भूल जाने पर मास्टर की सनसनाती छड़ी से खूब मार खाई थी।

बात उन दिनों की है जब वह पांचवी या छठी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन उसके घर की गली के नुक्कड़ पर उसे एक आदमी ने परचा दिया। उसने पढ़ा... एक गाँव के एक मन्दिर में एक पुरोहित को भगवान विष्णु ने सर्प रूप में प्रकट होकर कहा - मैं कलयुग में पाप का नाश करने के लिए अवतार ले रहा हूँ जो इसकी घोषणा परचों में छपवाकर बांटेगा उसे लाभ होगा, जो नहीं बाँटेगा उसको हानि। इस घटना के बाद एक बनिये ने जब 1000 परचे छपवाकर बांटे तो उसे उसके घर के एक कोने में सोने के सिक्कों से भरे चार कलश मिले। एक रिक्शाचालक ने 100 परचे बांटे तो उसकी एक लाख की लाटरी खुल गई। एक क्लर्क ने उस परचे को झूठ समझकर फाड़ दिया तो दूसरे दिन उसकी जवान बीवी मर गई।

परचे छपवाने से अगर लाटरी खुले तो किसे बुरा लगे, मगर परचे का आखिरी हिस्सा पढ़कर उसकी जान सूख गई। उसने परचने को घर में मूरतों के पीछे छिपा दिया ताकि वे सुरक्षित रह सकें। उनके अपमान होने पर उसे अपने पिता, माँ या खुद के मर जाने की आशंका थी। दो-तीन दिन बाद वह परचा देख लेता और सुरक्षित होने पर चैन की सांस लेता। उसके मन में एक ऐसा डर समा गया था जिसकी वजह से वह परचे में छपी बातों पर संदेह नहीं कर पा रहा था।

छठी कक्षा में उसे ‘हमारी नदियाँ’ पाठ पढ़ाया गया जिसमें देश की नदियों के बारे में बताया गया। पाठ के अन्त में दिए गए कई प्रश्नों में से एक प्रश्न गंगा कहाँ से निकलती है?¸ के जवाब में उसे रटाया गया कि गंगा गंगोत्री से निकलती है। उसने रट लिया मगर पाठय पुस्तक के एक दूसरे पाठ को पढ़कर वह बेचैन हो गया। उसमें लिखा था राम के एक पूर्वज भागीरथ ने शिव की आराधना की। इस पर प्रसन्न होकर शिवशंकर ने गंगा को स्वर्ग से नीचे कूदने पर अपनी जटा में समा लिया और उसकी एक धरा ध्रती पर छोड़ दी यानी गंगा शिवजी की जटा से निकलती है। उसने अध्यापक से विश्वसनीय जानकारी मांगी मगर उसे मिली छड़ी की मार। उसके बाद उसने कितने ही लोगों से यह सवाल किया मगर कोई भी उसे ठीक-ठाक नहीं बता सका कि गंगा कहाँ से निकलती है?

फिर एक दिन उसका धर्मांध पिता उसे गंगा गढ़ के मेले में ले गया जहाँ हजारों लोग स्नान करने आये थे। जब वह नदी में स्नान कर रहा था। तब उसने देखा कि घाटों पर खड़े सैकड़ों चोटीधारी, जनेऊ लटकाए माथे पर भभूत लगाए लोगों की पूजा करवा रहे थे। वे जोर-जोर से कुछ गा रहे थे। उसने उन्हें समझने की कोशिश की मगर उसकी समझ में कुछ ना आया। पवित्र गंगा शिवजी की जटा से निकली है। इसमें पूजा-पाठ करवाने वालों के समस्त पाप धुल जाते हैं। उसे एकाएक कुछ समझ आने लगा। उसने पंडे के शब्दों को फिर सुनने की कोशिश नहीं की। उसे लगा कि वह उनको समझ भी नहीं पायेगा मगर वह खुश था कि उसका संदेह ठीक निकला।

उन दिनों वह जहाँ रहता था, उनके नजदीक ही एक झुग्गी झोपड़ी बस्ती थी उसमें उसका दोस्त रहता था जो उसकी ही कक्षा में पढ़ता था। वह अक्सर उनके घर आता था। वह अक्सर उसके घर की तंग हालत, बदबूदार घर, उसके फटे-पुराने कपड़ों और उसकी बीमार माँ के बारे में सोचता। अक्सर उसका दोस्त उसे कहता-“हम बहुत गरीब लोग हैं।”

वह अक्सर सोचता कि वह गरीब क्यों है? एक दिन उसके दोस्त की बीमार माँ मर गई। वह उसके घर अपने बाप के साथ गया। उसके दोस्त के पिता ने कहा - मर गई। भाई भगवान की मरजी थी¸। उसके पिता ने भी गरदन हिलाई और कहा - हाँ भई उसकी मर्ज़ी से ही सब होता है।¸ वह सोचने लगा कि क्या आदमी का जीना मरना ईश्वर की मर्ज़ी पर है। तो फिर इन डाक्टरों, दवाईयों की क्या आवश्यकता है? उसे लगा उसके दोस्त की माँ भगवान ने नहीं गरीबी ने उठाई है।

जब उसने कालेज जाना शुरू किया तब उसके पिता ने उससे कहा – “सुना है कालेजों में राजनीति बहुत होती है। उसके चक्कर में मत पड़ता वह एक गंदी चीज होती है।” पढ़ाई के तीन सालों के दौरान उसने जान लिया कि राजनीति सचमुच ही एक गंदी चीज है जिसे कुछ भ्रष्ट लोग गंदी बना रहे हैं और जनता को उल्लू बना रहे हैं। उनके इस भ्रष्ट नारे के चलते समझदार देशभक्त, नौजवान राजनीति को घटिया और हेय समझते रहते हैं और राजनीति से बचने के चक्कर में अपने जीवन के दुखों को चक्रव्यूह में और घिरते जाते।

बचपन से लेकर जवानी तक वह संदेहों के घेरे में जिया। मगर एक दिन उसने हिम्मत जुटाई और घर लौटकर मूरतों के पीछे रखे परचे को हिम्मत जुटाकर फाड़ दिया। उसने अपनी छठी कक्षा की हिन्दी की किताब से उस पाठ को निकाल दिया जिसमें लिखा कि गंगा शिवजी की जटा से निकलती है।

1989,

छात्र उदघोष (प्रोग्रेसिव स्टुडेंट युनियन की पत्रिका) अप्रैल1995 में प्रकाशित