बढ़ता दबदबा / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान
टेरी ईगलटन की किताब 'व्हाई मार्क्स वाज राइट' येल यूनिवर्सिटी से 2011 में प्रकाशित हुई है। पुस्तक का प्रारूप लोकप्रिय किस्म का है और लेखक का इरादा भी आम तौर पर मार्क्सवाद के बारे में प्रचारित भ्रमों का बहुत ही सरल सहज भाषा में खंडन-निराकरण है। भूमिका में ईगलटन लिखते हैं कि पूरी किताब एक झटके में इस सवाल के इर्द गिर्द लिखी गई है कि अगर मार्क्सवाद पर लगाए गए सारे आरोप गलत निकले तो? लेकिन लेखक में मार्क्स के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं है। हम सभी जानते हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद से शुरू तो किया लेकिन फिर पश्चिम में जो भी वैचारिकी चली उसके साथ हेल मेल भी किया। उनकी यह किताब भी मार्क्सवाद के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक है।
ईगलटन सबसे पहले इस आपत्ति पर विचार करते हैं कि मार्क्सवाद औद्योगिक पूँजीवादी समाज की समस्याओं से जुड़ा हुआ था लेकिन अब दुनिया बदल चुकी है इसलिए इस उत्तर औद्योगिक दुनिया में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। जवाब देते हुए वे कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाए तो मार्क्सवादियों से अधिक कोई भी खुश नहीं होगा। मार्क्सवाद तो बहुत कुछ चिकित्सा के पेशे की तरह है जिसका मकसद अपनी ही जरूरत को खत्म करना है। मार्क्सवाद को तभी तक रहना है जब तक उसका विरोधी अर्थात पूँजीवाद है। उनका कहना है कि आज पूँजीवाद खत्म होने के बजाय और भी आक्रामक हो कर सामने आया है। जहाँ तक पूँजीवाद का रूप बदलने की बात है मार्क्स भी इस बात को जानते थे कि यह अत्यंत परिवर्तनशील है। मार्क्सवाद ने ही इसके अलग अलग रूपों - व्यापारी, खेतिहर, औद्योगिक, इजारेदार, महाजनी - आदि को पहचाना और अलगाया था। जो पूँजीवाद आज अधिकाधिक अपने शुरुआती रूप में लौटता जा रहा है उसी के समर्थक इसे बदलाव साबित करने पर तुले हुए हैं। हुआ दरअसल यह है कि 70 और 80 के दशक में पूँजीवाद ने अपना रूप बदला था और पारंपरिक औद्योगिक उत्पादन की जगह उपभोक्तावाद, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की उत्तर औद्योगिक संस्कृति सामने आई। लेकिन मार्क्सवादियों के पीछे हटने या पाला बदलने का कारण पूँजीवाद के रूप का बदलाव नहीं बल्कि उसके खात्मे की कल्पित असंभाव्यता थी। उनका कहना है कि आज के पूँजीवाद की आक्रामकता का कारण पूँजी की दुश्चिंता है। यह आत्मविश्वास के कारण नहीं बल्कि भयजनित प्रतिक्रिया है। इसके पीछे दूसरे विश्व युद्ध के बाद आए उछाल का खत्म होना है। इसी भय के कारण पूँजी हलका भी विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। पूँजी की इस नई आक्रामकता के साथ वाम की निराशा ही मार्क्सवाद के अप्रासंगिक होने की घोषणाओं का मूल कारण है। आज की तारीख में मार्क्सवाद को बीते समय की बात कहना ऐसे ही है जैसे आग लगानेवालों की ताकत का मुकाबला न कर पाने के कारण आग बुझाने की व्यवस्था को बेकार कह देना।
इसके बाद वे दूसरे आरोप की चर्चा करते हैं कि चलिए सिद्धांत तो ठीक है लेकिन व्यवहार ने बेकार की हिंसा को बढ़ावा दिया है। इसके उत्तर में वे आधुनिक समय के युद्धों की हिंसा को सामने रख कर बताते हैं कि उनके मुकाबले समाजवादी देशों की हिंसा कुछ भी नहीं रही है। जैसे पूँजीवाद तमाम खून खराबे के बावजूद अनेक सकारात्मक उपलब्धियों के लिए जाना जाता है वैसे ही समाजवादी समाजों की भी अपनी कमियों के बावजूद उल्लेखनीय उपलब्धियाँ रही हैं। सोवियत रूस में लोकतंत्र की कमी को उन परिस्थितियों में देखा जाना चाहिए जो क्रांति के तत्काल बाद पैदा हुईं। लेकिन समाजवाद ने इससे सीख भी ली है और पूँजीवाद की ताकत को पहचानते हुए बाजार समाजवाद जैसी चीज विकसित करने की कोशिशें जारी हैं। हालाँकि उनकी खूबियों खामियों की चर्चा भी होती है लेकिन महत्वपूर्ण बात नई दिशा में आगे जाने का खुलापन है। इसके बाद विस्तार से वे इस तरह के प्रयोगों में लोकतंत्र की संभावना पर विचार करते हैं।
तीसरे आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद को निर्धारणवादी साबित करने की कोशिश का जिक्र करते हैं। इसका उत्तर देते हुए वे बताते हैं कि मार्क्स की ज्यादातर मान्यताओं का उत्स उनसे पहले के चिंतकों में मौजूद है। वर्ग संघर्ष की धारणा के साथ उत्पादन संबंध को जोड़ कर सामाजिक परिवर्तन का एक खाका प्रस्तुत करना उनका मौलिक योगदान कहा जा सकता है और इसी पर निर्धारणवाद का आरोप भी लगा है। लेकिन खुद मार्क्सवादियों ने इस पर सवाल उठाए हैं। इस मामले में द्वंद्वात्मकता पर जोर देने के बावजूद वे कुछ हद तक इस आरोप को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरी तरह से मार्क्स के सोचने को भी रेखांकित करते चलते हैं। उनका कहना है कि हालाँकि मार्क्स सामाजिक परिवर्तन में उत्पादक शक्तियों की प्रधान भूमिका देखते हैं लेकिन उत्पादन संबंधों की भूमिका को भी पूरी तरह खारिज नहीं करते। सामाजिक परिवर्तन में मनुष्य की सचेतन कारक के बतौर पहचान भी अनेक मामलों में, उनके मुताबिक, मार्क्स कराते हैं। वे यह भी बताते हैं कि मार्क्स के तईं इतिहास एकरेखीय तरीके से नहीं आगे बढ़ता बल्कि उनके चिंतन में पर्याप्त जटिलता को समाहित करने की गुंजाइश है।
चौथे आरोप की चर्चा वे इस रूप में करते हैं कि मार्क्स के सपनों का साम्यवाद मनुष्य की प्रकृति को अनदेखा करके गढ़ा गया है। मनुष्य स्वार्थी, संग्रही, आक्रामक और स्पर्धा करनेवाला प्राणी होता है। इस बात को भुला कर मार्क्स साम्यवाद का सपना बुनते हैं। इस आरोप को ईगलटन सिरे से खारिज करते हैं और बताते हैं कि असल में तो मार्क्स पर यह आरोप ज्यादा सही होगा कि वे भविष्य की कोई समग्र रूपरेखा नहीं खींचते। भविष्य को ले कर अटकल न लगाने की मार्क्स की आदत के पीछे ईगलटन एक सचेत कोशिश देखते हैं और वह यह कि ऐसा करने से वर्तमान में करणीय के प्रति उत्साह खत्म हो जाएगा। वे कहते हैं कि भविष्यकथन मार्क्सवादियों का नहीं पूँजीवाद के समर्थकों का पेशा है जो आप के धन की सुरक्षा की गारंटी लिए फिरते हैं। असल में मार्क्स के जमाने में ढेर सारे लोग भविष्य के प्रति अगाध आशा से भरी भविष्यवाणी किया करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दुनिया को तर्क की ताकत से बदला जा सकता है लेकिन मार्क्स के लिए यह काम वर्तमान के ठोस संघर्षों के जरिए होना था। वे मानते थे कि वर्तमान में ही वे शक्तियाँ होती हैं जो भविष्य का निर्माण करती हैं। मजदूर आंदोलन का काम उन शक्तियों को मुक्त करना है।
पाँचवें आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद द्वारा हरेक समस्या को आर्थिक साबित करने के आरोप का उल्लेख करते हैं। मार्क्स के विरोधी कहते हैं कि कला, धर्म, राजनीति, कानून, नैतिकता, युद्ध आदि को अर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिंब माना गया है और इस तरह मार्क्स जिस पूँजीवाद का विरोध कर रहे थे उसी के तर्क से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। इसके बारे में जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि आर्थिक पहलू तो इतना स्पष्ट है कि कोई इसमें कैसे संदेह कर सकता है ! कुछ भी करने से पहले मनुष्य को खाना-पीना होता है। 'जर्मन आइडियोलाजी' में मार्क्स लिखते हैं कि पहला ऐतिहासिक कार्य हमारी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के साधनों का उत्पादन है, इसके बाद ही कोई और काम किया जा सकता है। संस्कृति का आधार श्रम है। भौतिक उत्पादन के बिना कोई सभ्यता संभव नहीं। लेकिन मार्क्सवाद इतना ही नहीं है। वह कहता है कि इसी से अंतत: सभ्यता का स्वभाव तय होता है। वैसे भी मार्क्स के विरोधी इससे इनकार नहीं करते, बस वे अपघटन पर आपत्ति प्रकट करते हैं। वे निर्धारकों की बहुलता पर जोर देते हैं। लेकिन क्या इस बहुलता के भीतर किसी एक की प्रधानता नहीं होती ? इसको मानने से कारकों की बहुलता खंडित नहीं होती। माना जा सकता है कि कोई परिघटना बहुत से कारकों का परिणाम होती है लेकिन उन सब को समान रूप से महत्वपूर्ण मानना मुश्किल है। आपत्ति असल में किसी एक की प्रधानता पर नहीं बल्कि प्रत्येक प्रसंग में एक ही कारक की प्रधानता पर है। इतिहास में पैटर्न की मौजूदगी से किसी को कैसे इनकार हो सकता है ? मसलन यूँ ही तो नहीं हुआ कि फासीवाद एक ही समय समूचे यूरोप में उदित हुआ। यह सही नहीं कि मार्क्स के लिए इतिहास का महावृत्तांत प्रगति का है बल्कि अगर है भी तो तकलीफ और कष्ट का है। असल में मार्क्स के लेखन में अन्य तमाम चीजों को आर्थिक में अपघटित नहीं किया गया है बल्कि राजनीति, संस्कृति, विचार, विज्ञान, विचार और सामाजिक अस्तित्व का स्वतंत्र इतिहास है, वे महज अर्थतंत्र की छायाएँ नहीं बल्कि उस पर भी प्रभाव डालने में समर्थ तत्व हैं। 'आधार' और 'अधिरचना' के बीच एकतरफा संपर्क नहीं होता बल्कि पारस्परिकता होती है। बात यह है कि मनुष्य जिस तरह अपने भौतिक जीवन का उत्पादन करते हैं वह उनके द्वारा सृजित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं का रूप तय करता है। 'निर्धारित' का अर्थ यहाँ सीमा निश्चित करना है।
उत्पादन पद्धति सीधे खास तरह की राजनीति, संस्कृति या विचारधारा को पैदा नहीं करती, न ही एक ही तरह के विचारों को जन्म देती है। अगर ऐसा होता तो पूँजीवादी दौर में मार्क्सवाद का जन्म ही असंभव होता। यह कहना ठीक नहीं कि मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या पेश करते हैं बजाय इसके उनके अनुसार इतिहास की चालक शक्ति वर्ग और वर्ग संघर्ष हैं जो मार्क्स के लेखन में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक कोटि हैं। मार्क्स 'सामाजिक' उत्पादन संबंधों और 'सामाजिक' क्रांति की बात करते हैं। सामाजिक कोटि के रूप में वर्ग के निर्धारण में रीति रिवाज, परंपरा, सामाजिक संस्थाएँ, मूल्य मान्यता और सोचने की आदतें शामिल हैं। वे राजनीतिक परिघटना भी हैं। मार्क्स के लेखन से यह भी संकेत मिलता है कि जिस वर्ग का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं वह सही मायने में वर्ग ही नहीं है। वर्ग के वर्ग सचेत होने में कानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रक्रियाएँ मदद करती हैं। असल में तो मार्क्स की पूरी लड़ाई मनुष्य को महज आर्थिक बना देने वाली व्यवस्था से है। इसीलिए उनकी कल्पना के समाज में इतनी प्रचुरता होनी है कि मनुष्य को हर वक्त धन के बारे में न सोचना पड़े।
छठें आरोप को वे यह कहकर सूत्रबद्ध करते हैं कि विरोधियों के अनुसार मार्क्स परम भौतिकवादी थे। उनके लिए मानवता की आध्यात्मिक उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं था। धर्म को तो उन्होंने खारिज ही कर दिया था। इस तरह उनके चिंतन में ही स्तालिन अथवा परवर्ती कम्युनिस्ट शासकों के अत्याचारों के बीज निहित हैं। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं थे कि दुनिया भौतिक तत्व से बनी है या आत्मा से। असल में तो वे मानते थे कि अमूर्त सरल और निर्गुण होता है जबकि ठोस समृद्ध और जटिल। अठारहवीं सदी ज्ञानोदय के भौतिकवादी चिंतकों के लिए अलबत्ता मनुष्य भौतिक दुनिया का यांत्रिक हिस्सा था। मार्क्स इस तरह की सोच को छद्म चेतना मानते थे क्योंकि यह मनुष्यों को निष्क्रिय स्थिति बना देता था। उनके दिमाग खाली स्लेट समझे जाते थे जिन पर बाहरी दुनिया के इंद्रिय संवेदन की छाप पड़नी थी और इसी से उसके वैचारिक दुनिया का निर्माण होना था। मार्क्स ने इस किस्म के भौतिकवाद से नाता तोड़ा और नए किस्म का भौतिकवाद विकसित किया। उन्होंने ममुष्य को निष्क्रिय मानने वाले भौतिकवाद के मुकाबले उसे सक्रिय तत्व मानकर अपनी बात शुरू की। उनके मुताबिक मनुष्य अपने आस पास के वातावरण को बदलने के क्रम में खुद को भी बदलता जाता है। बहुसंख्यक लोगों की सामूहिक व्यावहारिक गतिविधि के जरिए ही हमारे जीवन को शासित करने वाले विचारों को बदला जा सकता है। मार्क्स के लिए हमारे चिंतन के विषय हमारी ही गतिविधि से बनी दुनिया है। उनके लिए मनुष्य का भौतिक अर्थात शरीर और उसका चिंतन उतने अलग नहीं थे। मनुष्य की वह विशेषता है कि उसमें भौतिक और आध्यात्मिक को अलगाना संभव नहीं। आखिर हमारा मस्तिष्क मांस का एक लोथड़ा भी है। मनुष्य की चेतना को समझने के लिए उसके सार्वजनिक व्यवहार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता।
सातवाँ संभव आरोप उनके मुताबिक यह हो सकता है कि वर्ग की कोटि बेहद पुरानी पड़ गई है। यहाँ तक कि जिस मजदूर वर्ग को उन्होंने क्रांति और समाजवाद का पुरस्कर्ता माना था उसका भी रूप इतना बदल चुका है कि आज वह मार्क्स की नजर से देखने पर पहचान में ही नहीं आता। उत्तर में ईगलटन बताते हैं कि मार्क्सवाद वर्ग को महज शैली, हैसियत, आय, उच्चारण, पेशा आदि के आधार पर नहीं परिभाषित करता। यह इससे तय होता है कि किसी विशेष उत्पादन पद्धति में आप कहाँ खड़े हैं। मजदूर वर्ग के विलोप की कथा बहुत दिनों से सुनाई पड़ती रही है। वर्गों के संघटक तत्व हमेशा से बदलते रहे हैं। वैसे भी पूँजीवाद विरोधों को धूमिल करता है, पुराने विभाजनों को मिटाकर नए मिश्रित रूपों को जन्म देता है, सिर्फ शोषण के मामले में वह समानतावादी होता है। असल में समाजवाद से भी अधिक समता माल उत्पादन में होती है। मार्क्स इसी समरूपता के खिलाफ थे। आश्चर्य नहीं कि विकसित पूँजीवाद वर्गविहीनता का धोखा देता है। हालाँकि सबको पता है कि खाई लगातार चौड़ी हो रही है। मार्क्स के लिए मजदूर वर्ग का महत्व यह था कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मौजूद होता है, उसकी कार्यपद्धति को अच्छी तरह समझता है, राजनीतिक रूप से कुशल और सचेत समूह के बतौर संगठित कर दिया गया है, उसके सफल संचालन के लिए अपरिहार्य है लेकिन उसे बरबाद करने में ही उसका हित है। इसलिए वही उसे हस्तगत करके उसकी उपलब्धियों का सबके फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मजदूर वर्ग में मार्क्स का यकीन लोकतंत्र के प्रति उनकी गहन निष्ठा से उपजा था। मजदूर वर्ग को वे सार्वभौमिक मुक्ति का नायक मानते थे। वर्ग पर मार्क्स का जोर वर्ग की समाप्ति के लिए है। लेकिन इस काम को मजदूर वर्ग अकेले नहीं कर सकता। उसे अन्य वर्गों के साथ संश्रय बनाना पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द से हुई है जो संतान पैदा करके ही राज्य की सेवा करती थीं। आज भी वे ही सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं। इसी मायने में डेविड हार्वे कहते हैं कि आज दुनिया में सर्वहारा की तादाद अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। मार्क्स के लिए सर्वहारा का मतलब सभी ऐसे लोगों से था जो पूँजीपति के हाथों अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सर्वहारा वे हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के पतन से सबसे अधिक फायदा होता है। मजदूर वर्ग के खात्मे की घोषणा पहली बार नहीं हो रही है। सेवा, सूचना और संचार क्षेत्र के विस्तार को इसका लक्षण कहा जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि इनसे पूँजीवाद के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव आने के बजाय वह मजबूत ही हो रहा है।
उनके अनुसार मार्क्स पर आठवाँ आरोप हिंसा को बढ़ावा देने का लगाया जा सकता है। इसी अर्थ में मार्क्सवाद और लोकतंत्र में तालमेल बैठना असंभव बताया जाता है। सही है कि क्रांति का विचार ही हिंसा और अराजकता की तस्वीर पैदा करता है। इसके विरोध में समाज सुधार की कल्पना की जाती है जो शांतिपूर्ण और क्रमिक दिखाई पड़ता है लेकिन अनेक समाज सुधार आंदोलन भी हिंसक रहे हैं। उसी तरह अनेक क्रांतियाँ भी उतनी हिंसक नहीं रही हैं। हिंसा तो प्रतिरोध की तीव्रता के कारण होती है। मार्क्सवादियों की नजर में किसी क्रांति की गहराई का पैमाना हिंसा नहीं होता। राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की कार्यवाही तात्कालिक मामला हो सकती है लेकिन क्रांति आम तौर पर दीर्घकालीन प्रक्रिया होती है। जिसमें वैचारिक संघर्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभाता है।
मार्क्सवाद पर जिस नवें आरोप की कल्पना की जा सकती है वह यह कि वह कठोर राज्य की वकालत करता है। निजी संपत्ति को खत्म करने के बाद समाजवादी क्रांतिकारी तानाशाहों की तरह आचरण शुरू कर देंगे। वे लोगों की निजी स्वतंत्रता का अपहरण कर लेंगे। क्रांति के बाद स्थापित शासनों में ऐसा देखा भी गया है। इस विश्वास का कोई आधार नहीं है कि भविष्य में वे भिन्न व्यवहार करेंगे। उदार लोकतंत्र में खामियों के बावजूद वह तानाशाही से बेहतर है। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स तो राज्य के ही विरोधी थे। उन्होंने ऐसे समय का सपना देखा था जब राज्य का लोप हो जाएगा। मार्क्स के विरोधी उनके सपने की खिल्ली उड़ा सकते है लेकिन उन पर तानाशाही को प्रोत्साहित करने का आरोप नहीं लगा सकते। असल में उनका सपना पूरी तरह हवाई नहीं था। साम्यवादी समाज में केंद्रीय प्रशासन के अर्थों में राज्य के विलोप की बात उनके कथन का सही अर्थ नहीं प्रतीत होती। किसी भी आधुनिक जटिल संस्कृति में उसकी जरूरत रहेगी। वे तो राज्य के हिंसा के औजार के बतौर इस्तेमाल के विरोधी लगते हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में उन्होंने कहा कि साम्यवाद में सार्वजनिक सत्ता का चरित्र राजनीतिक नहीं रहेगा। मार्क्स के समय ढेर सारे अराजकतावादी लोग थे लेकिन उनसे अलग मार्क्स ने कहा कि शायद इसी ऊपर बताए गए अर्थ में राज्य ओझल हो जाएगा। गायब होगा सत्ता का वह अंग जो सामाजिक दमन और एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के शासन का उपकरण है। राज्य को मार्क्स निस्संग नहीं समझते और मानते हैं कि सामाजिक हितों के टकराव में वह पक्षपात करता है। खासकर पूँजी और श्रम के टकराव में तो उसकी पक्षधरता खुलकर सामने आ जाती है। राज्य आम तौर पर प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की कोशिशों के विरुद्ध उसे सुरक्षा प्रदान करता है। अगर सामाजिक व्यवस्था अन्यायपूर्ण है तो राज्य भी अन्याय का साथ देता है। राज्य के हिंसक होने में शायद ही किसी को संदेह होगा मार्क्स तो बस यह बताते हैं कि यह हिंसा किसकी सेवा में की जाती है। मार्क्स राज्य के बारे में इस मिथक को ध्वस्त करना चाहते थे कि वह शांति और सहयोग को बढ़ावा देता है। राज्य को वे एक पृथक्कीकृत सत्ता मानते थे जो मनुष्य से अलग होकर उसके नाम पर उसके भाग्य का फ़ैसला करती है। मार्क्स खुद लोकतंत्रवादी थे और इसी नाते राज्य के तानाशाही तरीके के विरोध में थे। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र, लोकतंत्र की छाया ही होता है। लोकतंत्र को वे महज सांसदों की संपत्ति बनाने के बजाय उसे समूचे समाज और उसकी संस्थाओं में समाया हुआ देखना चाहते थे। वे इसे आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र तक विस्तारित करना चाहते थे। उनका कहना था कि राज्य को अल्पसंख्या का बहुसंख्या पर शासन होने के बजाय नागरिकों द्वारा अपने आप पर शासन का तरीका होना चाहिए। मार्क्स का मानना था कि राज्य नागरिक समाज से अलग हो गया है और दोनों के बीच विरोध पैदा हो गया है। इसी विरोध को खत्म करना और राज्य को समाज के निकट ले आना मार्क्स का लक्ष्य था। इसी को वे लोकतंत्र कहते और समझते थे जो उनके मुताबिक समाजवाद में अपनी पूर्णता में प्रकट होगा।
दसवें आरोप के बतौर वे इस राय का उल्लेख करते हैं कि पिछले चालीस बरसों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद की हद से बाहर हुए हैं। नारीवाद, पर्यावरण के आंदोलन, समलिंगी आंदोलन, पशुओं के अधिकार आंदोलन, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, शांति आंदोलन आदि वर्ग की कोटि से बाहर गए और नई राजनीतिक सक्रियता को जन्म दिया। वाम धारा तो है लेकिन वह उत्तर वर्गीय उत्तर औद्योगिक संसार के लिहाज से चल रहा है। इसका जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि नए दौर का सबसे मजबूत आंदोलन तो पूँजीवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ है, उसे मार्क्सवाद से विच्छिन्न कैसे माना जा सकता है। जहाँ तक नारीवादी आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का संबंध है यह बहुत सीधा सादा नहीं रहा है। अगर कुछ पुरुष मार्क्सवादियों ने स्त्री प्रश्न को सिरे से नकारा है तो कुछ अन्य ने इसे अपनी सैद्धांतिकी में शामिल करने की कोशिश भी की है। कुल मिलाकर नारीवाद में मार्क्सवाद का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इसी वजह से अनेक नारीवादियों ने माना कि पूँजीवाद की समाप्ति के बिना नारी मुक्ति नहीं हो सकती। अन्य अब भी इस विश्वास पर कायम हैं कि शायद पूँजीवाद स्त्री उत्पीड़न का खात्मा कर देगा। हालाँकि पूँजीवाद के स्वभाव में ही मार्क्स स्त्री उत्पीड़न नहीं देखते लेकिन पितृसत्ता और वर्गीय सत्ता एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़े हुए हैं कि एक की समाप्ति के बगैर दूसरे की समाप्ति की कल्पना मुश्किल नजर आती है। एंगेल्स की किताब 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय' स्त्री आंदोलन का जरूरी पाठ बनी हुई है। क्रांति के बाद रूसी बोल्शेविकों ने स्त्री मुक्ति के सवाल को पूरी गंभीरता से उठाया और हल करने की कोशिश की। नारीवादी सवालों की तरह ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में मार्क्सवादियों की भागीदारी सिद्धांत और व्यवहार के लिहाज से अतुलनीय रही है। सांस्कृतिक, लैंगिक, भाषाई, भिन्नता, अस्मिता आदि के सवाल राजसत्ता, भौतिक विषमता, श्रम के शोषण, साम्राज्यवादी लूट, जन राजनीतिक प्रतिरोध और क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़े हुए हैं। अगर आप एक से दूसरे को जुदा करेंगे तो सैद्धांतिक भ्रम के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा।