बण्टा भाग-4 / अमरेन्द्र
बण्टा रोॅ गायब होय जाय के खबर सौंसें मुहल्ला में फैली गेलै। चैधरी काका तेॅ तखनिये गुरु सिनी केॅ कहीं सुनैलेॅ छेलै, "देह-हाथ की नोचै छोॅ गुरु जी, बण्टा नै मिललोॅ तेॅ मुहल्ला वालां ठिक्के देह-हाथ नोची देतौं। की सोचलौ, गरीबोॅ के बेटा छेकै, जूट के खोॅर पतार रं डंगाय दियै। की वहा रही गेलै जमाना? वहेॅ रं मारै के छेकै लड़का केॅ? की समझै छौ, बण्टा माय-बाप केॅ नै तेॅ संगियो साथी नै जानलकै। हमरा सब मालूम होय गेलोॅ छै कि जखनी बण्टा खलिहान में धान नाँखी पिटाय रहलोॅ छेलै, तखनी आरो गुरु जी सिनी तमाशा देखी रहलोॅ छेलै, जेना भालू के नाच होतें रहेॅ। बण्टा केॅ खाली नै नी मिलै लेॅ दौ। तबेॅ देखियौ कोर्ट-कचहरी के तमाशा।"
घरोॅ के लोग आरो मुहल्लो वालां सोचलेॅ छेलै कि गोधूली बेला होतें न होतें बण्टा ज़रूरे घोॅर लौटी ऐतै, मतरकि गोधूली बेला के पूछेॅ, रात के दोसरोॅ पहर बीतेॅ लागलै, मतरकि बण्टा के काहूँ पता नै छेलै।
आखिर जैतै कहाँ! इस्कूली के पोखरी में चोरबत्ती घुमाय-घुमाय केॅ देखलोॅ गेलै। बंसबिट्टियो में चार सेल के चोरबत्ती के रोशनी घुमाय-घुमाय केॅ फेंकलोॅ गेलोॅ, मतरकि बण्टा की, कोय्यो किसिम के संदेहो नजर नै ऐलै। जे दू-चार सियार हुआ-हुआ करै के ताकोॅ में बैठलोॅ छेलै, चोरबत्ती के रोशनी देखी, वहू नै जानौ कोॅन बिलोॅ में जाय केॅ सुटियाय गेलै। जरियो टा कन्नो खरखुर होलै, तेॅ मुहल्ला वाला हुन्नैं घुसी-घुसी केॅ खोजलकै—शायत डरोॅ सें सुटियाय केॅ बैठलोॅ रहेॅ बण्टा, मतर सब प्रयास बेरथ।
बण्टा के जे-जे आपनोॅ दोस्त छेलै, ऊ तेॅ ओकरा खोजै में परेशान छेवे करलै, मतरकि सबसें ज़्यादा हौ सिनी खोजै में आरो परेशान छेलै, जे सिनी केॅ बण्टा सें लड़ाय-झगड़ा होत्हंै रहै। ऊ सबकेॅ मनोॅ में पुलिस, दारोगा सें बढ़ी केॅ चैधरी काका रोॅ डोॅर छेलै। सब पुरानोॅ झगड़ा के कसर यहेॅ मंे निकलै वाला छै।
ई सोची केॅ मनमुटाव राखै वाला दोस्त तेॅ आरो खोजै में अस्त-व्यस्त छेलै। चार-चार छौड़ा के जेरोॅ बनाय केॅ रातो-रात बरहपुरा, लालूचक लोदीपुर, इशाकचक, मुंदीचक, खोजी चुकलोॅ छेलै। की पता बरहपुरा के कब्रिस्तान में छुपी केॅ बैठलोॅ रहेॅ, आकि फेनू मुंदीचक के गढ़ैयै में।
जेरोॅ केॅ मालूम छेलै कि मुन्दीचक के गढ़ैया में बण्टा केॅ सबसें ज़्यादा मोॅन लागै छै। गढ़ैया में जमलोॅ पानी आरो पानी के ऊपर बाँस भरी बिछलोॅ जलकुम्भी। बण्टा केॅ आरो कोय काम नै रहेॅ, तेॅ साथी सिनी साथें कुम्भी केॅ खींची-खींची नगीच लानै, फेरू वै पर असकल्लोॅ बैठी केॅ हिन्नें-हुन्नंे डोलतें रहै, जेना भैंसिया पर आराम से बैठलोॅ ओकरा पानी में हंकैतें रहेॅ। है बस ओकरोॅ साथिये सिनी केॅ मालूम छेलै कि वही गढ़ैया में एक खोहो बनलोॅ छै। खोह की छेलै, लोगें माँटी खोदतें-खोदतें एत्तेॅ भीतर तांय खोदी देलेॅ छेलै कि सुरंग नाँखी लागै। बण्टा आरनी वहा सुरंग में बायां दिश आरो एक खोह खानी देलेॅ छेले, जेकरा में दू आदमी आसानी सें छिपी केॅ बैठेॅ पारेॅ। जखनी ई गढ़ैया में बण्टा आनन्द मनावै आरो माय-बाबू आकि हेने आदमी केॅ ऐतें देखै, जे घरोॅ में शिकायत करेॅ, तखनी ऊ वहेॅ सुरंग के सुरंग में घुसी केॅ बैठी रहै।
बण्टा केॅ खोजै में बदहवास ओकरोॅ दोस्त सिनी वहू गढ़ैया के सुरंग तक गेलोॅ छेलै। राते में चोरबत्ती लेनें। सुरंग मंे घुसी केॅ चोरका सुरंगो तक रोशनी मारी केॅ देखलकै। चोरबत्ती के रोशनी पड़तैं सुरंग में बैठलोॅ कुत्ता भूंकतें एत्है तेजी सें उछली केॅ भागलै कि डरोॅ सें चारो साथी वही पर एक दुसरा के ऊपर लुढ़की केॅ चिचयावेॅ लागलै। चोरबत्ती छिटकी केॅ एक दिश फेंकाय गेलै।
हौ तेॅ चोरबत्ती के बटन हेनोॅ दबाय देलोॅ गेलोॅ छेलै कि ऊ जरतंै रही गेलै, नै तेॅ अन्हारोॅ में सबके प्राणे निकली जैतियै। एक नें दौड़ी केॅ चोरबत्ती लेलकै आरो बारले-बारले चारो घोॅर लौटी ऐलै। एकरोॅ बाद ऊ सब फेनू खोजै लेॅ नै निकललै। ई सोची केॅ—आबेॅ जे होतै सें होतै।
संझवाती बेरा होय गेलोॅ छेलै, जखनी बण्टा भिट्ठी पहुँचलै। दौड़तें-दौड़तें थक्की जाय, तेॅ कोय गाछी के नीचू थिराय लै। हेन्है केॅ पहुँचलेॅ छेलै ऊ आपनोॅ मौसी के गाँव, भिट्ठी।
ठीक गाँव के सिमानै पर मिली गेलोॅ छेलै बिलटा। बण्टा केॅ देखथंै ओकरोॅ खुशी के ठिकानोॅ नै रहलै, होनै केॅ बण्टौ के. मतरकि बिलटा के मनोॅ में हठाते शंका उठलै, "है वक्ती ई असकल्ले! इस्कूल बस्ता सब कुछ लेनैं! ज़रूर कांही कुछ बात छै।" आरो ई शंका उठत्हैं वैं पूछियो लेलकै, "एक बात तों बताव बण्टा, तोहे काँहीं घरोॅ सें भागी केॅ तेॅ नै ऐलोॅ छैं?"
"हों, भागी केॅ ही ऐलोॅ छियै।" आरो बण्टा एकेक बात सुनाय देलकै, खड़े खड़। पीठी के घाव तक दिखाय देलकै—कमीज आरो गंजी केॅ उपर उठाय केॅ।
बिलटां देखलकै—आकरोॅ पीठी पर होने छड़ी के दाग उभरी गेलोॅ छेलै, जेना गिलहरी के पीठी पर मोटोॅ-मोटोॅ रेखा। बिलटा के मुँहोॅ सें आह निकली गेलै।
मतरकि बण्टा के चेहरा पर चमक छेलै। ऊ बोललोॅ जाय रहलोॅ छेलै, "आय बुझैलोॅ होतै सब गुरु सिनी केॅ, सबके कुर्सी पर हुरकुस्सी रगड़ी देलेॅ छेलियै। इस्कूल सें घोॅर गेलियै, तेॅ सब गुरु जी वहाँ हाजिर छेलै। बस की छेलै, हम्में यहाँ लेॅ लगै उड़ोन दै देलियै। ई तेॅ जानवे करै छेलियै कि यहेॅ रास्ता भिट्टी जाय छै। जहाँ-जहाँ रुकियै, लोगोॅ सें रस्ता पूछी लियै। कोय कुछ पूछै, तेॅ मौसा के नाम बताय दियै। आरो यहाँ आवी गेलियै।"
"ठीक करलैं तोहें। आबेॅ तोरा कुछ नै बोलना छौ। सब बात हम्मीं माय केॅ बतैवै। आबेॅ तोरा आपनोॅ घरो नै जाना छै। चल घोॅर चल।"
राती जखनी खाट पर सब बैठलै, तखनी बिलटा के माय नें बण्टा के पीठ उघारी केॅ बिलटा के बाबू केॅ देखैतें कहलेॅ छेलै, "देखौ, राकसें की रं फूल किसिम बच्चा केॅ खुचलेॅ छै।"
बिलटा-बाबूं सुखलोॅ-सुखलोॅ लहू आरो पपड़यैलोॅ चमड़ी केॅ देखलेॅ छेलै आरो बड़ी गंभीर होतें कहलकै, "बंटू आबेॅ यहाँ सें नै जैतै। यांही पढ़तै। कल्हे इस्कूली में नाम लिखाय दै छियै। तोहें भोरेरियैं किसना के हाथोॅ सें खबर भिजवाय दियौ कि बंटू भिट्टी में छै। खबर तेॅ अखनिये भिजवाय देतियै, मतरकि इखनी कोय आदमी बगीचे-बगीचा जाय वाला नै मिलतै।"
मौसा के बात सुनी केॅ बण्टा के मोॅन तेॅ एकदम हलहलाय उठलै, बस हेने मोॅन करेॅ लागलै कि वही ठां उछलेॅ-कूदेॅ लागै। मतरकि सबटा खुशी दबैनें हेने बैठलोॅ रहलै, जेना—सबसें चोराय केॅ मुँहोॅ में रसगुल्ला दबैनें, होलै-हौले ओकरोॅ रस तालू आरो जीहा सें गारतें रहेॅ।
खैला-पीला के बाद बण्टा आरो बिलटां खटिया केॅ ऐंगना में पारलकै। दोनों छिनमान जामें बच्चा रं लागै। जन्म सें बस एक महिना के अन्तरे सें बड़ोॅ-छोटोॅ छेलै।
खटियां पर जेन्हैं मोटोॅ गेंदरा दै केॅ वै पर चादर बिछैलोॅ गेलै, दोनों बढ़िया सें गोड़-हाथ धोय केॅ, पोछी-पाछी केॅ राजकुमारे रं लोघड़ी गेलै। दोनों लेॅ अलग-अलग तकिया। बण्टा केॅ तेॅ घरोॅ के ख्याले नै रहलै।
"सुनोॅ बिलटामाय, हम्में ज़रा हटिया संे घूमी केॅ आवै छियौं, जांे टेलीफोन बूथ खुल्ला होतै, तेॅ केन्होॅ केॅ भीखनपुर खबर करवाय के कोशिश करै छियांै। वहू लगतै तबेॅ नी। सारोॅ, हिन्नें से पचास बार टेलीफोन करोॅ, तेॅ हुन्नें से बोलतौं—सभी लाइन व्यस्त हैं। जेना लागै छै टेलीफान नै रहेॅ, बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली के सड़क रहेॅ—लाइन व्यस्त है।" बिलटाबाबू चिढ़तें होलेॅ बोललै "खैर देखै छियौं, तोहें डढ़िया लगाय लेॅ।"
"पता नै कखनी ऐतै आबेॅ हुनी" बिलटा मायं मने-मन सोचलकै आरो खटिया के गोरपारी दिश दोनों के पैर उठाय केॅ बैठी गेलै। खटिया पर बैठै भर के देर छेलै कि रोजके नाँखी बिलटा कहलकै, "माय कोय खिस्सा कहंै नी।"
खिस्सा के बात सुनथैं बण्टा जेहोेॅ ओघरैलोॅ छेलै, उठी केॅ बैठी रहलै।
"नै बेटा, उठै के काये ज़रूरत नै छै, लेटले-लेटले सुनें। एक ठो खिस्सा सुनाय छियौ—छौ भाय राजकुमार आरो एक भाय बिज्जी के." रूपसावाली दोनों के गोड़ केॅ बारी-बारी सें हौले-हौले मलतो जाय आरो खिस्सा कहतें जाय रहलोॅ छेलै, "एक ठो राजा छलै। राजा केॅ अपार सम्पत्ति छेलै।"
"हमरोॅ चैधरियो काका सें भी ज़्यादा?" बण्टा बीचोॅ में जिज्ञासावश पूछलकै।
"तोरोॅ काकौ सें ज़्यादा। राजा रं केकरा धोॅन हुएॅ पारेॅ! तेॅ, ऊ राजा केॅ सात रानी छेलै। मतरकि एक्को टा सन्तान नै। से राजा बड़ी दुखी रहै। घरे में उदास बैठलोॅ रहै।"
"तेॅ हुनी खेलै-ऊलै लेॅ कैन्हें नी चल्लोॅ जाय छेलै।" बण्टा फेनू बीचे में टोकलकै।
"हों जाय छेलै नी, शिकार खेलै लेॅ। तखनी राजा आपनोॅ छोटकी रानियो केॅ साथ लै लै। राजा छोटकी रानी केॅ बहुत मानै छेलै।"
"एत्तेॅ?" बण्टा सुतले-सुतले दोनों हाथ दोनों दिश फैलैतें पूछलकै।
ई देखी रूपसावाली केॅ हँसी आवी गेलै आरो वहूँ दोनों हाथ फैलाय केॅ कहलकै, "हों एत्तेॅ।"
"अभी खिस्सा शुरुवे होलोॅ छेलै आरो बण्टा तीन दाफी टोकी चुकलोॅ छेलै। तबेॅ तेॅ ई खिस्सा भोरो तांय पूरा नै हुएॅ पारतै।" ई सोची केॅ बिलटां हौले सें बण्टा केॅ चुट्टी काटलेॅ छेलै। तेॅ, बण्टौ समझी गेलै कि खिस्सा सुनै वक्ती ओकरा टोका-टोकी नै करना छै। मतरकि ऊ सुतलोॅ नै रहलै, उठी केॅ बैठी रहलै। यैलेॅ कि कांही सुनतें-सुनतें नीन नै आवी जाय।
रुपसावालीं खिस्सा आगू बढ़ाय देलेॅ छेलै, " एक दाफी राजा असकल्ले जंगल दिश शिकार खेलै लेॅ निकली गेलै, नै छोटकी रानी लेलकै, नै कोय सेनापति, नै कोय सिपाहिये।
" ऊ दिन राजा आरो निराश छेलै। सोचलो जाय कि तभिये जंगल में हुनका एक साधु दिखाय पड़लै। पता नै, राजा के मनोॅ में की होलै कि हुनी साधु नगीच पहुँची गेलै। घोड़ा पीछुवे के एक गाछी सें बांधी देलकै।
" जबेॅ राजा साधू के नगीच पहुँचलै तेॅ साधंू राजा के मूँ उदास देखी कहलकै, 'तोहें देखल्हंै सें राजा बुझाय छौ, मतरकि तोरोॅ चेहरा पर ई दुख कैन्हें छौं?'
" राजां साधु के गोड़ छुवी केॅ आपनोॅ सबटा दुख सुनाय देलकै। राजा रोॅ दुख सें द्रवित साधुं हुनका एक चांदी के छड़ी देलकै, आरो कहलकै, 'पूरब दिश गेला पर कोस भरी के दूरी पर एक गाछ छै, जे पचास गाछ सें घिरलोॅ छै। सबटा गाछ आमे केरोॅ छेकै, आरो सब्भे में आम फरै छै। जे गाछ रोॅ आम छोटोॅ-छोटोॅ बुझावौं, बस वही गाछोॅ सें तोहैं सात आम ई छड़ी सें तोड़ी लियोॅ। याद राखियोॅ, कभियो सात सें ज़्यादा तोड़ै के लोभ नै करियोॅ, नै तेॅ तोड़लोॅ सातो आम सहित छड़ियो गाछी सें सट्टी जैतौं।'
"साधू सें छड़ी पावी केॅ राजा के खुशी केॅ तेॅ कोय सीमाहै नै रही गेलै। हुनका सें आशीर्वाद आरो छड़ी लै केॅ राजा पूरब दिस चली देलकै। कोस भरी बढ़ला पर ठिक्के हुनी पचास आम गाछोॅ के बीच एक ठो छोटोॅ आम वाला गाछ देखलकै। राजां छड़ी सें सात आम तोड़लकै आरो लौटेॅ लागलै। कि तखनिये हुनका मनोॅ में ई बात उठलै कि कैन्हें नी छोटकी रानी वास्तें एक ठो आरो आम तोड़ी लौं। ई सोची केॅ राजा आठमोॅ आम तोड़ी लेलकै। तोड़ै के देर भर छेलै कि आठो आम आरो ऊ छड़ी गाछी सें जाय केॅ सट्टी रहलै।"
"जा।" बण्टा रोॅ मुँहोॅ सें हठाते निकललै।
" ई देखी राजा पछतैतें-उछतैतें फेनू साधु लुग गेलै आरो लोभ के कहानी सुनैलकै। यहू कहैलकै कि आबेॅ फेनू लोभ नै करतै। राजा के बात सुनी केॅ साधु फेनू दोसरोॅ छड़ी देलकै। छड़ी लैकेॅ राजा फेनू वहेॅ पूरब दिश बढ़ी गेलै। मतरकि अबकी कोय लोभ नै करलकै। बस सात ठो आम तोड़लकै आरो राजमहल दिश बढ़ी गेलै। राजमहल पहुँची केॅ सातो रानी केॅ एक-एक आम पूजा-पाठ करी केॅ खाय लै लेॅ कहलकै।
"बड़की छवो रानी तेॅ जल्दी-जल्दी पूजा-पाठ करी आम खाय लेलकै, मतरकि छोटकी रानी आम केॅ कोठरी के ताखा पर राखी केॅ दासी सिनी साथें गंगा नहाय लेॅ चल्लोॅ गेलै। सोचलकै, हेनोॅ फल गंगा नहैला के बादे ग्रहण करना चाही। हुन्नें छोटकी रानी गंगा नहाय लेॅ गेलै आरो हिन्नें कन्हौं सें एक ठो बिज्जी ऐलै आरो ऊ आम केॅ चाटी केॅ छोड़ी देलकै।"
"तबेॅ तेॅ आम में जहर भरी गेलोॅ होतै।" बण्टा केॅ चुप नै बैठलोॅ गेलै, से जानै के ख्याल सें पूछलकै।
"जहर तेॅ नै भरलै, मतरकि चाटला के असर ई होलै कि आरो सब रानी केॅ तेॅ राजकुमार होलै, मतरकि छोटकी रानी केॅ बिज्जी. राजा तेॅ ई खबर पैत्हैं उदास होय गेलै, मतर छोटकी रानी दुखित होय्यो केॅ दुखित नै होलै—ई सोची केॅ कि जबेॅ विधि केॅ यहेॅ मोॅन छै, तेॅ यहेॅ सही। हुन्नें राजकुमार सिनी धीरें-धीरें बड़ोॅ हुएॅ लागलै। जबेॅ छवारिक रं सबठो होय गेलै तेॅ सब्भैं राजा केॅ कहलकै कि आबेॅ ऊ सिनी व्यापार करै लेॅ परदेश जाय लेॅ चाहै छै। राजा ई सुनी केॅ बड्डी खुश होलै आरो हुनी इजाजत दै देलकै। जबेॅ ई बात बिज्जी केॅ मालूम होलै, तेॅ बिज्जियो जाय लेॅ माय लुग मचलेॅ लागलै। छोटकी रानी के बहुत्ते मना करला के बादो बिज्जीं एक नै मानलकै आरो वनिज वास्तें छवो भाय साथें निकली गेलै। छवो राजकुमार घोड़ा पर छेलै आरो बिज्जी उछललोॅ-कुदलोॅ घोड़ा सिनी के आगू-पीछू चल्लोॅ जावेॅ लागलै।"
"तेॅ, कोय भाय आपनोॅ घोड़ा पर बैठाय नै लेलकै?" बण्टां बड़ा मुरझैलोॅ रं आवाज में बोललकै।
"नै बैठलकै। भैय्यो सिनी बिज्जी केॅ भाय कहै में चिढ़ै छेलै। नै चढ़ैलकै, तहियो बिज्जी ऊ देश पहुँची गेलै जोॅन देश के राजा कन छवो राजकुमार गेलै आरो परिचय दै केॅ वहाँ बड़ोॅ-बड़ोॅ पदोॅ पर काम करेॅ लागलै। सांझे छवो राजकुमार एक्के कोठरी में अलग-अलग पलंग पर आवी केॅ सुती जाय।"
"आरो बिज्जी?" बण्टां बड़ी चिन्तित होतें पूछलकै।
"बिज्जियो वहेॅ कोठरी में कोय पलंग के नीचेॅ राती सुती रहै। कोय राजकुमार के मालूमो नै हुऐ. जखनी भुरकवो नै उगै, बिज्जी कोठरी सें निकली केॅ कुम्हारोॅ के यहाँ चल्लोॅ जाय।"
"कुम्हारोॅ कन कथी लेॅ।" बण्टा के आश्चर्य बढ़ी गेलै।
" बिज्जी वहेॅ कुम्हारोॅ कन काम करेॅ लागलोॅ छेलै। दिन भरी गदाहा पर मिट्टी ढोवै आरो साँझे कुम्हारे कन खाय-पीवी केॅ राती राजकुमारोॅ लुग आवी जाय। पेटभत्तै पर बिज्जीं कुम्हारोॅ कन नौकरी करी लेलेॅ छेलै। आरो कुम्हार छेवो करलै एक नम्बर रोॅ कंजूस। एत्तेॅ सस्ता में काम करै वाला आरो के मिलतियै। सें बिज्जी केॅ पेटभत्ता पर राखी लेलेॅ छेलै।
" एक दिन जबेॅ बिज्जी पलंग के नीचे ओघरैलोॅ छेलै कि वैं राजकुमार सिनी के आपसी बातचीत करतें सुनलकै कि ठीक पाँचमोॅ रोज सब आपनोॅ राज लौटी जैतै। जे जत्तेॅ कमैलेॅ छै, सब बोरा में कस्सी-कुस्सी आपनोॅ-आपनोॅ घोड़ा पर लादी लेतै। ई सब बातचीत सुनी केॅ बिज्जी सोचेॅ लागलै कि वैं तेॅ धोॅन कमैलेॅ नै छै, वैं की लै जैतै। ऊ रात भरी सोचत्हैं रहलै आरो एकदम भोररिये कुम्हारोॅ कन काम करै लेॅ चल्लोॅ गेलै।
" कुम्हारोॅ केॅ एकटा बेटा छेलै, जे रातिये वक्ती पोॅर-पखाना वास्तें निकलै। ऊ डरगुहो ओत्ते छेलै। जोॅन दिनोॅ सें बिज्जी घरोॅ में ऐलोॅ छेलै, बिज्जिये ओकरोॅ साथ मैदान जाय। ऊ दिन जबेॅ कुम्हार के बेटा साथें पोखरी दिश गेलै, तेॅ एकान्त पावी केॅ बिज्जीं कहलकै, 'तोहें सच-सच बताव कि तोरोॅ बाबू धोॅन कमाय केॅ कोॅन तहखाना में राखै छौं। राजा सें लैकेॅ प्रजा तांय के काम करै छौ, तोरोॅ बाबू सें बढ़ी केॅ मातवर तेॅ राजाहौ नै होतै। आय तोहें ई बात नै बतैलैं कि तोरोॅ बाबू धोॅन कहाँ राखै छौ, तेॅ हम्में तोरा काटी लेवौ, आरो तोहें मरी जैबे।'
" बिज्जी के बात सें कुम्हारोॅ के बेटा डरी गेलै आरो सब्भे टा बात बताय देलकै कि बाबू आपनोॅ धोॅन या तेॅ चाक के नीचें गाड़ी केॅ राखै छै आकि फेनू जाँतोॅ चक्की के नीचंे। सबटा बात सुनी केॅ बिज्जीं कहलकै, ' सुन, जांे तोहें केकरौ ई बात बतैलैं कि तोहें ई बात हमरा बतैलेॅ छैं, तेॅ तोरा हम्में काटी लेवौ, आरो तोहें मरी जैबे।
" वही दिन सें बिज्जी ई मौका में रहेॅ लागलै कि केना सबटा धोॅन निकाललोॅ जाय। निकालियो लेतै, तेॅ लै जैतै केना, यहू सब सोचै। आखिर वैं उपाय निकालिये लेलकै। कुम्हारोॅ केॅ एक गधैया छेलै, जे एक टांग से लंगड़ी छेलै। कुम्हारें ओकरा खैय्यो लेॅ नै दै। जे मिलै वही खाय लै। एक राती बिज्जी जाँतोॅ सें दूर हटी केॅ आपनोॅ नाखून सें माँटी खोदना शुरु करलकै आरो जाँतोॅ लुग पहुँची गेलै। देखै छै कि हीरा, मोती, पन्ना, लाल, एक बोरिया में भरलोॅ छै। वैनें केन्होॅ खींची केॅ निकाललै आरो गधैया केॅ बोरा खोली सबटा हीरा, मोती खिलाय देलकै। ठीक वहेॅ रं चाक के नीचहौ सें हीरा, मोती निकाली-निकाली गधैया केॅ खिलाय देलकै।
" आबेॅ ठीक वहेॅ दिन, जे दिन राजकुमार सिनी के लौटे के बात छेलै, बिज्जी कुम्हारोॅ के पास ऐलै आरो कहेॅ लागलै कि एत्तेॅ दिन तोरा कन हम्में काम करलियांै, आबेॅ हम्में आपनोॅ देश जाय लेॅ चाहै छी। ओत्तेॅ दूर पैदल केना जेवोॅ, से तोहें आपनोॅ लंगड़ी गधैया दै देॅ। कुम्हार ई सुनत्हैं खुश होय गेलै कि लंगड़ी गधैया संे मुक्ति मिललोॅ। वैं तुरंत 'हों' करी देलकै। कुम्हारोॅ के हों कहतैं बिज्जी गधैया लै केॅ वहाँ सें निकली गेलै आरो राजकुमार सिनी के साथें साथ चलेॅ लागलै। ई देखी केॅ राजकुमार सिनी हाँसै। राजकुमार घोड़ा पर छेलै आरो बिज्जी गधैया पर। भला गधैया घोड़ा के बराबरी करेॅ पारतियै। देखत्हैं-देखत्हैं राजकुमार सिनी आगू निकली गेलै। लेकिन राजमहल पहुँचलै सब आगुए-पीछू।
"मतरकि गधैया हौ हीरा, मोती, मुहर, केना खाबेॅ पारेॅ।" बिलटा कहतें-कहतें उठी बैठलै।
"सुनलै नैं, कुम्हारंे ओकरा खाय लेॅ नै दै छेलै, तबेॅ करतियै की। जे मिललै वही खाय गेलै।"
"आगू के खिस्सा तेॅ सुन।" एतना कहतें बण्टा कहलकै, "तबेॅ की होलै मौसी?" आबेॅ बण्टाहौ उठी केॅ बैठी गेलै।
"तबेॅ। तबेॅ सब राजकुमारें आपनोॅ कमैलोॅ धोॅन खोली-खोली केॅ दिखावेॅ लागलै। राजा साथें छवो रानी बड़ी खुश होलै आरो जखनी बिज्जी गधैया साथें राजमहल पहुँचलै, तेॅ सब राजकुमार हाँसेॅ लागलै, मतरकि बिज्जी गधी साथें आपनोॅ माय लुग पहुँची गेलै आरो गदही केॅ ऐंगना में बान्ही केॅ माय सें डांग लानै लेॅ कहलकै। छोटकी रानी केॅ जरियो टा बात समझै में नैं आवी रहलोॅ छेलै, से डांग लानी केॅ बिज्जी के हाथोॅ में थमाय देलकै। तबेॅ की छेलै, बिज्जीं गदही पर डांग बरसाना शुरु करलकै। हुन्नें डांग पड़ै आरो हिन्नें गदही लीद के जग्घा में हीरा, जवाहरात निकाललेॅ जाय। ऐंगना में हीरा, मोती, मुहर, केरोॅ ढेर लागेॅ लागलै। छोटकी रानी ई देखी केॅ सन्न छेलै।"
"है बात राजा आरो राजकुमार केॅ नै मालूम होलै?" बण्टा बड़ा धीरें सें बोललै, जेना—बगले में राजकुमार खाड़ोॅ रहेॅ आरो वैं सुनी नै लेॅ।
" हों, राजा केॅ मालूम होलै, मतरकि जबेॅ राजकुमारो सिनी केॅ मालूम होलै तेॅ आपनोॅ लानलोॅ धोॅन के आधा हिस्सा दै केॅ छवो राजकुमारें बिज्जी सें ऊ गदही खरीदी लेलकै। बिज्जियो विरोध नै करलकै। दै देलकै। आबेॅ तेॅ बिज्जी के ऐंगना में गोड़ राखै भरी के जगह नै छेलै, कहाँ हीरा, मोती नै बिछलोॅ छेलै।
"हुन्नें राजकुमारें सिनी गदही केॅ ऐंगना में बांधी केॅ डंगाना शुरू करलकै। मतरकि बेचारी लंगड़ी गदही हीरा, मोती केना लीद करतियै। ऊ तेॅ सब बिज्जिये कन गिराय देलेॅ छेलै। बहुत डंगावेॅ लागलै तेॅ गदही मारोॅ सें घास वाला लीद करी केॅ घिनाय देलकै।"
ई सुनी केॅ तेॅ बण्टा आरो बिलटा के हँसी जे छुटलै, तेॅ रुकवां नै रुकलै। रूपसोवाली केॅ हंसी आवी गेलोॅ छेलै। ई सब हँसी तेॅ तब्हैं रुकलै, जबेॅ द्वारी पर बिलटाबाबू के झिंझिंर खटखटैबोॅ साथें 'हम्में छेकां' के आवाज होलै।
रुपसावाली उठलै, तेॅ बण्टा आरो बिलटा तुरत खटिया पर लुढ़की केॅ आँख मुनी लेलकै।
"बात होलांै?" हुड़का खोलतें रुपसावालीं पूछलकै।
"हों, होलै" भैरो कापरीं ठंडा स्वर में कहलकै, "बाते नै होलै, हम्में कही देलियै कि बण्टू आबेॅ साल, छः महीना यहीं रहतै। नाम लिखाय देबै, बिलटू साथें पढ़तै-लिखतै।"
"तेॅ, दुल्हाजीं की कहलकौं?"
"कहतै की, हमरोॅ बात हुनी मानी लेलकै।"
"आबेॅ तोरोॅ काम रहलौं कि बण्टू के नाम कोय दिन इस्कूली में लिखाय ऐयौ।"
आँख मुनले-मुनले बण्टा आरो बिलटां सब बात सुनलेॅ छेलै। सुनी केॅ दोनों के मोॅन बड़का बेलून नांखी फूली केॅ पानी रं पातलोॅ होय गेलै—कि आबेॅ फूटथै कि तबेॅ।
होना केॅ तेॅ भैरो कापरी कृषि काॅलेजोॅ में कल्र्के छेलै, मजकि ज्ञान मंे कोय प्रोफेसर-डाॅक्टर सें कम नै। दुनिया भरी के गाछ-बिरिछ के जानकारी सें लै केॅ हजार किसिम के दबाय-दारू के जानकारी राखै। मोॅर-मोकदमा के दांव-पेच तेॅ जत्तेॅ भैरो कापरी केॅ मालूम छेलै, ओत्तेॅ वकीलो वैरिस्टर केॅ नै होतै। भले गाँव के ऊ मुखिया नै रहेॅ, मतरकि गाँव के छोटोॅ संे छोटोॅ मामलौ पर मुखिया, पंच ज़रूरे भैरो कापरी सें मिलै।
बण्टा के घाव आरो देहोॅ के दरद छुड़ाय वास्तें कोय डाॅक्टर लुग जाय के ज़रूरत नै पड़लै। मौसा जे जड़ी-बुटी देहोॅ सें लगाय दै, वही काफी। पाँच दिन पुरतें न पुरतें सब घाव हेनोॅ चोखैलै, सबटा दरद हेनोॅ फुरपार होलै जेना फटाका के आवाज सुनी बगीचा रोॅ बानर।
होना केॅ बण्टा के दरद तेॅ वहेॅ रात दूर होय गेलोॅ छेलै, जोॅन राती वैं सुनलकै कि ऊ आबेॅ याहीं रहतै। ई सुनला के बाद भला दरद केना, की बुझैतियै। खूब घोर नीनोॅ में हौ राती ऊ सुतलोॅ छेलै। रात-रात भरी वैं सपना में बिज्जी केॅ देखतें रहलै—की रं घोड़ा रोॅ पीछू-पीछू दौड़लोॅ जाय रहलोॅ छै। केना पलंग नीचें घुर-घुर करी रहलोॅ छै। केना बिल बनैतें-बनैतें जाँतोॅ-चाक तांय पहुँची गेलै। केना सबटा हीरा, मोती, मुहर निकाली केॅ लेंगड़ी गदही केॅ खिलाय देलकै आरो केना हिन्नें बिज्जी गदही केॅ डांग मारै, तेॅ हुन्नें सें लीद बदला हीरा-मोती गिरावै।
सपनाहैं में बण्टा केॅ बिज्जी सें दोस्ती होय गेलै। खूब गाढ़ोॅ दोस्ती। रात-रात भरी दोनों बाजी लगैलकै कि बेशी तेज के दौड़ेॅ पारेॅ। बिज्जी खूब जोर लगैलकै, मजकि बण्टा तेॅ घोड़ा निकललै। बिज्जी रस्ता में हाँफी रहलोॅ छेलै। ई देखी बण्टा झट सना ओकरा गोदी में उठाय लेलकै आरो देर तांय ओकरोॅ पीठ सहलैतें रहलै।
बिहानै जबेॅ उठलोॅ छेलै तेॅ मौसी ओकरा पीठ सहलाय रहलोॅ छेलै। पूछलकै, "की अभियो खूब दरद करी रहलोॅ छौं?"
"नै कुछुवो नै।" बण्टा धड़फड़ैलै उठलै।
रुपसावालीं एकरा सच्चे मानलकै, कैन्हें कि गरम तेल में जड़ी डाली केॅ एत्तेॅ लगाय देलेॅ छेलै कि रात भरी में ज़रूरे दरद सोखी लेलेॅ होतै।
पाँच दिन, आठ दिन, दस दिन। ठीक दसमोॅ दिन घरोॅ में पंचायत बैठलै कि बण्टा के कोॅन क्लासोॅ में नाम लिखैलोॅ जाय आरो कोॅन इस्कूली में।
इस्कूल के नाम सुनत्हंै बण्टा केॅ जमराज गुरु जी के मार याद आबी गेलै। एक-एक साटोॅ। पड़...पड़...पड़...पड़। याद करतैं बण्टा ऐंठी केॅ रही गेलै। अभी आरो कुछ बोलतियै कि बण्टा पहिले बोली उठलै, "हम्में घरे में पढ़बै, इस्कूल नै जैबै।"
भैरो कापरी बात केॅ समझी गेलै। कहलकै, "यहाँ गुरु जी होनोॅ नै छै, जे तोहें सोची रहलोॅ छैं। आबेॅ तोरोॅ मरजी पर छौ कि तोहें अंग्रेज़ी इस्कूल में पढ़ै लेॅ जैबे कि सरकारी इस्कूल में? मौसीं यही कही रहलोॅ छौ कि अंग्रेज़ी इस्कूल में ही नाम लिखाय दौ। अंग्रेज़ी से पढ़तै-लिखतै तेॅ बड़का नौकरी मिलतै, बड़का इज्जत मिलतै। तोरोॅ की मोॅन छौ? अंग्रेज़ी सें सकेॅ पारबै?"
"सकेॅ कैन्हें नी पारतै। अभ्यास करला सें तेॅ आदमी पहाड़ो उठाय छै।" रुपसावाली बण्टा सें पहिलैं बोली उठलै।
"सुनोॅ, तोहें कुछ समझै-बुझै तेॅ छौ नै, खाली फेंकड़ा पढ़ै छौ। अंग्रेज़ी पहाड़ नै छेकै, मूसोॅ छेकै। मूसोॅ, जे आदमी के पहाड़ हेनोॅ दिमाग केॅ भीतरे-भीतर कुतरी केॅ हिलाय दै छै। समझलौ। निहाल करी रहलोॅ छौं नी बिलटू।" थोड़ोॅ मूं ऐंठतें भैरो कापरी बोललै, "अंग्रेजी इस्कूल में पढ़ैवोॅ बेटा केॅ। अंग्रेज़ी के आठ टा शब्द घोकै में आठ दिन लगावै छांै। तोहें समझै लेॅ कैन्हें नी चाहै छौ कि बच्चा आपने माय-मौसी लुग रहै छै, परोॅ घरोॅ में नै आरो आपने माय बच्चा केॅ ठीक सें पालै-पोसै छै, परोॅ घरोॅ के जोॅर-जनानी दू पैसा दिएॅ पारेॅ, बच्चा के गू-मूत नै देखेॅ पारेॅ आरो नै एकरोॅ खयाल कि बच्चां खैलकै कि नै, नीन ऐलै कि नै? ...के लकड़सुंग्घां लकड़ी सुंघाय देलेॅ छौं कि बेटा केॅ पढ़ैवोॅ तेॅ अंग्रेज़ी पढ़ैवोॅ, बहिन-बेटा केॅ पढ़ैवौं तेॅ अंग्रेज़ी पढ़ैवोॅ। तोरोॅ बस चलौं तेॅ हमरोॅ नाम तोहें अंग्रजी इस्कूली में लिखाय दौ। हम्में नौकरी करै लेॅ चललियौं। तोर्है सिनी तै-तमन्ना करी लेॅ कि बण्टा कहाँ पड़थौं। बाबू बनथौं कि लाट साहब।"
आरो जखनी साँझे लौटलै, तेॅ फेनू घरोॅ के पंचायत बैठलै, जैसंे बण्टा, बिलटा दोनों गायब छेलै। भैरो पूछलकै "बण्टू नै दिखावै छै।"
"हिन्नें-हुन्नें कन्हौं बिल्टू साथें खेलतें होतै।"
"तेॅ, की तै भेलै?"
"तय की होतै। बण्टू साफ बोलै छै कि हम्में इस्कूल नै जैबै, नै सरकारी, नै अंग्रेज़ी। घरे में पढ़बै। आबेॅ तोंही बताबोॅ, ओकरा घरोॅ में के पढ़ैतै। मानी लेॅ कि ऊ इस्कूल नहिये जाय छै, ओकरोॅ लेॅ घरे में गुरु जी राखियो दै छियै। तेॅ, गुरु जी दिन भरी तेॅ नहिये नी पढ़ैतै। बिहनकी ऐतै आकि सँझकी, घण्टा भरी रहतै आरो चल्लोॅ जैतै। हुन्नें दस बजतें-बजतें बिल्टू इस्कूल चल्लोॅ जाय छै, बेचारा ई असकल्ले रही जैतै। भला असक्कलोॅ एकरोॅ मोॅन की लागतै। सबसें बड़ोॅ चिंता तेॅ यहेॅ बातोॅ के छेकै।"
"तोरा चिन्ता करै के कोय ज़रूरत नै छै। हम्में नौकरी पर जेबै तेॅ आपनोॅ साथ लै लेबै। काॅलेजोॅ में बड़का ठो मैदान छै। गाछ-बिरिछ छै, किसिम-किसिम के चिड़िया, मधमक्खी केॅ घोॅर, किसिम-किसिम के फूल, पत्ती। आपने मोॅन लागलोॅ रहतै। फेनू हम्में तेॅ रहबे करबै। जबेॅ आपने मनोॅ सें बोलतै कि इस्कूल जैबै, तेॅ नाम लिखाय देलोॅ जैतै।"
आरो यहेॅ बात पक्की मानलोॅ गेलै।
तिनकौड़ी निषाद केॅ गाँव भरी के लोग माँछो काका कहै छै। मछली मारै के काम करै छै। एकदम भोरे-भोर उठलोॅ, जाल उठैलकोॅ आरो गंगा दिश कखनी गेलोॅ कि कोय जानो नै पारेॅ। हुन्नें आकाशोॅ सें सुरुज हुलकै छै, आरो हिन्नें माँछोका बड़का चंगेरा लेलेॅ गाँवोॅ में बूलेॅ लागलोॅ।
तिनकौड़ी निषाद के कोशिश रहेॅ छै कि सबसें पहिलें भैरो कापरी के यहैं पहुँचेॅ। हुनका तीन सेर वाला मछली चाही आरो तीनो सेर। भैरो कापरी कन दू-चार आदमी ऐतैं-जैतैं रहै छै, कभी कोय, तेॅ कभी कोय, कभी ई, तेॅ कभी ऊ, कभी है, तेॅ कभी हौ। तीन सेर मछली के मोले की!
बण्टा जखनी घरोॅ पर रहै छेलै, तेॅ बंशी लै केॅ दोस्तो सिनी साथें नै होलोॅ तेॅ सूरा बांध चल्लोॅ गेलोॅ; वहीं वंशी में गूड़-सत्तू वाला चारा फंसाय केॅ मछली फंसाय के कोशिश करतें रहलोॅ। कभी फँसलोॅ, कभियो नहियो। फँसवो करलोॅ तेॅ डरोॅ सें घोॅर नै आनलकौ कि माय-बाबू डाँटतो—मछली मारै लेॅ कैन्हें गेलोॅ छेलैं? से वैं पकड़लोॅ मछली रस्ता भरी तेॅ हुलासे सें लानै मतर घोॅर लगीच ऐतें-ऐतें बड़ी दुखित मनोॅ सें दोस्त केॅ दै है। ई बात सें ओकरोॅ दोस्त ओकरा सें बड़ी खुश रहै कि ओकरा टेंगटा-पोठिया चार-पाँच ठो आरो मिली जाय।
भैरो कापरी के दुआरी पर मांछो काका पहुँचै कि—बण्टा सबसें पहलें दौड़ी केॅ पहुँचै आरो काका लुग खाड़ोॅ होय जाय छै। चंगेरा उतरतैं ओकरोॅ आँख एकेक मछली के पीछू घूरेॅ लागै, "बाप रे बाप, एत्तेॅ-एत्तेॅ बड़ोॅ मछली। किसिम-किसिम के मछली।" चंगेरा में मछली जत्तेॅ घुर-फुर करै, ओत्ते बण्टा के मनो ठो। कि है छुवौं कि हौ छुवौं। "की एत्तेॅ-एत्तेॅ बड़ोॅ मछली वैं उठावेॅ पारतै। हों, दोनों हाथ लगैला पर उठेॅ पारेॅ। मतरकि जों कहीं काटी लेॅ। बाप रे बाप, कत्तेॅ बड़ोॅ-बड़ोॅ गलफरोॅ छै। केकरो-केकरो मूँछोॅ कत्तेॅ बड़ोॅ। आँख केन्होॅ काँचोॅ के गुल्ली रं चमकै छै।"
बण्टा के मनोॅ में किसिम-किसिम के भाव उठतें रहै छै; माँछो का जब तांय दुआरी पर बनलोॅ रहै छै।
"माँछोॅ का ज़रा दस मिनिट बैठियोॅ। हुनी तुनुक मिसिर जी केॅ मछली के नेतोॅ दै लेॅ गेलोॅ छौं।" रुपसावाली ऐंगने सें बोललै।
"कोय बात नै छै बेटी, बैठले छियै।"
मौसी के बात सुनी केॅ बण्टा निचिन्त होय गेलै। सोचलकै, "होय गेलै, आधोॅ घण्टा सें पहिलें आवै वाला नै छै मौसा।" ऊ वाहीं पर पालथी मारी केॅ बैठी रहलै। ओकरा एकरो होश नै रहलै कि धरती पर बेठी रहलोॅ छै तेॅ पैंटोॅ में धुरदा लागतै। ऊ तेॅ हेन्है केॅ बैठतें ऐलोॅ छै। उठलोॅ तेॅ दोनों हाथ पीछू करी पैटोॅ केॅ झाड़ी लेलकोॅ। बस होय गेलै। जेना ऊ साबुन में साफ करी लेलेॅ रहेॅ पैंटोॅ केॅ।
"अरे नूनू पैंट धुरियाय जैतौ।" माँछो काका कहलकै।
"छोड़ोॅ नी काका। पहलें हमरा ई बतावोॅ कि है एत्तेॅ बड़ोॅ मछली मिलै छौं कहाँ?"
"गंगा में मिलै छै आरो कहाँ?"
"गंगा में मिलै छै एत्तेॅ बड़ोॅ-बड़ोॅ! ई तेॅ लागै छै जेना समुद्री मछली छेकै।" बण्टा एक दाफी अंगुली बढ़ाय केॅ छुवै के कोशिश करलकै, मतरकि ई सोची कि उछली नै जाय, हाथ खींची लेलकै।
"तोहें, बोललै तेॅ एकदम ठीक बेटा, हिलसा समुद्रे वाला मछली छेकै।"
"तेॅ गंगा में केना आबी जाय छै?"
"अण्डा दै लेॅ। हिलसा मछली केॅ अण्डा दै लेॅ मीठा पानी चाही। समुद्र के पानी तेॅ खारोॅ होय छै, यै लेली समुद्रोॅ सें चली केॅ, नै खाली ई यहाँ तक आवी जाय छै, इलाहाबाद के गंगो तांय पहुँची जाय छै।"
"मतरकि है मछली हमरोॅ घर में तेॅ कभियो नै ऐलै?"
"ऐतै कहाँ सें बेटा। आबेॅ ई मिलै कहाँ छै। कभी काल फँसी गेलोॅ। जबेॅ फरक्का बांध नै बंधलोॅ छेलै, तखनी बोहोॅ के बोहोॅ मछली यहाँ तक आबी जाय छेलै। आदमी हिलसा छोड़ी केॅ कोय मछली नै खाय छेलै। बांध बंधी गेलै तेॅ मछलियो हिन्नें आबै नै पारै छै। एत्तेॅ बड़ोॅ-बड़ोॅ आबेॅ रेहुओ मछली कहाँ मिलै छै।"
"तबेॅ हमरा सिनी जे रेहू मछली घरोॅ पर खाय छियै, ऊ कोॅन रेहू मछली छेकै?" बण्टा माँछो का केॅ देखतें पूछलकै।
"ऊ सब नकली रेहू छेकै। जादा सें जादा रेहू के किसिम कहोॅ। रेहुए की कहै छौ, आबेॅ तेॅ मांगुर, नैनी, कोशी, चीतल, गरै, मांच, कतला, मिरगल, हिलसा, सब दुर्लभ होय रहलोॅ छै।"
माँछो का के मुँहोॅ सें मछली के एत्तेॅ-एत्तेॅ नाम सुनी केॅ बण्टा के आँख फाटी केॅ रही गेलै। "बाप रे बाप, कत्तेॅ-कत्तेॅ नाम जानै छै। कोॅन इस्कूली में पढ़लेॅ छै काकां। नै, मनोॅ सें घोकतें होतै, यही सें काकां एत्तेॅ-एत्तेॅ नाम जानै छै।" बण्टा एक क्षण लेली सोचलकै आरो आपनोॅ भाव केॅ बिना जानले देलेॅ वैं माँछोॅ का से आगू पूछलकै, "काका हिलसा तेॅ मानी लेॅ बांधी केॅ कारण नै आबै पारै छै, मतरकि है सब मछली कैन्हें नी मिलै छै?"
"अरे एत्तेॅ सब बात जानी केॅ तोहें की करवा। बड़को-बड़को जानबे करै छै तेॅ की करेॅ पारै छै। बतैला सें तेॅ दुक्खे होय छै।" ई कही केॅ माँछो का चुप होय गेलै। ओकरोॅ चेहरा पर दुख के भाव उभरी ऐलै।
बण्टा केॅ लागलै, बात ज़रूर कुछ गड़बड़ छै। मतरकि बात छेकै की? ओकरोॅ मनोॅ के जिज्ञासा चंगेरा में पड़लोॅ मछलिये रं उछलेॅ-कूदेॅ लागलै, तेॅ बण्टा दोहराय केॅ पूछलकै, "तहियो काका?"
बण्टा दोनों केहुनी केॅ दोनों जांघोॅ पर टिकैलकै आरो तरहत्थी फलकाय केॅ ओकरोॅ बीचोॅ में ठुड्ढी केॅ जमाय लेलकै।
"तोहें कभी पेाखरी में मरलोॅ मछली केॅ उपलैैतें देखलेॅ छौ?"
"हों, एक दाफी। हमरोॅ चैधरी काका के पोखरी में एक दाफी एक मोॅन सें ज़्यादा मछली मरी केॅ उपलाय गेलोॅ छेलै। सब बोली रहलोॅ छेलै, कोय डाही सें राते में जहर दै देलेॅ छेलै।"
"बस, बस बेटा, आबेॅ तोरा सब बात समझै में कुछओ देर नै लागतौं। आबेॅ तोंहीं सोचै, एक चुटकी जहर सें सौ मन मछली मरी गेलै, तेॅ गंगा में जे हजारो-हजार मोॅन रोज जहर कल-कारखाना उगली रहलोॅ छै, ओकरा सें मछली मरतै की बचतै? गंगा तेॅ जहर बनी रहलोॅ छै। आरो जे मछली बचलोॅ छै, वहू में जहरे बूझोॅ। मछली के तेॅ वंशे जना खतम होय गेलौं, ई फैक्टरी-कारखाना के कारण। आपना यहाँ तेॅ नै, कहै छै अकेले उत्तर प्रदेश मं गंगा के किनारी-किनारी डेढ हजार कल-कारखाना छै, जेकरोॅ जहरीला पानी आरो कूड़ा-कचरा गंगा में जैतें रहै छै। रहेॅ पारतै भला गंगा आरो रहेॅ पारतै मछली जीत्तोॅ? फेनू पानियो तेॅ एकदम घटलोॅ जाय रहलोॅ छै। कभियो मौसी-मौसा साथें गंगा जैभौ, तेॅ देखभौ कि गंगा केन्होॅ नाला नाँखी बहेॅ लागलोॅ छै।"
"गंगा कन्नें छै?"
"हुन्नें।" माँछोॅ कां उत्तर दिश हाथ करतें कहलकै। एक समय ई गंगा एत्तेॅ चैड़ा छेलै आरो वैमें एत्तेॅ पानी रहै छेलै कि गर्मियो दिनोॅ में जहाज डूबी जाय, तेॅ पता नै लागेॅ। "
"तेॅ आबेॅ की होलै?"
"गंगा में पानिये नै आबै छै।"
"गंगा में पानी कहाँ सें आबै छै काका?"
"हिमालय पहाड़ोॅ सें।"
"हिमालय पहाड़ में की बड़का पोखर छै?"
"नै हो, नै" माँछो का खिलखिलैतेॅ बोललै, "तोहें बरफ वाला इस्क्रीम खाय छौ नी। बस हिमालय में वहेॅ बरफ के खान छै। कोस भरी के नै; हजारो हजार कोस के. वही बरफ पिघली-पिघली केॅ गंगा में आबै छै, तेॅ गंगा बहै छै। सुनै छियै कि हिमालय परकोॅ वहू बरफ खतम होय रहलोॅ छै।"
"कैन्हें, ऊ सब बरफ कोय राकस आरनी ज़रूरे खाय जैतै होतै?" बड़ी चिन्तित होतें बण्टा पूछलकै।
"राकस तेॅ की कहबौ, तबेॅ राकसे बूझोॅ। सब मिली केॅ जंगल काटलेॅ जाय छै। पहिलकोॅ जमलोॅ बरफ गली केॅ बहलोॅ जाय छै, आरो जमबोॅ रुकी गेलोॅ छै। तहिया पहाड़ गाछी सें भरलोॅ छेलै, तेॅ पहाड़ ठण्डैलोॅ रहै छेलै। ठण्डैलोॅ रहै छेलै, तेॅ मेघ उड़ी-उड़ी केॅ आवै आरो जमी केॅ बरफ बनी जाय, तेॅ समय पर पिघलबो करै। आबेॅ तेॅ गाछे नै छै, तेॅ बरफ की जमतै। पहाड़ चूल्हा पर खपड़ी रं गरम होलोॅ जाय रहलोॅ छै। गंगा नाला नै बनतै तेॅ आरो की। सब जग्धोॅ के गंगा मरगांग बनी गेलै।" कहतें-कहतें लागलै माँछो का जेना कानी भरतै।
"काका, पहाड़ोॅ पर हमरा सिनी गाछ नै लगाबेॅ पारौं।"
"की बोलै छोॅ नूनू, ओत्तेॅ बड़ोॅ पहाड़ोॅ पर गाछ सिनी के लगाबेॅ पारतै कोय्यो। ई पहाड़ की बौंसी के मनार छेकै कि जेठोरोॅ के पहाड़। वहू पहाड़ोॅ पर तेॅ गाछ नै लगाबेॅ पारै छै आदमी। हिन्नंे एक लगावै छै, तेॅ हुन्नें दू ठो काटी लै छै।"
"अच्छा, हम्में बड़ोेॅ होबै नी काका, तेॅ ढेर गाछ लगैबै।" बण्टां आपनोॅ दोनों हाथ एकदम पीछू तानतें कहलकै। ओकरोॅ चेहरो पर एकदम वीर भाव जागी उठलोॅ छेलै।
ऊ शायत आरो कुछ बोलतियै कि तखनिये झट सना ऊ चुकुमुकु बैठी रहलै आरो टानलोॅ हाथोॅ केॅ चूतड़ पर राखी केॅ जल्दी-जल्दी धुरदा झाड़ेॅ लागलै। असल में ओकरोॅ आँख दूर सें ऐतें मौसा पर पड़ी गेलोॅ छेलै। धुरदा झाड़ी-पोछी खड़ा होय गेलै आरो ई कहतें घोॅर घुसी गेलै, "मौसी, मौसाबू आबी गेलै।"
"की बात छेलै, बण्टू बड़ी जांघ-जूंघ जोड़ी केॅ बैठलोॅ छेलै। कोय खिस्सा सुनी रहलोॅ छेलौं की? खिस्सा-गप, खेलै कूदे में एकरोॅ बड़ी मोॅन लागै छै।" भैरो कापरीं हाँसतें-हाँसतें कहलकै, तेॅ माँछो का भी बोली उठलै, "जे कहोॅ दादा, ई लड़का निकलतौं बड़ी विलक्षण। लक्षणे बताबै छै।"
"ई तेॅ छै, मतरकि सबसें बड़ोॅ कमी यै में यही छै कि पढ़ै के नाम सुनथैं एकरोॅ बुद्धि मंद पड़ी जाय छै। बहियार देखी आबै लेॅ कहौ, पोखरी पर भैंसी केॅ देखी आबै लेॅ कहोॅ, तेॅ पूरा बात सुनै के ज़रूरतो नै।"
"अच्छा, पढ़ना तेॅ पढ़नै छै, जबेॅ ई दुआरी पर आबी गेलोॅ छै।" माँछो कां बड़ा विश्वास साथें कहलकै।
"से तेॅ ठिकके कहलौ। अच्छा छोड़ोॅ, ई अच्छा करलौ कि तीन सेर वाला ई रेहू लानलौ। एकरा यांही राखी दौ, आरो सब बेची केॅ लौटोॅ तेॅ पैसा लै लियोॅ। ...लागै छै लौटै में हमरा बेर भै गेलै।"
माँछो का बड़का मछली दुआरी पर राखी जाबेॅ लागलै तेॅ भैरो कापरीं फेनू टोकतें कहलकै, "जल्दिये लौटियौ, ई मछली बनाना छौं तोहरे।"
"ठीक छै" कही केॅ माँछो का आगू बढ़लै, तेॅ रूपसावाली मछली उठाय केॅ ऐंगना में राखी ऐलै।
ऊ दिन बण्टा कुछ उदासे-उदास रहलै। माँछो का के बात रही-रही केॅ ओकरा याद आबी जाय। दिन्हौं खाय वक्ती ऊ बहुत्ते खुश नै दिखलै, नै तेॅ थरिया पर मछली देखत्हैं ओकरोॅ चेहरा हजारी गंेदा नाँखी खिली उठै। मतरकि आय होनों कोनो बात नै छेलै। तहियो मछली तेॅ मछलिये छेलै। खुश केना नै होतियै।
तीन-तीन सेर वाला मछली भला की एक्के शाम खतम होय वाला छेलै। दिनकोॅ खाना में चार ठो खवैया ऐलोॅ छै, तुनुक मिसिर, अंजनी शर्मा, दिलीप कर्ण आरो शरदेन्दु शेखर। कत्तेॅ खैतियै। दुए परोसन में अघाय गेलै। भरी-भरी डब्बो सें कुट्टी आरो झोल गिरैलेॅ छेलै इकबारगिये। रूपसावाली के हाथोॅ के बनैलोॅ के स्वाद अलगे मूँ मारी दै छै।
हौ माहौली में कोय ई गमे नै पारलकै कि बण्टा के मूँ कुछ' कुछ मनझमान छै। साँझकियो वक्ती बण्टा के मूं बहुत खिललोॅ-खिललोॅ नै छेलै, खाय पर बस तीने आदमी तेॅ बैठलोॅ छेलै—भैरो कापरी, बिल्टा आरो बण्टा। रूपसावालीं आपने सें खाना परोसी रहलोॅ छेलै। कि हठाते ओकरोॅ नजर बण्टा पर पड़लै। आय मछली पर गुमसुम छै, कैन्हें—सोचत्हैं पूछी बैठलै, "की बण्टू, मोॅन तेॅ ठीक छौं?"
"एकदम ठीक छै।" बण्टा मुस्कैतें बोललै, आरो झबझब कौर मुँहोॅ में लिएॅ लागलै।
"काँटोॅ-कूसोॅ देखी केॅ बण्टू। होना केॅ आयकोॅ मछली में तेॅ काठी हेनोॅ काँटोॅ छै, तहियो देखिये केॅ।" भैरो कापरीं टोकलेॅ छेलै।
खैला-पीला रोॅ बाद जबेॅ खटिया पर बण्टा आरो बिलटा गेलै, तेॅ ऊ दिन बिल्टा के पहिलें बंटाहै केॅ नीन आवी गेलै, नै तेॅ गपसप करतें पहलें बिल्टाहे केॅ नीन आवी जाय छेलै। बण्टा तेॅ कुछ देर हेन्है उकुस-पुकुस करतें रहै, तभिये ओकरा नीन आबै। बिल्टा केॅ आचरजो होलै।
हुन्नें बण्टा नीन में एक दूसरे लोक पहुँची गेलोॅ छेलै, जहाँ नद्दी बहै छेलै। नद्दियो हेनोॅ, जैमें घुटनौ सें बहुत नीचें पानी छेलै। नीचे के बालू साफ दिखाबै।
बण्टा नद्दी किनारी खाड़ोॅ होय केॅ नद्दी सें कहलकै,
नद्दी नद्दी पानी दे,
नै तेॅ मछली रानी दे।
बण्टा के बात सुनी केॅ नद्दी हुन्नें से जवाब देलकै,
कहाँ सें देभौ पानी केॅ
चमचम मछली रानी केॅ
आबेॅ मेघ नै आबै छै
पानी नै बरसाबै छै
बादल केॅ जाय विनती कर
नद्दी केॅ पानी सें भर।
नद्दी के बात सुनी केॅ बण्टा आकाश दिश देखलकै आरो फेनू दोनों हाथ केॅ हौले-हौले ऊपर-नीचें करेॅ लागलै। हेना केॅ करत्हैं ऊ आकाश दिश उड़ेॅ लागलै। ऊपर, एकदम ऊपर कि उड़तें-उड़तें ऊ बादल लुग पहुँची गेलै आरो कहलकै,
बादल-बादल पानी दे
नै तेॅ बिजली रानी दे।
ओकरोॅ बात सुनी केॅ बादल बड़ी उदास होय गेलै। फेनू सोची केॅ बोललै,
कहाँ सें देभौ पानी केॅ
चमचम बिजली रानी केॅ
जंगल नै तेॅ छाया दै
खड़ा हुवै लेेॅ पाया दै
गरम हवा ठण्डैतै नै
बादल भी तेॅ ऐतै नै।
बादल के बात सुनी केॅ ऊ वहाँ एक्को मिनट नै ठहरलै आरो पूरब दिश उड़ेॅ लागलै। उड़तें-उड़तें एक जग्घोॅ पर उतरी गेलै, जैठां कुछ गाछ खाड़ोॅ छेलै। ऊ कटलोॅ-छटलोॅ जंगल छेलै। एक उचकवा पर खाड़ोॅ होय केॅ वैं जंगल सें कहवोॅ शुरु करलकै,
जंगल मेघ केॅ छाया दैं
खड़ा हुवै लेॅ पाया दैं।
बण्टा देखलकै कि ओकरोॅ बात सुनी केॅ सब्भे गाछ एक्के साथ बोली उठलोॅ छै,
कहाँ सें देबौ छाया केॅ
खड़ा हुवै लेॅ पाया केॅ
जंगल तेॅ सब कटी गेलौ
करखाना में बँटी गेलौ
गाछ लगाबें पहिलें जो
सब लोगोॅ सें कहलेॅ जो।
गाछ-बिरिछ के बात सुनी केॅ बण्टा वहाँ सें तुरत आपनोॅ गामोॅ दिश चली देलके. रास्ता में कबूतर, मैना, बगरो सब आपस में बतियावेॅ लागलै,
बुतरु चललै गामे-गाम
गाछ लगैनें ठामें-ठाम
सपना में बण्टा यहू देखलकै कि ओकरोॅ साथें आरो ढेरे बुतरु गामे गाम गाछ लगैबोॅ करी रहलोॅ छै। गाँव-गाँव गाछ-बिरिछ सें सुहावन हुएॅ लागलै छै। जंगल देखी केॅ बादल घुमड़ेॅ लागलोॅ छै। नद्दियो खल-खल करी केॅ बहेॅ लागलोॅ छै। बण्टा साथें सब्भे बच्चा-बुतरु उछली-उछली केॅ गीत गैलें जाय छै,
बुतरु जेन्हैं जुटी गेलै
धरती वन सें पटी गेलै
जंगल-जंगल घूमी केेॅ
ऐलै बादल झूमी केॅ
आरो नद्दी बहलै सब
सुख आबै—दुख सहलै सब।
पता नै, कखनी तांय सपना में बण्टा खुशी मनैतें रहलै। कोॅन-कोॅन जंगल के बीच दौड़ लगैतें रहलै आरो नै जानौं, कोॅन-कोॅन नद्दी के खलखल धारा देखी ऐलै।
जे भी हुएॅ आरो जखनी ऊ भोरकी बेरा उठलै, ओकरोॅ चेहरा एकदम खिललोॅ छेलै। उठत्हैं वैं सरपट पोखरी दिश उड़ान दै देलकै। ओकरा विश्वासे नै होलोॅ छेलै कि वैं राती जे सपना देखी रहलोॅ छेलै, हौ तेॅ बस सपनाहै छेलै आरो यहू मानै लेॅ तैयार नै छेलै कि सपनाहौ के बात कही सच्चो होय छै की!
मतरकि वैठां नै तेॅ कोय जंगल छेलै, नै कोय नद्दी। बस चार-पाँच ठो बस वहेॅ शीशम रोॅ गाछ आरो खदैया नाँखी पोखर। तहियो मरद भरी पानी तेॅ वै में होभे करतै। बण्टा के मूँ सूखी केॅ टोय्यां होय गेलै।