बण्टा भाग-5 / अमरेन्द्र
बण्टा केॅ पोखर सें बड़ी डोॅर लागै छै। वैं आपनोॅ आँखी सें घुंघरु केॅ पोखरी में डुबतें देखलेॅ छै। केकरो बात नै मानी केॅ ऊ पोखरी में फुललोॅ कमलगट्टा केॅ तोड़ै लेॅ हौले-होले उतरलोॅ छेलै आरो हेनोॅ गोड़ ससरी गेलै कि चुभ सना डुबी गेलै। सब्भे चिल्लावेॅ लागलै। लोग जुटलै। खूब खोजला पर घुंघरू मिलवो करलै, मतरकि बोली-बाजी सब बंद। घुंघरु के माय-बाप जे रं कानवोॅ शुरु करलकै कि मत पूछोॅ।
ओकरोॅ बाद बण्टा पोखरी, नदी पर गेवो करलोॅ तेॅ दूरे सें सब कुछ देखलकोॅ। ओत्है दूरोॅ सें कि कोय पीछू सें धकेलियो देॅ तेॅ पोखरी आ नद्दी में नै गिरेॅ।
बण्टा पोखरी सें दूर एक टिल्ला पर खड़ा छेलै कि तखनिये बिल्टा वहाँ पहुँची गेलै आरो पीछू सें जोर सें बोली उठले— 'हुआ' ।
बण्टा के सौंसे शरीर भौवाय उठलै। बिल्टा ठठाय केॅ हंसलै तेॅ ओकरोॅ जानोॅ में जान ऐलै।
"की सोचलैं, भूत छेकै?" बिल्टा हाँसतें-हांसतें बोललै।
"हेनै करै के छेकै? चल मौसा-मौसी केॅ कही केॅ मार खिलाय छियौ।"
"मार तेॅ तोहें खैबे आबेॅ गुरु जी सें। नूनू, कल तोरोॅ नाम लिखैलोॅ जैतौ। होय गेलोॅ तोरोॅ टुकनी नाँखी दिन भर उड़तें रहवोॅ।"
"तोरा ई बात के कहलकौ?"
"बस, समझें, जानी लेलियै। बाबू जी सरकारी इस्कूल के एक गुरु जी सें बात करी रहलोॅ छेलै। आरो गुरु जी सें बात करी रहलोॅ छेलै तेॅ कथी लेॅ करतें होतै, तोहीं समझंै।"
"अनुमान तेॅ तोरोॅ ठिक्के छौ, मतरकि हम्में इस्कूल जैबै, तबेॅ नी।"
"इस्कूल नै जैबे नूनू, तेॅ बाबू तोरा तोरोॅ घोॅर भेजी देतौ। एक दिन माय बोली रहलोॅ छेलै, ' बन्टा हेन्हैं हट्टो-हट्टो करतें रहतै आरो पढ़तै-लिखतै नै, तेॅ दीदी की सोचतै। नै पढ़ै तेॅ दीदी लुग भेजिये देला में भलो छै। वहाँ तेॅ मारो डरोॅ सें पढ़ते, यहाँ तेॅ डांटवो मुश्किल छै।"
बिल्टा के बात सुनी केॅ बण्टा हठाते एकदम उदास होय गेलै।
"कैन्हें, की होय गेलोॅ तोरा?" बिल्टा गंभीर होतें बोललै।
"मतरकि हम्में घरो नै जाय लेॅ चाहै छियै।"
"तेॅ तोहें यहाँ इस्कूले गेलोॅ कर। अरे सब जग्घोॅ के इस्कूल मास्टर एक्के रं थोड़े होय छै।"
"की यहाँकरोॅ गुरु जी चेला-चटिया केॅ नै पीटै छै?"
"कथी लेॅ पीटतै। आबेॅ बदमाशी करतै, तेॅ पीटतै नै। मतरकि बिना बदमाशी के कैन्हें पीटतै?"
बण्टा फेनू हठाते साचेॅ-विचारेॅ लागलै।
"फेनू की सोचेॅ लागलै?"
"यहेॅ कि हमरा इस्कूल जाना चाही।"
"ठीक साचेलें छैं। देखें, दिन भरी हम्में इस्कूल में रहै छियै आरो तोहें हिन्नें-हुन्नें करतें रहै छैं। फालतुए नी। साँझे इस्कूली से लौटवे, तेॅ दोनों खूब जमी केॅ खेलवोॅ-धुपवोॅ। आरो तोहें आबेॅ जत्तेॅ जानै छैं, ओत्तेॅ तेॅ तोरोॅ कलासी के कोय लड़का की जानेॅ पारतै।"
"अच्छा एक बात बताव बिल्टू। की तोरोॅ इस्कूली में चटिया केॅ गाछी सें बांधी केॅ गुरु जी साटोॅ सें पीटै छौ? मौगली बांध लगाय केॅ देह-हाथ फोड़ी दै छै।"
"अरे नै रे, ई सब अंगरेजी स्कूल में नै होय छै।"
"तेॅ, ई सब सरकारी इस्कूले में कैन्हें होय छै बिल्टू?"
"नै बतावेॅ पारवौ। मतरकि इकबाल काकां बतैलेॅ छेलै कि जे गुरुं लड़का केॅ पीटलकोॅ, समझी लेॅ कि वैंमें ज़रूरे ज्ञान के कमी छै। आपनोॅ कमजोरिये छिपाय लेॅ गुरु जी चटिया केॅ डंगैलकोॅ, नै तेॅ जे गुरु जी ज्ञानी रहै छै, ऊ तेॅ ज्ञान दै लेॅ चटिया केॅ खोजलेॅ फिरै छै।"
"ई इकबाल काका के छेकै?" बड़ी उत्सुकता सें बण्टा पूछलकै।
"सरकारिये इस्कूल के गुरु जी छेकै।"
"तबेॅ तेॅ हुनियो चेला केॅ डंगैतें होतै?"
"आय तांय केकरो नै डंगैलेॅ छै। हमरा सिनी पहिलें हुनकै सें पढ़ै छेलियै।"
"सच?" बड़ी आचरज सें बण्टां पूछलकै।
"अरे, तेॅ यै में झूठ बोलला सें कौन मिठाय मिलै वाला छै। सुन, तोरा तेॅ इस्कूल जाना नै छौ, हम्में भागलियौ। ऐवौ, तेॅ एकठो बात बतैवौ।" ई कही केॅ बिल्टा सीधे घोॅर दिश दड़वनियाँ दै देलकै।
बण्टा बड़ी देर तांय वहीं बैठलोॅ सोचतें रहलै। कभी बादल लेली, कभी मछली लेली, तेॅ कभी इस्कूल के बारे में आरो कभी इकबाल काका के बारे में।
यहू अलग सें दिमाग में चक्कर काटी रहलोॅ छेलै कि आखिर बिल्टू आवी केॅ की एक ठो बात बतैतै। मतर ओकरा की मालूम कि बिल्टू नें तेॅ हेन्हैं केॅ खाली कही देलेॅ छेलै।
फेनू मने-मन बोललै, "मौसा-मौसी बूझै छै कि हम्में पढ़ै-लिखै लेॅ नै जानै छियै। मौसा केॅ की मालूम कि बिल्टू दां हमरा नवे महिना में अक्षर जोड़ी-जोड़ी केॅ कत्तेॅ पढ़ै-लिखै लेॅ सिखाय देलेॅ छै। सिलोटी-काॅपी पर नै, है एत्तेॅ बड़ोेॅ धरती वाला सिलोटी पर, आरो पेन्सिल कथी के, तेॅ मोटोॅ रं सुखलोॅ छड़ी के. धरती पर गांथी-गांथी केॅ, बालू में अंगुरी सें अक्षर खींची-खींची वैं ओनामासी धंग सिखलेॅ छै आरो आबेॅ तेॅ चैथी कलास के किताबो पढ़ेॅ सकै छियै। ...एक दिन जबेॅ मौसा-मौसी ई सब जानतै, तेॅ आचरज में खुशी सें पागल होय जैतै। मतरकि इखनी नै बताना छै। बिल्टुओ दा केॅ कही देलेॅ छियै कि मौसी-मौसा केॅ नै बतावेॅ। एक्के दिन सब ज्ञान खोली केॅ राखी देबै।" एतना सोचतैं बण्टा के दिल-दिमाग गौरव सें गनगन करेॅ लागलै। खुशी में वैं वहेॅ मोखलोॅ छड़ी लै आनलकै आरो सोॅर करलोॅ भुरभुरोॅ जमीन पर यहाँ सें वहाँ तक लिखना शुरु करलकै,
१. हम्में आपनोॅ पढ़ाय आरो काम पूरा निष्ठा सें करवै आरो महान बनवै।
२. आय सें हम्में, कम-सें-कम दस अनपढ़ लोगोॅ केॅ पढ़ै लिखै लेॅ सिखैबै।
बण्टां दू के बाद तीन तेॅ लिखलकै, मतरकि ओकरोॅ बाद कुछ लिखलकै नै। अभी तांय ऐड़िया बल्लोॅ ऊ जे उछली-उछली लिखलेॅ जाय रहलोॅ छेलै, रुकी गेलै आरो पालथी मारी सोचेॅ लागलै, "अभी तांय यहेॅ दू काम तेॅ होलोॅ छै। वैं बिल्टू दा सें जे-जे सिखलकै, हौ सबटा, भोलू, गणेशी, मुकुटनाथ, गिदरा, अनारसी, अजनसिया, खोको, चम्मो, हिरदा, वैष्णव आरो गन्हौरी केॅ सिखैलेॅ छै। आबेॅ यै सिनी हमरा सें दुए पैसा कम जानै छै। कल यहू सब महान बनतै, जेन्होॅ हम्में आपना लेॅ सोचै छियै। मतरकि पहलें हमरा महान बनना छै।" आरो फेनू छड़ी एक दिश राखी केॅ बण्टा बैठले-बैठले दोनों हाथोॅ केॅ तीरतें पीछू तांय लै जैतें आपने-आप बोललै, "एत्तेॅ बड़ोॅ महान।"
आरो ओकरोॅ मोॅन एकदम सें गनगनाय उठलै। जत्हैं तेजी सें वैं आपनोॅ दोनों हाथ पीछू करलेॅ छेलै, ओत्हैं तेजी सें वैं झबझब, सबटा लिखलोॅ दोनों हाथोॅ सें मेटाय केॅ, घोॅर दिश चिड़ियै नांखी फुर्र होय गेलै। घोॅर ऐलै तेॅ आपनोॅ वस्ता खोली केॅ एक काॅपी निकाललकै आरो ओकरा बीचे बीच खोललकै। बड़ी मनोॅ सें अखबार के एक टुकड़ा, जे काॅपी के एक पन्ना सें साटी देलोॅ गेलोॅ छेलै, पर अंगुरी केॅ ऊपर सें नीचें तांय हौले-हौले लै जैतें मने-मन वाक्य सिनी पढ़तें गेलै, फेनू आँख मुनी केॅ सिहारतो गेलै।
औंगरी केॅ ऊपर सें नीचें तांय लै जाय आरो आँख मुनी केॅ सिहारै में दस मिनिट सें कम नै लागलोॅ होतै। एकरोॅ बाद काॅपी केॅ बंद करी हेनोॅ किसिम सें बस्ता में रखी देलकै, जेना कोय बूढ़ी-पुरानी जनानी रामायण केॅ पढ़ी ओकरा कपड़ा में लपेटी केॅ ताखै पर राखै छै।
"इकबाल भाय, आबेॅ तोंहीं हमरोॅ पगड़ी राखेॅ पारेॅ छौ। बण्टू के बारे में तोहें सब जानिये रहलोॅ छौ। तोरा सें कोय बात छिपलौ नै छै। दिन भरी हिन्नें-हुन्नें हट्टो-हट्टो करलेॅ फुरै छै। कुछ डाँटो-डपटेॅ नै पारौं। जे सोची केॅ राखलेॅ छेलियै, ऊ समझोॅ एकदम ग़लत निकललै। पढ़ै-लिखै में जरियो टा मोॅन नै लगाबै छै। ने मालूम, पोखरी पर जाय केॅ दिन भरी की करतें रहै छै। एक दिन हुन्नें गेलोॅ छेलियै, तेॅ देखलियै कि चैरस जमीन पर यहाँ सें वहाँ कुछ-कुछ मेटैलोॅ रेखा सिनी छै। की करतें होतै? छड़ी या औंगुरी सें राकस सिनी के फोटू बनैतें होतै, आकि कौआ, मैना, गाछी के. मतरकि फोटू बनैला सें होय वाला छै की, जों अक्षर नै जानलकै, तेॅ सब बेरथ। बदनामी जे माथा पर लिखना छै, से ऊ अलग। ...आबेॅ तोहीं ओकरा समझाय बुझाय केॅ आपनोॅ इस्कूली में नाम लिखी ला, तेॅ ई चिन्ता दूर हुएॅ। घरोॅ में रूपसावाली यै बातोॅ केॅ लै केॅ रोज माथोॅ खैतें रहै छै, ओकरौ सें छुटकारा मिलतोॅ।"
भैरो कापरी के बात सुनी केॅ इकबाल ठठाय पड़लै आरो मजाके-मजाक में कहलकै, "तेॅ, आपनोॅ बोझोॅ हमरोॅ माथा पर राखै लेॅ चाहै छौ। की भैरो जी."
"आबेॅ जे बूझोॅ भाय।" भैरों बड़ा टुटलोॅ आवाजोॅ में कहलकै।
"चिन्ता करै के कोय बात नै भैरू, तोहें बन्टू केॅ कैन्हौं केॅ हमरोॅ घोॅर भेजी दियौ। सीधे इस्कूल भेजवौ तेॅ ऐतौं नै। हम्में घरोॅ में नै रहवै, तेॅ इस्कूल आवी जैतै। खाली हाथोॅ में कोय लिफाफा थमाय दै दियौ, हमरा दै-दै लेॅ। बस चार-पाँच बार हेन्हैं करना छै। सब अपने आप ठीक होय जैतै।"
आरो वहेॅ होलोॅ छेलै। भैरो कापरी एक लिफाफा बण्टा केॅ थमैतें कहलेॅ छेलै, "जो, इकबाल काका केॅ दै अइयैं, घरोॅ पर नै मिलौ, तेॅ इस्कूलिये में जाय केॅ दै अइयैं।"
बण्टा केॅ जबेॅ इकबाल के घरोॅ पर गेलै आरो पता चललै कि हुनी घरोॅ पर नै छै, इस्कूल में छै, तेॅ ऊ सीघे इस्कूल पहुँची गेलै।
इकबालें देखलकै, तेॅ ओकरा कलास के आगू में बिठाय केॅ पढ़ावेॅ लागलै, " कल तोरा सिनी जे खिस्सा सुनलेॅ छेलौ, ओकरा सें ई तेॅ मालूम होय्ये गेलोॅ होतौं कि राजां चूँकि ग़लत समय में, ग़लत मांटी पर, ऊ सोना के गाछ लगैनें छेलै, यही लेॅ गाछ मरी गेलै। आय तोरोॅ सिनी केॅ सम्मुख हम्में बारह बुझौव्वल राखवौं, जे ज़्यादा उत्तर देतै, यानी जौंनें फस्ट करतै, ओकरा एक गाँधी जी के किताब पुरस्कार में मिलतै। ठीइइक। तेॅ आबेॅ बुझौव्वल सुनोॅ,
काक फरै गुल्लर फरै...
ऊ बुझौव्वल इकबाल गुरु जी अभी पूरा करलो नै छेलै कि सब केॅ 'ठहरोॅ ठहरोॅ' कहतें उत्तर दै सें रोकलकै आरो कहलकै, " सब आपनोॅ-आपनोॅ सिलोटी पर पहिलें सबटा बुझौव्वल लिखी लेॅ, तबेॅ नीचें में एकेक करी केॅ ऊ सिनी के उत्तर लिखोॅ आरो सिलोट हमरा लुग जमा करोॅ। हम्में एकेक करी केॅ देखभौं। समझलौ, तेॅ लिखोॅ,
पहिलोॅ लिखोॅ,
काक फरै गुल्लर फरै, फरै बत्तीसो डार
चिड़ियां चुनमुन लटकी रहै, मानुख फोड़ी-फोड़ी खाय।
दुसरोॅ लिखोॅ,
उजरी बिलाय, हरी पूँछ
नै जानै तेॅ हमरा सें पूछ।
आबेॅ तेसरोॅ लिखोॅ,
तीन रंग के तितली
हाथ धोय केॅ निकली।
चैथोॅ लिखोॅ,
एक चिड़ैया ऐंसनी खुट्टा पर बैसनी
पान खाय मुचुर-मुचुर से चिड़ैया कैसनी
होलौ तेॅ, पाँचमोॅ लिखोॅ,
इती टा भाल मिया बड़के ठो पूँछ।
आबेॅ छठमोॅ लिखोॅ,
तनी टा छौड़ा जनम जहरी
तेकरा पिन्हला लाल घँघरी।
आबेॅ सातमोॅ बुझौवल लिखोॅ,
चाकरोॅ-चाकरोॅ पात तेकरोॅ गदद लड़ुआ
जे नै बुझेॅ ऊ नकचढ़ुआ
आठमोॅ लिखोॅ,
हिलै नै डुलै बैठलोॅ गिलै।
नौमोॅ लिखोॅ,
बाप रहलै पेटोॅ में बेटा गेलै गया।
होलौ? तेॅ दसमोॅ लिखोॅ,
छेकां हम्में रात रोॅ रानी
लोर चुआबौं कानी-कानी।
ग्यारमोॅ छेकै,
सब राजा रोॅ अजगुत रानी
दुमड़ी रस्ता सें पीयै पानी
आरो बारहमो छेकौं,
नाथ नगर जात बरै दिग्घी में कुय्याँ
दरियापुर में आग लगै खैरे में धुय्याँ।
सब लड़का आपनोॅ-आपनोॅ सिलोटी पर तड़ातड़ लिखी लेलेॅ छेलै, मजकि एक कोण्टा में बैठलोॅ बण्टा खाली आगू-पीछू मूड़ी घुराय रहलोॅ छेलै। शुरु में वैं, चाहलकै कि ओकरौ केन्हौं केॅ कोय सिलोट मिली जाय, तेॅ वहूँ ई सब लिखी लै, मजकि जबेॅ हेनोॅ नै होलै, तेॅ ऊ आँख बन्द करी आपनोॅ ध्यान इकबाल गुरु के बातोॅ पर लगाय देलकै आरो हुनकोॅ एकेक बुझौव्वल केॅ मनोॅ में बैठैलेॅ जाय रहलोॅ छेलै आरो वही बीचोॅ में ओकरोॅ उत्तरो। जबेॅ बारमोॅ बुझौव्वल खतम होलै, तेॅ एक दाफी ऊ फेनू उकुस-पुकुस करेॅ लागलै। ओकरोॅ आँख हौ लड़काहौ सिनी पर घुरी-फुरी केॅ जाय, जे माथोॅ पकड़ी-पकड़ी उत्तर सोचै में लीन छेलै, तेॅ कभियो गुरुओ जी पर कि सबसें पहिलें ओकरै सें उत्तर पूछेॅ। की होलै जे वैं सिलोटी पर नहिये लिखलेॅ छै।
मतरकि गुरु जी के ध्यान तेॅ सब लड़का सिनी पर छेलै।
घण्टी खतम होय में आबेॅ बीस मिनिट बची गेलोॅ छेलै। गुरु जीं सिलोट जमा करै के आदेश देलकै, ई देखी केॅ सबसें ज़्यादा खुशी बण्टाहै केॅ होलोॅ छेलै।
देखथैं-देखथैं गुरु जी के बगलोॅ में सिलोट पर सिलोट जमा होय गेलै। सिलोट जमा करी केॅ सब आपनोॅ जग्घा पर बैठलोॅ गलगुदुर करेॅ लागलोॅ छेलै। हुन्नें गुरु जी सिलोट देखी-देखी आरो वैं पर खल्ली सें सही-गलत के चेन्होॅ लगैतैं, सिलोटी केॅ उलटाय-उलटाय राखलेॅ जाय रहलोॅ छेलै।
जबेॅ सब सिलोट जाँचलोॅ होय गेलै, तेॅ बण्टा सें नै रहलोॅ गेलै। ऊ बोली पड़लै, "हम्मूं बुझौव्वल के उत्तर दै लेॅ चाहै छी। हमरौ सें पूछोॅ।"
गुरुवे जी के नै, सब लड़काहौ के ध्यान एकबारगिये बण्टा दिश चल्लोॅ गेलै, जे खाली गुरुवे जी केॅ देखी रहलोॅ छेलै।
"तोहें जवाब देबौ, तेॅ ठीक छै, तोरोॅ सें आखरी में एकेक करी केॅ सब बुझौव्वल पूछवौं। इखनी बैठोॅ।" इकबाल गुरु जी मुस्कैतें कहलकै।
आपनोॅ बात कहै लेॅ जे बण्टा खाड़ोॅ होय गेलोॅ छेलै, बैठी रहलै। गुरु जी अब तांय सब सिलोट जाँची चुकलोॅ छेलै आरो नाम पुकारी-पुकारी लड़का सिनी केॅ सिलोट लौटाय देलकै। नम्बरो बोल्लोॅ जाय रहलोॅ छेलै—सितुआ—दू नम्बर, चांदो—एक नम्बर, अखिलेश—सुन्ना, किसुन—दू नम्बर, फागो—दू नम्बर...क्लास के तीसो लड़का के नम्बर आरो सिलोट लौटैला के बाद गुरु जीं फेनू एक लड़का सें सिलोट लै केॅ बण्टा दिश होतें कहलकै, "अच्छा तोरा से पूछै छियांै, एकेक करी केॅ जवाब देलेॅ जय्योॅ; जेकरोॅ नै जानोॅ, तेॅ कहियौ 'नै' ।"
सब लड़का आचरज में डूबी गेलै, जबेॅ बण्टा पहले बुझौव्वल के सही-सही उत्तर में बोललै, "एकरोॅ उत्तर छेकै सुपारी।" तीसो लड़का में से एक्को टा एकरोॅ उत्तरे नै लिखलेॅ छेलै।
गुरु जी के चेहरा पर चमक आवी गेलै आरो क्लास भरी में एक चुप्पी. वैठां खाली गुरु जी केॅ रही-रही के बुझौव्वल गूंजी रहलोॅ छेलै आरो बण्टा के खटा-खट करी केॅ एक-एक बुझौव्वल ठीक-ठीक उत्तर—मूरय, सिंघाड़ा, जाँतोॅ, सूई-धागा, मिरचाय, ताड़, कोठी, आगिन आरो धुआँ, मोमबत्ती, दीया, हुक्का।
रहलोॅ नै गेलै तेॅ इकबाल गुरु जीं कोण्टा तक बढ़ी केॅ बण्टा केॅ गोदी में उठाय लेलकै आरो पीठ थपथपैतें बोललै, "एक दिन नूनू तोहें बहुत बड़ोॅ आदमी बनवौ, हमरोॅ बात खाली नै जावेॅ पारेॅ।"
ई तेॅ नै कहलोॅ जावेॅ पारेॅ कि गुरु जी के ई बात आरो बण्टा के हौ सबटा उत्तर देबोॅ—सब बच्चा केॅ अच्छे लागलै, मतरकि कुछ लड़का स्कूल खत्म होला के बाद ओकरोॅ पीछू लागी गेलोॅ छेलै आरो वहेॅ दिन ऊ दसो लड़का ओकरोॅ लंगोटिया दोस्त बनी गेलै। यही तांय नै, दसो बण्टा केॅ ओकरोॅ घोॅर तांय छोड़ै लेॅ ऐलोॅ छेलै। ऊ दिन हौ सब के लौटै वक्ती बण्टाहौ, होन्है सब केॅ द्वार के बाहर सड़क तांय छोड़लकै, जेना बाहर सें ऐलै कोय आत्मीय पोॅर-परिजन केॅ घरोॅ के लोग बस्ती तांय आवी केॅ छोड़ै छै।
दोसरोॅ दिन भैरो कापरी केॅ इकबाल गुरु जी तांय बण्टा केॅ भेजै के कोय उपाय नै ढूढ़ै लेॅ लागलै। बण्टा आपन्हैं स्लेट-काॅपी बस्ता में लैकेॅ इस्कूल जाय लेॅ तैयार छेलै। ओकरा एकरोॅ फिकिर नै छेलै कि वै इस्कूली में आकरोॅ नाम नै छै। एकरा सें की होय छै, इकबाल गुरु जी कल कहलेॅ तेॅ छेलै, "तोहें रोज आवी गेलोॅ करोॅ। तोरा हम्में पढ़ैभौं।" बण्टां मनेमन सोचलकै आरो मने मन कहलकै, "बस काफी छै।"
ऊ दिन ढेर समय तक पोखरी हिन्नें नै पड़लोॅ रहलोॅ छेलै। बिल्टे साथें वहूँ मूँ-हाथ धोलोॅ छेलै, नहैलेॅ छेलै, इस्कूल जाय लेॅ कपड़ा पिन्हलेॅ छेलै। बिल्टा नांखी बण्टा इस्कूल ड्रेस तेॅ नै पिन्हलेॅ छेलै, मजकि साफ-साफ पैंट आरो कमीज पिहनी केॅ वैं बस्ता केॅ कांखी में जखनी दबाय लेलकै, तेॅ ओकरोॅ गदगदी के कोय ठिकानोॅ नै रहलै।
बिल्टा दुआरी सें निकलत्हंै बारी-बारी सें हाथ डुलाय-डुलाय केॅ माय-बाबू केॅ ' बाय मम्मी, बाय पापा" कहलकै, तेॅ माय के चेहरा पर खुशी दौड़ी गेलै।
बण्टो के मोॅन होलै कि वहू होने करै, मजकि वैं चाहियो केॅ हेनोॅ नै करेॅ पारलकै। बिल्टा इस्कूली के रिक्सा पर बैठी चुकलोॅ छेलै आरो बण्टा के नया दोस्त सिनी सड़के सें हुलुक-पुलुक करी रहलोॅ छेलै कि बण्टा जल्दी सें निकलौक। बण्टा के नजर आपनोॅ दोस्त सिनी पर पड़लै, तेॅ ऊ मौसी-मौसी लुग ऐलै आरो काँखी के बस्ता नींचें राखी केॅ दोनों के गोड़ छुवी-छुवी आपनोॅ हाथोॅ केेॅ माथा सें लगाय लेलकै।
पता नै की होलै कि रूपसा वाली के सौंसे देह जेना बरफ बनी केॅ पिघली उठलै। झुकी केॅ गल्ला सें लगाय लेलकै, तेॅ आंखो लोराय गेलै। याद ऐलै कि रुपसा में हेनै केॅ इस्कूल जाय वक्ती हमरौ सिनी माय-बाबू के गोड़ छुविये केॅ इस्कूल जाय छेलियै।
भैरो कापरी केॅ तेॅ लागलै, जेना वैं सब कुछ पावी लेलेॅ रहेॅ। बोललै कुछ नै। बस मनेमन सुख लेतें रहलै। आँख एक क्षण लेली आपने आप बन्द होय गेलै। खुललै, तेॅ देखलकै, बण्टा आपनोॅ साथी-संगी साथें हँसलोॅ-कुदलोॅ इस्कूल दिश चल्लोॅ जाय रहलोॅ छै। घुमी केॅ रुपसा वाली सें कहलकै, "आबेॅ की; बस समझोॅ कि पठार पर मलदैया आमोॅ के गाछ फरै वाला छौं। घोॅरे की, टोला-गाँव जखनी गमकतै, तखनी देखियौ।"
दोनोॅ के मोॅन हेनोॅ जुड़ाय गेलै कि कुछु बोलनाहौ मुश्किल छेलै।