बत्तीसी / ट्विंकल तोमर सिंह

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ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आराम से ठसक के साथ खड़ी थी। भीड़ थी, कोलाहल था, भागम-भाग थी, चीख-पुकार थी। ट्रेन जुगाली करते हुए किसी विशालकाय जानवर की भाँति निस्पृह थी, जिसे किसी के ट्रेन पकड़ने या छूटने से कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। यात्रियों का आना जाना लगा हुआ था। ट्रेन पकड़ने वाले यात्री जल्दी में दिख रहे थे और ट्रेन से उतर कर जाने वाले भी जल्दी में थे। रेलवे स्टेशन पर ठहरा हुआ कुछ भी नहीं होता। जो ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठे होते हैं, वे जानते हैं कि ट्रेन आने में समय है, फिर भी वे मानसिक रूप से व्यस्त ही दिखते हैं। इसी रेल में एक साधारण सा डिब्बा था। डिब्बे की खिड़की पर दूर से दिखने वाला दृश्य भी साधारण था। पर यह दृश्य साधारण होकर भी विचित्र था, क्योंकि आसपास की भागमभाग और कोलाहल से परे इस दृश्य में कुछ ठहरा हुआ था। युवा पति अपनी पत्नी को रेल के डिब्बे में बिठाने आया था। सुंदर सी, गोल मटोल, युवा पत्नी डिब्बे के अंदर बैठी रो रही थी। पति रेल के कूपे के बाहर खिड़की की सलाखों पर लगभग लटका हुआ था। आने जाने की व्यस्तता में भी लोगों की निगाह उस प्रेमिल जोड़े पर पड़ जाती थी।

"लो , फिर तुमने आँसू बहाने शुरू कर दिये। लोग देख रहे हैं, बस करो। एकदम बच्ची की तरह रो रही हो, लोग क्या सोचेंगे।" रमन ने कहा। उसने रेल के कूपे में बैठी, खिड़कियों की छड़ों पर उंगलियाँ टिकाए अपनी नवविवाहिता पत्नी सुरभि के कोमल हाथों को प्यार से थाम लिया था। दोनों के बीच एक खिड़की थी ...और था असीमित प्रेम....

"अभी अभी तो अपनी शादी हुई है। मुझे क्या पता था इतनी दूर पोस्टिंग मिल जाएगी।" सुरभि ने सिसकी भरते हुये कहा। लड़कियाँ भी विचित्र होती हैं। ब्याह से पहले माता-पिता से बिछोह का सोच भी नहीं सकतीं और ब्याह होते ही पति ही उनके जीवन की धुरी बन जाता है।

"बत्तीस साल की हो गयी हो और रो ऐसे रही हो जैसे सोलह साल की लड़की अपने प्रेमी से अलग हो रही हो।" रमन ने उसके सर पर टप्पा मारते हुये कहा।

सुरभि असमंजस में थी, रमन हाथों को अपने दोनों हाथ से कस कर पकड़े रहे या अपने आँसू पोछे। कहीं ऐसा न हो, उसने आँसू पोछने को हाथ छोड़ा तो रमन छूट ही जाए। सिसकियों में रुंधी आवाज़ ने कहा-

"यही तो बात है...32 साल तक पढ़ने- लिखने में व्यस्त रही। प्रेम क्या होता है, जानती ही नहीं थी। अब पता चला है तो तुम्हें छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा। मैं तो कह रही हूँ मैं ये सरकारी नौकरी छोड़ देती हूँ।"

"पागल ही हो बस! जिस पोस्ट पर तुम चुनी गयी हो, पता भी है कितनों का सपना होता है वह प्रशासनिक पद? कितनों का ये सपना बस सपना ही रह जाता है।" रमन ने सुरभि को दिलासा दिया। रमन एक खाते पीते परिवार का लड़का था। वो स्वयँ भी एक प्रशासनिक पद पर था। विचारों से बहुत ही आधुनिक था, सुरभि को दूर पोस्टिंग मिली थी, पर उसने उसे वहाँ जाने से नहीं रोका। बल्कि उसका उत्साहवर्धन ही कर रहा था।

"क्या बात है पुत्तर? क्या कई सालों के लिये अलग जा रही है?" सामने बर्थ पर बैठी ऑन्टी ने कहा। वे भारी भरकम काया की स्वामिनी थी, सफेद कुरते सलवार में , करीने से दुपट्टे को सिर से ओढ़े हुये थीं। पहनावे व बोली भाषा से वो पंजाबी जान पड़ती थीं। ऑन्टी बहुत देर से दोनों को देख रही थीं। आख़िर में जब उनसे रहा नहीं गया तो वो बोल ही पड़ीं।

आंशिक रूप से मर्दानी आवाज़ सुनकर दोनों ने सिर उठा कर उनकी ओर देखा। सुरभि तो एक क्षण को भूल ही चुकी थी कि उन दोनों के सिवा भी वहाँ कोई है। स्त्री का मन प्रेम को कुहरे के समान ओढ़ लेता है, यहाँ तो प्रेम भी था और कुहरे में प्रेयस के खोने की संभावना भी।

रमन ने त्वरित प्रक्रिया वश सुरभि का हाथ छोड़कर जिज्ञासा से ऑन्टी की ओर देखा तो पाया एक मुस्कुराता हुआ, ओज से भरपूर, मित्रता का भाव लिये हुये एक चेहरा। "अरे नहीं ऑन्टी.. अभी बीच बीच में आती रहेगी। नहीं तो मैं मिलने चला जाऊँगा।" रमन ने हँसते हुये कहा।

"लै... तब क्या गल्ल है जी.." -ऑन्टी ने प्यार से झिड़की देते हुये कहा।

"कुछ नहीं ऑन्टी ...बस यूँ ही परेशान हो रही है।" रमन ने कहा। दोबारा उसने सुरभि की ओर देखा, जो अब रुमाल लेकर अपने आँसू पोछने में लगी हुई थी।

ऑन्टी से रहा नहीं गया। एक ममतामयी मूरत की तरह अपनी सीट से वे उठकर सुरभि के पास आ कर बैठ गयी। उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देने लगीं।

"अरे पुत्तर....रोती क्यों है......सरकारी नौकरी तो भागवालों को मिलती है। कुछ दिन में ट्रांसफर भी हो जाएगा।"

"वही तो मैं भी कह रहा हूँ। पर ये समझ ही नहीं रही।" रमन ने उनकी बात का समर्थन किया। उसने ध्यान से ऑन्टी की तरफ देखा। ऑन्टी शायद अकेले ही यात्रा कर रही थीं। उनके साथ कोई नहीं था या फिर उनके साथ वाला किसी काम से नीचे उतर गया होगा। फिलहाल तो वो और सुरभि डिब्बे में अकेले थीं। उनका स्नेहिल व्यवहार देखकर रमन को तसल्ली हुई कि सुरभि का सफ़र अच्छे से कट जाएगा। कहीं इसी डिब्बे में कोई जवान आदमी होता और छिछोरे टाइप का होता तो रमन को सीट बदलवानी पड़ जाती।

"अरे कोई न...कुछ दिन में समझ जाएगी। मेरे सरदार जी जब मुझे छोड़ कर गए थे...मैं भी बहुत रोयी थी।" जिंदादिल ऑन्टी ने खनकती हुई आवाज़ में कहा।

सुरभि उनकी बात सुनकर रोते रोते अचानक से रुक गयी। "अच्छा...तब आपकी उम्र क्या थी..ऑन्टी..." सुरभि ने रुमाल से आँसू पोछते हुये कहा। मानव स्वभाव है, एक तो वह दूसरे के दुख से अपने दुख की तुलना तुरंत करने लगता है। दूसरा किसी का दुख जानने के बाद उसके दुख की तीव्रता या मात्रा जानने की इच्छा बढ़ जाती है। सुरभि ने सोच विचार कर नहीं पूछा था, यूँ ही अन्तः प्रतिक्रिया के रूप में प्रश्न लुढ़क कर बाहर आ गया।

ऑन्टी ने अपना दायाँ हाथ हवा में फेंकते हुये बेतकल्लुफ़ी से कहा- "अरे यही ..कोई...16-17 साल और क्या।"

"वो भी क्या किसी नौकरी के सिलसिले में बाहर गए थे? कितने साल अलग रहे आप लोग? फिर वापस कब मिले आप लोग?" सुरभि से जिज्ञासा संभाली न गयी।

एक पल को ऑन्टी गंभीर हो गईं। जैसे इस प्रश्न ने उनकी मुस्कान चुरा ली हो। पुनः वही मनमोहिनी मुस्कान उनके होठों पर खेलने लगी। जैसे मंच पर नाटक खेलते समय पल भर के लिये किसी निजी दुख में गोते लगाते हुये कलाकार को याद आ जाए, अरे मैं तो मंच पर हूँ।

बड़े मीठे और दार्शनिक स्वर में उन्होंने कहा। "मिलना क्या ? भगवान के पास जाकर कोई लौटा है क्या, पुत्तर ? "

"क्या...?" सुरभि और रमन दोनों एक साथ चौंक पड़े। दोनों के आश्चर्य की सीमा न रही। पहले उन्होंने समझा कि ऑन्टी अपने पति से कुछ वर्ष बिछोह का कोई प्रकरण बता रहीं हैं। पर यहाँ तो उनके पति उन्हें सदा के लिये छोड़ गए थे वो भी इतनी कम उम्र में।

सुरभि ने पूछा," क्या हुआ था ऑन्टी। सॉरी पूछना तो नहीं चाहिये, पर अगर आपको अच्छा लगे तो हमारे साथ शेयर कर सकतीं हैं।" सुरभि के आँसू सूखने लगे थे। ऑन्टी के चेहरे पर दर्द की एक रेखा उभर आई। वो शायद अपना दुःख उधेड़ कर दिखाना नहीं चाहती थीं। पर सुरभि के चेहरे की मासूमियत ने उन पर कुछ जादू- सा कर दिया।

वो अतीत में डूबते हुये बोली," सरदार जी के पिता जमींदार थे। बड़ा रसूख था उनका। बीघों जमीन थी, खेत थे। घर में दूध, घी ,मक्खन की कोई कमी न थी। गाँव के बच्चे बच्चे का ख़्याल रखते थे। एक दिन खबर मिली कि जंगल से गाँव में कोई आदमखोर लकड़बग्घा घुस आया है और आये दिन बच्चों को उठा कर ले जाता है। बस फिर क्या था। गाँव वाले सरदार जी के पिता जी से मदद की भीख माँगने लगे। बेटे ने बंदूक उठाई और पिता की आज्ञा लेकर निकल पड़े। मचान लगा कर बैठे, लकड़बग्घे की प्रतीक्षा करने लगे। मुआ ..आया ही नहीं। सुबह हो गयी तो मचान से उतर कर घर जाने लगे। तभी कहीं से कूद कर हरामी ने सरदार जी पर आक्रमण कर दिया। पर सरदार जी बड़े जिगर वाले थे। लहूलुहान होने के बावजूद अपनी बंदूक उठा कर उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया। और ख़ुद लड़खड़ा कर ऐसे गिरे कि फिर कभी उठे ही नहीं।"

डिब्बे में निःस्तब्धता छा गयी। सुरभि और रमन के मुँह से 'ओह' के सिवा कुछ न फूटा।

दर्द की तीव्रता में जाने कौन सा म्यूट बटन होता है, हृदय को छू ले तो होंठ निःशब्द हो जाते हैं।

ऑन्टी की आँखों में भी शायद हल्की सी नमी आ गयी थी। उन्होंने अपने सफेद दुपटटे को अपनी आंखों पर फिराया। 

कुछ पल तक एक अजीब सी व्यग्रता ने डिब्बे में पैर पसारे रखे। फिर सुरभि से रहा न गया।

"फिर आपने कैसे संभाला अपने आपको?" सुरभि ने पूछा।

"संभालना क्या पुत्तर, कुछ सोचने का वक़्त ही न मिला। उस समय ब्याह कम उम्र में हो जाता था। बच्चे भी जल्दी ही हो जाते थे। जब सरदार जी मरे तो उस समय मुझे दिन चढ़ गए थे। मुझे तो पता भी न था कि पेट से हूँ। दो महीने का गर्भ था मुझे। मैं तो लड़कपन लिये पेड़ों पर चढ़ती थी, इमली खाती थीं, कुएँ पर पैर लटका कर बैठती थी, रस्सी कूदती थी। सरदार जी की मौत की खबर ने मुझे अचानक से सयाना बना दिया। फिर गर्भ के दिन काटे। सात महीने बाद दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। फिर उन बच्चों की परवरिश में उलझ गयी। कुछ दिन रोई-धोई , उदास रही पर बच्चों का मुख देखकर उदासी को नहर में बहा आयी। फिर सारे कर्तव्य मस्त निभाये। अभी लड़के को पोता हुआ है। उसी को देखने जा रही हूँ।" इतना कहकर उन्होंने अपने श्वेत, धवल दंत पंक्ति से एक ऊर्जावान हँसी डिब्बे में बिखेर दी।

सुरभि हतप्रभ रह गयी। इतना भी कोई जीवन से भरपूर हो सकता है क्या ? एक पल को उसे लगा था कि ऑन्टी उदासी में डूबने जा रहीं हैं, उन को सांत्वना देनी चाहिए। और कहाँ उनकी हँसी इतनी प्यारी थी कि सुरभि के अपने मन की सारी मलिनता धुल गयी। उनके दुख के सामने उसे अपना कुछ दिनों का बिछोह बहुत छोटा, तुच्छ सा प्रतीत होने लगा।

ऑन्टी ने आँखे चमकाते हुये सुरभि की काजल बिखरी आँखों में झांका और कहा, "अरे ये सब छोड़ ....क्या पुराण खुलवा दिया मेरे से...देख.. मैंने क्या मस्त मठ्ठी बनाई है।" ऑन्टी ने पास रखी टोकरी उठा कर उसे खोल लिया।

सुरभि जब तक मठरी का टुकड़ा उठाती तब तक ट्रेन ने सीटी दे दी। ऑन्टी ने कहा," देख ....गाड़ी ने सीटी दे दी है। जल्दी से विदा कर अपने आदमी को...चल।

सुरभि हकबका कर रह गयी। दोनों ने अंतिम बार कुछ क्षणों की मोहलत वाला एक दूसरे के हाथों का स्पर्श संजोया। फिर हथेलियों ने अलग होने का मलाल मनाया। मन जुड़े रहे, देहों के बीच दूरी रेंगने लगी।

ट्रेन चल दी, रमन ने चिल्ला कर कहा," बॉय सुरभि अपना ख़्याल रखना।" सुरभि रमन को हाथ हिला कर विदा दे रही थी। रमन ट्रेन के साथ दौड़ता दौड़ता चिल्लाया, " और हाँ ऑन्टी... ये भी बता दो, अब आप कितने साल की है?"

ऑन्टी ने भी पूरी ताकत से चिल्ला कर शरारत से उत्तर दिया," अरे बस...सुरभि जितनी ....बत्तीस साल की और क्या.... " ट्रेन आगे बढ़ गयी, रमन होड़ न ले सका। सुरभि ने हाँफते हुये रमन की अंतिम छवि नैनों में कैद की और उसकी ओर एक हवाई चुम्बन उछाल दिया।

फिर सुरभि ने हास्य और स्नेह मिश्रित आश्चर्य से ऑन्टी को घूरा- "आपकी उम्र बत्तीस साल है?"

ऑन्टी ने अपनी दंत पंक्ति की धवल बिखेरते हुये सुरभि की ओर देख कर चुलबुलाहट से आँख मारी और ताली मारते हुए खिलखिलाकर बोली, "अच्छा अच्छा, उसमें दो से गुणा कर दे, बस अब ठीक?"

32 साल की रूपवान युवती की 16 कलाओं के सामने 64 साल की बुजुर्ग महिला की बत्तीसी की चमक अधिक मोहक थी।