बदरीनारायण की यात्रा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
हम दोनों ही साथ रवाना हो गए। पहले तो रास्ता बहुत ही विकट और खतरनाक था। लेकिन अब तो सड़कें यथासंभव पहाड़ काट-कूट कर अच्छी और बराबर कर दी गई थीं। ईधर तीस बत्तीस-साल के भीतर तो और भी उन्नति हो गई होगी। फिर भी धीरे-धीरे कहीं चढ़ती जाती है तो फिर उतरती है। यह चढ़ाव-उतार का सिलसिला बराबर जारी रहता है। कहीं-कहीं तो बहुत पतली होती है। उनकी एक ओर ऊँचा गिरिशृंग आकाश से बातें करता और दूसरी ओर अतल गत्ता, जहाँ कल-कल निनाद करती गंगा बहती है। उसका निनाद सुन नहीं सकते। हाँ, उसकी धारा देख सकते हैं। रास्ता कभी गंगा के दाएँ चलता है और कभी बाएँ। रास्ते में जहाँ-जहाँ लटकते पुलों से उसे पार करते हैं। इस समय की बात तो कह नहीं सकते। मगर तीर्थयात्रा में जूता न पहनने के ख्याल से उस समय लोग घास या कपड़े के जूते, जो वहीं बनते थे, पहन लिया करते थे। मगर हम तो सदा नंगे पाँव चलनेवाले वहाँ भी वैसे ही चले। हालाँकि, परिणाम बुरा हुआ और लौटते-लौटते हमारे पाँव के तलवे लहू-लुहान हो गए। फलत: चलना असंभव हो गया।
यह भी देखा कि रुपएवालों के लिए आदमी की सवारी वहाँ तैयार है। उस महान तीर्थयात्रा जैसे पवित्रतम अवसर पर भीबब! धर्म भी क्या गजबनाक चीज है! आदमी की छाती पर चढ़ के चलना! सो भी एक की छाती पर एक चढ़े। ढोनेवाले ज्यादातर ब्राह्मण या क्षत्रिय, और चढ़नेवाले घोर सनातनी हिंदू! यह निराली अंधेरपुर नगरी है! दूसरी सवारी उस समय तो असंभव थी। बड़े घोड़े तो नहीं, हाँ, टट्टू और बकरियाँ जा सकती थीं। मगर सिर्फ सामान ले कर। टट्टू पर आदमी चढ़े तो गिरने का खतरा बराबर रहता था। क्योंकि रास्ता बेढब था।
आदमी की सवारी भी दो प्रकार की थी, एक कांडी और दूसरी झंपान। कांडी तो मछली फँसानेवाले टाप की सी थी। सिर्फ एक ओर थोड़ी कटी थी जिससे चढ़नेवाला उसमें बैठ के नीचे पाँव लटका सके। या यों कहिए कि जैसे बाँस या बेंत के मोढ़े कुर्सियों का काम देने के लिए बनाए जाते हैं प्राय: उसी तरह की। उस पर आदमी को बैठा कर ढोनेवाला अपनी पीठ पर उसे बाँध लेता है। चढ़नेवाले की रक्षा के लिए उसके पाँव वगैरह पर भी कुछ बंधन रहता है। अगर चढ़नेवाले को पूर्व चलना है तो उसका मुँह पश्चिम और ढोनेवाले का पूर्व रहेगा। झंपान की शकल तो बिहार में काम आनेवाली खटोली जैसी होती है। कांडी को एक आदमी ले चलता है। इसलिए वह सस्ती पड़ती है। मगर झंपान में चार आदमी लगने से वह महँगा पड़ता है। हालाँकि उसमें आराम रहता है। अब तो हवाई जहाज जाने लगा है।
रास्ते का प्रबंध ऐसा हैं कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहाड़ के ऊपर से आनेवाले झरने के पास चट्टियाँ (पड़ाव) होती हैं जहाँ आटे आदि की दूकानें और ठहरने की मामूली जगह होती हैं। यात्रा के दिनों में ही ये चट्टियाँ आबाद रहती हैं। पीछे उन्हें कौन पूछे?पनचक्की का पिसा सुंदर आटा वहाँ मिलता है। चावल भी। सिर्फ गुड़, चना और नमक महँगा होता है। क्योंकि पहाड़ में पैदा न होने से नीचे से ले जाया जाता है। बाकी चीजें तो प्राय: नीचे (मैदान) के भाव में ही मिलती है। घी, दूध खूब मिलता है।
पहले तो चोरी होती न थी। अगर किसी की कोई चीज छूट गई तो लौटने पर बहुत दिनों के बाद भी जहाँ की तहाँ पड़ी मिलती थी। पहाड़ी लोग तो उसे छूते न थे। हाँ, यदि यात्रियों में से ही किसी ने चुपके से उठा ली तो बात दूसरी थी। यह था हमारे देश का पुराना सदाचार। न जाने सभ्यता पिशाची के करते अब क्या हालत है?हमने देखा कि वहाँ के ब्राह्मण, क्षत्रियादि गरीबी के करते कांडी, झंपान ढो कर या यात्रियों के सामान वगैरह साथ में ले जा कर मजदूरी के पैसे से गुजर करने में आत्मसम्मान मानते थे। लेकिन रास्ते में या चट्टियों पर पड़ी दूसरों की चीजें छूते तक न थे! यह भी देखा कि प्राय: सबके-सब सिर्फ लँगोटीधारी ही हैं। उनके चूतड़ नंगे हैं, हालाँकि, ऊँची कही जानेवाली जातियों के हैं। फिर भी उनकी ऐसी हालत है कि छोटे से छोटा भी शारीरिक परिश्रम करने से इन्कार नहीं! प्रत्युत उसे करने को लालायित दीखते थे, उसे ढूँढ़ते फिरते थे।
हमारी प्राचीन सभ्यता और सदाचार की यें बातें हम सभी को सीखने की हैं। न जानें हमने कहाँ से अनोखा धर्म और सदाचार सीखा है कि कामों को ही छोटा और बड़ा बना दिया! यहाँ तक कि कुछ कामों के करने में ब्राह्मण, क्षत्रियादि की जाति, धर्म और शान सभी मिट्टी में मिलते नजर आते हैं! हाँ, चोरी करने में वैसी हिचक नहीं! दूसरे का धन मिल जाए तो महाप्रसाद की तरह फौरन हजम! हमारा धर्म, हमारा सदाचार और हमारी प्रतिष्ठा वस्तुत:, इसी में हैं कि कमा के खाएँ और किसी काम को छोटा या नीच न मानें। इस बात में हमारे गुरु उत्तराखंड के वे गरीब लोग हैं।
उस यात्रा में भूख बहुत लगती है। एक तो पहाड़ की चढ़ाई-उतराई का श्रम। दूसरे स्वच्छ जलवायु। तीसरे बर्फ के पिघलने से मिलनेवाला जल। ये तीनों ही इस भूख के कारण हैं। अत: जो लोग खाने में कसर करते या खूब घी-दूध नहीं खाते उन पर उस बर्फानी पानी का धीरे-धीरे असर हो जाता है। जिससे वहाँ से वापस आने पर वे लोग प्राय: दस्त की बीमारी में फँसते हैं।
लेकिन हमने तो अनुभव किया कि खाने-पीने में कष्ट होने पर भी हम पर उस पानी का कोई असर न हुआ। हमारे पास तो पैसे थे नहीं और हमने यात्रा कर दी बहुत पहले जब ज्यादा यात्री चले न थे। जो चले भी थे वे अधिकांश अपनी ही फिक्रवाले थे। इसलिए चौबीस घंटे में एक बार भी भोजन मिलना कभी-कभी असंभव हो गया। दो-बार की चाह तो हम करते ही न थे। रास्ते में धनी और धर्मबुद्धि के लोग हमारे जैसों को खिलाया करते हैं जरूर। पर, वे देर से यात्रा करते हैं। जगह-जगह अन्नक्षेत्र हैं सही। मगर वे उस समय बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस मीलों की दूरी पर थे। इसीलिए लाचार हो कर हमें प्रतिदिन उतना ही और कभी-कभी अट्ठाईस-तीस मील तक चलना पड़ा। लौटने के समय एक सो नवासी मील की यात्रा हमने छ:-सात दिनों में इसी से पूरी की। शायद यही कारण है कि पानी-वानी का कोई असर हम पर न हो सका।
रास्ते की एक बात और भी है। हमने देखा कि बहुत से गर्वीले जवान या तो पिछड़ जाते या पस्त हिम्मत हो जाते थे! लेकिन बच्चे, बूढ़ी औरतें या वृद्ध पुरुष लगातार चले जाते थे! असल में धीरे-धीरे चलने में पहाड़ की चढ़ाई ज्यादा पस्त नहीं करती और न वैसी थकावट ही होती है। इसीलिए स्वभावत: धीरे चलनेवाले बच्चे या वृद्धजन हिम्मत हारते न थे। मगर तेज चलने की गर्मीवाले पस्त हो जाते थे। हम यदि तेज चले तो वह अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। हमारा यह भी नियम था कि साथवाले कमंडलु में जल ले कर चला करते थे। उस जल से रास्ते में न जानें कितनी वृद्ध-वृद्धाओं की प्यास हमने उस यात्रा में बुझाई।
हाँ, तो हमारी यात्रा शुरू हुई। हम कई दिन चलने के बाद रास्ते में पड़नेवाले देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि तीर्थों में ठहरते और उन्हें पार करते आगे बढ़ते गए। हमें गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी, केदार और बदरीनाथ इन चार प्रधान तीर्थों में जाना था। पहले दो की ओर जाने में ही उत्तरकाशी पड़ जाती है। मंसूरी हो कर भी इन दोनों का रास्ता है। मगर हम उधर न जा कर ईधर बढ़े थे। सोचा था कि आगे जा कर दूसरे रास्ते से वहाँ जाएगे। मगर रास्ते में खाने-पीने के कष्ट ने हमें सुझाया कि उधर जाना ठीक नहीं। कारण, इतना पहले उधर के यात्री तो होंगे नहीं और रास्ते में अन्न बिना ही मरना पड़ेगा। इसलिए उन दो यात्राओं का विचार त्याग सिर्फ केदार और बदरी की ही फिक्र हमें रही। उनमें भी पहले केदार जा कर पीछे बदरी जाते हैं। ठीक याद नहीं, शायद देवप्रयाग से केदार का रास्ता बदलता है। वहीं पर जो गंगा की दो धाराएँ मिलती हैं, जाने के समय उनमें बाईं धारा से केदार जाते हैं। फिर लौटने के समय इतनी दूर वापस न आ कर ऊखी मठ से ही एक तिरछी राह आ कर बदरीवाली में आगे बढ़ के मिल जाती हैं।
हमने केदार बाबा का रास्ता अपनाया और जैसे-तैसे कभी खाते कभी भूखे रहते बढ़ने लगे। जहाँ आमतौर से चार बार खाने में भी भूख लगती हैं वहाँ एक बार भी न खाया और चढ़ाई तय करना मामूली बात न थी। लेकिन एक तो हिम्मत थी, दूसरी बेबसी।