बदलती दिशायें / राजा सिंह
उसने चबूतरे को अंगुली से छूकर देखा। धूल की एक पर्त अंगुली में चढ़ आयी थी। चबूतरे पर अपने निशानी छोड़कर। उसने अपनी नाक छी-छी की मुद्रा में सिकोड़ ली। एक बार दिल में आया कि पत्रिका से चबूतरे को साफ कर लिया जाये, फिर यह सोचकर रह गया कि अभी-अभी थोड़ी देर पहले आई है, गंदी हो जायेगी। वह हगने वाली मुद्रा में बैठकर बड़े आराम से पत्रिका पढ़ने लगा था। थोड़ी-थोड़ी देर में वह सामने वाले छज्जंे की ओर देख लेता था।
उसने रमन को आवाज दी थी। दो-तीन बार एक बारह तेरह साल की लड़की छज्जे से झांककर भाग चुकी थी। उसने फिर एक आवाज दी।
'है ऽ-ऽ ऽ नहीं।' एक तैरती हुई आवाज आई. उसने सर उठकार देखा। आवाज देने वाले का नामोनिशान नहीं था। वह फिर पढ़ने में मशगूल हो गया। अबकी बार उसने देखा, लड़की उसी को देख रही है।
'कहॉ गयंे हैं?' उसने पूछा।
'सब्जी लेने गयंे हैं।' लड़की भीतर जाकर जबाब लाई.
वह अन्मनस्क भाव से फिर किताब में खो गया। वह समझता था, अभी थोड़ी देर में लौटकर आता होगा, रमन। वह जानता था सब्जी मंडी ज़्यादा दूर नहीं है। वैसे भी आज इतवार है और वह ठीक से बात कर सकेगा।
उसे बैठे-बैठे पढ़ते हुये आध-पौन घंटा को गया था। उसने उठते हुये एक नजर छज्जे पर डाली। रमन का बड़ा लड़का मुस्कराहट के अंदाज में खड़ा था। उसकी इच्छा हुई कि पूछे-सब्जी लेने गये हैं कि सब्जी मंडी. परन्तु उसने सोचा उसको ऐसा पूछने का कोई हक नहीं हैं। यद्यपि वह दोनों आपस में खुले हुये हैं परन्तु इतने भी नहीं जितने लंगोटिया यार होते हैं, सिर्फ़ सहकर्मी ही हैं। एक ही आफिस में साथ-साथ की सीट पर काम करते काफी अंतरंगता आ गई थी दोनों के बीच।
वह अब भी अपने को कम्पनी का कर्मचारी समझता था, हालांकि उसको कम्पनी से छः-सात महीने पहले निकाल दिया गया था, बिना कोई कारण बताये। उसने कम्पनी के डायरेक्टरों के विरूद्ध हाईकोर्ट में मुकदमा कर दिया था। उसे पूरा यकीन था कि वह मुकदमा जीत जायेगा। इसी सिलसिले में वह रमन से मिलने आया था। वह रमन से मुकदमें के संदर्भ में अक्सर विचार-विमर्श किया करता था। उसे इन सब मामलों में रमन ही सबसे उपयुक्त व्यक्ति नजर आता था। वह समझता है, उसके साथ जो अन्याय हुआ है, उसे रमन ही गहराई से महसूसता है। अन्य लोग तो सतही सहानुभूति दर्शातें हैं।
चलते समय एक शक उसके भीतर घुस आया। शायद रमन के घर के भीतर ही हो और उसने मना करवा दिया हो। आजकल उसे सबके ऊपर शक हो जाता हैै। वह महसूस करता है कि सभी उससे मिलने से कतरातंे हैं। उसे टालू चीज समझा जाता है।
असल में नौकरी छूटने के पहले भी मित्र या कलीग उसके पास ज़्यादा देर नहीं टिकते थे। ज्यादातर लोग उसे झक्की समझते थे। किसी भी विषय पर वह घंटों बहस कर सकता था। उसको अपने विचारों से सहमत कराना एक जटिल पहेली थीं। परन्तु वह भी अक्सर ध्यान रखता था, कौन उसके विचारों को अहतियत दे रहा है और कौन बोझ समझ कर सहन कर रहा हैं। इसलिये जब नौकरी करता था, तो चुनिंदा लोगों से ही वह खुलकर बात करता था, अन्यथा वह अन्य लोंगों के पास टिकता कम था, परन्तु अब तो उसे सिर्फ़ एक बहाने की तलाश रहती बात करने के लिए कोई भी हो।
बारीकी तौर पर देखा जाए तो उसे सबसे शिकायत थी। चींटी से लेकर हाथी तक। बच्चे से लेकर बुढ्ढे तक। व्यक्ति से लेकर समाज तक। देश से लेकर व्यवस्था तक। किसी ने उसे किसी की प्रशंसा करते नहीं देखा था। शायद उसे अपने आप से भी शिकायत थी। क्योंकि बहुत-सी चीजें जो वह करना चाहता था कर नहीं पाता था। जो बनना चाहता था वह बन नहीं पाया था। इसलिए आलोचना-आलोचना सिर्फ़ आलोचना ही उसका ध्येय था।
अपने आप से लड़ता हुआ वह चल रहा था। टहलते-टहलते वह फूलबाग के बस स्टैंड पर आ गया था। उसकी इच्छा हुई कि लाल बंगला चला जाए और ऋषि से मिले। उसने देखा कि स्टैंड पर कोई नहीं है, अलबत्ता स्टैंड से आगे सड़क पर काफी लोग खडे़ हैं। उसे कोफ्त महसूस हुई. उसकी इच्छा हुई कि स्टैंड में ही खड़ा हो जाये परन्तु इस तरह तो वह ज़िन्दगी भर खड़ा रहेगा और बस फिर भी नहीं मिलेगी, यह सोचकर वह सबके साथ खड़ा हो गया। उसने पत्रिका खोल ली और सरसरी नजरों से देखता हुआ खो गया। थोड़ी देर में उसे अपनी कनपटियों पर गर्म-गर्म सॉंसें महसूस हुई. सॉंसें बगल वाले नौजवान की थी। जो पत्रिका में झुका हुआ था। उसने पत्रिका बन्द कर ली और सामने ग्वालियर सूटिंग का विज्ञापन पढ़ने लगा।
बस आई तो भगदड़-सी मच गई. वह नौजवान उसे ढकेलता हुआ बस में चढ़ गया। वह लड़खड़ा गया। बस फुर्र से उड़ गई थी। वह ठगा-सा रह गया। जाहिल...गॅवार...उसके मुहॅं से अस्फुट शब्दों में निकला। ...कभी भारत में तहजीब काफी मायने रखती थी और आज। विदेशियों ने हमारी अच्छाईयॉं सीख ली और हमने उनकी बुराईयॉं। दूसरों की उतरन पहनता, भारत।
वह काफी अव्यवस्थित महसूस करने लगा था। रेलिंग पर कोहनी टिकाए खड़ा था। ऋषि के घर जाने का इरादा त्याग दिया था। एक तो दूसरी बस आने में कम से कम एक घंटे की देर थी, दूसरे बीस रू0 जाने के और बीस रू0 आने के खर्च करने के बाद क्या भरोसा ऋषि मिल ही जायेगा। वह काफी गहराई से महसूस करता है कि इस बात का क्या भरोसा कि ऋषि नाही नहीं करवा सकता। "मारो गोली लफाड़ियों को।" वह बुदबुदाया।
उसने पान खाकर एक सिगरेट सुलगा ली थी। वह बड़ी बेफिक्री के अन्दाज में फूलबाग पार्क की उभरी हुयी चौहदद्ी पर बैठा था। आने-जाने वालों को निहायत लोफरों के अन्दाज में घूर रहा था। इससे उसे अपने को भूलने में सहायता मिल रही थी।
अचानक उसने खन्ना को देखा, जो उसकी नजर बचाकर पोईमा स्टूडियो के पास से लम्बे डग भरता जा रहा। उसकी ऑंखों में शिकारी चमक उभर आई. वह चीते की-सी तेजी से झपटा और उसने बाटा शू कम्पनी के पास उसे पकड़ लिया। खन्ना अचकचाया।
'हल्लो। अर्जुन, यहॉं कैसे?' वह झेंपा। उसे अपनी चोरी पकड़े जाने का अहसास हुआ था। '
'बस ऐसे ही टहल रहा था कि तुम दिख गये। कहो, आफिस के क्या हाल-चाल है?'
'ठीक है। हॉं, तुम पत्रिका निकालने वाले थे, कब निकल रही है? खन्ना यह बात बोल कर पछता रहा था कि अब तो ज़रूर अर्जुन उसे घंटों साहित्य के चक्कर में उलझा डालेगा।'
'देखो, कोशिश कर रहा हॅू।' उसने ऊपरी ओंठ पर निचला ओंठ चढ़ा लिया था। वह खन्ना की छटपटाहत पर काफी खुशी महसूस कर रहा था।
'अच्छा यार चलते है। ज़रा जल्दी है फिर मिलूॅगा।'
'हॉं, हॉं जाओ.' उसने खन्ना को अपनी गिरफ्त से मुक्त कर दिया था। उसके चेहरे पर शिकार को छोड़ देने के बाद उभर आये संतोष के भाव थे। साला! चुगद, डरता है कि बास या बास का कोई चमचा देख न ले उससे बात करते हुये वह खन्ना को जबतक देखता रहा जबतक वह नजरों से ओझल नहीं हो गया।
थोड़ी देर तक वह खड़ा बाटा के शो केश में लगे जूते देखता रहा। फिर धीरे-धीरे रेलिंग को सहलाता-सहलाता चलने लगा। खादी की दुकान आ गयी तो वह कपड़े देखने लगा। उसे भूख सताने लगी थी। वह सड़क पार करके चने वाले की दुकान में आ गया। चने काफी चरपरे थे। वह सूं-सूं करने लगा। उसकी इच्छा हुई कि वह चने वाले के खड़ी लात रसीद कर दे। उसने पहले ही मना कर दिया था कि मिर्च मत डालना। मगर चने वाला अपनी आदत से मजबूर, यह सोचकर वह चुप लगा गया।
पानी वाले ठेले के पास काफी भीड़ थी। पीने वाले ज़्यादा थे और गिलास कम। उसके होंठ फड़फड़ा रहे थे। एक मुस्लिम जोड़ा भी पानी पीने आ गया था। औरत ठेले से कुछ दूर खड़ी थी और पुरूष पानी लेने के आया था। भीड़ खत्म हो जाने पर अर्जुन को पानी मिला था और तभी उस मुस्लिम पुरूष ने पानी मॉंगा।
'दो गिलास पानी देना।'
'पानी नहीं है।' ठेले वाले का नंगा उत्तर अर्जुन को बुरी तरह हतप्रभ कर गया। वह पानी पीने जा ही रहा था कि रूक गया। उस पुरूष को भी कुछ समझ में नहीं आया।
'क्या मतलब?' पुरूष कुछ उत्तेजित-सा था।
'मतलब-वतलब कुछ नहीं। आपके लिए नहीं है।'
वह पुरूष कुछ झुंझलाया हुआ-सा लगा। मगर वह फिर कुछ नहीं बोला। अलबत्ता दूर खड़ी वह औरत भुनभुना रही थी-बड़ा पंडित बनता है। अर्जुन खड़ा सोच रहा था पुरूष को जोरदार प्रतिवाद करना चाहिए. अचानक उसके दिमाग में एक बात कौंध गयी। उसने सोचा वह अपने नाम से दो गिलास पानी लेकर उस मुस्लिम जोड़े को पिला दे। फिर देखते हैं ये ठेले वाला क्या करता है? वह मन ही मन अपने विचार को दृढ़ करता रहा। जब उसे कार्यरूप देने की सोची तो वह जोड़ा काफी दूर जा चुका था। उसे अपने ऊपर काफी खीज हो आयी। वह कोई काम वक्त पर क्यों नहीं कर पाता? और बाद में पछताता है। उसके हाथों में गिलास अब भी थमा था और पानी एक बूंद भी कम नहीं हुआ था। उसे पानी से अरूचि हो गयी। उसने पानी सड़क में गिरा दिया और पानी वाले को बिना पैसे दिए चल दिया। उसे विश्वास था पानी वाला ज़रूर टोकेगा और वह कहेगा पानी निहायत गंदा है। परन्तु पानी वाले ने ऐसा कुछ भी नहीं किया सिर्फ़ उसे घूरता रह गया।
बड़ी देर से वह ट्रेफिक पुलिस वाले को देख रहा था। जाली वाली गुमटी में बैठा वह लाल पीली हरी बत्ती जला बुझा रहा था। उसकी इच्छा हुयी कि वह अमेरिकन लाइब्रेरी जाय। दो-चार कदम ही चला होगा कि चिंहुक उठा। सामने गॉंधी की मूर्ती थी। कुछ देर तक वह एकटक गांधी को देखता रहा। उसे लगा गांधी उसे जाने से मना कर रहें हैं। उसका मन फिर गया।
सामने आइसक्रीम वाला दिख पड़ा तो उसे प्यास सताने लगी। उसने सोचा 5-10 रू0 वाली आइसक्रीम खायी जाय। वह ठेले पर झुका आइसक्रीम छांट रहा था कि पॉंच छः लड़कियॉं आ धमकी। लड़कियॉं आइसक्रीम के लिए चहचहाने लगीं। लड़कियों ने बीस-बीस रूपये वाली आइसक्रीम लीं और वहीं खड़े-खड़े चटखारे लेकर खाने लगीं। कुछेक पलों तक वह असमंजस में झूला फिर उसने भी बीस रूपये वाली आइसक्रीम ली। लड़कियॉं भी शायद इसी के इन्तजार में थीं कि देखें कितनी वाली लेता। वे चली गयी थीं। वह सन्तुष्ट अनुभव कर रहा था कि उसे नीचा नहीं देखना पड़ा। फिर भी बीस रूपये उसे साल रहे थे। उसे लगा बीस रूपये की आइसक्रीम खरीदकर उसने अपने झूठे अहं को तरह दी है।
भटकते-भटकते वह कुछ ऊब-सी महसूस करने लगा था। एक बार तो उसकी इच्छा हुयी कि घर चला जाय। परन्तु घर के नाम से जो बुलावा होता है वह अपने भीतर नहीं महसूस कर पाता था वह। जिस मानसिक धरातल पर वह रहता था उसके काफी नीचे था उसका घर और उसका वातावरण और नौकरी छूटी है तबसे घर में घुसते ही वह दहशत से घिर जाता है। घर की दीवारों से रिसता 'अब का हुइये' का माहौल बेचैन कर देता है। सबसे त्रासदायक स्थिति होती है अपनी औरत निरीहता की शिकार ऑंखों से सामना और अपने बच्चों की काया पर पड़ी किसी दहशत की छाया का सामना। इन सबसे लड़ता हुआ वह अपराध भाव से ग्रसित हो जाता है।
उस दिन जब उसने अपनी बीबी को नौकरी छूटने की बात बताई थी तो उसकी अनपढ़ पत्नी के मुंह से यही निकला था 'अब का हुइये?' हम का खाइबे? '
'होना क्या है, मैं केस लड़ूॅंगा।' और उसने बतायी थी सारी दास्तान जिसने तहत उसकी नौकरी गयी थी। उसने लड़ाई द्वारा फिर अपनी नौकरी प्राप्त कर लेने का दावा किया था, जो उसकी पत्नी के दिमाग में नहीं आ रहा था।
'एक लड़ाई लड़ेव तो नौकरिया गयी, अब दुसरी मा तो जौन लुटिया बरतन हैन बहू जइ हैं।' हमरी कहा मानव तो साहब से जाकर माफी मॉंग लेव। हमरा विश्वास है वे ज़रूर माफ कर देहे। ' उसकी पत्नी ने सुबकते कहा। वह भड़क उठा था।
'माफी...और मैं? फिर किस बात की माफी? जब मैंने कोई ग़लत काम नहीं किया तो फिर क्यों माफी मॉंगू? क्या सिर्फ़ नौकरी के लिए? नहीं, मैं गिर नहीं सकता।'
'अगर तुम नहीं जा सकते तो हमका जान देव। हम साहब के गोड़न मा लड़का डार के उनके पेट के लिए माफ कर देन का कहिवे। हम जानित है...' चटाक से एक झापड़ उसने दिया था और उसकी बीबी एक कोने में गिर पड़ी थी। उसकी पत्नी के बाकी शब्द उसी के पास ही रह गये थे। वह बिफर रहा था।
'स्साली! मुझे जलील करना चाहती है। जिस सम्मान के लिए मेरी नौकरी गयी उसे ही बेचना चाहती है। तू मेरी बीबी है, यह सोचकर ही घिन आती है, तुझे तो किसी घसियारे की बीबी होना चाहिए.' वह बीबी को रोता बिलखता छोड़ भागा था। घर के बाहर ही कुछ राहत के नाम पर। परन्तु घर के बाहर भी उसे पत्नी के कहे वाक्य याद आते रहे थे-अब का हुइये, हम का खाइवे।
शाम घिर आयी थी। वह नानाराव पार्क की बेंच पर बैठा था। अस्थिर, एकान्त असंपृक्त। कभी-कभी वह पत्रिका उठाकर सरसरी नजरों से देख लेता था और फिर धीरे से बेंच पर पटक भी देता था। सामने तात्या टोपे की मूर्ति बनी थी जिसके आगे बने पक्के फर्श पर लड़के स्केटिंग सीख रहे थे। उसका ध्यान स्केटिंग देखने में उलझ गया था। स्केटिंग करते लड़कों के बीच में कुछ लड़के साइकिल भी चला रहे थे। साइकिल चलाने वालों के कारण व्यवधान स्केटिंग में पड़ रहा था। एक छोटा-सा लड़का इसी कारण गिर पड़ा। इसे देखकर वह मन ही मन सुलग पड़ा। साले भिखारी कहीं के. अरे! बड़ा स्केटिंग का शौक है तो स्केटिंग शू खरीद लो। बीच में साइकिल घूसेड़ते फिरेंगे। सारी स्केटिंग की चार्मिंग मार देते हैं। फिर वह धीरे-धीरे ठंड़ा पड़ता गया। अब वह उन लड़कों की स्केटिंग शू न खरीद पा सकने की मजबूरी विचार कर द्रवित हो उठा। उसका मन असमानताओं का नंगा नृत्य देखकर खिन्न हो उठा। उसने वहाँ से उठ जाने में ही भलाई समझी।
पार्क में गहरे घुसकर वह घास में हाथों का तकिया बनाकर काफी देर से लेटा हुआ था। काफी ध्यानमग्न था। जाने कितने विचार आ रहे थे, जा रहे थे। अब उसकी स्मृतियॉं कम्पनी की ओर मुड़ गयी थीं। लोग जहीन विकट एवं दिलेर कर्मचारी समझते थे और इसी के अनुरूप उसका आचरण होता था। अन्त में वह घटना ...वह दिन...और वह।
उस दिन भी जैसा अक्सर होता था, वह बड़े प्रेम से पेंसिल मुंह में दबायें आफिस फाइल पढ़ रहा था कि चपरासी ने साहब द्वारा बुलाए जाने की खबर दी। उसको बड़ी सामान्य बात लगी थी, क्योंकि जब भी उसकी पेशी हुयी है नतीजा कुछ नहीं निकला है। अक्सर उसके काम में नहीं आचरण में ही कमी इंगित की गयी है। इसी वजह से ही उसे मैनेजर से अक्सर दो-चार होना पड़ता था।
उस दिन बॉस काफी संयत नजर आ रहा था। जबकि अक्सर वह पेशी के समय उबलता हुआ नजर आता था। वह साहब के सामने खड़ा था ढीठ बनकर।
'मिस्टर, इस राइटिंग को पहचानते हो।' बॉस ने एक लम्बा-सा पत्र हिलाते हुये उसके हाथ में थमा दिया।
'जी.' उसने अपनी राइटिंग पहचान ली थी।
'तुमने यह क्यों लिखा?' बॉस कुछ ऊॅंचा बोला था।
'साहब! इस पत्र का मैं सिर्फ़ राइटर हॅू। एक वृद्ध महोदय कुछ लिखवाना चाहते थे, मानवता के नाते मैंने उनकी सहायता की थी। पत्र में क्या लिखा गया है इससे मेरा कोई मतलब नहीं है?'
'मतलब है मिस्टर! तुमने अपने हाथों अपनी कम्पनी की शिकायत की है। इसके बावजूद कहते हो कि मतलब नहीं।'
'मैंने जो उचित समझा वह किया था।' उसे कोई पछतावा नहीं था।
'तुम जा सकते हो।' बॉस उत्तेजित नहीं था।
इस घटना के एक माह बाद ही उसकी नौकरी छीन ली गयी। वह सन्न रह गया था। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या से क्या हो गया। पहली बार उसे इस वास्तविकता से साक्षात्कार करना पड़ रहा था कि किसी भी सही पक्ष के समर्थन में इतना बड़ा मूल्य चुकाना पड़ सकता हैं। अपने जुझारू व्यक्तित्व के कारण ही वह एक अनाथ बच्चे से लेकर बड़े बाबू के पद पर पहुॅचा था। उसने सिर्फ़ सफलता की ही सीढ़ियॉं चढ़ी थीं। कभी पीछे मुड़कर देखने का मौका ही नहीं पड़ा था। आज वह फिर अपने आपको फुटपाथ पर महसूस कर रहा था। मैंनेजर के विरूद्ध हर मोर्चे पर उसको आगे करने वाले, उसकी निडरता पर शाबासी देने वाले दुम दबाकर बिलों में घुस गये थे। सब काली बिल्ली की छाया से डर रहे थे। कोई भी उसको बाहर तक छोड़ने नहीं आया था। परन्तु उसे उन साथियों से कोई गिला नहीं था क्योंकि वह औसत आदमी के दब्बू चरित्र को पहचानता था। उसे गिला था तो सिर्फ़ खुद से। उसे उस दिन क्या हो गया था? और दिनांे की तरह वह अन्याय के विरूद्ध चीखा चिल्लाया क्यों नहीं? साथियों के हादसों में वह आफिस को सिर पर उठा लेता था और सामान्य काम काज अस्तव्यस्त कर देता था। अपने साथ हुए इतने भीषड़ अन्याय को वह क्यों शान्त रूप से गरल-सा पी गया। यही बात उसे कचोटती रहती थी। इसका प्रतिकार यही होगा कि वह केस जीत जाय। वह एक बार फिर दिखा देगा कि नौकरी छिन जाने से उसका लड़ाकूपन मर नहीं गया था वह तो सिर्फ़ क्षण भर का आया अतंराल था।
रात को आये काफी देर हो चुकी थी। उसे कोई होश नहीं था। वह अपनी ही दुनियाँ मंे खोया हुआ था। होश उसे तब आया जब दो लम्बे-तगड़े चौकीदार हाथों में भारी-भरकम लट्ठ लिए उसके सर के पास खड़े हो गये।
'खड़े हो जाओ.' उनमें से एक बोला।
'यहॉं कैसे?' दूसरा बोला।
'ऐसे ही लेटे थे।' वह उनको गुंडा समझकर कुछ सहम-सा गया था।
'तुम्हारे बाप का बाग है न? देख रहो हो नौ बज रहें हैं और पार्क सात बजे बंद हो जाता है।' पहले वाले ने कलाई घड़ी उसकी ऑंखों के सामने करते कहा।
'गलती हो गयी भाई साहब, मुझे ध्यान नहीं रहा।'
'सब ध्यान आ जायेगा, मादर ...जब चूतड़ों पर डंडे पड़ेगें। अभी साले को चौकी में बन्द कर देते हैं। राहजन है स्साला।'
'तलासी लो।' दूसरा बोला और उसने तलाशी लेनी शुरू कर दी।
वह डरा नहीं था। अपमान से उसका मुॅह लाल हो गया था। वह समझ गया था कि चौकीदार हैं और जान-बूझ कर उसकी बेइज्जती कर रहे हैं, जिससे वह डरकर रूपये आदि देकर जंजाल से छूट जाये।
'व्हाट डू यू मीन? इट इज नाट प्रापर वे ऑफ टाकिंग। यू आर चाइडिंग मी। आई विल-सी यू बाई फेश ऐनीव्हेयर। यू डोन्ट नो हू आई एम.' वह विफर रहा था और दोनों चौकीदार हतप्रभ खड़े थे। उन दोनों पर अंग्रेज़ी का रोब पड़ चुका था। वे बुरी तरह ढ़ीले पड़ गये थे।
' ऐसा है साहब! आप कुर्ता पजामा पहने थे इसलिए धोखा हो गया। क्या करें साहब, यहॉं अक्सर चोर उचक्के व ग़लत लोग भी घुस आते हैं। रात के अंधेरे में गलत-गलत काम हो जाते हैं, फिर जवाब-तलब हमीं लोगों से होती है। वे दोनों गिलगिलाने लगे थे।
कोई बात नहीं। यह तो तुम्हारा फर्ज था और वह चल दिया। उसके चलने पर उन दोंनों ने नमस्ते भी की। वह मन ही मन सोच रहा था... बेचारे भारतीय सौ साल तक अंग्रेजों का रौब खाते रहे अब अंग्रेज़ी का खा रहे हैं। '