बदलते दृष्टिकोण / उपमा शर्मा
सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज़ पर रुक गई। वह ग़ुस्से में ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अंदर भागी मीनू।
"क्या हुआ माँ? इतना ग़ुस्सा क्यों हो रही हो?"
"तो और क्या करूँ? बता! इतने दिनों में घर के तौर-तरीक़े नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।" माँ ने ग़ुस्से में ही जवाब दिया।
"माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?" मीनू ने प्रश्नवाचक नज़रों से भाभी को देखा।
"वो दीदी! माँ जी की चाय में ज़्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज़ होते हैं। माँ को शुगर है न।" भाभी ने सहमे स्वर में ननद को जवाब दिया।
"बस! सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के ख़िलाफ़ भड़का रही है। वह मना करता है इसे!" माँ जी का ग़ुस्सा और बढ़ गया।
"माँ! भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज़्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक़्क़त होगी।" "अच्छा जी, तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्ज़ी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है? उसमें किसने मना किया है इसे?" माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
"माँ! आप भी जानती हो! हृदय-रोगी हो आप और ये सब नुक़सान देता है आपको।"
"अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जाएगी।"
"माँ! क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पाँच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है। रातभर जगाती होगी भाभी को।" मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
"और क्या-क्या दु:ख हैं इसे? यह भी बता...और तू कबसे इसकी इतनी तरफ़दारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!" माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा ज़ोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नज़रें झुकाकर जवाब दिया, "तब मैं किसी की भाभी नहीं थी