बदलते लोग-बदलते गाँव / तुषार कान्त उपाध्याय
करीब ३४-३५ वर्ष हो गए, मैं अपने गाव से शहर आ गया। बाबूजी नौकरी में थे। छुट्टी मिलती तो गॉव आते। बाकि माँ, भाई-बहन, मईया (दादी) सभी गाँव में ही रहते थे। नौकरी पेशा लोगों का परिवार गाँव में रहता और वे नौकरियों में। कुछ पढ-लिखे लोगों की सरकारी नौकरी होती बाकि या तो कल-कारख़ानों-कोइलवरी में या किसी सेठ के यहाँ मुलाजिम होते। सेना-पुलिस में सिपाही होना बड़े मान वाला माना जाता था। सबके परिवार गाँव में रहते। बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते। जिन विद्यर्थियों के मैट्रिक में अच्छे अंक आते वह पटना या बनारस का रास्ता पकड़ते। माध्यम दर्जे में पास लोग आरा या वहीं बक्सर के कॉलेजों में दाखिला लेते। तो मैं भी आरा आ गया। और तब से शहरों में भटकता रहा हूँ। कभी नौकरी की तलाश तो कभी नौकरी की जिम्मेवारियों को निभाते। पर गॉव से सम्बन्ध बना रहा। बदलते गाँव-समाज के नैतिक-चरित्रिक आरोह-अवरोह को समय के साखी की तरह निहारता, महसूस करता रहा।
कितना कुछ बदला। टोले और गाँव वीरान हो गए. रोजी-रोटी की तलाश में युवा पश्चिम के समृद्ध राज्यों में मजदूरी करने चले गए. सम्भव हुआ तो परिवार भी साथ ले गए. खेतो के निरंतर छोटे होते टुकड़े पेट भरने में असमर्थता के साथ एक अदृश्य-सा निराशा भाव भी भरने लगा है। जो कहीं थोड़ी बेहतर नौकरी पा सके हैं और परिवार साथ रख पाने में सक्षम नहीं, उन्होंने भी बगल के शहर में किराये का आशियाना बना लिया है। बच्चो को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने की ललक ने नैतिकता के नए मानदंड गढ़े हैं। बक्सर जैसे शहरो में किरायेदारों की नयी पौध इन्ही के बीच से पनपी है। पीछे बूढ़े और लाचार माँ-बाप छूट गए. प्राइवेट स्कूल बरसाती घास की तरह उग आये। इन स्कूलों की पढाई का तो पता नहीं, पर चमकते ड्रेस, जूते और थोड़े से अंग्रेज़ी के शब्दों ने ऐसे खींचा की सारे ताने-बाने टूट गए. जो बना सकते थे उन्होंने अपने घर शहरो में बना लिया। जो थोड़ा ज़्यादा सफल हुए वह बड़े शहरों में बस गए. गाँव धीरे-धीरे वीरान हो चले।
लड़कियाँ हाई स्कूलों में भी पढ़ने जाने लगीं हैं। आत्म-विश्वास से लबरेज, साईकिल पर चढ़ के, पैदल झूँडो में। ऐसा पिछले दस बर्षो में दिखने लगा है। तब इनकी सीमा गाँव के स्कूलों तक ही होती थी। बिरले ही परिवार लड़कियों को कालेज तक भेजता था। पर अब बहुत कुछ बदल गया है। स्कूलों के भीतर झांकने पर मास्टर साहब का पढाई से ज़्यादा ध्यान खाने पर भले दिखे, ज्यादातर मास्टर साहब का स्तर और प्रतिबध्दता किसी डरावने सपने की तरह हलकान करे, पर लड़कियाँ स्कूल जाती हैं। और वे बच्चे भी जिनके माँ-बाप प्राइवेट स्कूलों में नहीं भेज सकते। मुझे तो आज तक अपने सभी शिक्षको की सूरत और सीरत याद है। मैंने और मेरी पीढ़ी ने जो भी सीखा उन्ही सरकारी स्कूलों में सीखा। कुछ खास अति समृद्ध परिवार के बच्चो को छोड़ कर। जो गावों में सामान्यतः नहीं होता।
गाँवों में बिजली आ गयी है। गलिया और नलिया भी पक्की हो चली हैं। भले ही गॉव तक आने के रास्ते टूटे फूटे हो या लोगों ने आधे से अधिक पर कब्ज़ा जमा लिया हो। घर भी अब मिटटी के बने नहीं दीखते। ईंटो के बने पक्की छतो वाले मकान अंदर से टुकड़ो में बंट गए है। थोड़ा नजदीक होने पर हर कोई अपने में सिमटा महसूस होता है। अब तीज त्योहारो में अप्रवासियों की प्रतीक्षा नहीं होती। सबको पता है कोई नहीं आएगा। तब होली की उमंग महीनो चलती थी। सभी जुटते थे। टोलियों में लोग एक दूसरे के दरवाजे पर जाते। होरी की धुन और ताल कई बार भांग की तरंग में खो जाती, पर ढोल, मंजीरे, झाल बजते रहते मस्ती का आलम सबको सराबोर रखता। पर मर्यादा का अतिक्रमण नहीं होता था। होरी में राधा-कृष्णा, सीता-राम और शिव-पार्वती के होरी प्रसंगो को चित्रित करते तुलसी, सुर के पद आधे से अधिक लोगों को कंठस्त रहते। महीना भर खलिहानों में चैता की धूम मची रहती। अब टोलिया नहीं के बराबर बनती है। पद तो कही खो रहे हैं। सहज ही उपलब्ध शराब ने अपनी पैठ सभी वर्ग और उम्र के लोगों में बना ली है। मर्यादा आहात लगती है।
कुछ है, जो अक्षुण है। सुखद है। हम भीड़ का हिस्सा आज भी अपने गाँव में नहीं। मेरा तो गाँव छूट गया परन्तु शहर ने स्वीकार नहीं किया। मैं तो आज भी सोच से गाँव का ही हूँ। बदलते गाँव और उसकी आबो हवा को कुरेदता भोजपुरी कवि अशोक द्विवेदी का ये गीत बरबस ही मेरे मन में गूंज रहा है-
फेंड़ रुख लेत बाड़े रुकि-रुकि साँस हो ...
सून लागे गऊँवाँ ...
बधरिया उदास हो!
केहु नाहीं हँसे अब भेंटि अँकवारी
दिन ही में भकसावन
बाग़-बँसवारी
देख परदेसिया न बाबा चिहास हो!
सून लागे गऊँवाँ। ...
ढहत इनरवा के पानियों पताल में
आदमी बा सांसत मुवत महाजाल में
आपस के रिश्तन में आइल खटास हो
सून लागे गऊँवाँ॥॥
खरकेले टाटी, त काँपेले बाती
बिखधर पड़ोसियन से
धमसेले छाती
कतहूँ न लउकेला देवता के बास हो!
सून लागे गऊँवाँ ...
बधरिया उदास हो!