बदलापुर: अपराध दंडविधान और संवेदना / जयप्रकाश चौकसे

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बदलापुर: अपराध दंडविधान और संवेदना
प्रकाशन तिथि :22 फरवरी 2015


श्रीराम राघवन की 'बदलापुर' एक गंभीर थ्रिलर है। फिल्म की श्रेणियों में समय समय पर कुछ प्रतिभाशाली फिल्मकार अपनी फिल्म श्रेणी को नई दिशा देकर अधिक अर्थवान बनाते हैं। इस विधा के पुरोधा अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्मों में सतह के नीचे छुपे अर्थ फ्रांस के आलोचकों ने खोज निकाले तब अमेरिका को अपने हिचकॉक का मूल्य समझ में आया। राघवन की 'बदलापुर' भी अर्थ से लदा थ्रिलर है, जिसे नवाजुद्दीन सिद्‌दकी, हुमा कुरैशी, दिव्या दत्ता एवं वरूण धवन ने अपने सधे अभिनय से एक विरल सिनेमाई अनुभव बना दिया है और दो घंटे तक दर्शक अपनी सीट पर बैठकर पात्रों के द्वंद्व और तनाव को इतनी शिद्‌दत से अनुभव करता है कि पात्रों की चढ़ती-उतरती गर्म सांसें मानो वह अपनी गर्दन पर महसूस कर रहा है। थ्रिलर प्राय: पुरुष प्रधान होते हैं परंतु यह श्रीराम का जीनियस है कि इसके नारी पात्र विलक्षण हैं - नवाजुद्‌दीन की मां की भूमिका, उसकी प्रेयसी हुमा कुरैशी, धवन की पत्नी यामी, विनय पाठक की पत्नी जिसे अभिनीत करने वाली कलाकार का नाम शायद कुमुद मिश्रा है और दिव्या दत्ता, जो कैदियों को मानवीय दृष्टिकोण से देखने का पक्ष रखती है।

सर्वप्रथम हम इसे केवल एक थ्रिलर के रूप में देखें और छुपे हुए अर्थ को नजरअंदाज करें तो यह फिल्म मनोरंजन की नई परिभाषा प्रस्तुत करती है कि रोमांस, कॉमेडी ट्रैक इत्यादि वाहियात बातों को छोड़कर भी एक रोचक फिल्म बनाई जा सकती है। दर्शक से बिना टोटकों के इस्तेमाल के भी भावनात्मक तादात्म्य बनाया जा सकता है। दर्शक एक क्षण के लिए भी परदे की घटनाओं के अतिरिक्त कुछ नही देखता। यह सिनेमा विधा ही दर्शक को अर्जुन की एकाग्रता देती है कि पक्षी की आंख ही उसे दिखाई दे। कुछ फिल्मकार द्रोणाचार्य की तरह 'दर्शक छात्र' को दीक्षित करते हैं तो कुछ उन्हीं द्रोणाचार्य की ही तरह अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी अपनी शिक्षा से योद्धा बनाने के मोह में फंस जाते हैं गोयाकि महाभारत में धृतराष्ट्र, पुत्र मोह के अंधे एकमात्र पात्र नहीं हैं।

श्रीराम राघवन ने करण जौहर के 'स्टूडेंट' में वरूण धवन को अभिनय के सच्चे पाठ पढ़ाएं, जो उनके पिता नौटंकियों के डेविड धवन नहीं कर पाते। वरूण ने बड़ा परिश्रम किया है और पहली बार अभिनय क्षेत्र में ठोस कदम रखा है। फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पात्र निजामुद्‌दीन का है और उसने अपना श्रेष्ठतम देकर अपने स्कूल के पुरोधा नसीरुद्‌दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर और इरफान की परंपरा को सशक्त किया है। इसी तरह हुमा कुरैशी ने साबित किया कि महिला कितनी मादक हो सकती है और संवेदना के साथ इस मादकता को जोड़ा जा सकता है। श्रीराम राघवन ने इस पात्र को जिस खूबी से गढ़ा और प्रस्तुत किया है उसे हम साहित्यकार पीरे लामोयर, टिमार्की और सआदत हसन मंटो के तवायफ पात्रों की श्रेणी में रख सकते हैं। इस तरह बौना सिनेमा उचककर साहित्य को छू लेता है। चिरंतन काल से ही तवायफ सामंतवादियों का खिलौना और साहित्यकारों की आत्मा की खुराक रही हैं और अनेक क्लासिक्स का सारा ताप तवायफों का दिया है। पूंजीवाद के घिनौने प्रभाव ने इन्हें 'काल गर्ल' बनाकर एक अपने ढंग के सांस्कृतिक स्कूल को बाजारू ट्यूशन मार्केट में बदल दिया। फिल्म का थीम संवाद दिव्या दत्ता ने अदा किया है, 'कातिल जेल में है और तुम अपने बदले की कैद में हो।'

इसी तरह नवाजुद्‌दीन की मां का एक वाक्य पुत्र की राह बदल देता है, जब वह बताती है कि उसके पिता में सिर्फ दुर्गुण ही थे जैसे बेटे में हैं। अब एक गुण अर्जित करने से ही कथा की दिशा बदलती है। खलनायक की पत्नी का पात्र कमाल का है कि वह अपने गुनाहगार पति को बचाने के लिए किसी भी हद को पार करने का साहस रखती है। सारांश यह है कि पुरूष प्रधान फिल्म में कुछ विलक्षण नारी पात्र हैं। दर्शकों के विराट वर्ग की बात के बाद हम सतह के नीचे छुपे अर्थ खोजने वाले वर्ग की बात करें। राघवन अपराध और दंडविधान पर सवाल खड़े करते हैं कि इन्हें मानवीय करुणा से जोड़ना चाहिए। वे सदियों के दर्शन का सार प्रस्तुत करते हैं कि बदले की आग दोनों पक्षं को जलाती है और आंख के बदले आंख की बर्बरता दुनिया को अंधों के संसार में बदल सकती है। सबसे अहम बात बुरे से बुरे आदमी की आत्मा की तह में दूर कहीं भलाई छुपी रहती है। नायक किए गए कत्ल को अस्वीकार करता है और जागी हुई भलाई के कारण नहीं किए गए कत्ल की जवाबदारी ले लेता है।

दूसरी ओर एक भला आदमी पत्नी के कत्ल का बदला लेने के लिए कातिल बन जाता है। इस तरह यह आदमी के जानवर और जानवर के आदमी बनने की कहानी हो जाती है। आदमी अबूझ और अथाह है, अपराध की गलियां भी संवेदना की ओर ले जाती हैं।