बदलाव के बीज / मनोहर चमोली 'मनु'
‘क्यू री छोरी। सत्तो कहां चली गई ?’ ठकुराईन ने पूछा।
‘ताई। माँ की तबियत ठीक नहीं है। कल शाम से चारपाई पर लेटी है। चालीस घरों का काम है न। थकान तो लग ही जाती है। मुझे ही देखो। अभी आधा काम भी नहीं निपटा। पर मेरी तो साँस फूलने लगी है।’ छोरी ने झाड़ू लगाते हुए कहा।
‘अरी। छोरी। ये तेरा कसूर नहीं है। हवा ही ऐसी चल रही है। सत्तो ने पुराना घी खा रखा है। सो आज तक चल रही है। जाड़ा हो या बरसात। वो नागा नहीं करती। वो दो दिन न आए, तो घरों में सड़ांध फैलने लग जाती है। झाड़ू -पोंछा हो या मैला। उसके काम में कोई एक कमी नहीं निकाल सकता। सत्तो लगन से काम करती है।’
‘हां। ये बात तो है। ताई। जरा, एक गिलास पानी तो देना। पता नहीं, गला क्यों सूख रहा है।’ छोरी ने कहा।
‘ले। इस लोटे से पी ले। ये लोटा सत्तो के लिए अलग से रखा है। तेरी माँ मेरे हाथ का ही पानी पीती है। उसने कभी किसी और घर से पानी नहीं मांगा होगा। मगर सुन। पानी पीकर इसे माँझ देना। और हाँ। लोटे को उलट कर वहीं जमीन पर रख देना। बाद में साफ हो जाएगा।’ ठकुराईन ने कहा। ठकुराईन पीने का पानी भरने चली गई।
छोरी की प्यास ही बुझ गई। उसने लोटे की ओर देखा तक नहीं। उसने जल्दी-जल्दी हाथ चलाने शुरू कर दिए। वो ठकुराइन के घर में एक पल भी रूकना नहीं चाहती थी। ठकुराईन का गांव भर में रौब था। चमकती हुई साड़ी, खनकती हुई रंगीन चूड़िया। सोने के जेवर। यही सब तो ठकुराईन की शान थे। वक्त-जरूरत पर ठकुराईन गांववालों को रुपया उधार भी देती थी।
‘अरी,छोरी। ये तूने क्या कर डाला। तुझे रसोई में घुसने को किसने कहा था। सुबह-सुबह ही कल्याण कर दिया रे। अब मुझे रसोई खुद धोनी पड़ेगी। गंगाजल छिड़कना पड़ेगा। दुबारा नहाना पड़ेगा। चल निकल बाहर। सत्तो ने तो कभी ऐसा नहीं किया। चल जा यहां से।’ ठकुराईन ने सत्तो से कहा। सत्तो रसोईघर की सफाई कर रही थी। उसे रसोईघर में देख ठकुराईन लाल-पीली हो गई।
छोरी सत्तो की बेटी थी। उसका नाम माया था। लेकिन सब उसे छोरी कहते थे। वो पढ़ने में होशियार थी। सत्तो गांव भर का मैला साफ करती। कई घरों की साफ-सफाई भी करती। बदले में उसे चावल, दाल और गेंहू मिल जाता। बार-त्यौहार में कपड़े भी जुट जाते। कुछ घरों से उसे नकद रुपया मिल जाता। दोनों माँ-बेटी की गुजर हो जाती।
‘माँ। मैं किसी के घर नहीं जाऊंगी। ये साफ-सफाई का काम मुझसे मत करवाया करो।’ छोरी की आँखें लाल हो गई।
सत्तो समझ गई थी। वो तो रोजाना ही सुनती आई है। होश संभालते ही उसने बहुत कुछ सुना था, झेला था।
‘बेटी। मैं तेरी माँ हूँ। मेरी बात और है। पर मैं तेरा अपमान सहन नहीं कर सकती। मैं भी नहीं चाहती कि मेरे बाद तू ये काम करे। वो तो मेरी तबियत खराब है। नहीं तो मैं तूझे न भेजती। मैं ही जाती। पर, जरा सोच। अगर हम काम न करें तो क्या करें। हमारी गुजर-बसर कैसे होगी। हाँ, तू पढ़-लिख। कुछ बनके दिखा। ताकि कल ये लोग कहें कि औलाद हो तो सत्तो जैसी।’
‘माँ। मैं तेरा सपना जरूर पूरा करूंगी। मुझे तो एक दिन तेरी देहरी छोड़नी ही पड़ेगी। मेरे कुछ बन जाने से क्या होगा। क्या तेरी दशा बदल जाएगी। मेरी जैसी हजारों हैं। जिनकी माँ के साथ वही होता है जो तेरे साथ रोज होता है। ’छोरी ने सत्तो के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
‘मेरी बेटी। जहां चाह, वहां राह। एक दिन में सब कुछ नहीं बदलता। समय लगता है। हमारे खानदान में किसी ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। पर तू है कि कॉलेज जा रही है। क्या यह बदलाव नहीं है। सुन। दिल छोटा नहीं करते। याद रख। कभी किसी का अपमान मत करना। भलाई करते रहना। कभी मत चूकना।’
दोनों गले मिले और रोते रहे। इस बार बेटी ने माँ के आंसू पोछे।
समय गुजरता गया। छोरी ने दिन-रात एक कर दिए। मेहनत रंग लाई। छोरी बैंक मैनेजर हो गई। बेटी ने माँ के हाथ से झाड़ू छुड़वाया। समाज ने वही किया। जैसा वह करता है। सबने सत्तो को बधाई दी। छोरी एकदम माया के नाम से पुकारी जाने लगी। माया को अपनी माँ के वचन याद थे। वह सबकी मदद करती। सब उसका गुणगान करते।
एक दिन की बात है। वह ऑफिस में बैठी हुई थी। चपरासी ने बताया कि आपके गांव से कोई ठकुराईन आई है। माया उठी। दरवाजे पर गई। गांव की ठकुराईन ही थी।ठकुराईन सफेद साड़ी पहने हुए थी। माथे पर सिंदूर न था। हाथों में हरी चूड़िया भी न थी। माया आदर के साथ ठकुराईन को अपने ऑफिस में ले गई। माया ने आदर के साथ पानी का गिलास ठकुराईन को दिया। ठकुराईन ने बिना झिझक के पानी पी लिया।
‘हाँ। ताई। अब बोलो। कैसे आना हुआ।’
‘माया। तेरे ठाकुर ताऊ नहीं रहे। बैंक में उनके नाम से रुपया है। मैं अकेली जान। रुपये मिल जाते, तो मैं बाकि की रस्में सम्मान से निपटा देती।’
‘ताई। तुम फिकर मत करो। मैं सब कर दूंगी। मैं सारे कागज बनवा दूंगी। तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अगर मुझे किसी जानकारी की जरूरत पड़ती है तो मैं खुद आपके पास आ जाऊंगी। आप बाकि के काम निपटाओ।’
माया ठकुराईन को बाहर तक छोड़ने आई। ठकुराईन का बैंक का सारा काम निपट गया। ठकुराईन को ठाकुर की तेरहवीं करवाने में कठिनाई न हुई। मेहमानों-रिश्तेदारों और गांववालों ने एक ही बात सुनी। ठकुराईन ने सबसे कहा, ‘आप सब मेरे हैं। पर मैं माया की हूं। माया इस गांव की बेटी है। हम सबकी बेटी है।’
माया तेरहवीं में देर से पंहुची। ऑफिस का काम जो था। रिश्तेदार आ-जा रहे थे। माया ने ठकुराईन को नमस्ते की।
ठकुराईन नाराज होते हुए बोली, ‘सुन री माया। तू अफसर बैंक में होगी। यहां तो तू सबकी छोरी है। सुबह से मैंने एक घूंट पानी भी नहीं पिया। ये तेरी माँ। सत्तो। ये भी भूखी है। सारे मेहमान जा चुके हैं। चल अंदर चल। कुछ खा ले।’ यह कहकर ठकुराईन सत्तो और छोरी को अपने घर में ले जाने लगी।
सत्तो ठिठक गई। ठकुराईन के घर में घुसने को जैसे पैर तैयार न हो रहे हों।
ठकुराईन ने भांप लिया। सत्तो से कहा, ‘क्यों री। तू इतनी बड़ी हो गई। चल अंदर चल। मैं ही नहीं समझ पाई थी। तुझमें और मुझमें अंतर क्या है।’ ठकुराईन ने सत्तो का हाथ पकड़ लिया। माया आगे-आगे चल रही थी।
‘अरे। वहां नहीं, यहां रसोई में चल। पहले मुझे और अपनी माँ को परोस। तू बाद में खाना।’ ठकुराईन की आवाज भर्रा गई।
खाना और खिलाना तो बहुत बाद में हुआ। लोगों ने देखा कि छोरी, सत्तो और ठकुराईन तीनों रो रहे हैं। कुछ समझ ही नहीं पाये, कि आखिर हो क्या रहा है। जो समझे, उन्होंने तीनों को संभाला।
रसोई में बिठाया और खाना खिलाया। ठाकुर की तेरहवीं ने गांव में बदलाव के बीज बो दिए।