बदलाहट / राजनारायण बोहरे
ट्रेन ठीक ग्यारह बजे आती थी।
फटेहाल देहाती से दिखते मजबूत लोगों के एक जत्थे ने स्टेशन पर प्रवेश किया। इसके पांचेक मिनिट बाद दूसरा जत्था भीतर आया, फिर रेला-सा लग गया। दस मिनिट में ही दर्जनों जत्थे और उनमें शामिल हजारों लोगों से प्लेटफार्म ठसाठस भर गया और यहाँ से वहाँ तक सिर ही सिर दिखाई देने लगे। वे लोग अपने एक नेता के आदेश पर सक्रिय थे, उनका वह नेता युवा था और इस वक्त गहरी नीली शर्ट पहने था। एक-एक करके वे सब जमीन पर अपना गमछा बिछा के बैठने लगे तो अब तक सूना पड़ा प्लेटफॉर्म उनकी चख-चख से थरथरा उठा। मैंने दो घण्टे की बोरियत के बाद अनुभव किया कि उस मुर्दा जमीन पर प्राण लौटने लगे थे।
भीड़ बढ़ती जा रही थी और उधर जाने क्यों ट्रेन भी लगातार लेट होती जा रही थी। इस अनुपात में हम लोगों का धैर्य भी जवाब देने लगा था। इतने लोग जायेंगे, कैसे?
वर्मा साहब ने मुझे कोहनी मारी-"ये ही लोग तो ठहरे थे, पिछले तीन दिनांे से यहाँ के परेड मैदान में।"
"हाँ, ऐसा ही लगता है।"
"तुमने पढ़ा नहीं? इनके सीने पर टंके बिल्लों पर साफ-साफ तो लिखा है-" शोशित मेला 15, 16, 17 जनवरी। "
राय साहब का कहना सच था। कुछ लोगों के सीने पर बिल्ले लगे थे, तो कुछ के सीने पर अपने मार्गदर्शकों के फोटो चस्पा थे। ज्यादातर लोग झण्डा भी लिए थे।
पिछले दो दिन से 'अन्त्योदय समाज सेवा संघ' का हमारा प्रांतीय सम्मेलन भी इसी कस्बे मंे चल रहा था और प्रदेश के कोने-कोने से गाँधी-दर्शन के हम लगभग दो सौ लोग यहाँ जमा हुए थे। परसों राय साहब दोपहर शहर घूमने निकले तो प्रसन्न मन से सांझ ढले लौटे थे। उन्हीं ने बताया कि शहर में एक शोशित मेला चल रहा है और वे अभी वहीं से लौटे हैं। मेेला भी ग्रामीण चौपाल की तरह था उनका, न कोई कायदा-कानून, न कोई पाबंदी; जिसे जो सुनाना है सुनाये, दिखाये। ग्रामीण हाट थी वह एक प्रकार से। पूरा जनवादी माहौल।
...मैं चौंका। गाड़ी आकर खड़ी हो गई, लोग उतरने लगे थे। हम लपके. एस-एट में रिजर्वेशन था।
स्टेशन पर सुस्ता रहे रैली से लौटे लोगों मंे से एक ने अपनी पोटली पर पीठ टिकाई और हथेलियों पर गरदन साधे-साधे ही इशारे से पूछा-ये गाड़ी किस तरफ जायेगी? तो वहाँ से निकलता एक रेल कुली बोला था-ये भी ग्वालियर की तरफ जायेगी।
यकायक नीली शर्ट वाला चीखा-"इसी में चढ़ो सब लोग।"
मैंने देखा कि अजगर-सा लेटा भीड़ का सैलाब अंगड़ाई लेकर उठने लगा। फिर वह टिड्डी दल की तरह ट्रेन पर टूट पड़ा। जिस बोगी में हमारा रिजर्वेशन था उसमें भी बेशुमार लोग ठंस चुके थे। हमने उनके बीच से ही अपना रास्ता बनाया।
एक अजीब-सी बदबू भरी महसूस हो रही थी पूरे डिब्बे में, हमने अनुभव किया कि यह पसीने की बू है। तमाम तरह के पसीने की बू से गमकते उन लोगों के बीच निकलने की जगह बना के चढ़ते हम लोगों का अभिजात मन एकाएक सजग हो गया था। "हटो-हटो, जगह दो यह रिजर्व डिब्बा है, कहाँ चढ़े चले आ रहे हो?"
गाड़ी चल पड़ी तो हम अपने बर्थ ढूंढने लगे।
हर डिब्बे में जहाँ जगह मिली, वे जम चुके थे। हमारी रिजर्व सीटों पर भी कुछ लोग बड़ी निश्चितता से जमे हुए. वर्मा जी ने चुटकी बजाकर उनसे कहा "सुनो भाई, ये 33 से 37 नम्बर की सीट हम लोगों के लिए रिजर्व है। चलो उठो यहाँ से।"
"बाबूजी, ज़रा तमीज से ... हम मुफ्त में नहीं बैठे हैं।" नीले रंग की कमीज पतलून वाले लड़के ने लगभग घुड़कते हुए वर्माजी को टोका था-"तुम्हारे पास पैसा था सो तुमने रिजर्वेसन करा लिया, हम पर नहीं था सो नहीं करा सके. तो क्या हमको अपने देश में आने जाने का भी हक छीन लोगे आप लोग? टिकट लिया है तो बैठने की जगह तो मिलना चाहिए न हमें!" मैने सहम कर आसपास देखा तो मन ही मन दहल उठा। वहाँ वे ही वे थे। पूरी गाड़ी का यही हाल था। कई डिब्बों से तो मारपीट और गाली-गलौच की भी आवाज आ रही थी।
और वह निलहा नेता हमे डांटता हुआ संभवतः आगे भी कुछ बोलता कि एक गीत की आवाज ने सबको अपनी ओर आकर्शित कर लिया था। पन्द्रह-सोलह साल का एक किशोर कान पर हाथ रखके लम्बी टेर लेकर एक लोकगीत गा उठा था-
भैया रे...दादा रे...हो ऽ-ऽ ऽ ऽ
कल होगी हमारी सरकार
के बमना पानी भरे
बमना पानी भरे हो मेरे यार
के बनिया...
के लाला पानी भरे।
हम लोगों को सुर-ताल में बहुत मजा आया तो ध्यान से सुनने लगे। मजा राय साहब को खूब आया क्योंकि यह उनकी पसंद की चीज थी। वे इंटर कॉलेज में संगीत के ही टीचर हैं और हर संगीत-टीचर की तरह सब जगह सुर-ताल को खोजते फिरते हैं।
...चंूकि हम लोग ने तय कर लिया था कि अब इन लोगों से ज़्यादा बहस-मुबाहिसा नहीं करना है, समय काटना है; सो हम चुप खड़े रहे लगातार। गीत की भी तारीफ नहीं की।
अंधेरा घिर चुका था, पर गाड़ी की लाइट नहीं जली थी। देखा तो सारे बल्ब ही गायब थे।
रात बारह बजे बड़ा जंक्शन आया, तो हम लोग उतर गये। स्टेशन पर उजाला था।
शायद ट्रेन बदलने के खयाल से बहुत से लोग वहाँ उतर रहे थे। उन रैली वालों में से भी तमाम लोग यहाँ उतरे। हमने तो तय किया था कि चाहे पैसेन्जर से ही क्यों न जाना पड़े, पर आगे अब इस गाड़ी से यात्रा नहीं करेंगे और यातना नहीं सह पायेंगें इस तरह।
मगर रैली के कई लोग गाड़ी में से उतर गये थे, इस कारण डिब्बों में गुंजायस दिखी सो हम दुबारा उसी गाड़ी में चढ़ आये। थोड़ी-सी टोका टोकी के बाद किसी तरह हम लोगों को दरवाजे के पास टॉयलेट के सामने खड़े होने को जगह मिल सकी तो हम वहीं जम गये। कुछ देर बदबू लगी फिर नाक अभ्यस्त हो गई.
दुबारा ट्रेन चली और दस मिनिट बाद एक छोटे स्टेशन पर जाकर रूक गयी। यकायक मैं चौका। 'भक्क' से तमाम लाइटें एक साथ जलीं और अंधेरे में डूबे, उस ऊँघते से स्टेशन पर प्रकाश हो गया। इसी के साथ हमने पाया था कि पूरी ट्रेन काले कोट वाले कई टिकट निरीक्षकों और पुलिसियों ने घेर रखी है। मुझे थोड़ी दहशत-सी हुई. जबकि वर्मा मुस्करा रहा था।
टिकट परीक्षकों का झुण्ड अपने काम में जुटा तो रैली की भीड़ में अफरा-तफरी मच गई. लोगों ने नीली शर्ट वाले को घेर लिया।
एक प्रौढ़ व्यक्ति चैकिंग के आसन्न खतरे को भांपकर थोड़े खुशामदी लहजे में बोला "अब तो बता दें परमेसुरे, कै बिन ते कहा कहेंगे हम, जब वे टिकट माँगेगें।"
"मैं क्या जानूं" नेता एकदम निरपेक्ष होकर बोला तो, दांत पीसता हुआ वह प्रौढ़ व्यक्ति उस नीली शर्ट वाले पर चढ़ ही बैठा-"तो को जानेगो सारे?"
उसका गरेबान पकड़ कर उस प्रोैढ़ ने उसे उठाया और एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया। फिर क्या था कई लोग एक साथ उठे और नीली शर्ट वाले युवक पर अपने हाथ आजमाने लगे। इस बीच पता लगा कि कई टी.सी. चढ़ रहे हैं। सीटों पर जमे बैठे लोग घबराये से उठे और थैले उठाकर दरवाजे की ओर खिसकने लगे। उस पार सन्नाटा था। वे लोग ट्रेन से नीचे कूदे ओर बगल वाली पटरी पर दौड़ लगा दी। डिब्बे में प्रवेश कर चुके टी.सी और पुलिस वाले भी उनके पीछे झपटे तो 'छुपा-छुपैया' खेल का मजा आने लगा।
चार घण्टा बीतने के बाद पता चला, कुल दो सौ सत्तर लोगों ने जुर्माना भरा है। जबकि दो हजार से ज़्यादा लोग गिरफ्तार हुए थे। बाकी एक-डेढ़ हजार लोग टिकिटधारी थे और पांचेक सौ लोग पटरी पर कूद के भाग निकले थे।
उस स्टेशन से सुबह सात बजे जब ट्रेन चलने लगी तो एक टी.सी. हमारे डिब्बे में चढ़ा। उसे अपना रिजर्वेशन दिखाके हमने अपनी बर्थ पर कब्जा लिया और लेट गये। इस समूचे घटनाक्रम से राय साहब उदास से थे, जबकि मैं अपने मस्तिश्क में एक सूनापन-सा महसूस कर रहा था। खिड़की से झांका तो मेरा मन रो पड़ा। स्टेशन पर पुलिस की हिरासत में यहाँ से वहाँ तक घिरे असहाय से खड़े हजारों अबोध लोग टृकर टुकर जाती हुई ट्रेन को देख रहे थे।
मैंने राय साहब से कहा "राय साहब आप बहुत दुखी है। सचमुच रैली वाले लोगों के साथ बहुत बुरा हुआ।" शर्मा बोला-"काहे का बुरा, अच्छा हुआँखूब पिटे साले!"
"दरअसल भीड़ का कोई विवेक नहीं होता, कल उनने अपने साथ नासमझी में अत्याचार किया। किसी भी दल की भीड़ हो यही होता है। क्योंकि भीड़ तो अंधी और पागल होती है। जो भी इसका उपयोग कर लेता है वही ताकत दिखा के लाभ उठा लेता है इसका। कल दूसरे लोग इन सबका यूज कर रहे थे आज उन्ही के लोग कर रहे हैं।" राय साहब इतना कह कर सांस लेने के रूके फिर बोले-" देखो शर्मा ये जो हरकतें है, ये इस वर्ग की तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है भाई. इनके पीछे लम्बा इतिहास है, ये तो दो वर्गों का संघर्श है विचारधाराओं की लड़ाई है। कल उन्होेंने जो कुछ किया दूसरों के बहकावे में किया। वैसे ये लोग बड़े भोले है।
हमारे कस्बे मेें गाड़ी दोपहर बारह बजे पहुँची। हम लोग थके से नीचे उतरे। रेलवे टी स्टाल पर चाय पीते हमने देखा कि ट्रेन में से लगभग एक सैकड़ा रैली वाले लोग भी उतरे हैं। हम सब गद्गद भाव से उन सबको देख रहे थे और वे सब अपने में ही मगन थे। अचानक उनमें से किसी ने एक नारा उछाल दिया-"हर जोर जुलुम की टक्कर में!"
"संघर्श हमारा नारा है।" दूसरे लोगों ने नारे को पूरा किया।
वे लोग स्टेशन से बस्ती की तरफ बढ़ चले थे। राय साहब ने इशारा किया तो हम लोग भी पांव पैदल ही उनके जत्थे के पीछे चल पड़े।
एकता, जागृति और संघर्श के खिलाफ ताल ठोंकने वाले उनके नारों को हम सब भी मन ही मन दोहरा रहे थे। हम सब, यानी कि गुप्ता जी भी, मैं भी, अन्य सब भी और यहाँ तक कि कल से उन्हे गालियाँ बक रहा शर्मा भी।
राय साहब पुलकित होते हुए कह रहे थे-"ये सब रक्तबीज बनके लौटे हैं, देखना एक-एक आदमी सौ-सौ लोगों को जन्म देगा।"
हम सब उनसे सहमत थे। बस्ती अब ज़्यादा दूर नहीं थी।