बदले की भावना से उपजा अनर्थ / जयप्रकाश चौकसे

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बदले की भावना से उपजा अनर्थ
प्रकाशन तिथि : XX जुलाई 2007


एक फिल्म पत्रकार द्वारा कथित तौर पर गायक सोनू निगम को धमकी और अश्लील संदेश भेजने का जो प्रकरण सामने आया और आपस में आरोप-प्रत्यारोपों का जो दौर चला, उसे देखकर एक लोककथा याद आती है।

लोककथा कुछ इस तरह की है कि एक महात्मा और शिकारी पड़ोसी थे। अच्छे पड़ोसी होने के नाते दोनों के घरों से वस्तुओं का आदान-प्रदान भी होता रहता था। एक दिन महात्मा ने देखा कि शिकारी उनके घर से आई थाली में गोश्त खा रहा है। यह देखकर उन्हें गुस्सा आ गया और उन्होंने शिकारी मित्र से कहा, ‘कल तुम मेरे घर आकर देखना कि मैं तुम्हारे घर से आई थाली में क्या खाता हूं।’ महात्मा बहुत क्रोध में थे और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि गोश्त से भी गिरी हुई कौन सी चीज खाकर वे अपना बदला पूरा करें। उनकी नजर में गोश्त से ज्यादा निकृष्ट तो केवल मानव अवशिष्ट ही हो सकता था, परंतु सवाल यह भी था कि क्या बदले की भावना से वशीभूत होकर वे अभक्ष्य वस्तु को खा लें?

आखिर में उनका विवेक जाग गया और उन्होंने शिकारी मित्र को अपनी थाली भेंट कर दी। उधर महात्मा के इस संयम से प्रभावित होकर शिकारी ने भी मांस खाना छोड़ दिया। इसका अर्थ यह है कि क्रोध और बदले की भावना आपसे अनर्थ करा सकती है।

गायक सही है या गलत है, पत्रकार निर्दोष है या दोषी, इस पर कोई राय नहीं दी जा सकती, परंतु फिल्म उद्योग में शोषण की बात का इसलिए कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि यहां हर क्षेत्र में शोषण होता है। सारी प्रगति तथा विकास के बावजूद समाज में बलिष्ठ को लाभ और कमजोर को हानि का नियम जारी है।

मुंबई की लोकल ट्रेन में चर्चगेट से बोरीवली तक का सफर तय करती मध्यम वर्ग की लड़की को कितने अनजान लोगों के चाहे-अनचाहे स्पर्श से गुजरना पड़ता होगा। फिल्म उद्योग में आने वाली लड़कियां बहुत चतुर होती हैं। वे जानती हैं कि कहां कितना समझौता कैसे लाभप्रद हो सकता है। कहीं कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है, सारे मामले आपसी सुविधा से सुलझाए जाते हैं। कालेज कैंपस की उच्छृंखलता के मुकाबले स्टूडियो में शोषण कम ही होता है। समलैंगिकता के मामले आजकल प्राय: इस तरह उछाले जाते हैं, मानो यह आज के दौर में जन्मी विकृति है।

आजादी की अलसभोर में ही इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ’ नामक कथा प्रकाशित हुई थी, जिसमें समलैंगिकता की ओर कलात्मक इशारा था। असल में यह विकृति हमेशा से ही समाज में मौजूद थी, परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे अपने लाभ के लिए खूब उछाला, जो स्वयं में भी एक अलग किस्म की विकृति है। सेना और लंबी यात्राओं पर जाने वाले समुद्री जहाजों पर ये विकृतियां सदियों से जारी हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अकेलापन विकृतियों को जन्म दे सकता है। भारत में इस समय सेक्स शिक्षा को भी विवादास्पद बना दिया गया है, जबकि यह आवश्यक है। टेलीविजन पर प्रस्तुत भयावह तमाशे के दुष्परिणामों से युवा वर्ग को बचाने के लिए शायद यह जरूरी भी है। किसी भी क्षेत्र में ज्ञान को पैर पसारने से कैसे रोका जा सकता है।

विकृतियों को कैसे और कितना उजागर किया जाए, यह मीडिया को स्वयं ही तय करना है। इससे भी ज्यादा आवश्यक यह है कि अवाम खुद यह तय करे कि उसे क्या और कितना देखना है। सच्ची समानता और निर्भीक स्वतंत्रता के अभाव में शोषण के दायरे फैल जाते हैं।