बदले के हवन में झुलसते हाथ / जयप्रकाश चौकसे

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बदले के हवन में झुलसते हाथ
प्रकाशन तिथि :31 मई 2017


राघवन की वरुण धवन अभिनीत फिल्म 'बदलापुर' के भाग दो की योजना पर काम चल रहा है परंतु इस बार इसे नायिका केंद्रित फिल्म की तरह बनाया जाएगा और दीपिका पादुकोण को लेने पर विचार किया जा रहा है। प्रेम कहानियों से अधिक बदले की भावना पर फिल्में बनाई गई हैं, क्योंकि इसमें मारधाड़ के दृश्यों का समावेश आसानी से किया जा सकता है। हिंदुस्तानी भोजन की थाली की तरह हमारे मनोरंजन में भी दाल, सब्जी, कढ़ी, पापड़, अचार इत्यादि की तरह विविध भाव मौजूद होते हैं। हमारी हॉरर फिल्मों में भी आधा दर्जन गीत होते हैं। प्रारंभिक दौर की फिल्म 'इंद्रसभा' में 71 गीत थे। प्राय: गीतों में कुछ पंक्तियों का इको भी होता है और लगता है पहाड़ों से टकराकर ध्वनियां वापस आ रही है जैसे महल का गीत 'आएगा आने वाला' या 'बीस साल बाद का 'कहीं दीप जले कहीं दिल' या 'मधुमति' का गीत 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जरा-सी' गीत के मुखड़े की तरह चीजें दोहराई जाती हैं। पार्श्व संगीत के कारण खामोशी के विरल क्षण ही फिल्मों में होते हैं।

बदले का भाव इतना प्रबल होता है कि वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है चाहे उसमें वंश ही नष्ट हो जाए। विरासत में चल-अचल संपत्ति मिले या नहीं मिले परंतु बदला लेने का वचन लिया जाता है और रघुवंश की रीत की तरह वचन का पालन करने के प्रयास होते हैं। हमारे महाकाव्य मात्र गीत रह जाते अगर उनमें वरदान और श्राप का समावेश नहीं होता। वरदान और श्राप कथा को रोचक भी बना देते हैं। हम कथा की रोचकता में डूबकर उन आदर्शों को भूल जाते हैं, जिन्हें रोचक बनाने के लिए उनका समावेश किया गया है। बदले के भाव के आते ही अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होता है। साथ ही बहुत कुछ त्याग करने का जज़्बा भी पैदा होता है। साथ ही आंख पर पट्‌टी भी बंध जाती है। सही या गलत में फर्क करना भूल जाते हैं।

चंबल में डाकुओं के उदय का मूल कारण तो अन्याय व असमानता था परंतु बदले की भावना ने भी कई लोगों को मजबूर किया कि बीहड़ में समा जाएं। हमारे चम्बल की तरह ही यूरोप में सिसली है,जहां के निवासी अवसर की तलाश में अमेरिका गए परंतु उनका अमेरिकी स्वप्न भंग हुआ तो वे संगठित अपराध से जुड़ गए। अवसरों के अमेरिकी स्वप्न की तरह ही एशिया में दुबई स्वप्न का उदय हुआ। भारत और पाकिस्तान से अनेक लोग दुबई पहुंचे। गौरतलब है कि भारत व पाकिस्तान के लोग अन्य देशों में बसते हैं तो वहां वे भाईचारे से रहते हैं और दु:ख-दर्द बांटते हैं। राजनीतिक स्वार्थ सरहदों को दरकाए रखते हैं और सारी नफलत गढ़ी गई है। इस तरह सरहदों के पास और परे एक 'बदलापुर' गढ़ दिया गया है।

नायक प्रधान 'बदलापुर' के भाग दो को नायिका प्रधान आकल्पित किया जा रहा है। इस तरह 'गन' के साथ 'ग्लैमर' को जोड़ा जा रहा है और एक घातक कॉकटेल बाने का प्रयास किया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि चौथे दशक में शांताराम की फिल्म 'जीवन ज्योति' में एक पत्नी अपने पति द्वारा की गई हिंसा के खिलाफ मुकदमा कायम करती है परंतु जज उसे न्याय नहीं देते वरन कहते हैं कि पति को यह हक हासिल है। वह स्त्री अपने समान अन्याय भुगत रहीं महिलाओं का एक दल गठित करती है, जो इस तरह के पतियों को दंडित करता है। उसने अपने साथ हुए अन्याय के प्रतिकार को बड़ा स्वरूप दे दिया है। 'जंजीर' के बाद आक्रोश की फिल्में सुर्खियों में रहीं परंतु वे व्यक्तिगत बदले की फिल्में थीं तथा सामाजिक आक्रोश से उनका कोई संबंध नहीं था। ओम पुरी अभिनीत 'अर्धसत्य' सामाजिक आक्रोश की पहली फिल्म है। फिल्म पत्रकारिता ने इस तरह के अनेक जुल्म ढहाए हैं। इस क्षेत्र में प्रवेश के लिए फिल्म आस्वाद का विधिवत अध्ययन नहीं समझा गया। फिल्म समालोचना के नाम पर उसका कथासार प्रस्तुत किया जाता है, अच्छी लोकेशन को श्रेष्ठ छायांकन माना जाता है।

बदले का जज़्बा विचित्र होता है। एक बार एक राजपूत और वामन पड़ोसी मित्र थे। उनके परिवारों में बरतनों का आदान-प्रदान भी होता था। एक दिन बामन ने देखा कि उसके घर के बरतन में उसका राजपूत मित्र गोश्त खा रहा है। उसने कहा कि कल वह इसका बदला लेगा। वह अपने साथ राजपूत का बरतन ले गया। उसने सोच-विचार किया और उसके दृष्टिकोण में गोश्त से बदतर केवल मल हो सकता था। बदले की भावना सेसंचालित उस व्यक्ति ने मल खा लिया। सारांश यह कि यह भावना अत्यंत घातक हो सकती है।